एंटोमोलॉजी पर निबंध | Essay on Entomology in Hindi!
1. कीट विज्ञान का अर्थ (Meaning and Branches of Entomology):
कीट विज्ञान, जन्तु विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत कीटों के विभिन्न पहलुओं जैसे कीट विकास, संरचना, वर्गीकरण, जीवन-चक्र, स्वभाव आदि का अध्ययन किया जाता है ।
सम्पूर्ण प्राणी जगत में कीटों की लगभग 12 लाख जातियाँ पायी जाती हैं ।
कीटों के इस विस्तृत संसार का व्यवस्थित अध्ययन करने के उद्देश्य से कीट विज्ञान को कई शाखाओं में बाँट सकते हैं जो निम्नलिखित हैं:
ADVERTISEMENTS:
i. कीट आकारिकी (Insect Morphology):
कीट विज्ञान की इस शाखा के अन्तर्गत कीट की शारीरिक संरचना का अध्ययन किया जाता है इसे बाहरी व आन्तरिक आकारिकी उपभागों में विभक्त किया गया है ।
ii. कीट कार्यिकी (Insect Physiology):
इस विज्ञान के अन्तर्गत कीट शरीर के विविध अंगों, ऊतकों तथा कोशिकाओं की कार्यप्रणालीयों का विस्तार से अध्ययन किया जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
iii. कीट वर्गिकी (Insect Taxonomy):
कीट विज्ञान की इस शाखा के अन्तर्गत कीटों को उनके शारीरिक लक्षणों के आधार पर विभिन्न गणों व कुटुम्बों में विभाजित कर उनका नामांकरण किया जाता है जो कि कीटों की पहचान में सहायक होता है ।
iv. कीट पारिस्थितिकी (Insect Ecology):
कीट विज्ञान की इस शाखा के अन्तर्गत कीट व बाहरी वातावरण के मध्य संबंध का अध्ययन किया जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
v. आर्थिक कीट विज्ञान (Economic Entomology):
कीट विज्ञान की इस शाखा के अन्तर्गत केवल उन कीटों का अध्ययन किया जाता है जो मानव के लिये आर्थिक दृष्टि से लाभदायक या हानिकारक होते हैं ।
2. भारत में कीट विज्ञान का इतिहास (History of Entomology in India):
कीटों के बारे में हमारी जानकारी 6000 वर्ष पहले की है जब हमारे पूर्वज रेशम कीट को पालने व उससे रेशम प्राप्त करने की कला में पूर्ण निपुण थे । लगभग 3600 ई.पू. भारत के एक राजा ने फारस के शाह को उपहारस्वरूप रेशम से बनी अनेक वस्तुएँ कपड़े भेजे थे ।
हमारे धार्मिक ग्रन्थों में कीटों के बारे में काफी कुछ कहा व लिखा गया है । रामायण (2550-2150 ई.पू.) व महाभारत (1424-1366 ई.पू.) में शहद, लाख व रेशम के बारे में अनेकों बातें लिखी गयी हैं । कीटों का सर्वप्रथम सही तरीके से वर्गीकरण उमास्वामी (0-100 ई.) द्वारा किया गया था ।
भारतीय चिकित्सक चरक (1200-1000 ई.पू.) ने मधुमक्खियों व शल्य चिकित्सक सुश्रुत (100-200 ई.पू.) ने चीटियों, मक्खियों व मच्छरों का सही व सटीक वर्णन किया था । ये सभी तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत में कीटों की जानकारी व उनके उपयोग व आर्थिक महत्व की जानकारी प्राचीन काल से थी ।
आधुनिक भारत में कीट विज्ञान ने 16वीं सदी में प्राकृतिक विज्ञान के इतिहास को दो शीर्षकों में परिभाषित किया गया है जो निम्नलिखित हैं:
1. प्रारम्भिक ईसाई मिशनरी व ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना के समय अनेक कीट विज्ञानिकों का योगदान । ये कीट विज्ञानी सेना, वन सेवा, चिकित्सा सेवा व भारतीय सिविल सेवा में कार्यरत अधिकारी थे ।
2. सन् 1900-1950 तक भारत में कीट विज्ञान का विकास ।
1758 – भारत में आधुनिक कीट विज्ञान की शुरुआत इसी साल में हुई । इस समय कैरोलस लिनियस की पुस्तक सिस्टेमा नेचुरी का 10वाँ अंक प्रकाशित हुआ । जे.सी. फेबरीसियस ऐसा पहला कीट वैज्ञानिक था जिन्होंने भारतीय कीटों का सघन अध्ययन किया था । वो डच प्रोफेसर थे जिन्होंने मुखांगों के आधार पर 13 गणों में कीटों को वर्गीकृत किया था ।
1767-1779 – जे.जी. कोनेन्जी ये डेनमार्क के चिकित्सा अधिकारी थे तथा कार्ल लिनियस के छात्र व फेबरीसियस के मित्र थे । इन्होंने 18वीं शताब्दी में पहली बार कोरमण्डल क्षेत्र व दक्षिणी पेनीसुला भाग से अनेकों कीटों के नमूनों का संकलन किया इनमें से कइयों का प्रोफेसर लिनियस द्वारा नामकरण किया गया ।
इन्होंने तमिलनाडु के तंजावूर जिले में पायी जाने वाली दीमक का अध्ययन कर उस पर पत्रों का प्रकाशन भी किया था । फेबरीसियस ने कोनेन्त्री का नाम सदा के लिये अमर कर दिया जब उन्होंने कपास के एक मुख्य नाशीकीट लाल मृत्कुण का नाम कोनेन्त्री से जोड़ दिया तथा उसका नामांकरण डिसडरकस कोनेन्जी किया ।
1782 – डॉ. कैर ने लाख के कीट पर रिपोर्ट प्रकाशित की ।
1785 – बंगाल एशियाटिक सोसायटी की कलकत्ता में शुरुआत हुई ।
1791 – डॉ. जे एण्डरसन ने कोचिनीयल शल्क कीटों पर मोनोग्राफ प्रकाशित किया ।
1799 – डॉ. हार्सफील्ड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ”ए केटलाग ऑफ दी लेपिडोप्टेरस इनसेक्ट इन दी म्यूजीयम ऑफ दी हानरेबल ईस्ट इंडिया कम्पनी” प्रकाशित की ।
1800 – बुचानेन ने भारत में लाख की खेती व दक्षिणी भारत में रेशम कीट पालन के बारे में लिखा ।
1800 – एडवर्ड डेनेरवान ने चित्रित पुस्तक का प्रकाशन किया जिसमें भारत व आसपास के द्वीपों के कीटों का सचित्र वर्णन किया गया था ।
1875 – कलकत्ता में इंडियन म्यूजीयम की नींव रखी गयी ।
1883 – बोम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी की शुरुआत हुई ।
1883 – ”फोना ऑफ ब्रिटिश इंडिया” का प्रकाशन डब्ल्यू.टी. ब्लेन्डफोर्ड के संपादन में शुरू किया गया ।
1893 – रोटने ने भारतीय चिटियों के बारें में लिखा इसमें दीमक नियंत्रण में लाल चिटियों का उपयोग बताया गया (भारत में पहला जैविक नियंत्रण का रिकार्ड) ।
1901 – लाइनेल डी नेक्वेल भारत सरकार के पहले कीट वैज्ञानिक नियुक्त किये गये ।
1903 – प्रोफेसर मैक्सवेल लिफ्रोई भारत सरकार के कीट वैज्ञानिक नियुक्त किये गये ।
1905 – पूसा, बिहार में इम्पीरीयल एग्रीकल्चरल रिसर्च इन्स्टीट्यूट की स्थापना की गयी तथा प्रो. लिफ्रोई पहले इम्पीरीकल एन्टेमोलोजिस्ट नियुक्त हुए । इन्होंने यहां पर देश के विभिन्न कीट वैज्ञानिकों को एकजुट करने के लिये अनेक गोष्ठियाँ आयोजित करायीं ।
1906 – प्रो. लिफोई द्वारा ”इंडियन इन्सेक्ट पेस्ट” का प्रकाशन किया गया ।
1909 – प्रो. लिफोई द्वारा ”इंडियन इन्सेक्ट लाईफ” का प्रकाशन किया गया ।
इसी काल में विभिन्न राज्य सरकारों ने भी कीट विज्ञान की दिशा में अपने स्तर पर काम करना आरम्भ किया । मद्रास, पंजाब व उत्तर प्रदेश राज्य सरकारों ने राज्य स्तरीय कीट वैज्ञानिकों की क्रमशः सन् 1912, 1919 व 1922 में नियुक्तियाँ कीं ।
1912 – पौध सरोधन धारायें लागू की गई ।
1914 – विध्वंसकारी कीट व पीडक एक्ट लागू किया गया ।
1914 – टी.बी. फ्लेचर, मद्रास राज्य के कीट वैज्ञानिक ने अपने कार्यों को ”सम साऊथ इंडियन इंन्सेक्टस” के रूप में प्रकाशित किया ।
1916 – इम्पीरिकल फोरेस्ट रिसर्च इन्स्टीट्यूट, देहरादून में स्थापित किया गया ।
1921 – इंडियन सेंट्रल कोटन कमेटी की स्थापना हुई जिसने कपास की फसल के हानिकारक कीटों पर अनुसंधान आरम्भ किया ।
1925 – भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान की स्थापना रांची में हुई तथा यहां पर लाख कीट पर अनुसंधान शुरू किये गये ।
1929 – भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् की स्थापना नई दिल्ली में की गयी ।
1934 – हेम सिंह प्रुथी, फ्लेचर के स्थान पर इम्पीरीकल एन्टोमोलीजिस्ट नियुक्त हुए ।
1938 – एन्टोमोलीजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया की नींव रखी गयी । अफजल हुसैन इसके पहले अध्यक्ष बने व हेम सिंह प्रुथी व रामकृष्ण अय्यर उपाध्यक्ष बने ।
1939 – टिड्डी चेतावनी संगठन की स्थापना की गयी ।
1940 – डॉ. टी. वी. रामकृष्ण अय्यर ने पुस्तक ”हेण्डबुक ऑफ इकानोमिक एन्टोमोलोजी फॉर साऊथ इंडिया” प्रकाशित की ।
1946 – भारत सरकार ने पौध सुरक्षा, संशोधन व संग्रहण निदेशालय की शुरुआत की ।
इस प्रकार भारतवर्ष में कीट विज्ञान ने धीरे-धीरे प्रगति की ।
3. कीटों की सारंचना (Structure of Insects):
कीट समस्त स्थानों पर बहुतायात से पाये जाते हैं ये समस्त ऊष्ण कटिबन्ध में पाये जाते हैं इसके अलावा कीट उन कुछ चुनिन्दा जन्तुओं में शामिल है जो कि दक्षिणी ध्रुव में भी मिलते हैं । जलीय कीट बडी-बड़ी नदियों, झीलों, पानी के गर्म स्रोतों में निवास करते हैं ।
कीट, आर्थ्रोपोड प्राणियों में विकास के उच्चतम शिखर का प्रतिनिधित्व करते हैं कीटों की प्राणिजगत में इस महान सफलता के कई कारण हैं जिनके बारे में संक्षेप में जानकारी दी जा रही है:
A. बाह्यकंकाल (Exoskeleton):
कीटों का बाह्यकंकाल काइटिन से बना होता है कीटों को इससे निम्नलिखित लाभ होते हैं:
(I) यह आन्तरिक पेशियों के जुड़ने के लिये अधिक सतह प्रदान करता है ।
(i) एन्टीनी या श्रृंगिका
(ii) नेत्र
(iii) नेत्रक
(iv) अग्र पंख
(v) पश्च पंख
(vi) पश्च पाँव
(vii) ससोई
(viii) उदर
(ix) मध्य पंख
(x) वक्ष
(xi) अग्र पाँव
(xii) सिर
(II) यह वाष्पीकरण को रोकने की क्षमता प्रदान करता है तथा छोटे कीटों के लिये यह विशेष उपलब्धि तथा विशेषता है ।
(III) शरीर के महत्वपूर्ण अंगों की बाह्य कारकों से रक्षा करता है ।
(IV) यह शरीर को बाह्य वातावरण के प्रभावों को सहन करने की क्षमता प्रदान करता है तथा निर्जलीकरण से होने वाली क्षति को रोकता है ।
(V) बिना अधिक भार ग्रहण किये कीट को शारीरिक क्षमता प्रदान करता है ।
(VI) यह शरीर को अनेकानेक परिवर्तन की सुविधा प्रदान करता है ।
B. अधिक प्रजनन क्षमता:
कीट अन्य जीवों की अपेक्षा सफल है इसका एक अन्य कारण इनमें प्रजनन की महान क्षमता का होना है । घरेलू मक्खी का एक जोड़ा, जो अप्रैल में सन्तानोत्पत्ति प्रारम्भ करता है अगस्त तक अपनी संख्या से पृथ्वी को 14.3 मीटर (47 फुट) गहरी तह में ढक लेगा ।
टिड्डी के एक दल में अनुमानतः 15000 लाख से ज्यादा टिट्टियां होती हैं भूमिगत कीटों की संख्या एक हैक्टेयर में 2.5-160 करोड़ तक हो सकती है । जब कीट का जीवन काल छोटा होता है तो उसमें बार-बार अण्डे देने की प्रवृत्ति होती है ।
उदाहरण के लिये काटनी कुशन स्केल की मादा 500 से 1400 तक अण्डे देती है ।
एक वर्ष में इस कीट के 4 जीवन चक्र होते हैं । यदि इनमें से 200 ही जीवित रहें तो 4 पीढ़ियों के अन्त तक इनकी अनुमानित संख्या लगभग 160,000,000,000,000 होगी । प्राणी जगत में समस्त प्राणियों में लगभग 70 प्रतिशत प्राणी कीट हैं । कीट जातियाँ जो अब तक वर्णित हो चुकी है लगभग 7 लाख हैं तथा अभी भी 5-6 लाख कीटों की प्रजातियों का वर्णन किया जाना शेष है ।
C. पंखों का पाया जाना:
कीटों में पंखों की उपस्थिति के कारण वे एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़ कर जा सकते हैं तथा ये इन्हें प्रतिकूल स्थिति से बचाती है । साथ ही दूर-दूर स्थानों तक उनके वितरण में सहायक होती है । पंखों के कारण कीटों को भोजन ढूँढने में आसानी होती है । जिससे जीवन की उत्तरजीवितता के अवसरों में बढ़ोतरी हो जाती है ।
कीटों को पंखों के कारण समागमन के लिए साथी ढूंढने में मदद मिलती है फलस्वरूप जनन को विस्तार मिलता है । साथ ही साथ कीटों को शत्रुओं से दूर भागने में मदद मिलती है ।
D. छोटा आकार:
कीटों का आकार अन्य प्राणियों की तुलना में छोटा होता है इस छोटे आकार के कारण कम मात्रा में भोजन की आवश्यकता होती है, छिपने व शत्रुओं से बचने में सुविधा होती है । इसके साथ-साथ शरीर का आकार छोटा होने के कारण शरीर सतह का आयतन बढ़ जाता है फलस्वरूप पानी का वाष्पीकरण कम मात्रा में होता है ।
E. परिस्थिति के अनुसार अनुकूलन:
कीट परिस्थिति के अनुरूप अपने आप को शीघ्रता से दाल लेते हैं । वे प्रायः किसी भी विशेष प्रकार के भोजन पर निर्भर नहीं रहते हैं, यदि एक प्रकार के भोजन की उपलब्धता नहीं होती है तो दूसरे प्रकार के भोजन को ग्रहण कर लेते हैं ।
F. निरन्तरता:
कीट अपने हित अथवा अहित का निर्णय किए बिना ही प्राकृतिक कार्यों को निरन्तर करते रहते हैं । एक बार किसी स्थान विशेष से हटा देने के बाद भी वे उसी स्थान पर आ जाते हैं ।
G. कायान्तरण:
ये कीटों का एक विशिष्ट लक्षण है । इसके अन्तर्गत अण्डे से निकलने वाली दशा वयस्क कीट से बिल्कुल ही भिन्न होती है । इस दशा के स्वरूप में पूर्ण कीट बनने तक कई परिवर्तन होते हैं जिन्हें कायान्तरण कहते हैं । इन दशाओं के तथा पूर्ण कीट के स्वभाव एवं भोजन, आदतों आदि में अन्तर होता है ।
कीटों के आकार (Types of Insects):
1. बड़े कीट:
मेगासोमा एलोफास = 120 मि.मी.
मीरोडोंशिया सवींकोर्मिस = 150 मि.मी.
बेलोस्टोमा ग्राण्डे = 115 मि.मी.
एरिबस एग्रीपीना = 280 मि.मी.
(पंखों के फैलाव के साथ)
ऐटाकस एटलस = 240 मि.मी.
(एक सिरे से दूसरे सिरे तक)
2. छोटे कीट:
कुल टिलीडी के सदस्य = 0.25 मि.मी.
कुल माइमोरिडी के अण्ड परजीवी = 0.25 मि.मी. से भी छोटे
4. कीट विज्ञान का महत्व (Importance of Entomology):
सम्पूर्ण जन्तु जगत में कीटों की संख्या सर्वाधिक है । पृथ्वी पर मनुष्य के जन्म से पूर्व कीटों का पदार्पण होने से इन्होंने पृथ्वी के लगभग प्रत्येक हिस्से पर अपना अधिकार जमा रखा है । जमीन, पानी, वायु, पर्वत, बर्फयुक्त स्थानों, जंगलों, खेतों तथा मानव के आवास स्थलों एवं पशुओं के शरीर इत्यादि तक कीट पाये जाते हैं ।
मानव का विकास व बुद्धि कीटों की आपार क्षमता के सामने बौनी नजर आती है । कीट हमारी फसल, भण्डारित अन्न, खाद्य पदार्थ, इमारती लकड़ी, फर्नीचर, कपड़े कागज, वन, पालतू जानवरों आदि पर आक्रमण करते है । कीट मानव स्वास्थ्य को भी सदैव खतरा उत्पन्न करते हैं । ये विभिन्न प्रकार के रोगों जैसे मलेरिया, डेंगू, हैजा, टाइफाइड, दस्त आदि के कीटाणुओं को फैलाने में सहायक होते हैं ।
इसी प्रकार पालतू पशु पक्षियों में भी कीट अनेकों प्रकार के रोगों को फैलाने में सहायता करते है । कीट कृषि फसलों को नुकसान पहुँचा कर उत्पादन कम कर देते हैं, साथ ही साथ फसलों में विभिन्न विषाणु रोगों का संचार करते हैं ।
कीट जहाँ अनेकों प्रकार से हमारे लिये नुकसानदायक होने है तो कई रूपों में ये फायदेमन्द भी होते हैं जैसे रेशम कीट द्वारा तैयार रेशम के धागे वस्त्र निर्माण में काफी उपयोगी होते हैं इसी तरह लाख के कीटों द्वारा उत्पन्न लाख कई प्रकार से उपयोगी होता है, मधुमक्खी से जहाँ एक ओर बहुउपयोगी शहद मिलता है जो कई रूपों में काम आता है वहीं मधुमक्खियों से परागण क्रिया में भी काफी सहायता मिली है व फसल उत्पादन में काफी बढ़ोतरी होती है ।
इसी प्रकार जैविक नियंत्रण कार्यक्रमों में परजीवी व परभक्षी कीट काफी महत्वपूर्ण होते हैं । कीटों द्वारा मानव को दिये जाने वाले इन सभी लाभों से इनका हमारे लिये काफी अधिक महत्व हो जाता है ।
अतः कीटों के लाभप्रद व हानिप्रद गुण मानव को काफी हद तक प्रभावित करते हैं इसी कारण कीटों का अध्ययन करना हमारे लिये काफी महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है । इस प्रकार का अध्ययन कीट विज्ञान के द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।