संविधान और लोकतंत्र पर निबंध | Essay on Constitution and Democracy in Hindi.
भारत की संविधान सभा ने, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में 9 दिसंबर, 1946 से विचार-विमर्श शुरू कर दिया था और तीन वर्ष से कुछ अधिक समय में भारत के लिए एक नया संविधान
तैयार किया, जिसे 24 जनवरी, 1950 को पारित कर दिया गया ।
यह दावा किया गया, जो उचित भी था, कि संविधान ”एक लोकप्रिय प्रभुसत्ता के सिद्धांत से उपजी कार्यप्रणाली था जिसे उपनिवेशवाद विरोधी क्रांति के दौरान लंबे समय तक चली सामूहिक लामबंदी के दौरान कल्पित और प्रमाणित किया गया था ।”
किंतु उपनिवेशवाद के अंतिम संस्थागत चरण में, इस उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में कांग्रेस की प्रभुसत्ता बनी रही और इसीलिए संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों में कांग्रेस के ऐसे प्रतिनिधि शामिल थे, जो उसी सामाजिक वर्ग के थे, जिस वर्ग से पार्टी के नेता संबंधित थे, अर्थात् प्राथमिक रूप से वे उच्च-जाति के हिंदू जमींदार अथवा पेशेवर (Professionals) थे ।
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एक दलित नेता और एक प्रवीण वकील डॉ॰ बी.आर. अंबेडकर को संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त करके इसे अधिक व्यापक बनाने का प्रयास किया गया । किंतु कुल मिलाकर, संविधान सभा जिसे सर्वसम्मति से निर्धारित किया गया था, में लगभग पूर्ण रूप से कांग्रेस का एकाधिकार रहा, और इसीलिए इसने उन्हीं आदर्शवादी सिद्धांतों को प्रतिबिंबित किया, जिनका कांग्रेस समर्थन करती थी, जैसे राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता ।
संविधान सभा को विशेष रूप से तीन प्रमुख विषयों में अधिक रुचि थी: राष्ट्र की एकता, सामाजिक अभियांत्रिकी (Social Engineering) की आवश्यकता, और विश्व में भारत का विशेष स्थान सुनिश्चित करना । दूसरे शब्दों में, नए संविधान में भारत के लिए निर्धारित किया गया मार्ग प्रमुख रूप से राष्ट्रीय आंदोलन की आदर्शवादी विरासत से लिया गया था जिस पर पिछले तीस वर्ष से अधिक समय से कांग्रेस का आधिपत्य रहा था ।
26 जनवरी, 1950 को नया संविधान लागू हुआ और भारत को एक ”राष्ट्रमंडल लोकतांत्रिक गणतंत्र” घोषित कर दिया गया । किंतु निरंतरता बनाए रखते हुए, भारत की राष्ट्रमंडल की सदस्यता बरकरार रही, क्योंकि लंदन अपने राष्ट्रों के साम्राज्यवादी परिवार में प्रजातांत्रिक भारत की सदस्यता बनाए रखने के लिए अपने नियमों को लचीला बनाने के लिए सहमत हो गया था ।
निरंतरता के अन्य तत्त्व भी थे क्योंकि भारत के संविधान को अधिकतर आंग्ल-अमेरिकी मॉडल पर तैयार किया गया था । इस निरंतरता का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व पिछले उपनिवेशवादी कानूनों पर इसकी निर्भरता थी जिसमें भारत सरकार अधिनियम 1935 भी शामिल था ।
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उपनिवेशी सरकार क्रमिक सुधार अधिनियमों के माध्यम से धीरे-धीरे सीमित स्व-शासन प्रणाली लागू कर रही थी और भारतीयों के एक वर्ग को, इसके नियमों के साथ जोड़ने के लिए उपनिवेशी सरकार ने-1909 का भारत परिषद् अधिनियम (जो मॉर्ले-मिंटो सुधार के नाम से लोकप्रिय है), और 1919 का भारत सरकार अधिनियम (जो मॉण्टेंग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार के नाम से लोकप्रिय है) बनाए थे ।
इन सुधारों में 1935 का अधिनियम सबसे अधिक उदार था, जिसने निर्वाचक वर्ग का विस्तार किया (यद्यपि अभी भी यह उच्च संपत्ति और शैक्षिक अहर्ताओं पर आधारित था), प्रादेशिक स्वराज और संघीय ढांचे की व्यवस्था की और नियंत्रण की लगाम ब्रिटिश हाथों में रखने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण आपातकालीन अधिकारों को अधिकारियों के हाथों में बनाए रखा ।
स्वतंत्र भारत के संविधान में इस अधिनियम के लगभग 250 अनुच्छेदों को सीधे उठा कर शामिल कर लिया गया, किंतु इसमें कांग्रेस तथा इसके नेताओं की राय से ऐसे परिवर्तन शामिल किए जो कांग्रेस और भारतीय राजनीति की वास्तविकताओं के अनुकूल थे ।
उदाहरण के लिए, संघवाद का सिद्धांत जिसके लिए 1935 के अधिनियम में व्यवस्था की गई थी, किंतु जो राजाओं के प्रतिरोध के कारण विफल हो गया था, को रख लिया गया । किंतु राष्ट्र के संस्थापकों ने उसे विशेष रूप से कमजोर बना दिया जो आपातकालीन अधिकारों को एक मजबूत केंद्र सरकार के हाथों में सौंपना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं प्रजातीय और प्रादेशिक मतभेद, इस उदीयमान राष्ट्र की नाजुक एकता को खतरे में न डाल दे ।
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संविधान में युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण राष्ट्रीय हितों पर खतरा मंडराने अथवा कथित रूप से संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने पर, केंद्र सरकार को देश के शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने की अनुमति दी गई थी ।
दूसरे शब्दों में, भारतीय समाज के बहुलतावादी प्रकार को देखते हुए, वे एक केंद्रीकृत राष्ट्र की सत्ता के माध्यम से एक सशक्त राष्ट्र बनाना चाहते थे, जिसके सामने अन्य सभी संगठित सामाजिक संस्थान कमजोर हों । इस प्रकार, संविधान के माध्यम से देश के प्राकृतिक वास के रूप में, प्रादेशिक राष्ट्र के विचार को मजबूती से स्थापित कर दिया गया जिससे राष्ट्रीय एकता का अधूरा लक्ष्य पूरा हो जाने की आशा थी ।
एक ऐसे समाज में जिसमें एकरूपता की कमी थी, उसके संविधान निर्माता लोकप्रिय प्रभुसत्ता को सीधे आम लोगों के हाथों में सौंपना नहीं चाहते थे; इसे “क्रिया विधि संपन्न” राष्ट्र के माध्यम से पूरा करना था । संविधान की प्रस्तावना में एक मजबूत राष्ट्र की नींव डाली गई थी जिसमें विशेष रूप से ”न्याय” का सिद्धांत निरूपित किया गया था-इसे भी उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष से लिया गया था । इसे ”राष्ट्र नीति के निदेशक सिद्धांतों” के माध्यम से लागू किया गया जिसमें राष्ट्र का निर्माण करने वाले सभी विभिन्न सामाजिक वर्गो के लिए समानता और न्याय की प्रतिज्ञा की गई थी ।
जैसाकि मिठी मुखर्जी का तर्क है, पश्चिमी संविधानों के विपरीत जिनमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सिद्धांत स्थापित किया गया है, भारतीय संविधान ने ”समान न्यायाधिकार” (Justice as equity) “संप्रभु वैधानिक सिद्धांत” के दर्शन की स्थापना की जिसमें नागरिकों के ”मौलिक अधिकारों” में स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों की धारणा को वरीयता दी गई है ।
भविष्य में, यदि ”न्याय” और ”स्वतंत्रता” के दो सिद्धांतों के बीच में कोई मतभेद हुआ तो संविधान निर्माताओं को आशा थी कि ‘न्याय’ की जीत होगी । नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को संपूर्णता नहीं दी गई, और उन्हें अपवाद की परिस्थितियों में, संसद के निर्णय के आधार पर ज्यादा लोगों की भलाई के लिए समाप्त किया जा सकता है ।
यद्यपि, इस व्यवस्था को विभिन्न वर्ग के लोगों-जिनमें अनेक वंचित वर्ग शामिल थे-के उत्थान के लिए अनिवार्य समझा गया । इसमें ”एक सक्रिय और विशाल राष्ट्र” की धारणा भी अंतर्निहित थी जिसे सामाजिक अभियांत्रिकी के सक्रिय कर्त्तव्य सौंपे गए थे ।
अत: मुखर्जी ने इसका सारांश प्रस्तुत करते हुए कहा, ‘यह एक ऐसा संसदीय संस्थान था-जो पहले स्थापित ब्रिटिश उपनिवेश के समान-नए समाज का प्रमुख एजेंट था, जहां लोग अपने भविष्य के स्वयं कर्ता न होकर, देश को मिलने वाले लाभ के निष्किय हिताधिकारी थे ।’
पिछली परंपरा के सिद्धांतों को निरंतर बनाए रखने के परिणामस्वरूप शासन के नियमों में भी अंतर्विरोध उत्पन्न हुए । जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की, तो कांग्रेस के भीतर शासन के एक अतिरिक ढांचे का विकास हो चुका था, जिसकी प्रकृति प्रजातांत्रिक थी ।
अत: जब संविधान सभा ने देश की भावी शासन प्रणाली पर विचार-विमर्श करना शुरू किया तो तत्काल सर्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर संसदीय प्रजातंत्र स्थापित करने पर सहमति हुई । सुनील खिलनानी के अनुसार, इसी साझे प्रजातंत्रात्मक अनुभव ने, जिसे भारतीय जनता के सभी वर्गो ने महसूस किया, अंतत: भारत की एकता को बनाए रखा ।
तब भी, लोकप्रिय प्रजातंत्र को मिले समर्थन के बावजूद, संविधान में उपद्रवों को नियंत्रित करने और विद्रोह को कुचलने के लिए अधिकारियों को आपातकाल में अपने विवेक के आधार पर स्वयं निर्णय लेने की व्यवस्था को बनाए रखा गया ।
और देश में नेहरू के शासनकाल में विभिन्न अवसरों पर, विशेष रूप से प्रारंभिक वर्षो में जब साम्यवादी विद्रोह ने देश को हिला कर रख दिया, इसका विभिन्न तरीकों से प्रयोग किया गया (जैसे निवारक नजरबंदी अधिनियम अथवा सुरक्षा अधिनियम, जिसमें मुकदमा चलाए बिना नजरबंद करने का प्रावधान था) ।
पॉल ब्रास के मतानुसार इन उपायों ने जनता के अविश्वास को प्रकट किया । अन्य इतिहासकारों का तर्क है कि उपनिवेशवाद पश्चात् भारत में निर्वाचन पर आधारित प्रजातंत्र को समर्थन मिला और उसका स्वागत भी किया गया, किंतु हमारा देश प्रजातांत्रिक तरीके से विरोध करने, या नागरिक अवज्ञा के अधिकार को सहन करने से हिचकिचा रहा था ।
दूसरे शब्दों में, जैसाकि ग्रैनविल ऑस्टिन का तर्क है, आने वाले वर्षो में, संविधान के लक्ष्यों और भारतीय राजनीति की वास्तविकता ने सरकार और जनता दोनों के लिए अनेक विरोध भासों का निर्माण किया, जो विभिन्न वर्गो और समुदायों से संबंधित थे ।
अन्य क्षेत्रों में भी विरोधाभास था । संविधान सभा में इस बात पर सहमति थी कि भावी राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष होगा-किंतु धर्मनिरपेक्षता के कई अर्थ थे । अंतत: संविधान में सभी धर्मो को बराबर सम्मान देने के गांधीवादी आदर्श को स्वीकार किया गया, किंतु इसमें भी सांप्रदायिकता का भय समाया हुआ था ।
अत: संविधान में सभी नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता का प्रावधान रखा गया, किंतु आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर अल्पसंख्यकों के राजनीतिक अधिकारों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई ।
अल्पसंख्यक उपसमिति ने प्रजातंत्र, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीयता के नाम पर अलग निर्वाचन क्षेत्रों के सिद्धांत को नकार दिया । विधानसभा और सरकारी सेवाओं में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सीटों के आरक्षण के प्रस्ताव को इस आधार पर छोड़ दिया गया कि विभाजन-पश्चात् के भारत में इस प्रस्ताव से सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलेगा तथा राष्ट्रीय एकता पर प्रभाव पड़ेगा ।
नेहरू का तर्क था कि ”आरक्षण के इस कारोबार को छोड़ देने से…पता चलता है कि धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के बारे में हम वास्तव में गंभीर हैं ।” किंतु इससे अंबेडकर जैसे नेता संतुष्ट नहीं हुए जिनका विचार था कि भारतीय राष्ट्रवाद में एक असंगत सिद्धांत का विकास हो रहा था जहां ”अल्पसंख्यकों द्वारा सत्ता में साझेदारी के किसी भी दावे को…सांप्रदायिकता कहा जाता था, जबकि सभी अधिकारों पर बहुसंख्यकों…के एकाधिकार को राष्ट्रीयता कहा जाता था ।”
हालांकि संविधान सभा मुसलमानों की चिंता की आसानी से उपेक्षा कर सकती थी, किंतु दलितों की मांगों पर, स्पष्टतया, राजनीतिक कारणों से अधिक ध्यान देने की आवश्यकता थी । अत: अल्पसंख्यकों के प्रश्न का आर्थिक और सामाजिक स्थ्य पिछड़े अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करके समाधान कर दिया गया, किंतु आनुपातिक को कोई सुरक्षा नहीं दी गई जो धार्मिक और सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पा मुल्क-चाहते थे ।
अस्पृश्यता को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया; किंतु ऐतिहासिक पिछड़ेपन के कारण, अस्थायी रूप से, केवल दस वर्ष के लिए, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण का प्रावधान रख लिया गया । किंतु हिंदुओं की रूढ़िवादिता से अंबेडकर की कुंठा अभी समाप्त नहीं हुई थी, जो कुछ दिनों के बाद हिंदू कोड बिल पर होने वाली बहस में उभर कर सामने आई ।
प्रस्तावित कानून में हिंदुओं के विवाह तलाक, दत्तक ग्रहण, उत्तराधिकार, महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार इत्यादि मामलों को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानून को सरल एवं कारगर बना दिया गया था । भारत के विधि निर्माता 1941 से इस पर विचार कर रहे थे क्योंकि व्यापक रूप से यह अनुभव किया जाने लगा था कि इस क्षेत्र में एक प्रकार की एकरूपता की आवश्यक थी क्योंकि भारत के विभिन्न भागों में इसे कई विभिन्न तरीकों से व्याख्यायित करके लागू किया जा रहा था ।
1944-45 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश सर बेनेगल नरसिंग राउ के तत्वाधान में एक समिति को एक व्यापक हिंदू कोड बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा गया था । स्वतंत्रता एवं विभाजन ने इस प्रक्रिया को मंद कर दिया, किंतु स्वतंत्रता के तत्काल बाद, संविधान सभा ने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार करने के लिए अंबेडकर की अध्यक्षता में-जो विधि मंत्री भी थे-एक चयन समिति का गठन किया, जिसे अंतत: अगस्त 1948 में सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया गया ।
इस प्रयास की मधु किश्वर ने यह कहकर आलोचना की कि यह उपनिवेशी आधुनिकतावादी मानसिकता को दर्शाता है, जिसमें राष्ट्र की सत्ता के माध्यम से, ऊपर से सामाजिक सुधार लाने की आशा की गई थी क्योंकि इस बिल से, किसी औचित्य के बिना प्रणाली के निष्क्रिय और सर्वव्यापी हो जाने की संभावना थी ।
तब भी, यह बिल काफी व्यापक था जिसमें व्यक्तिगत कानून के सभी पक्षों को शामिल किया गया था, और हिंदू महिलाओं को संतान गोद लेने तथा संपत्ति में उत्तराधिकार के मामलों में विस्तृत अधिकार दिए गए थे । और यहीं इसने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया था ।
अंबेडकर द्वारा बनाए गए बिल के तीसरे ड्राफ्ट ने, जिसमें हिंदू महिलाओं को माता-पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी के समान अधिकार का प्रस्ताव उठाया गया था, संसद में और संसद के बाहर रूढ़िवादी हिंदुओं को नाराज कर दिया और उन्होंने कांग्रेस पार्टी को विभाजित करने की धमकी दी ।
जब 1951 के ग्रीष्मकालीन सत्र में यह बिल बहस के लिए संसद में आया तो 85 सरकारी संशोधनों और 300 से अधिक प्राइवेट संशोधनों को बहस के लिए प्रस्तुत किया गया । यह एक कटु बहस थी जिसमें नेहरू और अंबेडकर जैसे आधुनिकतावादी एक ओर थे, और अन्य बातों की तुलना में संयुक्त हिंदू परिवार को महत्त्व देने वाले लोग दूसरी ओर थे ।
शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि बिल पास नहीं हो पाएगा तथा प्रधानमंत्री नेहरू ने इसे स्थगित करने का फैसला किया हालांकि उन्होंने इस स्थगन को अस्थायी घोषित कर दिया था । अंबेडकर ने इससे चिढ़कर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और अगले चुनावों में अपने अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ की ओर से अपने बूते पर चुनाव लड़ने का फैसला किया ।
1951-52 के चुनावों के पश्चात्, बिल को चार भागों में विभाजित किया गया और अलग-अलग पारित किया गया: 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम पारित किया गया: और शेष अधिनियमों हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम हिंदू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम तथा हिंदू दत्तक एवं निर्वहन अधिनियम को 1956 में पारित किया गया । इन नए अधिनियमों में महिलाओं के अधिकारों को इतना कम कर दिया गया कि किश्वर ने उन्हें ”महिलाओं से धोखाधड़ी” कहा ।
तथापि, नया संविधान लागू होने पर, उच्च राजनीतिक वर्ग की प्रमुख चिंता सार्वभौम वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रथम आम चुनाव कराने की थी । अप्रैल 1950 में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम पारित किया गया और एक स्वायत्त चुनाव आयोग का गठन किया गया: तथा एक बंगाली आई.सी.एस. अधिकारी सुकुमार सेन को इसका प्रमुख चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया ।
21 वर्ष से अधिक आयु की आधी जनसंख्या अथवा लगभग 17 करोड़ 60 लाख लोग मतदाता के रूप में पंजीकृत थे- इसमें 1935 के अधिनियम के समय से काफी सुधार हुआ था जिसमें केवल 11 प्रतिशत जनसंख्या को मताधिकार प्राप्त था ।
82 इन नए मतदाताओं ने, जो कानूनी रूप से स्वतंत्र, स्वाधीन, स्वैच्छिक, व्यक्तित्व के नागरिक थे, और जो अपनी चुनाव की स्वतंत्रता का प्रयोग कर रह थे, भारतीय लोकतंत्र की ”जनता” या रीढ़ थे । उन्हें संसद के लोकप्रिय सदन (जिसे लोक सभा या हाउस ऑफ पीपल कहा गया) के लगभग 500 सदस्यों और राज्य (या प्रदेश) विधान सभा के लगभग सदस्यों को निर्वाचित करना था-कुल मिलाकर 4,500 सीटों के लिए मतदान होना था ।
यह चुनाव न केवल अधिकांश भारतीय जनता के लिए एक नया राजनीतिक अनुभव थे, अपितु यह देश के लिए एक विशाल राजनीतिक चुनौती भी थे जिसने पहले कभी इतने विशाल स्तर पर चुनावों का आयोजन नहीं किया था ।
जैसाकि रामचंद्र गुहा का कथन है:
2,24,000 मतदान केंद्रों का निर्माण किया गया, जिनमें स्टील की 20 लाख मतदान पेटियाँ लगाई गईं, जिन्हें बनाने में 8,200 टन स्टील का प्रयोग हुआ; निर्वाचन क्षेत्र के अनुसार मतदाता सूचियों को टाइप करने और उनका मिलान करने के लिए 16,500 क्लर्को को नियुक्त किया गया; मतदाता सूचियों को छापने के लिए लगभग 380,000 रीम कागज का प्रयोग हुआ; मतदान के संचालन के लिए 56,000 पीठासीन अधिकारियों को चुना गया, इनकी सहायता के लिए 280,000 सहायकों को रखा गया; हिंसा और लोगों को डराने-धमकाने से बचाव के लिए पुलिस के 224,000 सिपाहियों को तैनात किया गया ।
मतदान की प्रक्रिया भी काफी जटिल थी । कुछ मतदान क्षेत्रों में दो-सीटों के लिए निर्वाचन होना था, जहाँ एक सीट अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थी । 85 प्रतिशत मतदाता निरक्षर होने के कारण, प्रत्येक दल को एक विशेष चुनाव चिह्न देकर इस प्रक्रिया को दृश्य बनाना था और मतदान केंद्रों में प्रत्येक दल के लिए एक अलग मतदान पेटी लगानी थी ।
इसका अर्थ था कि प्रत्येक मतदाता को अपना वोट तीन बार डालना था-अलग मतदान पत्रों पर अपनी पसंद के उम्मीदवार के सही चुनाव चिह्न पर मोहर लगानी थी और मतपत्र को अपने चुने हुए उम्मीदवार के चिह्न वाली सही मतपेटी में डालना था । मतदाताओं के लिए यह एक जटिल काम था जो अपने जीवन में पहली बार मतदान कर रहे थे ।
22 नवंबर, 1951 को राष्ट्र के नाम एक संदेश में प्रधानमंत्री नेहरू ने, सही रूप में, प्रथम आम चुनाव को एक ”अपूर्व अनुभव” कहा था । अंबेडकर भी इस बारे में आश्वस्त नहीं थे: “भारत जैसे देश की पुराने विचारों वाली जनता को जिसे लोकतंत्र की कोई बुनियादी जानकारी ही नहीं थी, उन्हें फैसला करने और पार्टी का चुनाव करने का अधिकार दे दिया गया और सरकार का कर्ताधर्ता बना दिया गया ।”
पश्चिमी देशों के अनेक लोगों ने भी सोचा कि भारतीयों को लोकतंत्र रास नहीं आएगा, जिन्हें तानाशाही को सहने की आदत थी । एक बार नेहरू ने इस पर आशंका प्रकट की थी कि क्या अनपढ़ मतदाताओं को मतदान का अधिकार देना समझदारी का निर्णय था या नहीं ।
किंतु तब भी उन्होंने बार-बार यही कहा कि यह सबसे अच्छा विकल्प था और पूरे जोश के साथ चुनाव अभियान की शुरूआत की । उनकी कांग्रेस पार्टी जो स्वतंत्रता संग्राम की विरासत की उत्तराधिकारी थी, के लिए चुनाव में विजय प्राप्त करने का सबसे अच्छा अवसर था, इसलिए नहीं कि वह विशाल मात्रा में संसाधन जुटा सकती थी और बड़ी संख्या में पार्टी के कार्यकर्ताओं का प्रयोग कर सकती थी, अपितु इसलिए भी कि उसके राजनीतिक विरोधी निराशाजनक रूप से बंटे हुए और अव्यवस्थित थे ।
रजनी कोठारी ने स्वतंत्रता पश्चात् के भारत की दलीय प्रणाली को ”एक पार्टी के प्रभुत्व की प्रणाली” कहा, जहाँ कांग्रेस ”एक सर्वसम्मत पार्टी” (Party of Consensus) थी और विरोधी पक्ष ”दबाव के दल” थे, क्योंकि उनमें से कोई भी एक सक्षम सरकार देने के योग्य नहीं था ।
इस राजनीतिक दृश्यावली के दाहिनी ओर हिंदू महासभा थी, जिसे 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे द्वारा हत्या किए जाने से गहरा राजनीतिक आघात लगा था और जिसके कथित रूप से हिंदू महासभा और आर.एस.एस. के साथ पुराने संबंध थे ।
गांधी की हत्या के पश्चात् हुए सार्वजनिक उपद्रवों के कारण भारत सरकार ने इन दोनों दलों पर कठोर प्रतिबंध लगा दिए थे । राजकीय नियंत्रण के अतिरिक्त, हिंदू राजनीतिक संगठनों और उनके नेताओं के विरुद्ध जनता में तीव्र आक्रोश था ।
चुनाव सामने आने तक वे इस आघात से उबर नहीं पाए थे । इसके नेताओं में निराशाजनक रूप से फूट पड़ गई और इसके चुनावी घोषणापत्र में “भारत में हिंदू राज स्थापित करने” की प्रतिज्ञा नए भारत के नागरिकों को अपनी ओर आकर्षित करने में विफल रही ।
इसके सबसे प्रभावी नेता डॉ॰ एस.पी. मुखर्जी ने त्यागपत्र दे दिया और 21 अक्तूबर, 1951 को उन्होंने भारतीय जन संघ के नाम से एक नए राजनीतिक दल का गठन किया । उन्होंने दावा किया कि यह एक गैर-सांप्रदायिक दल था जिसका लक्ष्य कांग्रेस के विरुद्ध एक व्यापक लोकतांत्रिक विपक्ष खड़ा करना था जो अधिकाधिक तानाशाह और भ्रष्ट होती जा रही थी ।
किंतु अत में यह दल कोई प्रभावकारी वैकल्पिक विचारधारा या कार्यक्रम प्रदान करने में विफल रहा और जनसमर्थन के मजबूत आधार के बिना उगर एसएस पर आश्रित होकर रह गया । इस प्रकार जनसंघ स्वयं को महासभा से अलग नहीं रख सका और परिणामस्वरूप इस चुनाव में हिंदू महासभा जनसंघ और राम राज्य परिषद् (एक अन्य छोटा हिंदू राष्ट्रवादी (दल) वोटों के लिए एक-दूसरे से और कांग्रेस से मुकाबला करते रहे ।
तथापि, कांग्रेस को प्रमुख रूप से स्वयं अपने ही संगठनात्मक ढांचे से विरोध का सामना करना पड़ा । सर्वप्रथम, समाजवादियों ने, जो 1934 से कांग्रेस के भीतर कांग्रेस समाजवादी पार्टी के रूप में काम कर रहे थे, जयप्रकाश नारायण और अशोक मेहता के नेतृत्त्व में पार्टी से अलग होने का फैसला किया ।
कांग्रेस के दक्षिण पंथ की ओर जाने और इसकी बढ़ती तानाशाही प्रवृत्तियों के विरुद्ध इस अलगाव की घोषणा 28 मार्च, 1948 को नासिक में हुई एक बैठक में की गई । तब आचार्य जे.बी. कृपलानी जैसे गांधीवादी नेता और अन्य लोग कांग्रेस में आंतिरिक सुधार करना चाहते थे किंतु में पार्टी अध्यक्ष के पद के लिए पुरुषोत्तम दास टंडन के हाथों कृपलानी की पराजय के पश्चात् उनकी कुंठा सार्वजनिक हो गई क्योंकि पार्टी में सुधार और उसे एकजुट करने के सारे प्रयास विफल हो गए ।
कृपलानी ने 16 मई, 1951 को कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और 14 जून को पटना में हुए एक सम्मेलन में एक नई पार्टी के गठन की घोषणा की, जिसे किसान मजदूर प्रजा पार्टी या संक्षिप्त रूप में प्रजा पार्टी का नाम दिया गया ।
कृपलानी की समालोचना, हाल के पार्टी चुनावों में हुई उनकी पराजय के बावजूद उनके व्यक्तिगत लक्ष्यों से प्रेरित नहीं थी, जैसाकि कुछ इतिहासकारों का अनुमान है । यह असहमति की आवाज थी जिसमें देश भर के अन्य अनेक गांधीवादी, जैसे त्रिलोकी सिंह और उत्तर प्रदेश में पीपुल्स कांग्रेस प्रोफेसर एनजी रंगा और उनकी औध्र प्रजा पार्टी तथा डॉ॰ पी.सी. घोष और बंगाल में उनकी कृषक मजदूर प्रजा पार्टी शामिल थीं ।
उनकी समालोचना नैतिक और सदाचार पर आधारित थी, आदर्शवाद पर नहीं । उन्होंने स्वतंत्रता-पश्चात् कांग्रेस की निराशाजनक प्रवृत्ति के खिलाफ आवाज उठाई जो ”कृषक-प्रजा-मजदूर राज” के गांधीवादी लक्ष्य से दूर जा रही थी ।
वे इसके अनेक नेताओं के बढ़ते सत्तावादी आचरण और सार्वजनिक जीवन में उनके द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से भी चिंतित थे । परंतु आदर्श रूप में वे कांग्रेस के दर्शन और गांधीवादी आदर्शों के प्रति प्रतिबंद्ध थे जिसे उन्होंने अपनी नीतियों के माध्यम से क्रियान्वित करने की प्रतिज्ञा ली थी ।
इस वैचारिक सम्मिश्रण के परिणामस्वरूप चुनाव आने पर वे स्वयं को कांग्रेस से अलग नहीं रख सके । इस पार्टी का ”शांतिपूर्ण ढंग से एक स्वतंत्र, लोकतांत्रिक, जातिवाद और वर्गरहित समाज” की स्थापना का घोषित लक्ष्य, बहुत कुछ कांग्रेस के जयपुर प्रस्ताव (1948) के समान था । और दुर्भाग्यपूर्ण रूप से वे इस अस्पष्ट आदर्श को सकारात्मक वास्तविकता में रूपांतरित करने के लिए कोई ठोस कार्यक्रम देने में बुरी तरह विफल रहे ।
यदि सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा पार्टी राजनीतिक पटल के लगभग केंद्र में थीं, तो वाम पक्ष में कांग्रेस का प्रमुख विरोध सी.पी.आई. ने किया, जिसने हाल ही में सशस्त्र विद्रोह के मार्ग को छोड़ने और देश पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिए चुनाव लड़ने का फैसला किया था ।
तथापि, उनका संगठन अधिकतर दक्षिणी और पूर्वी भारत में सीमित था, जहां हाल ही में काफी प्रबल विद्रोह हो चुके थे, और यहाँ वे अपनी पूर्ण अनुशासित पार्टी प्रणाली का चुनाव कार्यो के लिए प्रयोग कर सकते
थे ।
किंतु सबसे बड़ी कमी यह थी कि उनके अधिकांश नेता अभी भी जेल में थे और कांग्रेस सरकार की चुनाव से पहले इन राजनीतिक कैदियों को छोड़ने की कोई मंशा नहीं थी हालांकि इनर्म मे कुछ को मुकदमा चलाए बिना कैद में रखा जा रहा था ।
कुछ छोटे वामपंथी दल भी थे, जैसे फॉरवर्ड लॉक, रिवॉल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी, ऑल इंडिया किसान सभा, पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी, बोल्शेविक पार्टी ऑफ इंडिया, इत्यादि । किंतु वे निराशाजनक रूप से बंटी रहीं । सरत बोस, जिन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया था और अगस्त 1947 में अपनी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी का गठन किया था, ने इस सभी गैर-साम्यवादी दलों को यूनाइटेड सोशलिस्ट ऑर्गनाइजेशन ऑफ इंडिया नाम के एक अखिल भारतीय गठबंधन के रूप में एकसाथ लाने का प्रयास किया; उन्हें आशा थी कि यह पार्टी कांग्रेस का वामपंथी विकल्प हो सकती थी ।
किंतु वह इन विरोधी दलों के मतभेदों-आदर्शवादी एवं व्यक्तिगत-को सुलझाने में विफल रहे, और इस प्रकार कांग्रेस का एक सयुक्त वामपंथी विरोधी दल बनाने का सपना 20 फरवरी, 1950 को टूट गया । अत: कांग्रेस के सामने बहुत कम विरोधी थे जिनसे उसे कोई भय होता ।
अपनी लगभग अजेय स्थिति को मजबूत बनाने के लिए नेहरू ने 1 अक्टूबर, 1951 से देश का एक चक्रवाती दौरा शुरू किया और तीव्र चुनावी प्रचार किया । कुल मिलाकर, उन्होंने नौ सप्ताह में 25,000 मील की यात्रा की और देश के सुदूरवर्ती इलाकों में चुनाव सभाओं को संबोधित किया । उन्होंने देश के दो शत्रुओं- ”साम्यवाद” और ”गरीबी”- का उल्लेख किया और अपने चुनावी अभियान के लिए दो मुद्दे – ‘इतिहास’ और ”स्थायित्व” निर्धारित किए ।
स्वतंत्रता संग्राम का उत्तराधिकारी होने के कारण, कांग्रेस एक अकेला ऐसा दल था जो कानूनी रूप से नए राष्ट्र के संचालन का दावा कर सकता था । और यही एक अकेला ऐसा दल था जो एक स्थायी सरकार दे सकता था ।
राष्ट्रीय संचार माध्यम खुल्लमखुल्ला कांग्रेस का समर्थन कर रहे थे, क्योंकि जहां भी नेहरू भाषण देते थे, उनके भाषण देशभर के समाचारपत्रों के मुख्य पृष्ठों पर प्रकाशित होते थे, इस प्रकार प्रतिदिन उनके संदेश- पढ़े-लिखे प्रादेशिक मतदाताओं के ड्रॉइंग रूम तक पहुंच जाते थे ।
स्पष्ट रूप से विरोधी दलों को इतिहास के इस विशेष प्रसंग का विरोध करना था और उनका तर्क था कि भारत को स्वतंत्रता केवल कांग्रेस ने नहीं दिलाई थी । किंतु इस प्रकार के विरोध से विरोधियों का चुनावी अभियान बहुत नकारात्मक लगने लगा-ऐसा प्रतीत होता था कि विरोधी पक्ष का लक्ष्य केवल कांग्रेस को सत्ता से हटाना था ।
स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के बीच लगभग पांच माह तक चला । केवल नागालैंड में नागा नेशनल काउंसिल ने चुनावों का पूरी तरह बहिष्कार किया और एक भी उम्मीदवार ने नामांकन नहीं भरा और एक भी वोट नहीं पड़ा ।
किंतु अन्य स्थानों पर लोगों ने इसमें उत्साहपूर्वक भाग लिया और लगभग 60 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले । यह देखकर नेहरू भावविभोर हो उठे: ”निरक्षर मतदाताओं के प्रति मेरा सम्मान बढ़ गया है और वयस्क मताधिकार के बारे में मेरे मन में जो शंका थी वह मिट गई है और अपने देश के लोगों में मेरा विश्वास बढ़ गया है ।”
इस कृतज्ञता का कारण यह भी था कि जनता ने उन्हें प्रत्याशित परिणाम दिए थे । पूरे भारत में बाईस में से सत्रह राज्यों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था यह एक अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी, किंतु उड़ीसा, पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य यूनियन (PEPSU), मद्रास और त्रावनकोर-कोचीन में कांग्रेस बहुमत प्राप्त करने में विफल रही थी ।
केंद्र में, लोक सभा में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था, किंतु यह सुस्पष्ट विजय नहीं थी । रामचंद्र गुहा की गणना के अनुसार, संसद में कांग्रेस ने 489 में से 364 सीटों पर, अथवा 74.4 प्रतिशत सीटों पर विजय प्राप्त की थी, किंतु इसे कुल मतदान के केवल 45 प्रतिशत वोट ही प्राप्त हुए थे; राज्यों में इसने 68.6 प्रतिशत सीटों पर विजय पाई थी किंतु इसे कुल मतदान के केवल 42.4 प्रतिशत वोट ही मिले थे ।
दूसरे शब्दों में, 50 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने कांग्रेस के विरुद्ध वोट दिए थे, और इसके कई प्रमुख नेता पराजित हो गए थे । किंतु इस चुनाव का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह था कि संसद में सीपीआई कांग्रेस की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी बनकर उभरी थी, जहाँ अपने मित्र दलों के साथ इसने सत्ताइस सीटों पर विजय पाई थी । राज्यों में, सीपीआई ने मद्रास में उनसठ सीटें, हैदराबाद में बयालीस सीटें तथा त्रावनकोर-कोचीन में बत्तीस सीटें जीती थीं; इन सभी राज्यों में कांग्रेस पूर्ण बहुमत प्राप्त करने मैं विफल रही थी ।
पश्चिम बंगाल में, विधान सभा में, सी.पी.आई. को अट्ठाइस सीटें प्राप्त हुई और लोक सभा में इसने नौ में से पाँच सीटों पर विजय प्राप्त की । एक प्रकार से, प्रथम आम चुनाव के परिणामों से यह संकेत मिले कि अगले दो दशकों में विकसित होने वाली भारतीय राजनीति का स्वरूप क्या होगा ।