संघवाद पर निबंध: शीर्ष 13 निबंध | Essay on Federalism: Top 13 Essays in Hindi

संघवाद पर निबंध | Essay on Federalism


Essay Contents:

  1. संघवाद का अर्थ (Meaning of Federalism)
  2. संघवाद की परिभाषा (Definition of Federalism)
  3. संघवाद का ऐतिहासिक संदर्भ (Historical Context of Federalism)
  4. संघवाद के प्रकार (Forms of Federalism)
  5. संघवाद की विशेषताएं (Characteristics of Federalism)
  6. संघवाद की कार्यप्रणाली (Federalism at Work)
  7. संघ के निर्माण की शर्तें (Conditions for the Formation of Federation)
  8. संघ तथा परिसंघ (Federation and Confederation)
  9. व्यवहार में संघवाद (Federalism in Practice)
  10. बहु-स्तरीय संघवाद (Multi-Level Federalism)
  11. संघवाद के नए संदर्भ (New Contexts of Federalism)
  12. संघवाद के राजनीतिक तथा राजस्व आयाम (Political and Fiscal Dimensions of Federalism)
  13. नए राज्यों में संघवाद (Federalism in New States)

Essay # 1.

संघवाद का अर्थ (Meaning of Federalism):

एकाग्रता और शक्तियों के वितरण के आधार पर हम दो प्रकार की सरकार पाते हैं सरकार का एकात्मक तथा संघात्मक स्वरूप । सरकार का संघीय स्वरूप एक आधुनिक खोज है जो अमेरिकी संविधान के प्रादुर्भाव से अस्तित्व में आया । तथापि फेडरेशन शब्द लैटिन भाषा के फोएडस शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ है संधि या समझौता ।

ADVERTISEMENTS:

सामान्यत: एक संघीय सरकार दो प्रकार से उत्पन्न होती है । यह अभिकेंद्री या अपकेंद्री ताकतों के कारण हो सकता है । जब कुछ स्वतंत्र राज्य अपनी भौतिक तथा आर्थिक कमजोरी के कारण एकजुटता पर सहमति जताते हैं तब वे सामान्य संप्रभुता को मानते हुए एक संघ का निर्माण करते हैं ।

अमेरिका स्विस तथा ऑस्ट्रेलियाई संघ का निर्माण इसी प्रकार से हुआ है । लेकिन यह प्रक्रिया अपकेंद्री कहलाती है जब कोई एकात्मक राज्य संघ राज्य में परिवर्तित होता है । कनाडा जो मूल रूप से एकात्मक राज्य था टूटकर संघ राज्य के रूप में पुनर्गठित हुआ ।

भारत सरकार अधिनियम 1935 अपकेंद्री शक्तियों के माध्यम से संघवाद की व्यवस्था करता है । भारतीय संविधान का स्वरूप एकात्मक लक्षणों के साथ संघात्मक है । शक्तियों के प्रादेशिक विभाजन के आधार पर हम राज्यों को दो प्रकार से बांटते हैं – संघीय राज्य तथा एकात्मक राज्य ।

संघीय राज्य में शक्तियों का बंटवारा केंद्र तथा राज्य इकाइयों के बीच होता है । संघीय सरकार का मुख्य लाभ यह है कि यह छोटे राज्यों को बड़े तथा शक्तिशाली राज्यों के साथ एकजुट होने तथा उससे फायदा उठाने के योग्य बनाता है । संघीय सरकार क्षेत्रीय स्वायत्तता का राष्ट्रीय एकता के साथ मिलाप कराती है । यहां दोनों चीजें एक साथ कार्य करती हैं ।

ADVERTISEMENTS:

संघवाद क्षेत्रीय स्वायत्तता को बरकरार रखता है । दूसरे यह राष्ट्रीय एकता भी प्रदान करता है । शासनासरकार के इस स्वरूप में शक्तियों का बंटवारा संभव है । राष्ट्रीय हितों के मामले जैसेकि रक्षा विदेश संचार आयकर रेलवे आदि केंद्र सरकार को तथापि क्षेत्रीय महत्त्व के मामले जैसेकि भू-राजस्व पुलिस जेल स्थानीय स्वशासी निकाय आदि राज्य इकाइयों को सौंपे जाते हैं । यह व्यवस्था संपूर्ण देश में कानून नीति तथा प्रशासन को एकरूपता प्रदान करती है ।

यह व्यवस्था छोटे राज्यों के लिए अधिक लाभप्रद है क्योंकि वे अपनी स्वतंत्र रूप से रक्षा करने तथा अन्य राज्यों से स्वतंत्र राजनयिक संबंध बनाने में सक्षम नहीं होते हैं । संघवाद राज्य स्तर पर उपयोग की व्यवस्था करता है । संघवाद कुशलता प्रदान करता है । इसमें केंद्र तथा राज्य अपने-अपने निश्चित क्षेत्र या विषयों में कार्य करते हैं तथा एकात्मक राज्यों की तरह केंद्र सरकार अधिक बोझिल नहीं होती है ।

जहां धर्म भाषा तथा नस्ल की विविधता विद्यमान होती है वहां शासन का संघीय रूप ही उपयुक्त होता है । इकाइयों को हम राज्यों या केंटोन आदि के रूप में जानते हैं । शास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार संघवाद सरकार का वह रूप है जो राज्य के अधिकारों की देखभाल के साथ राष्ट्रीय एकता का मिलाप करता है । संघवाद राजनीतिक संगठन का ऐसा माध्यम है जो व्यापक राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की राजनीतियों को इस प्रकार एकजुट करता है जिससे वे अपनी मौलिक राजनीतिक अखंडता बनाए रख सकें ।

संघीय प्रणाली में यह आवश्यक है कि बुनियादी नीतियों का निर्माण तथा कार्यान्वयन समझौतों से हो ताकि सभी सदस्य इसमें भागीदार बन सकें । यहां दो बातों पर ध्यान देना होगा प्रथम कि राष्ट्रीय एकता बरकरार रहे द्वितीय कि राज्यों के अधिकार भी संरक्षित रहें ।


ADVERTISEMENTS:

Essay # 2.

संघवाद की परिभाषा (Definition of Federalism):

हैमिल्टन के अनुसार, संघीय राज्य राज्यों का एक संगठन है तथा यह एक नवीन प्रकार है । गार्नर कहते हैं कि संघीय राज्य एक व्यवस्था है जिसमें सरकार की संपूर्ण शक्तियां केंद्र सरकार तथा राज्यों या अन्य प्रादेशिक उपखंडों में जिनसे संघ बना है राष्ट्रीय संविधान या जैविक संसदीय अधिनियम के माध्यम से विभाजित तथा वितरित की जाती हैं । के.सी. व्हेयर मानते हैं कि संघीय सरकार वह है जो मुख्य रूप से सामान्य तथा क्षेत्रीय प्राधिकरणों के बीच शक्तियों को बांटती है तथा वे अपने क्षेत्र में समन्वय करते हुए भी एक-दूसरे से स्वतंत्र रहते हैं ।

डायसी कहते हैं कि यह एक राजनीतिक युक्ति है जिसका उद्देश्य राज्यों के अधिकारों को बरकरार रखते हुए राष्ट्रीय एकता तथा शक्ति का मिलाप है । संघवाद सरकार का एक ऐसा रूप है जिसमें राजनीतिक शक्ति के संप्रभु प्राधिकरण को विभिन्न इकाइयों के बीच वितरित किया जाता है । सामान्य शब्दों में इस प्रकार के शासन को संघ या संघ राज्य भी कहा जाता है ।

केंद्र राज्य, पंचायत या निगम इसकी इकाइयां हैं । केंद्र को संघ भी कहा जाता है । संघ की घटक इकाइयों को अमेरिका में राज्य स्विट्‌जरलैंड में केंटोन कनाडा में प्रांत तथा भूतपूर्व सोवियत संघ में रिपब्लिक कहा जाता है । संघ शब्द का शाब्दिक अर्थ है ”अनुबंध” । संघ एक अनुबंधीय संघ है । एक संघीय राज्य का निर्माण संप्रभु राज्यों के अनुबंध के द्वारा होता है ।

विजय द्वारा प्राप्त राज्यों के संघ को संघीय संघ नहीं कहा जा सकता । राजनीतिक सिद्धांत जो संघीय व्यवस्था को प्रेरित करते हैं वे सौदेबाजी को प्रधानता तथा विभिन्न शक्ति केंद्रों के बीच समझौते पर जोर देते हैं । वे शक्ति केंद्रों के तितर-बितर होने को स्थानीय स्वतंत्रता के बचाव का माध्यम मानते हैं ।

संघवाद केवल एक संगठनात्मक व्यवस्था नहीं है वरन यह राजनीति तथा सामाजिक व्यवहार का विशेष तरीका समझौते के लिए प्रतिबद्धता व्यक्तिगत तथा संस्थाओं का सक्रिय सहयोग तथा इसके साथ-साथ अपनी गरिमा को संरक्षित करने का गौरव प्रदान करता है । प्रोफेसर सी.एफ. स्ट्रांग कहते हैं कि एक संघ राज्य वह है जिसमें कुछ राज्य एक निश्चित सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एकजुट होते हैं ।

केंद्रीय या संघीय प्राधिकरण कुछ शक्तियों में इकाइयों से सीमित होता है जो सामान्य उद्देश्यों के लिए एकजुट हुई हैं । इस शक्ति वितरण के लिए कोई प्राधिकरण आवश्यक है । यह प्राधिकरण स्वयं संविधान है । एक संघीय राज्य में संघ तथा इकाइयां अपनी शक्तियां स्वयं संविधान से प्राप्त करती हैं । संघ दो प्रकार से बनाया जाता है- अभिकेंद्र तथा अपकेंद्र । जब कुछ राज्य एक सामान्य प्राधिकरण के अंतर्गत एकजुट होते हैं तथा एक संघ का निर्माण करते हैं तब अभिकेंद्री संघ बनता है ।

अमेरिका इस प्रकार के संघ का उदाहरण है । जब एक बड़ा राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए अपने को छोटी इकाइयों में बांटता है तब अपकेंद्री संघ बनता है । भारत इस वर्ग में आता है । जैसाकि व्हेयर लिखते हैं कि संघीय सिद्धांत से मेरा अर्थ है शक्ति विभाजन का एक ऐसा तरीका जिसमें सामान्य तथा क्षेत्रीय सरकारें एक क्षेत्र के अंतर्गत सहयोग करते हुए स्वतंत्र रहती हैं ।

उपरोक्त उपागम अनिवार्य रूप से कानूनी है जिसमें कानून या संघवाद के संवैधानिक ढांचे पर जोर दिया गया है । कानूनी ढांचे की पर्याप्त समझ उन विभिन्न सामाजिक शक्तियों की खोज की मांग करती है जो संघवाद को जन्म देती है । जैसा लिविंग्स्टोन अनुभव करते हैं- संघवाद का सार इसके संस्थानात्मक या संवैधानिक ढांचे में नहीं बल्कि स्वयं समाज में निहित है । संघीय सरकार एक ऐसी युक्ति’यंत्र है जिसके द्वारा समाज के संघीय गुणों को स्पष्ट तथा संरक्षित किया जाता है ।


Essay # 3.

संघवाद का ऐतिहासिक संदर्भ (Historical Context of Federalism):

संघवाद की शुरुआत प्राचीन काल के यूनानी नगर राज्यों और दूसरी शताब्दी के डच महासंघ से मान सकते हैं । हालांकि इसका प्रबल उदाहरण 1787 ई. में अमेरिकी संघवाद की स्थापना में मिलता है । 1787 ई. में अमेरिका में तथा 1848 ई. में स्विट्‌जरलैंड में जन भावनाओं को प्रभाव में लाने के लिए संघवाद अस्तित्व में आया । यहां यह उल्लेखनीय है कि 1787 ई. में संघीय संविधान आने से पहले अमेरिकी उपनिवेशों ने ग्रेट ब्रिटेन से प्रतिरोध के दौरान 1777 ई. में ही परिसंघ के अनुच्छेद की रूपरेखा तैयार कर ली थी ।

एक सदनीय कांग्रेस प्रत्येक राज्य से एक वर्ष के लिए प्रतिनिधियों की स्थिर नियुक्ति; जो विदेशी मामलों के निर्धारण के लिए प्राधिकृत किए गए मुद्रा तथा अन्य निश्चित महत्त्वपूर्ण मामले आते हैं । इन सभी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए जैसाकि अलेक्जेडर हैमिल्टन ने अपनी कृति दी फेडरलिस्ट में अभिव्यक्त किया है ”तेरह विभिन्न संप्रभु इच्छाओं की सहमति ।”

दूसरे शब्दों में 1777 के अनुच्छेद ने सामान्य सरकार की अधीनता के सिद्धांत के आधार पर राज्यों का संगठन स्थापित किया अर्थात् कांग्रेस का क्षेत्रीय सरकारों पर । 1787 ई. के वर्तमान अमेरिकी संविधान के सिद्धांत 1777 ई. के अनुच्छेदों के सिद्धांतों से महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न थे ।

वेयर के अनुसार वर्तमान संविधान तथा परिसंघ के अनुच्छेदों में अंतर इस तथ्य से स्पष्ट है कि वर्तमान संविधान सामान्य सरकार की क्षेत्रीय सरकारों पर अधीनता तथा निर्भरता को बदलकर सामान्य तथा क्षेत्रीय सरकारों में तालमेल व अपने क्षेत्रों में स्वतंत्रता के सिद्धांत को लागू करता है ।

इस प्रकार 1787 ई. के संविधान द्वारा निर्मित राज्यों की समिति को संघ माना गया और यह राज्य की शक्ति का विभाजन सहयोग तथा स्वतंत्र प्राधिकरणों में करता है । अमेरिका का संविधान पूरे राज्य के लिए सीमित शक्ति देता है और इसी प्रकार राज्य के अन्य भागों के लिए भी सीमित शक्ति प्रदान करता है । जैसे ही संविधान ने शक्ति क्षेत्रों का विभाजन कर दिया प्रत्येक सरकार ने अपने दिए गए क्षेत्राधिकार में स्वतंत्र रूप से संचालन शुरू कर दिया ।

संयुक्त राज्य अमेरिका इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि एक संघ तभी अस्तित्व में आता है जब कुछ राज्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तालमेल बैठाकर संगठित होते हैं । डायसी अनुभव करते हैं कि संघ का अर्थ संविधान द्वारा संस्थाओं में शक्तियों का बंटवारा है जो संविधान द्वारा निर्मित तथा नियंत्रित हैं ।

ऐतिहासिक परिस्थितियों ने संघ के लक्षणों को आकार दिया है । सभी जगह संघवाद का उद्देश्य नागरिकों की दो परस्पर विरोधी भावनाओं में तालमेल बैठाना है- राष्ट्रीय एकता की इच्छा तथा प्रत्येक राज्य या केंटोन के स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रखने की अभिलाषा ।

लिखित संविधान में इस तालमेल का तरीका प्रतिबिंबित होता है जो राष्ट्र से संबंधित विषयों को सामान्य या राष्ट्रीय सरकार के अधीन रखता है तथा अन्य सभी मामलों को जो सामान्य हित के नहीं है अलग-अलग राज्यों के अधीन रखता है । संघीय संविधानों में शक्ति विभाजन का विवरण भिन्न-भिन्न हो सकता है परंतु इसमें अंतर्निहित सिद्धांत एक ही रहेगा । अर्थव्यवस्था की गतिशील ताकतों कल्याणकारी उद्देश्यों का प्रभाव और राष्ट्रीय दलों के उद्‌भव से संघवाद की परिस्थिति में गहरा परिवर्तन आया ।

इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक मौजूदा संघ में केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति प्रगाढ़ता से कार्य करने लगी तथा वह अब तक का सबसे गतिशील परिवर्तन था । इस केंद्रीकरण के दो प्रभाव हुए । पहला राज्य की स्वायत्तता कुछ मंद पड़ी । दूसरा केंद्र तथा राज्यों की सीमा कुछ धुंधली पड़ी । अत: आज संघवाद को पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता है । यदि किसी राज्य व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र तथा राज्य दोनों अपनी स्थिति और शक्ति संविधान से प्राप्त करते हैं ना कि किसी केंद्रीय कानून द्वारा तथा वे अपने-अपने क्षेत्रों में पर्याप्त स्वायत्ता का प्रयोग करते हैं तो वह संघवाद का लक्षण होगा ।


Essay # 4.

संघवाद के प्रकार (Forms of Federalism):

संघीय राजनीतिक व्यवस्था वह है जिसमें एक सामान्य सरकार की स्थापना दो या अधिक सरकारों के समूह से होती है तथा इसमें उनकी शक्तियां पर्याप्त रूप में सुरक्षित तथा संरक्षित होती हैं । यह निश्चित तौर पर आधुनिक संघों की परिभाषा है । यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि संघवाद संवैधानिक तौर पर शक्ति को साझा करता है ।

इसमें स्वशासन तथा साझा-शासन की व्यवस्था होती है । इसके अंतर्गत संघ. परिसंघ फेडेरेसीस तथा इसी प्रकार के अन्य राजनीतिक तथा संगठनात्मक संबंध शामिल हैं । संघवाद को संसदीय लोकतंत्र या प्रत्यक्ष लोकतंत्र की तरह लोकतंत्र की जननी के रूप में जानना चाहिए ।

पिछले दशक में राजनीतिक संगठन के परिसंघीय रूप में रुचि पुनर्जीवित हुई है । सामान्यत: संघीय व्यवस्था में परिसंघों को संघों से भिन्न रूप में देखा जाता है । इसमें साझा शासन की संस्थाएं घटक सरकारों पर निर्भर होती हैं इसलिए केवल एक अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा राजकोषीय आधार होता है । संघीय सरकार में नागरिकों पर प्रत्यक्ष शासन चलाया जाता है । इसके विपरीत परिसंघ में साझा संस्थाओं और शासन के सदस्य राज्य में प्रत्यक्ष संबंध होता है । इसके ऐतिहासिक उदाहरणों में स्विट्‌जरलैंड (1291 – 1847) तथा अमेरिका (1776 – 1789) मिलते हैं । समकालीन विश्व में यूरोपीय संघ मूलत: परिसंघ है तथापि इसमें संघीय लक्षण शामिल किए गए हैं ।


Essay # 5.

संघवाद की विशेषताएं (Characteristics of Federalism):

संघीय प्रणाली वह व्यवस्था है जिसमें साझा हितों की प्राप्ति के लिए घटक इकाइयों की एकजुटता की मंशा तथा अन्य उद्देश्यों के लिए स्व-शासन की इच्छा की गहरी जड़ें होती हैं । इसलिए सरकारों के बीच संघीय शक्तियों की विभेदता सभी संघीय व्यवस्थाओं का एक प्रमुख लक्षण है । यद्यपि संघ में अक्सर विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण पाए जाते हैं परंतु दोनों में अंतर है ।

संघ में न केवल जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण होता है बल्कि घटक सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की संवैधानिक गारंटी भी होती है । यद्यपि संघ की एकात्मक व्यवस्था से पृथक करने के सामान्य लक्षणों में शक्ति की सीमा सरकार के विभिन्न स्तरों पर दी जाने वाली जिम्मेदारी एवं संसाधन आते हैं ।

बहुल सूचकांक जो गैर-बराबर है उनमें विधायी तथा प्रशासनिक क्षेत्राधिकारों का बंटवारा वित्तीय संस्थानों की अवस्थिति गैर-सरकारी संस्थाओं का विकेंद्रीकरण संवैधानिक सीमा तथा संघीय सरकार में घटक सरकारों का निर्णय-निर्माण की सहभागिता का स्तर आदि आते हैं ।

एक बार स्थापित होने के पश्चात् संघीय व्यवस्थाएं स्थिर ढांचा नहीं रहती हैं वे गतिशील और विकसित इकाइयां हैं । यह बात अमेरिका तथा कनाडा की संघीय व्यवस्था के इतिहास से अनेक लेखकों द्वारा स्पष्ट की गई है । अनेक लेखकों के विश्लेषणों ने हमें यह समझाया कि किस प्रकार सामाजिक राजनीतिक आर्थिक तथा जातीय कारकों की पारस्परिक क्रिया ने राजनीतिक प्रक्रिया व संस्थानात्मक ढांचे को बचाया कुछ संघों ने विकेंद्रीकरण की प्रकृति को उत्पन्न किया ।

एक दूसरी रिपोर्ट 4 फरवरी 1979 को ”कमिंग टू टर्म्स” शीर्षक से आई जिसमें कनाडाई एकता पर बनी टास्क फोर्स परिसंघ तथा संघ के विभिन्न लक्षणों को प्रकाशमान करती है तथा कनाडा को संघ की श्रेणी में रखते हुए बिल्कुल नहीं हिचकिचाती है ।

इस रिपोर्ट में सात तत्त्वों की एक है जो संघ की होती हैं:

(i) दो स्तर की सरकारों का अस्तित्व जो अपने अधिकार संविधान के अंतर्गत लेती हैं तथा उनमें से प्रत्येक; समान नागरिकों पर प्रत्यक्ष शासन करती हैं ।

(ii) केंद्र सरकार पूरे संघ के निर्वाचकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनी जाती है विधान द्वारा अपनी सत्ता का प्रयोग करती है तथा पूरे देश पर कर लगाती है ।

(iii) क्षेत्रीय सरकार क्षेत्र द्वारा चुनी जाती है तथा कानून व करों के द्वारा प्रत्यक्ष भूमिका निभाती है ।

(iv) दो स्तर की सरकारों के मध्य विधायी तथा कार्यकारी अधिकारों तथा राजस्व के स्रोतों का बंटवारा ।

(v) एक लिखित संविधान जो एकतरफा संशोधित नहीं हो सकता ।

(vi) शक्तियों के बंटवारे से संबंधित विवादों के नियमन के लिए मध्यस्थ ।

(vii) सरकारों के मध्य बातचीत के लिए युक्तियां ।

एक संघ के चार लक्षण होते हैं-एक लिखित संविधान दोहरी राज व्यवस्था शक्तियों का विभाजन और एक स्वतंत्र निष्पक्ष न्याय व्यवस्था ।

 

 

(i) लिखित संविधान:

भारत में एक लिखित संविधान है । यह सर्वोच्च कानून है तथा केंद्र तथा राज्य दोनों पर लागू होता है । दूसरा यहां दोहरी राज व्यवस्था है क्योंकि यहां दो स्तर पर सरकार पाई जाती है । एक केंद्र या संघ सरकार और दूसरी राज्य सरकारें जो संविधान के अनुच्छेदों से बंधी हुई है और दोनों में से कोई भी इनकी अवहेलना नहीं कर सकता ।

(ii) छोटे राज्यों के लिए उपयोगी:

संघ छोटे तथा कमजोर राज्यों को एक अवसर देता है । छोटे राज्य स्वतंत्र रूप से अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते । वे विकास कार्यों के लिए पर्याप्त संसाधनों को आबंटित नहीं कर सकते और न ही अन्य राज्यों के साथ राजनयिक संबंध बना सकते हैं । बड़े और शक्तिशाली राज्यों के मध्य छोटे राज्यों का अस्तित्व अस्थिर होता है । छोटे राज्य अपनी पहचान की धारणा के साथ अपनी राजनीतिक आर्थिक और सैनिक समस्याओं को सुलझाने का लाभ उठाते हैं ।

(iii) स्थानीय स्वायत्तता का राष्ट्रीय एकता के साथ समन्वय:

एक संघ में लोग एक सशक्त राष्ट्र निर्माण के साथ स्थानीय स्वायत्तता के समन्वय के अवसर पाते हैं । ई.बी. शूज कहते हैं, ‘संघवाद के पक्ष में मुख्य तर्क है कि स्थानीय स्वायत्तता की संवैधानिक गारंटी अति-केंद्रीकरण के रास्ते में संतुलित प्रभावी गतिरोध है ।’ संघवाद के अंतर्गत स्थानीय समस्याएं स्थानीय प्रयासों से सुलझ जाती हैं । शक्तियों के बंटवारे के कारण एक क्षेत्र के लोग अपनी समस्या को जानने का अवसर पाते हैं और उसे अच्छे तरीके से सुलझाते हैं । इस प्रकार यह उन देशों के लिए उपयोगी है जहां बड़ी संख्या में नस्लीय सांस्कृतिक और भाषायी विभिन्नताएं होती हैं । यह राष्ट्रीय एकता तथा स्थानीय स्वतंत्रता को मिलाता है ।

(iv) विविधता में एकता:

एक संघ सरकार विविधता को बरकरार रखते हुए एकता प्राप्त करती है । लोगों को अपनी भाषा धर्म और संस्कृति को बचाने का व्यापक अवसर मिलता है । संघवाद जहां जरूरत होती है वहां विधायी तथा प्रशासनिक नीतियों में एकरूपता को संभव बनाता है और जहां मांग होती है वहां विविधता लाता है ।

परिसंघ संप्रभु राज्यों का एक संघ है जो सामान्य सुरक्षा व अन्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त होते हैं । उनके पास एक कार्यकारिणी व एक विधायिका होती है लेकिन उनकी शक्तियां सीमित हैं । यहां परिसंघ की कुछ परिभाषाओं का उल्लेख करना उचित होगा ।

हॉल के अनुसार- ‘एक परिसंघ एक संघ होता है जो राज्यों से भिन्न होता है तथा स्थायी तौर पर कुछ विशेष क्षेत्रों में अपनी स्वतंत्रता छोड़ने को सहमत होता है । ये सब एक सामान्य सरकार के अधीन होते हैं तथा राज्य अपने को अंतर्राष्ट्रीय एकता से अलग करते नजर आते हैं ।’

ओपेनीहिम कहते हैं- ‘एक परिसंघ के अंतर्गत कुछ पूर्ण संप्रभु राज्य होते हैं जो अपने बाहरी मामलों तथा स्वतंत्रता के लिए एक मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय संधि से जुड़े होते हैं ।’ 1776 से 1787 तक अमेरिका एक परिसंघ था लेकिन संयुक्त राष्ट्र एक परिसंघ नहीं है । उपरोक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि कुछ संप्रभु राज्य सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संयुक्त केंद्र की स्थापना करते हैं और अपनी इच्छा से कुछ शक्तियों को स्थानांतरित करते हैं ।

उनका संघ अपनी इच्छा से होता है । जो संघ बनाता है उस राज्य की संप्रभुता में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न नहीं होती । वे अपनी इच्छा से संघ छोड़ सकते हैं । संघ तथा परिसंघ दोनों ही शब्द लैटिन भाषा के शब्द फोएडस से लिए गए हैं । लेकिन दोनों के बीच कोई बड़ा अतर नहीं है । संघ उन राज्यों के नागरिकों पर कोई कर नहीं लगा सकता जो संघ का निर्माण करते हैं । घटक राज्य अपनी इच्छा तथा आवश्यकता होने पर परिसंघ में योगदान कर सकते हैं । वे निर्णयों को भी कार्यान्वित करते हैं ।

यह रिपोर्ट परिसंघ के प्रमुख लक्षणों का उदाहरण देती है:

इन उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि एक परिसंघ संप्रभु राज्यों का संगठन होता है जो किसी समझौते या अंतर्राष्ट्रीय कानून या संविधान द्वारा आपस में जुड़ते हैं तथा इसमें वे अपने कुछ सीमित अधिकार, विशेषकर विदेशी मामले में एक केंद्रीय एजेंसी को प्रदत्त करते हैं । इसे डाइट, सभा, परिषद या कांग्रेस कह सकते हैं तथा आमतौर पर इसके अनिवार्य प्रतिनिधि सदस्य राष्ट्रों द्वारा नियुक्त होते हैं ।

संघीय व्यवस्था का यह लक्षण है कि घटक इकाइयों की एकजुटता के प्रबल उद्देश्य के साथ-साथ स्वशासन की इच्छा की गहरी जड़ों का अस्तित्व भी इसमें होता है । इस प्रकार, सभी संघीय व्यवस्थाओं में शक्तियों का संवैधानिक बंटवारा एक प्रमुख लक्षण है ।


Essay # 6.

संघवाद की कार्यप्रणाली (Federalism at Work):

यद्यपि, संघ में अक्सर विकेंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था के लक्षण पाए जाते हैं, परंतु दोनों में अंतर है । संघ में न केवल जिम्मेदारियों का विकेंद्रीकरण होता है बल्कि घटक सरकारों द्वारा निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की संवैधानिक गारंटी भी होती है । इलैजर और ओसैग्रा संघों को गैर-विकेंद्रीकृत कहना पसंद करते हैं । विकेंद्रीकरण से तात्पर्य पदानुक्रम के साथ ऊपर से नीचे की ओर सत्ता के स्थानांतरण से है जबकि गैर-केंद्रीकरण संवैधानिक तौर पर सत्ता का ढांचागत बिखराव करता है जो संघ का एक आवश्यक लक्षण है ।

यद्यपि यह सामान्य लक्षण संघों को एकात्मक व्यवस्था से पृथक करता है जैसा नैथन तथा वाट्स ने कहा है । संघों के मध्य शक्ति की सीमा जिम्मेदारियों सरकार के विभिन्न स्तरों को दिए गए संसाधनों के आधार पर व्यापक विभेदताएं हैं । कोई भी मात्रात्मक सूचकांक प्रभावी क्षेत्रीय गैर-केंद्रीकरण को तथा उसमें निहित निर्णय लेने की स्वायत्तता को व्यापक रूप से माप नहीं सकता । बहुल सूचकांक जो गैर-बराबर हैं, उनमें विधायी तथा प्रशासनिक क्षेत्राधिकारों का बंटवारा. वित्तीय संस्थानों की अवस्थिति गैर-सरकारी संस्थाओं का विकेंद्रीकरण संवैधानिक सीमा तथा संघीय सरकार में घटक सरकारों का निर्णय-निर्माण की सहभागिता आदि स्तर आते हैं ।

किसी भी संघ में दो स्तर की सरकारों के बीच वित्तीय संसाधनों का बंटवारा दो कारणों से महत्त्वपूर्ण है । पहला, ये संसाधन सरकारों को दी गई विधायी तथा कार्यकारी जिम्मेदारियों की निभाने के लिए सक्षम बनाते हैं या उन्हें विवश करते हैं । दूसरा, कर तथा व्यय शक्ति स्वयं अर्थव्यवस्था को प्रभावित व नियमित करने के महत्त्वपूर्ण साधन हैं ।

यह असंभव सिद्ध हुआ है कि एक संघीय संविधान बनाया जाए जिससे स्वायत्त राजस्व स्रोतों के आबंटन से प्रत्येक स्तर की सरकार के खर्च की जिम्मेदारियां पूरी हो सकें । यदि यह आरंभ में संभव हो भी जाए तो विभिन्न चरणों के सापेक्ष मूल्य लागत और व्यय के क्षेत्रों में समय के साथ बदलाव असंतुलन पैदा करेगा ।

इसके अतिरिक्त, अधिकांश संघों ने घटक इकाइयों की राजस्व क्षमता की असमानता व असंतुलन को दूर करने का प्रयास किया है । ये राजकोषीय व्यवस्थाएं सरकारों के बीच अत्यधिक विवादास्पद मुद्दों में रही हैं और हाल ही की संघीय राजकोषीय बाधा ने इस तनाव पर जोर दिया है । इन संघों के साझा राजस्व प्रतिबंधित और अप्रतिबंधित अनुदान समकारी व्यवस्था तथा राजकोषीय व्यवस्थाओं के संबंध में इन संघों के तुलनात्मक अध्ययन ने सरकारों के बीच सहयोग तथा संघर्ष की प्रकृति पर प्रकाश डाला है ।

संघीय राजनीतिक व्यवस्थाओं का मुख्य उद्देश्य अपने क्षेत्र के घटक समुदायों की सुरक्षा करना है । सामान्यत: क्षेत्रीय समानता तथा साझा संस्थाओं में नागरिकों के समान प्रतिनिधित्व के बीच संघर्ष होता है । अधिकांश संघ इन दो प्रकार की समानताओं में संतुलन के इच्छुक होते हैं ।

इस प्रकार का संतुलन प्राप्त करने तथा इन संघों की अतिरिक्त राजनीतिक सक्रियता में साझा संस्थाओं के अंतर्गत कार्यकारी-विधायिका संबंध निर्णायक हैं । इस संबंध के विभिन्न रूप अमेरिका के कांग्रेसी ढांच में शक्ति का बंटवारा स्विदजरलेंड मैं निश्चित काल की कार्यकारिणी कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, बेल्जियम, भारत तथा मलेशिया में संसदीय जिम्मेदारी के साथ कार्यकारिणी विधायिका संयोग में इसके उदाहरण मिलते हैं । इन्होंने न केवल राजनीति व साझा संस्थानों के प्रशासन के चरित्र को रूप दिया बल्कि सरकारों के मध्य संबंधों की प्रकृति व संघों के अंतर्गत सहयोग या संघर्ष की भी उत्पत्ति की है ।


Essay # 7.

संघ के निर्माण की शर्तें (Conditions for the Formation of Federation):

(i) भौगोलिक समीपता:

संघ के लिए भौगलिक निकटता एक आवश्यकता । यदि इकाइयां भौगोलिक रूप से दूर होंगी तो उनका संघ नहीं बन सकता ।

(ii) संघ की इच्छा:

एक संघ का निर्माण तभी संभव है जब इकाइयों की इच्छा निश्चित सामान्य उद्देश्यों की हो । इसके लिए वे अपनी पहचान खोए बिना कुछ शक्तियां संघ को देते हैं ।

(iii) संघीय इकाइयों के मध्य विभेद की अनुपस्थिति:

राज्यों के मध्य अत्यधिक असमानता नहीं होनी चाहिए । यदि अत्यधिक अंतर होता है तो बड़े राज्य छोटे राज्यों के ऊपर प्रभुत्व जमाने की कोशिश करेंगे ।

(iv) पर्याप्त अत्यधिक संसाधन:

राज्यों के मध्य पर्याप्त आर्थिक संसाधन होना चाहिए । एक दोहरी सरकार में खर्चो पर अधिक जोर होता है । यदि राज्य के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तो वह प्रत्येक चीज के लिए केंद्र पर निर्भर रहेगा और केंद्र अपनी शर्तें लगाएगा ।

(v) सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं की समानता:

एक राज्य में सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं आमने-सामने होनी चाहिए ।

(vi) राजनीतिक शिक्षा:

संघ एक जटिल संयुक्त संस्था है और यदि इसके नागरिक राजनीतिक तौर से शिक्षित और प्रबुद्ध होंगे तो यह ठीक से कार्य करेगा ।

(vii) राष्ट्रीय भावना:

सभी इकाइयों में केंद्र के प्रति निष्ठा की भावना होनी चाहिए जिससे युद्धकाल और अन्य आपातकाल के समय वे सब एकजुट रह सकें ।


Essay # 8.

संघ तथा परिसंघ (Federation and Confederation):

सबसे पहले 1982 ई. में किंग द्वारा संघवाद और संघ में विभेद देखा गया । यद्यपि, इस आयातित विचार में कुछ अस्पष्टता देखी गई । किंग जैसों के लिए संघवाद एक नियामक तथा दर्शनात्मक संकल्पना थी जिसमें संघीय सिद्धांतों की वकालत की गई है । वहीं संघ एक विस्तृत शब्द है जो एक विशेष प्रकार के संस्थानिक संबंधों की ओर इशारा करता है ।

अन्य जैसे इलैजैर, बर्गेस और गैगमैन ने इन दोनों शब्दों को वर्णनात्मक बताया । उनके अनुसार- संघवाद राजनीतिक संगठनों की एक कोटि है जिसमें अनेक प्रजातियां जैसे संघ, परिसंघ से जुड़े राज्य, लीग, कोंडोमिनिलम्स संवैधानिक, क्षेत्रात्मकता तथा संवैधानिक गृह शासन आते हैं । संघवाद की व्यापक कोटि के अंतर्गत संघ एक प्रजाति है । वास्तव में, संघवाद और संघ पर बनी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विज्ञान संगठन की शोध कमेटी ने भी यह भेद स्वीकार किया है ।

नियामक संकल्पना के तौर पर संघवाद में एक या दो सामान्य संकल्पनाएं निहित हैं । एक है साझा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साझा प्रयास जो नागरिकों की वरीयता है और दूसरा अन्य उद्देश्यों के लिए घटक इकाइयों की स्वशासन नियामक संकल्पना । संघवाद इन दोनों तत्त्वों के व्यवहारिक संतुलन की वकालत करता है ।

यह संकल्पना जे हैमिल्टन की दी फेडरलिस्ट ऑफ मेडीशन (1788) से उत्पन्न हुई है तथा अंग्रेजी भाषी विश्व में इस प्रकार के संघवाद की पैरवी की है । इसके मुख्य उदाहरण हेयर (1963) तथा इलैजैर (1987) हैं । दूसरी संकल्पना विचारात्मक आधार पर उत्पन्न हुई जो विशेषकर अनेक यूरोपीय किंग (1982) तथा बर्गेस और गैगमैन (1993) के संघवाद की पैरवी करते हैं । संघ एक मिश्रित राज्य शासन विधि है जिसमें घटक इकाइयां और सामान्य सरकार नागरिकों द्वारा एक संविधान के जरिए प्रदत्त की गई शक्तियों का प्रयोग करती है ।

प्रत्येक सरकार नागरिकों से सीधे संबंध रखती है तथा विधायी, प्रशासनिक कराधान शक्ति का प्रयोग करने में सशक्त होती है तथा नागरिकों द्वारा सीधे चुनी जाती है । यद्यपि भारत एक संघ राज्य है संविधान में संघीय शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया गया है, इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का एक संघ होगा ।

इसने एक विवाद को जन्म दिया कि संविधान निर्माताओं ने भारतीय शासन व्यवस्था की प्रकृति की व्याख्या के लिए संघीय शब्द की बजाय संघ शब्द का प्रयोग किया गया है । यह संभवत: इस कारण होगा कि संघ शब्द संघीय शब्द की अपेक्षा दंश की एकता और अखंडता पर अधिक जोर देता है । आइए हम भारतीय संघवाद के मुख्य लक्षणों की चर्चा करें ।

भारतीय संघवाद एक अपकेंद्री संघवाद है । जब भारत स्वतंत्र हुआ तब उसे प्रशासनिक सुविधा के लिए राज्यों में बांट दिया गया था । सामजिक आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होने से संघवाद में भी परिवर्तन आया ।

इससे केंद्र की शक्ति बढ़ने लगी जिसका परिणाम केंद्रीकरण के रूप में आया । भारतीय संघवाद में यह सत्य है । भारतीय संघ प्रादेशिक है क्योंकि यह केंद्र तथा राज्यों के लिए दोहरी नीति अपनाता है । भारतीय संघवाद क्षैतिज है जो सशक्त एकात्मक की ओर झुकाव रखता है । इसका अर्थ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का बंटवारा है ।

भारतीय संघवाद लचीला है तथा आपातकालीन समय में वह एकात्मक में परिवर्तित हो जाता है । भारतीय संघवाद सहयोगात्मक है जो सामान्य हित के अनेक मामलों में केंद्र तथा राज्यों के मध्य सहयोग का प्रयत्न करता है । जैसा प्रो. डब्ल्यू.एच. मॉरिस-जॉन्स कहते हैं, न तो केंद्र और न ही राज्य एक-दूसरे पर निर्णय थोप सकते हैं ।


Essay # 9.

व्यवहार में संघवाद (Federalism in Practice):

संघवाद अमेरिकी संविधान (जो 1787 ई. से अस्तित्व में आया) जितना ही पुराना है । अंग्रेजों द्वारा शासित तेरह उपनिवेशों को अपनी स्वतंत्रता तथा एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए संघ की आवश्यकता थी । इसलिए सबसे पहले उन्होंने संयुक्त राज्यों के नाम से एक परिसंघ बनाया । तथापि वे युद्ध में विजयी हुए तथा तेरह उपनिवेशों को स्वतंत्रता प्राप्त हुई ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह महसूस किया जाने लगा कि राज्यों के प्रबंधन के लिए परिसंघ अधिक कारगर नहीं है । अत: वॉशिंगटन, हैमिल्टन, मेडिसन तथा अनेक नए राज्यों ने संघ के निर्माण का प्रयास किया । इस संदर्भ में 1787 की फिलाडेल्फिया सम्मेलन में उन्होंने यह सिद्धांत अपनाया कि केंद्र सरकार के कार्य तथा शक्तियां संविधान द्वारा परिभाषित व प्रगणित होंगी जबकि अवशिष्ट शक्तियां राज्यों से संबंधित होंगी । संयुक्त राज्य अमेरिका के राज्य भारत कनाडा तथा अमेरिका की केंद्र सरकार से भी ज्यादा शक्तियों का प्रयोग करते हैं । इस मामले में अमेरिका की केंद्र सरकार भारत तथा कनाडा की सरकार से तुलनात्मक रूप में कमजोर है ।

(i) स्विस परिसंघ:

अमेरिका के बाद, 1847 ई. में सात कैथोलिक केंटीन के संबंध विच्छेद के कारण स्विस परिसंघ अस्तित्व में आया । बहुसंख्यक प्रोटेस्टेंट ने अलग लीग बनाने वालों को कुचल दिया । सात कैथोलिक राज्यों की हार राष्ट्रीय एकता के प्रयास की जीत थी । स्विस लोगों ने जो संविधान अपनाया वह अमेरिकी व्यवस्था के काफी समीप था । संविधान स्विस परिसंघ कहता है, हालांकि वह वास्तव में संघ था ।

इस प्रकार परिसंघ शब्द भ्रमित करता है । स्विट्‌जरलैंड मैं केंद्र संयुक्त राज्य अमेरिका के केंद्र से अधिक शक्तिशाली है । स्विस केंद्र को सैनिक हस्तक्षेप का अधिकार है । केंद्र की शक्तियों को प्रगणित किया गया है तथा अवशिष्ट शक्तियां इकाइयों से संबंध रखती हैं । स्विट्‌जरलैंड में प्रशासनिक विकेंद्रीकरण है ।

(ii) ऑस्ट्रेलियाई संघ:

सशक्त सामान्य सुरक्षा के लिए ऑस्ट्रेलियाई संघ का निर्माण हुआ । 1 जनवरी, 1901 को इसने मूर्त रूप लिया । प्रगणित शक्तियां केंद्र से संबंधित हैं, वहीं अवशिष्ट शक्तियां राज्यों से संबंध रखती हैं ।

(iii) कनाडाई संघ:

बेहतर सुरक्षा और आर्थिक शक्ति के उद्देश्यों के साथ 1867 मैं कनाडाई संघ अस्तित्व में आया । अमेरिकी गृह युद्ध ने कनाडाई संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केंद्र के लिए प्रेरित किया । प्रगणित शक्तियां प्रांतों को दी गईं तथा अवशिष्ट शक्तियां केंद्र के पास थीं ।

 

(iv) सोवियत संघ:

साम्यवादी राज्यों मैं सोवियत संघ में संघीय सरकार थी । 1963 ई. में सोवियत रूस में संघीय सरकार की स्थापना हुई । संघ सरकार की शक्तियों को विनिर्दिष्ट किया गया तथा अवशिष्ट शक्तियां घटक गणराज्यों को दी गई । गणराज्यों की अलग होने का अधिकार है । प्रो. व्हेयर कहते हैं- 1936 का संविधान अर्ध-संघीय है लेकिन वह सोवियत संघ को एक कार्यरत संघीय सरकार नहीं मानते ।

(v) भारतीय संघवाद:

भारतीय संघवाद 1935 के भारत सरकार अधिनियम से शुरू हुआ । 26 जनवरी, 1950 को लागू हुए इंडिया अर्थात् भारत. राज्यों का एक संघ होगा । भारत संघ का एक विशिष्ट उदाहरण है । माइकल स्टेवर्ट नं मॉडर्न फर्म ऑफ गवर्नमंट में दर्शाया है कि भारतीय संघ ‘एक एकात्मक राज्य तथा एक संघात्मक राज्य के बीच का रूप है ।’ प्रो. के.सी. व्हेयर मानते हैं कि भारतीय संविधान अर्ध-संघीय है ।


Essay # 10.

बहु-स्तरीय संघवाद (Multi-Level Federalism):

भारत में संघीय सिद्धांतों के संस्थानीकरण को भारत की उत्तर-औपनिवेशिक समाज की विशिष्ट आवश्यकताओं के संदर्भ में समझना होगा । यद्यपि, लोकतंत्र और संघवाद पर्यायवाची नहीं हैं लेकिन भारत के संदर्भ में संविधान निर्माताओं ने ऐसा नहीं सोचा शायद वे भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता का ध्यान रख रहे थे ।

जबकि समय के साथ यह देखने में आया कि भारतीय संघवाद अपनी कसौटी पर खरा नहीं उतरा है । बिना कठिनाई हम यह कह सकते हैं कि इसकी कार्यप्रणाली में कुछ दोष हैं । राज्य निरंतर अपने साथ सौतेला व्यवहार होने की शिकायत करते हैं हिंसा की राजनीति होने तथा संबंध विच्छेद की मांग करते हैं । लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांत को ठीक से प्रयोग के लिए रूपांतरित नहीं किया गया । केवल प्रादेशिक प्रभुसत्ता को साझा करना तथा संसाधनों का बंटवारा करना अपर्याप्त सिद्ध हुआ ।

संघवाद अभी भी बहुल समाजों के लिए कारगर संस्थानिक व्यवस्था है । संघ व्यवस्था एकता तथा सामाजिक नृजातीय तथा क्षेत्रीय विविधता के बीच समझौते पर आधारित है । यह केंद्रीय शक्ति की आवश्यकता और शक्ति पर अंकुश या नियंत्रण के बीच प्रभावी है । हालांकि आवश्यकता इस बात की है कि (विविध समूहों और समुदायों के बीच उनके इतिहास और परंपराओं का सम्मान करते हुए, प्रभुसत्ता साझा करने के अधिकार को बढ़ाकर लोकतंत्र और संघवाद के बीच रिश्ते को सशक्त किया जाए ।

समकालीन पहलुओं के अनुसार ढांचागत संघीय भारत को बदलना होगा । यह अध्याय संगठनात्मक प्रबंध के तौर पर संघवाद के सैद्धांतिक पहलुओं की चर्चा करता है । इसके पश्चात् यह भारत में संघवाद की ऐतिहासिक उत्पत्ति की चर्चा करता है । इसके साथ संविधान के उन अनुच्छेदों के नए प्रावधानों की चर्चा करता है जो भारत को एक संघ बनाते हैं ।

तदुपरांत यह अध्याय भारतीय संघवाद के राजनीतिक तथा आर्थिक आयामों की चर्चा इन तीन आयामों के साथ करता है- सशक्त केंद्र को क्यों वरीयता दी गई थी उदारीकरण के युग में क्या रूपांतरण हुआ तथा स्वतंत्रता पश्चात् भूमंडलीकरण ने कैसे कार्य किया । अंत में अध्याय निष्कर्ष के रूप में कहता है कि भारत जैसे प्रादेशिक विभिन्नता तथा बहुल समाज के शासन के लिए संघवाद सर्वोत्तम साधन रहेगा ।

आधुनिक समय में संगठन की राजनीति प्रादेशिक राष्ट्र-राज्यों को केंद्रीय स्थान देती है । प्रादेशिक राज्य प्रभुसत्ता की शक्ति के प्रयोग द्वारा नागरिकों पर शासन करता है । इस प्रकार शासन में हमेशा एक प्रादेशिक आयाम है । आधुनिक समय में सभी राष्ट्र-राज्य प्रादेशिक आधार पर केंद्रीय और क्षेत्रीय प्रांतीय या स्थानीय संस्थानों में बंटे होते हैं ।

सामान्यत: आज के समय में प्रादेशिक संगठनों के दो सामान्य रूप पाए जाते हैं- संघीय और एकात्मक व्यवस्थाएं । संकल्पना के तौर पर सघीय व्यवस्था प्रादेशिक आधार पर नियंत्रण तथा संतुलन उपलब्ध कराती है सरकारों के कुछ कार्यों को लोगों के निकट लाती है और नृजातीय, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय भेदों में प्रतिनिधित्व देती है ।

इस प्रकार इसे बड़े और विविध समाजों के लिए सबसे उपयुक्त संस्थानिक व्यवस्था मानते हैं । इसका एक तीसरा रूप परिसंघ है लेकिन वह सामान्यत: अनुपयुक्त सिद्ध हुआ है । एक संघीय व्यवस्था निश्चित कार्य के आबंटन के साथ दो स्तर की सरकार की स्थापना करती है । कानूनी तौर पर दोनों में से कोई भी एक-दूसरे के अधीनस्थ नहीं हैं ।

कानूनी प्रभुसत्ता संघीय सरकार और घटक राज्यों के बीच साझा होती है । एक संघ से राज्यों का अस्तित्व और कार्य सुरक्षित होते हैं । इसका अर्थ है कि वे केवल संविधान संशोधन द्वारा ही परिवर्तित हो सकते हैं । राज्यों की यह सुरक्षित स्थिति संघों (जैसेकि अमेरिका और कनाडा) को एकात्मक सरकारों (जैसेकि यूनाइडेट किंगडम और फ्रांस) से भिन्न बनाती है ।

लगभग सभी संघों में राष्ट्रीय नीति-निर्माण में राज्यों के मत की गारंटी ऊपरी सदन (जिसमें राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है) द्वारा होती है । इस प्रकार संघवाद केंद्र और राज्यों के बीच प्रभुसत्ता को साझा करने का सिद्धांत है । यह बहुलवाद की वृहत विचारधारा का एक हिस्सा है । बहुलवाद विविधता या बहुविधता अर्थात् अनेक का अस्तित्व में विश्वास तथा प्रतिबद्धता है । ऐसा माना जाता है कि विविधता स्वस्थ और आवश्यक है क्योंकि यह स्वतंत्रता भागीदारी और जवाबदेही को प्रोत्साहन देती है ।

यह विश्वास करती है कि शक्ति को समाज में व्यापक तथा समरूप वितरित करना चाहिए न कि एक समूह या संस्था में केंद्रीकरण के आधार पर । परिणामस्वरूप यह लोकतंत्र के स्वस्थ रूप से कार्य करने का आधार प्रदान करती है । प्रभुसत्ता को साझा करना : केंद्रीय और प्रादेशिक प्रांतीय संस्थाएं दो संघ व्यवस्थाएं समान नहीं होतीं । केंद्रीय और क्षेत्रीय प्रांतीय या संस्थाओं के बीच प्रभुसत्ता साझा करना इसका एक मुख्य लक्षण है ।

कम-से-कम सैद्धांतिक तौर पर यह सुरक्षा देती है कि किसी भी स्तर की सरकार दूसरे की शक्तियों में अतिक्रमण नहीं करेगी । सिद्धांत रूप में यह लोकतांत्रिक मूल्यों जैसे- सहभागिता जवाबदेहिता वैधता आदि का अनुभव कराती है । स्थानीय संस्थाएं लोगों के अधिक समीप होती हैं. इसमें न केवल सरकार को सामाजिक हितों के प्रति बल्कि कुछ समूहों की विशेष आवश्यकताओं के प्रति भी जिम्मेदार बनाया जा सकता है ।

इसके साथ स्थानीय स्तर पर लिए गए निर्णय अधिक वैधता प्राप्त करते हैं । सरकारी शक्तियों के वितरण और नियंत्रण व संतुलन के नेटवर्क द्वारा यह संघ व्यवस्था व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संस्थाओं की स्वायत्तता की सुरक्षा करने में समर्थ होती है । कुछ एकात्मक राज्यों के विपरीत संघ आवश्यक तौर पर सोच-विचार कर संवैधानिक समझौते द्वारा उत्पन्न होते हैं ।

उदाहरण के तौर पर 1787 में फिलाडेल्फिया में 13 अमेरिकी राज्यों के प्रतिनिधियों की एक सभा ने संयुक्त राज्य अमेरिका की उत्पत्ति की । यह सम्मेलन विश्व के प्रथम संघ के रूप में परिणत हुआ और अनेक विद्वानों के द्वारा इसे आदर्श संघ माना गया ।

सभी अन्य संघीय व्यवस्थाएं जिसमें भारत भी शामिल है का अध्ययन अमेरिका के संदर्भ में होता है । अर्ध-संघवाद जो भारतीय संघवाद से जुड़ा आदि के लक्षण इन्हीं अकादमिक अध्ययनों का परिणाम हैं । इसी प्रकार का सम्मेलन कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया में भी हुआ । इस प्रकार संघवाद जैसाकि हम वर्तमान में समझते हैं कुछ सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पृथक इकाइयों के बीच समझौता है ।

आज के समय में एक संघ के निर्माण के लिए सैन्य तथा आर्थिक कारक एक आधार के रूप में महत्त्व खा चुके हैं । इक्कीसवीं सदी मैं कोई भी ऐसा बड़ा सामान्य खतरा नहीं है जिसकी वजह से प्रभुसत्ता को साझा करने की आवश्यकता पड़े । गठबंधनों का निर्माण इस उद्देश्य को पूरा कर सकता है । इसके अतिरिक्त राजनीतिक प्रभुसत्ता से समझौता किए बिना आर्थिक लाभों की भी मुक्त व्यापार क्षेत्रों के निर्माण से बढ़ाया जा सकता है ।

हालांकि, कुछ देशों में जी राज्य की एकता एक बहुराष्ट्रीय तथा बहुलवादी समाजों के अंतर्गत बरकरार रखना चाहते हैं वहां नृजातीय संघवाद ध्यान आकर्षित कर रहा है । ऐसा दावा किया जाता है । इस प्रकार का संघवाद एकता में विविधता की अनुमति देता है । अत: यह विविध राजनीतिक समाजीं, जहां पहचान का विवाद रहता है. वहां की स्थितियों के लिए एक आदर्श होगा ।

भारत तथा श्रीलंका जैसे समाजों के लिए यह सत्य है । बड़े तथा विविधता वाले राज्यों में संघीय व्यवस्था शासन का लोकप्रिय तरीका बन गया है । आधुनिक समाजों के लिए संघीय व्यवस्था सबसे उपयुक्त है । ये स्व-शासन तथा स्वशासन पर आधारित होती है ।


Essay # 11.

संघवाद के नए संदर्भ (New Contexts of Federalism):

भारतीय संघवाद के उद्‌भव की प्रक्रिया- राजनीतिक विकास, क्षेत्रीय पहचान का उदय एक दल के प्रभुत्व काल का अंत, संविधान की न्यायिक व्याख्या आदि से प्रभावित हुई है । तीन दशकों के विचार, जैसे पहले चर्चा की गई है. में भारतीय राष्ट्र को परिभाषित किया गया है कि कैसे राष्ट्र विदेशी कब्जे से मुक्त हुआ तथा स्वतंत्र भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की रूपरेखा ने राष्ट्रीय नेतृत्व को वे विचार व उद्देश्य दिए जिससे नव-स्वतंत्र राष्ट्र का शासन चलाया जा सके ।

इन सब उद्देश्यों में सबसे ऊपर राष्ट्रीय एकता व गरिमा को सभी आंतरिक व बाह्‌य खतरों से हर कीमत पर बचाना था । देश का विभाजन केवल उनके संकल्पों को मजबूत करता है । असंतुष्ट घरेलू, जातीय, धार्मिक भाषायी और सांस्कृतिक समूह की मांग के साथ निपटने मैं आजादी के बाद से दो कड़े नियमों का पालन किया गया ।

पहला किसी भी अलगाववादी आंदोलन को अवैध माना जाएगा तथा यदि आवश्यकता हुई तो उसे सशस्त्र बलों की मदद से कुचला जाएगा । स्वतंत्र भारत में सभी अलगाववादी मांगों को जो मजबूती पकड़ रही थीं, विशेषकर देश के उत्तर-पूर्व के राज्यों और बाद में पंजाब और कश्मीर में इसी प्रकार से निपटा गया ।

दूसरा किसी धार्मिक समुदाय के किसी रूप में राजनीतिक मान्यता की मांग पर रोक है । धार्मिक अल्पसंख्यकों के कानूनों व रीतियों को बचाए रखने की स्वतंत्रता होगी (जिन्हें वे उचित समझें) लेकिन वे अपने समुदाय के लिए यहां तक कि भारतीय संघ के अंतर्गत भी पृथक निर्वाचन या सरकारी निकायों में अनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग नहीं रख सकते ।

स्वतंत्रता के पश्चात् केंद्र-राज्य तनावों तथा विरोधाभासों में बड़ा परिवर्तन आया । हितों पर विचार पर बड़ा राजनीतिक विवाद था । केंद्र में शासन करने वाले दल और व्यापक प्रकार के विरोधी दलों के बीच की शक्ति किसी भी काल में केंद्रों को विकल्प देती है गठबंधन के रूप में केंद्र में तथा विभिन्न क्षेत्रों में ।

एक समानांतर प्रवृत्ति आर्थिक विवादों के साथ प्रदर्शित हुई । बढ़ते शहरी तथा ग्रामीण श्रमिक वर्ग और शासक वर्ग तथा परिवर्तित विकास के तर्क से निर्बल होते श्रमिक संगठनों में विरोधाभास देखा गया है । स्वतंत्रता प्राप्ति तथा विखंडन के पश्चात् ही केंद्र-राज्य संबंधों में सांस्कृतिक तथा भाषायी मतभेदों ने नए राजनीतिक मुहावरे जोड़ दिए । जहां राजनीतिक तथा आर्थिक तनाव केंद्र-राज्य तनावों के आयाम का विकास करते हैं वहीं सांस्कृतिक भाषायी तथा यहां तक कि सांप्रदायिक तनाव कुछ निश्चित परिस्थितियों में महत्त्व रखते हैं ।

भाषा तथा संस्कृति पर गैर हिंदीभाषी राज्यों (विशेषकर उन प्रदेशों में जो भारत के हिंदी- भाषी मूल क्षेत्र-उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान से बाहर थे ।) ने जोर दिया तथा यह बहुराष्ट्रीयता जिनसे भारत निर्मित हुआ का विशेष लक्षण है । न्यायोचित राजनीतिक शक्ति तथा कमजोर प्रदेशों के लिए विशेषाधिकार की मांग आर्थिक संसाधनों की मांग विभिन्न राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता के रूप में आई । इसके साथ-साथ केंद्रीय संसाधनों का (हिंदी भाषी मूल क्षेत्र से दूर) राज्यों में उदार निवेश की मांग की गई ।

विवादों की प्रकृति तथा उसके समाधान ने भारत के राजनीतिक विकास के तरीकों का अनुसरण किया । समकालीन समय में दल व्यवस्था में हुए परिवर्तन केंद्र तथा राज्य स्तर पर गठबंधन राजनीति के उदय ने संघ के समीकरणों को पुन: लिखा । भारतीय संसदीय संघवाद और गठबंधन राजनीति के बीच संबंध थोड़े उदार हैं । राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय दलों में अंतर उनकी स्पर्धा के आधार पर नहीं होता है । उनमें से अधिकतर विधानसभा तथा संसदीय चुनाव दोनों के लिए ही स्पर्धा करते हैं ।

भारत में राज्य जनसंख्या तथा आकार के आधार पर भिन्न हैं तथा वे विभिन्न दावों के लिए संसद में कार्य करते हैं । राष्ट्रीय स्तर पर उनके बढ़ते महत्त्व से वे केंद्रीय दलों की चतुराई तथा विवेक को कम करने में समर्थ हुए हैं । यह भारत में संघीय संबंधों को पुनर्जीवित करने के परिणाम के रूप में आया ।

एक नया बदलाव आर्थिक क्षेत्र में भी देखने को मिला । स्वतंत्रता पश्चात् लिए गए विकास मार्ग में परिवर्तन आया तथा भारत ने उदारवाद के द्वारा सुधार का रास्ता अपनाया । आर्थिक सुधार तथा भूमंडलीकरण ने भारतीय संघ व्यवस्था के निरीक्षण को आवश्यक बना दिया ।

विशेषकर जब संघ की सभी परतें साथ-साथ विदेशी सरकारों तथा भूमंडलीय आर्थिक निगमों से रूबरू होती हैं । समकालीन भारत में नियोजित बाजार अर्थव्यवस्था में परिवर्तन राज्य की भूमिका को पुन: परिभाषित करने तथा विकेंद्रीकरण के स्पष्ट लक्षण पाए जाते हैं । परंपरागत मौजूदा व्यवस्था आर्थिक संसाधनों के संवैधानिक बंटवारे पर आधारित थी । सामाजिक इजीनियरिंग के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था में केंद्रीकृत नियोजन को अपनाया गया ।

आर्थिक तथा सामाजिक नियोजन ने आर्थिक शक्तियों को केंद्र में निहित किया है । समय के साथ विकास जैसे योजना आयोग का निर्माण मुख्य आर्थिक संस्थानों जैसे बैंकिंग बीमा आदि के राष्ट्रीयकरण ने केंद्र की आर्थिक स्थिति को मजबूत किया तथा राज्यों पर राजनीतिक नियंत्रण बढ़ा क्योंकि वे वित्तीय क्षेत्र में केंद्र पर निर्भर थे । भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1980 में धीरे-धीरे हुई तथा 1990 के प्रारंभ में बाहरी संकट के दबाव में इसने गति पकड़ी ।


Essay # 12.

संघवाद के राजनीतिक तथा राजस्व आयाम (Political and Fiscal Dimensions of Federalism):

भारत जैसे जटिल और सांस्कृतिक विषम लोकतंत्र ने संघीय संस्थागत व्यवस्था के माध्यम से अपनी विविधता का प्रबंध करने का प्रयास किया । लेकिन भारतीय समाज में समूहों की अधिक-से-अधिक शक्ति. संसाधन और स्वायत्तता के लिए मांग बढ़ गई है । कुछ मांगों को केंद्र-राज्य संबंधों के रचनात्मक प्रबंधन के द्वारा राजनीतिज्ञों दलों तथा सरकार ने सफलतापूर्वक शामिल कर लिया ।

प्रबंध योग्य बनाए रखने के लिए केंद्र-राज्य संबंधों को दृढ़ता से खड़ा किया । शक्तिशाली समूह की मांग मुख्य रूप से राज्य के भीतर संघर्ष का उत्पाद रहते हैं और शायद कभी राज्यों की मांग के रूप में आते हैं जो मुख्य रूप से केंद्र से टकराती है तथा यदि निराश होती है तो अलगाववादी भावनाओं को उत्पन्न कर सकती है । फिर भी कुछ मामलों में चीजें गलत तथा हिंसक अलगाववादी आंदोलनों के रूप में आती हैं जो केंद्र के निहितार्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अंतर्निहित होती हैं ।

स्विस संविधान में ”परिसंघ” शब्द का प्रयोग किया गया है जो केंटोन के संगठन की प्रकृति की ओर इशारा करता है जबकि संविधान विशेषज्ञ इसे संघ के रूप में चित्रित करते हैं । हालांकि प्राय: इन दोनों शब्दों परिसंघ और संघ का प्रयोग एक-दूसरे के लिए होता है लेकिन उनका अर्थ बिलकुल भिन्न है ।

एक संघ में सामान्य सरकार तथा कुछ क्षेत्रीय सरकार होती हैं जिनमें से प्रत्येक एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप में संविधान से प्राप्त सत्ता का प्रयोग करती है । एक परिसंघ जैसा ओपेनहेम कहते हैं कुछ संप्रभु राज्य अपनी बाहरी तथा अंतर्राष्ट्रीय संधि को बरकरार रखने के लिए आपस में एक संघ से जुड़ते हैं तथा इसके अंगों को कुछ शक्तियां दी जाती हैं ।

लेकिन इन राज्यों के नागरिकों पर केंद्र शक्तियों का प्रयोग नहीं करता । इस प्रकार परिसंघ संप्रभु राज्यों का एक संगठन है जो सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बना है । इसका निर्माण एक औपचारिक समझौते या सदस्य राज्यों के बीच अनुबंध से होता है ।

1815 से 1840 के स्विस परिसंघ तथा 1787 के अमेरिकी संविधान से पहले के परिसंघों के अनुच्छेद (1777) परिसंघ का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं । 1777 के अनुच्छेद तथा 1787 का अमेरिकी संविधान परिसंघ तथा संघ में सर्वोत्तम अंतर स्पष्ट करता है ।

परिसंघ के अनुच्छेदों के अंतर्गत एकल कांग्रेस जिसमें प्रत्येक राज्य से प्रतिनिधियों को एक वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है उनके पास युद्ध तथा शांति राजदूतों को भेजना तथा बुलाना संधि तथा समझौता मुद्रा तथा कुछ अपवादों को छोड़कर स्थल तथा नौसेना का नियमन आदि की अनन्य शक्तियां होती हैं ।

लेकिन अपनी इन शक्तियों के प्रयोग के लिए कांग्रेस तेरह संप्रभु सदस्य राज्यों की सहमति पर निर्भर होती है । इस प्रकार 1787 के संविधान से पहले सामान्य सरकार की प्रादेशिक सरकारों पर निर्भरता के लक्षण पाए जाते थे । वर्तमान संघीय संविधान अपने पूर्ववर्ती से भिन्न है । वर्तमान संगठन का सिद्धांत सामान्य तथा प्रादेशिक सरकारों का अपने-अपने क्षेत्र में सहयोग तथा स्वतंत्र स्थिति का है ।

संघ की भांति ही परिसंघ में सदस्य राज्य कुछ निश्चित सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एकत्र होते हैं तथा इन उद्देश्यों के लिए उपर्युक्त केद्रीय मशीनरी का निर्माण किया जाता है । इन दोनों में समानता प्रतीत होती है परंतु फिर भी संघ तथा परिसंघ में महत्त्वपूर्ण अंतर है ।

पहला, राज्यों के इन समागमों में संगठन का सिद्धांत एक-दूसरे से भिन्न है । परिसंघ में अधीनस्थता का सिद्धांत है- सामान्य सरकार प्रादेशिक सरकार के अधीन होती है । वही संघ में सामान्य तथा प्रादेशिक सरकारें अपने निश्चित क्षेत्र में स्वतंत्र रहते हुए सहयोग करती हैं । दूसरा एक मूल अंतर दोनों प्रकार के संघों की संप्रभुता के स्रोत में है । एक परिसंघ संप्रभु राज्यों की एक लीग है वहीं दूसरी ओर संघ एक नए राज्य को शामिल करता है ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परिसंघ संप्रभु राज्यों के बीच एक निश्चित संबंध को दर्शाता है । इसलिए प्रख्यात विचारक जैसे जेल्लीनेक, लैंबेंड तथा ओपेनहीम इसे राज्य नहीं मानते । जबकि एक संघ के अंतर्गत एक नए राज्य के निर्माण की प्रक्रिया में राज्य अपनी संप्रभुता खो देते हैं; इसमें ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपनी संप्रभुता नए राज्य को सौंप दी है ।

तीसरा परिसंघ एक अस्थायी संघ है जो सदस्य राज्यों की सहमति से अंतर्राष्ट्रीय सधि में भाग लेता है । दूसरी ओर संघ एक स्थायी संगठन है तथा इसकी कुछ निश्चित मूल, विधि परायणता है । एक परिसंघ में संप्रभु राज्यों को किसी भी समय परिसंघ से अलग होने की प्राकृतिक रूप से स्वतंत्रता होती है । इस प्रकार अलगाव का कानूनी अधिकार संघ की इकाइयों के पास नहीं । इस प्रकार यदि परिसंघ में शामिल राज्य आपसी सशस्त्र विद्रोह या तनाव में फंसते हैं तो यह अंतर्राष्ट्रीय युद्ध का रूप ले लेता है । वहीं संघ में इस प्रकार का तनाव गृह-युद्ध कहलाता है । यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि परिसंघ का ढीलाढाला ढांचा इसे अस्थिर संघ बना देता है । सामान्यत: परिसंघ का अंत अलगाव विघटन संघ या एकात्मक राज्य के निर्माण से होता है । इसके विपरीत संघ काफी स्थिर है ।

अंतिम, एक संघ में केंद्र तथा राज्य सरकारें लोगों पर प्रत्यक्ष कार्य करती हैं, वहीं परिसंघ मैं केंद्रीय सरकार राज्य सरकारों पर कार्य करती है और राज्य सरकारें अकेले ही लोगों पर प्रत्यक्ष कार्य करती हैं । एक परिसंघ स्थायी संगठन है जो दो या अधिक राज्यों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय कानूनी समझौते पर आधारित होता है । वे राज्य अपनी प्रभुसत्ता तथा कानूनी समानता अपने पास रखते हैं तथा उनका उद्देश्य अपने संगठन के माध्यम से अतिरिक्त तथा बाह्‌य उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है । नई स्थापित सत्ता राज्यों का अतिक्रमण नहीं करती बल्कि उसका एक अपना स्थायी अंग उसे दूसरे से भिन्न करता है ।

इस कारण एक परिसंघ के पास अंतर्राष्ट्रीय कानूनी चरित्र होता है । वहीं दूसरी ओर एक संघ राज्य एक जटिल सत्ता है जिसमें मौजूदा राज्य शामिल है. एक नए प्रकार का राज्य ढांचा है जो संविधान पर आधारित है । संघ राज्य, राज्यों के लक्षणों ( क्षेत्र जनसंख्या, राजनीतिक संगठन) का तो रखते हैं परंतु वह राज्य की आवश्यक विशेषता संप्रभुता को जब्त कर लेते हैं ।


Essay # 13.

नए राज्यों में संघवाद (Federalism in New States):

नव-स्वतंत्र राज्यों में संघवाद का परंपरागत सिद्धांत बदलता हुआ नजर आ रहा है । भारत तथा मलाया इसके उदाहरण हैं जो शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता का प्रावधान करते हैं तथा सहयोगी संघवाद के विस्तृत यंत्र हैं । इन उभरते संघवादों के राजनीतिक समाजों में अधिक विविधता पाई जाती है । अत: संघ की संस्थाएं समाज की संघीय प्रकृति को प्रतिबिंबित करती हैं ।

लेकिन इसके साथ-साथ व्यापक सामाजिक सुधारों की आवश्यकता तथा त्वरित आर्थिक वृद्धि की आवश्यकता ने इन राज्यों को व्यापक आर्थिक नियोजन की दिशा की ओर बढ़ाया । नियोजन तथा संघ के बीच किसी प्रकार का गठबंधन संघ के लिए आपदा ही लाता है।

योजना केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है, जिससे संघवाद बचना चाहता है । इसके अलावा. कुछ उभरते संघों मैं एकदलीय व्यवस्था की वरीयता ने संविधानिक ढांचे में पहले से मौजूद केंद्रीकरण की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है । ये राजनीतिक शक्तियां इन देशों में केंद्रीकृत संघवाद को लाईं तथा वे देश धीरे- धीरे अपने आप को इसके अनुकूल बना रहे हैं ।

निष्कर्ष:

संघवाद, संघीय व्यवस्था तथा संघों पर मौजूद वृहत साहित्य, हमें तीन व्यापक निष्कर्षो पर पहुंचाता है । पहला, समकालीन संघीय राजनीतिक व्यवस्था में साझा-शासन तथा स्व-शासन दोनों पाए जाते हैं तथा यह प्रतिनिधि संस्थानों के द्वारा एकता तथा विविधता के लाभों को प्राप्त करने का व्यावहारिक रास्ता है । परंतु यह बीमार राजनीतिक मानवता के लिए रामबाण नहीं है ।

दूसरा, एक संघीय राजनीतिक व्यवस्था की प्रभावशीलता संवैधानिक आदर्शों तथा ढांचे को मानने की आवश्यकता, समझौते तथा सहनशीलता की इच्छा को लोगों द्वारा कितना स्वीकार किया जाता है, आदि बातों पर निर्भर करती है । तीसरा व्यापक तथा संकीर्ण दोनों ही स्तर पर संघीय विचार को लागू करने में विविधता पाई जाती है ।

परिणामस्वरूप, एक संघीय व्यवस्था ने कितनी राजनीतिक सत्यताओं को समायोजित किया है, केवल संघीय व्यवस्था अपनाने पर निर्भर नहीं करता बल्कि इस बात पर निर्भर करता है, कि उस व्यवस्था ने समाज की आवश्यकताओं को पर्याप्त अभिव्यक्त किया है या नहीं ।

अंतिम तौर पर संघवाद का प्रयोग व्यावहारिक संभावित उपागम है तथा बदलती परिस्थितियों में इसका प्रयोग नवीन संस्थागत खोजों को अपनाए जाने पर निर्भर करेगा । हालांकि, यह अचूक नहीं है परंतु संघवादी व्यवस्थाओं तथा संघवादी विचारों ने विश्व में सुलह का एक माध्यम प्रस्तुत किया है ।

विद्वानों के सामने यह चुनौती है कि वे सघन, वस्तुनिष्ठ तथा तुलनात्मक विश्लेषण करके संघीय व्यवस्थाओं की बेहतर समझ में योगदान करें तथा नई संघीय व्यवस्थाओं तथा पहले से मौजूद व्यवस्थाओं को अधिक प्रभावी बनाएं ।


Home››Essay››Federalism››