विदेश व्यापार पर निबंध | Here is an essay on ‘Foreign Trade’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Foreign Trade’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का परिचय (Introduction to Foreign Trade):

किसी देश के आर्थिक विकास में उसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की भूमिका के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विचार हैं । परम्परावादी और नव-परम्परावादी अर्थशास्त्रियों ने विशेषतया अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास संवर्धक प्रभावों पर बल दिया है ।

उनका मत है कि विदेशी व्यापार किसी देश के आर्थिक विकास में प्रभावशाली योगदान कर सकता है । व्यापार को केवल उत्पादक दक्षता प्राप्त करने का यन्त्र नहीं बल्कि विकास का इंजन भी माना गया है ।

हेबरलर और एलेक केरनक्रास (Haberler and Sir Alec Cairncross) ने परम्परावादी स्थिति कि विदेशी व्यापार, आरम्भिक वस्तुओं का निर्यात करने वाले देशों के विकाम में पर्याप्त योगदान कर सकते हैं को बनाये रखने का प्रयत्न किया है ।

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प्रो. हेबरलर के अनुसार- ”अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में अल्प विकसित देशों के विकास में बहुत योगदान किया है तथा यदि उसे स्वतन्त्रतापूर्वक आगे बढ़ने दिया जाये तो यह भविष्य में भी उतना बड़ा योगदान करेगा ।”

इसके विपरीत, गन्नर मायरडल और रॉल प्रिबिच (Gunnar Myrdal and Raul Prebisch) ने तर्क प्रस्तुत किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने निर्धनतर राष्ट्रों में औद्योगिक विकास का अवरोध किया है और परम्परावादी मुक्त व्यापार के कारण अन्तर्राष्ट्रीय असमानताएं उत्पन्न हुई हैं ।

इस दृष्टिकोण के अनुसार विदेशी व्यापार, अन्तर्राष्ट्रीय असमानताओं की ओर ले गया है जिससे समृद्ध देश निर्धन देशों की कीमत पर और भी समृद्ध हो गये हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि अल्प विकसित देशों के लिये विदेशी व्यापार ने घरेलू जीवन स्तर को ऊपर उठाने में बहुत सहायता नहीं की है ।

हाल ही में कुछ अर्थशास्त्रियों ने यहां तक कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने अल्प विकसित देशों के विकास को प्रोत्साहित करने के स्थान पर, वास्तव में, अर्थव्यवस्था की दो-पक्षीय प्रकृति के कारण बाधा डाली है ।

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तथापि एम. पी टोडारो ने दृढ़तापूर्वक कहा है कि व्यापार और विकास से सम्बन्धित निम्नलिखित पाँच समस्याओं के विश्लेषण के पश्चात् ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं ।

ये समस्याएं हैं:

(i) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किस प्रकार अल्प विकसित देशों के विकास की दर, संरचना और स्वरूप को प्रभावित करता है |

(ii) क्या व्यापार विदेशी और घरेलू समानता अथवा असमानता के लिये एक शक्ति है?

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(iii) वे कौन सी शर्तें हैं जिनके आधार पर व्यापार अल्प विकसित देशों के विकास की प्रक्रिया में सहायक हो सकता है?

(iv) क्या अल्प विकसित देश अपने लिये व्यापार की मात्रा निर्धारित कर सकते हैं?

(v) पिछले अनुभवों और भविष्य की सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुये क्या अल्प विकसित देशों को स्वतन्त्र व्यापार अथवा बाहर की ओर देखने वाली नीति अथवा बचाव पूर्ण नीति अथवा भीतर देखने वाली नीति अपनानी चाहिये?

अब विकासशील देशों के लिये एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किसी देश के विकास में हितकर भूमिका निभा सकता है ? अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के समर्थकों और आलोचकों दोनों के पास इसके आर्थिक विकास के यन्त्र के सम्बन्ध में दृढ़ तर्क हैं ।

इसलिये आवश्यक है कि अल्प विकसित देशों के सन्दर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विकास संवर्धक और लाभप्रद प्रभावों तथा विकास प्रतिबन्धक अथवा हानिकारक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण किया जाये ।

Essay # 2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का वृद्धि संवर्धक अथवा लाभप्रद प्रभाव (Beneficial Effects of Foreign Trade):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभप्रद अथवा वृद्धि संवर्धक प्रभावों का मुख्यत: निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है:

1. अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञता के लिये लाभ (Benefits for International Specialisation):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किसी देश को प्रतियोगितापूर्ण लागतों पर अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञता के लाभ प्राप्त करने के योग्य बनाता है । प्रत्येक देश उन वस्तुओं की विशेषज्ञता प्राप्त करता है और निर्यात करता है जिन्हें यह उनके विनिमय में सस्ती उत्पादित कर सकता है जो अन्य कम लागत पर उपलब्ध करवा सकते हैं ।

जब कोई देश अपने तुलनात्मक लाभों के अनुसार विशेषज्ञता प्राप्त करता है तो उसकी वास्तविक आय में वृद्धि होती है तथा फलत: इससे लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठता है ।

जे. एस. मिल ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के इस पहलू पर बल दिया और स्वीकार किया कि तुलनात्मक लाभ व्यापार ‘विश्व की उत्पादक शक्तियों के अधिक दक्ष नियोजन’ में परिणामित होता है और इसे ‘अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार’ सीधा मितव्ययी लाभ माना जा सकता है ।

इसलिये, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किसी देश के साधनों के बेहतर और अधिक दक्ष उपभोग के योग्य बना कर इसकी वास्तविक राष्ट्रीय आय बढ़ाता है और वृद्धि संवर्धक प्रभाव रखता है ।

2. बाजार को विस्तृत करना और उत्पादकता बढ़ाना (Widening of Market and Raising Productivity):

यह तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि बाजार के विस्तार से उत्पन्न होने वाले उत्पादकता लाभ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के परिणाम हैं । उत्पादकता में सुधार बड़े स्तर पर यन्त्रीकरण और नवप्रवर्तन की बड़ी सम्भावना तथा अधिक श्रम विभाजन के परिणामस्वरूप होता है ।

कहा जाता है कि बाजार की सीमा और श्रम के विभाजन के क्षेत्र विस्तृत करके मशीनरी का अधिक उपयोग किया जा सकता है । नवप्रवर्तन प्रोत्साहित होते हैं, तकनीकी अविभाज्यताओं को पार किया जा सकता है, श्रम की उत्पादकता बढ़ती है और व्यापार करने वाले देश को बढ़ते हुये प्रतिफलों और आर्थिक विकास का लाभ प्राप्त होता है ।

मिल ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से उत्पन्न होने वाले परोक्ष गतिशील लाभों के रूप में श्रेणीबद्ध किया है । इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बाजार के आकार को बढ़ा कर अर्थव्यवस्था पर गतिशील प्रभाव डालता है । बदले में यह उच्च दर पर उत्पादन बढ़ाने में सहायता करता है । फलत: देश बाहरी और आन्तरिक परिमाप की मितव्ययताओं के लाभों का आनन्द उठाता है ।

3. उच्च वृद्धि क्षमता के लिये सहायक (Helpful for High Growth Potential):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किसी देश के विकास में सहायता कर सकता है जिससे यह निम्न विकास वृद्धि की बचत वाली घरेलू वस्तुओं का विनिमय उच्च वृद्धि क्षमता वाली विदेशी वस्तुओं से करने के योग्य हो सके ।

हिक्स अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के इस वृद्धि संवर्धक पहलू पर बल देते हुये कहते हैं कि व्यापार कम वृद्धि क्षमता वाली वस्तुओं का अधिक वृद्धि क्षमता वाली वस्तुओं से विनिमय के अवसर प्रदान करता है, जिससे वह प्रगति तीव्र होती है जो बचत पक्षों पर दिये गये प्रयत्न से होती है । यह पूंजी वस्तुओं और विकास कार्यों के लिये वांछित सामग्री के आयात के अवसर उपलब्ध करवाता है ।

मशीनरी, यातायात से सम्बन्धित सामग्री, वाहन, ऊर्जा उत्पादक साजो सामान, सड़क निर्माण वाली मशीनरी, दवाइयां, रासायनिक पदार्थ तथा उच्च विकास क्षमता वाली अन्य वस्तुओं का आयात विकासशील देशों को अधिक लाभ उपलब्ध करवाता है ।

4. व्यापार का शिक्षात्मक प्रभाव (Educative Effect of Trade):

कहा जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तकनीकी ज्ञान के प्रसार के वाहन के रूप में कार्य कर सकता है । ज्ञान का अभाव किसी देश के विकास में सबसे बड़ा अवरोध हो सकता है और इस अवरोध को अधिक उन्नत देशों के साथ सम्पर्क साध कर प्रभावी ढंग से दूर किया जा सकता है अर्थात् इसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा सम्भव बनाया जा सकता है ।

तकनीकी जानकारी और निपुणताएं तकनीकी उन्नति का अत्यावश्यक साधन है तथा विचारों का आयात विकास के लिये एक कुशल प्रोत्साहन है । मिल के अनुसार- व्यापार अल्प विकसित देशों को ‘विदेशी कलाओं के परिचय’ द्वारा सहायता करता है, जो अतिरिक्त पूंजी से प्राप्त प्रतिफलों को स्वयं की इच्छा की कम शक्ति के अनुकूल दर से बढ़ाता है ।

इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विकासशील देशों के लोगों पर शिक्षात्मक प्रभाव हो सकता है जो तकनीकी एवं औद्योगिक क्रांति लाने में सहायक हो सकता है ।

5. पूंजी निर्माण (Capital Formation):

कहा जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पूंजी निर्माण को बढ़ाने में सहायक होता है । वास्तविक आय बढ़ने से बचत की क्षमता बढ़ती है । आय में वृद्धि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जुड़े हुये अधिक कुशल साधन-निर्धारण से होती है ।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार निवेश के लिये प्रोत्साहन उपलब्ध करवाता है तथा इस प्रकार पूंजी निर्माण को बढ़ाता है । यह प्रोत्साहन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार द्वारा उपलब्ध करवाये गये विस्तृत बाजारों से बढ़ते हुये प्रतिफल प्राप्त करने की सम्भावना से आता है ।

इसके अतिरिक्त, बड़े स्तर के उत्पादन की मितव्ययताओं की इजाजत देकर, विदेशी बाजारों तक पहुंच उत्पादन की अधिक उन्नत तकनीकों को अपनाने को लाभप्रद बनाती है । अत: अल्प विकसित देशों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अधिक पूंजी निर्माण की स्थितियां उत्पन्न करके उनके आर्थिक विकास में सहायता कर सकता है ।

6. विदेशी पूंजी के आयात का आधार (Basis of Impact of Foreign Capital):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार विदेशी पूंजी के आयात के लिये उचित स्थितियों की रचना द्वारा विकास संवर्धन में सहायता करता है । हेबरलर तर्क प्रस्तुत करते हैं कि व्यापार वह वाहन है जो पूंजी के अन्तर्राष्ट्रीय चलन को विकसित देशों से अल्प विकसित देशों की ओर संचालित करता है ।

पूंजी की मात्रा जो एक अल्प विकसित देश विदेशों से प्राप्त कर सकता है काफी हद तक इसके व्यापार की मात्रा पर निर्भर करती है । व्यापार की मात्रा जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक विदेशी पूंजी उस देश को प्राप्त होने की सम्भावना होगी । यह एक मान्य तथ्य है कि निर्यात उद्योगों के लिये विदेशी पूंजी प्राप्त करना बहुत सरल है क्योंकि उनमें स्थानान्तरण समस्या का निर्मित समाधान होता है ।

7. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार निर्धनता के कुचक्र को तोड़ने में सहायता करता है (Foreign Trade Helps in Breaking Vicious of Poverty):

अल्प विकसित देशों में निर्धनता का कुचक्र विद्यमान रहता है । इसका अर्थ है-कम आय, मांग की कमी और मांग का अभाव जो निम्न पूर्ति का कारण बनता है और बदले में निम्न आय का कारण बनता है ।

परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अल्प विकसित देशों को उन वस्तुओं को अधिक उत्पादित करने के योग्य बनाता है जिनमें वह अधिक तुलनात्मक लाभ प्राप्त करते हैं । परिणामस्वरूप इन देशों में उत्पादन, आय और रोजगार बढ़ता है जिससे मांग में वृद्धि होती है ।

बढ़ी हुई मांग आंशिक रूप में घरेलू उत्पादन से तथा आंशिक रूप में विदेशी आयातों से पूरी की जाती है । इस प्रकार विभिन्न वस्तुओं का निर्यात और आयात निर्धनता के कुचक्र को तोड़ने में सहायक होता है जिससे अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास के दर में स्वयं वृद्धि हो जाती है ।

8. उत्पादन के साधनों का दक्ष उपयोग (Efficient use of Means of Production):

ऐसा अनुभव किया जाता है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, इसमें तुलनात्मकलाभों के कारण विभिन्न साधनों के दक्ष प्रयोग के लिये बेहतर आधार उपलब्ध करवाता है । जे. एस. मिल के अनुसार- यह उत्पादन की दक्षता में वृद्धि करता है । अल्प विकसित देशों में कृषि पिछड़ी हुई होती है तथा केवल निर्वाह योग्य ही होती है ।

व्यापार के विकास के कारण, कृषि एवं उद्योग क्षेत्र में उत्पादन की नवीनतम और सुधरी हुई तकनीकों का प्रयोग सम्भव हो गया है । इससे उत्पादन के साधनों की दक्षता बढ़ जाती है । कृषि का व्यापारीकरण सम्भव हो जाता है ।

इसी प्रकार अनेक अन्य उद्योग अस्तित्व में आते हैं तथा उनमें से कुछ केवल निर्यात वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जिससे अर्थव्यवस्था का समग्र विकास होता है ।

Essay # 3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का विकास अवरोधी अथवा हानिकारक प्रभाव (Harmful Effects of Foreign Trade):

नर्कस, पाल रोबिश और गन्नर मायरडल आदि अर्थशास्त्रियों ने तर्क प्रस्तुत किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण अल्प विकसित देशों का आर्थिक विकास न केवल धीमा पड़ा बल्कि विपरीत प्रभावित हुआ है ।

“दो देशों के बीच, जिनमें से एक औद्योगिक और दूसरा अल्प विकसित है, निर्विघ्न व्यापार का एक बिल्कुल सामान्य परिणाम है अल्पविकसित देश की दरिद्रता और स्थिरता की ओर संचयी प्रक्रिया का आरम्भ ।” –मायरडल

इसी प्रकार नर्कस का विचार है कि सम्भव है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने नये देशों को लाभ पहुंचाया हो, परन्तु अधिकांश अल्प विकसित देशों के लिये यह एक बड़ी बाधा प्रमाणित हुआ है । अत: बाजार शक्तियों की प्रवृत्ति अन्तर्राष्ट्रीय असमानताओं को बढ़ाने वाली होती है ।

अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियां निर्धन देशों के हितों के विपरीत कार्य करती रही हैं तथा निम्नलिखित कारणों से उनके आर्थिक विकास में बाधा बनी है:

1. दोहरी अर्थव्यवस्थाएं (Dual Economies):

अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियां अल्प विकसित देशों में ‘दोहरी अर्थव्यवस्थाओं’ की रचना में सफल हुई हैं जिसके परिणामस्वरूप निर्यात क्षेत्र विकास का एक द्वीप बन गया है जबकि शेष अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई रही है । विदेशी कारकों के चलन के प्रभाव के कारण इन देशों में उत्पादन के उच्च असन्तुलित ढांचे का निर्माण हो गया ।

नि:सन्देह निर्यात बाजारों के खुलने से उनके निर्यात क्षेत्र को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है जिससे इस क्षेत्र का विकास हुआ जबकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा हुई । यद्यपि निर्यातों में वृद्धि हुई परन्तु उन्होंने शेष अर्थव्यवस्था की वृद्धि में अधिक योगदान नहीं किया ।

इसके अतिरिक्त निर्यातों पर अधिक निर्भरता उन्नत देशों में चक्रीय उतार-चढ़ावों की ओर ले जाती है । मन्दी के दौरान, व्यापार की परिस्थितियां विपरीत हो जाती हैं और उनका विदेशी विनिमय अर्जन अत्यधिक गिर जाता है ।

वह विश्व में तेजी का लाभ उठाने में असमर्थ होते हैं क्योंकि बाजार अशुद्धियों और पूंजी वस्तुओं की उपलब्धता न होने से उनके भुगतानों के सन्तुलन में कोई भी सुधार उत्पादन एवं रोजगार की वृद्धि की ओर नहीं ले जाता ।

2. निर्धन देशों के लिये अधिक लाभप्रद नहीं (Not Much Beneficial for Poor Countries):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार निर्धन देशों के लिये लाभप्रद नहीं रहता क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था पर विदेशी निवेश के प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं । यह स्वीकार किया जाता है कि विदेशी पूंजी के आने से केवल निर्यात कार्यों के लिए ही देश के प्राकृतिक साधनों को विकसित किया है अत: घरेलू क्षेत्र में उत्पादन की उपेक्षा हुई है ।

इन देशों में निर्यात क्षेत्र विकास का एक द्वीप बना रहता है जो पिछड़े हुये और कम उत्पादकता वाले क्षेत्र से घिरा होता है । अत: अल्प विकसित देशों में विदेशी पूंजी के आने से न तो उनके घरेलू क्षेत्र का और न ही वहां के लोगों का कोई विकास हुआ है । भारी विदेशी निवेशों के बावजूद लोग अपने देशों में पिछड़े हुये ही रहे हैं ।

3. लाभ की सीमित सम्भावना (Limited Possibility of Gain):

मर्कस अनुसार अल्प विकसित देशों को विदेशी व्यापार से लाभ की सम्भावना बहुत सीमित होती है । इसका मुख्य कारण यह है कि अल्प विकसित देश मुख्यता प्राथमिक वस्तुओं का निर्यात करते हैं ।

इन निर्यातों को निम्नलिखित कारणों से हानि उठानी पड़ती है:

(i) उनकी मांग में गिरावट क्योंकि विकसित देशों की भारी उद्योग स्थापित करने की प्रवृत्ति होती है ।

(ii) विकसित देशों के कुल उत्पादन में सेवाओं का योगदान बढ़ रहा है ।

(iii) विकसित देशों में कृषि उत्पादन के लिये, मांग की आय लोच कम होती है ।

(iv) अनेक विकसित देश कृषि उत्पादों के सम्बन्ध में सुरक्षा की नीति अपना रहे हैं ।

(v) कृषि उत्पादों के स्थान पर कृत्रिम वस्तुओं का प्रयोग बढ़ रहा है ।

इन कारणों से, प्रारम्भिक वस्तुओं के निर्यात से अल्प विकसित देशों की आय निरन्तर कम हो रही है । इन परिस्थितियों में व्यापार को ”विकास का इंजन” कहना गलत होगा ।

4. “प्रदर्शन प्रभाव” का प्रतिकूल प्रभाव (Adverse Effect of Demonstration Effect):

एक अन्य हानिकारक प्रभाव यह है कि “प्रदर्शन प्रभाव” का अन्तर्राष्ट्रीय संचलन निर्धन देशों के लिये एक अवरोध रहा है । यह पूंजी निर्माण की क्षमता को कम करने के लिये उत्तरदायी है ।

अल्प विकसित देशों में विलासता की इच्छा, जीवन के उच्च स्तर का दिखावा और उन्नत देशों के उपभोग के नमूने जिनसे उनके उपभोग की प्रवणता बढ़ गई है और जिससे पूंजी संचय और आर्थिक वृद्धि सीमित हो गई है । इस कारण भ्रष्टाचार और चोर बाजार फैलता है और इन बुराइयों के अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ते हैं ।

5. व्यापार की शर्तों में लौकिक अधोगति (Secular Deterioration in the Terms of Trade):

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की एक अन्य महत्त्वपूर्ण आलोचना यह है कि निर्धन देशों की वस्तु व्यापार की शर्तों में लौकिक अधोगति द्वारा आय से अन्तर्राष्ट्रीय स्थानान्तरण निर्धन देशों से समृद्ध देशों की ओर हुआ है ।

रॉल प्रीबिच (Raul Prebisch) के मतानुसार अल्पविकसित देशों की व्यापार की शर्तों में लौकिक अधोगति हुई है । उसका विश्वास है कि अल्प विकसित देश अपनी आयात क्षमता की निरन्तर दुर्बलता के कारण घातक प्रभावों को सहन करते हैं ।

इस कारण उनकी बढ़ती हुई जनसंख्या के पोषण के लिये प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले वर्तमान उद्योगों की क्षमता दुर्बल हुई है । फलत: उन्हें तकनीकी उन्नति के लाभ स्थानान्तरित करने में असफलता प्राप्त हुई है ।

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