मौलिक अधिकारों पर निबंध | Essay on Fundamental Rights in Hindi!

Essay # 1. मौलिक अधिकारों का प्रारम्भ (Introduction to Fundamental Rights):

वर्तमान युग प्रजातंत्र का युग है । संसार के सभी सभ्य और प्रगतिशील देश जनता को अधिकाधिक अधिकार दिए जाने के पक्ष में है । इन अधिकारों को प्राप्त करके ही व्यक्ति का संपूर्ण विकास संभव हो पाता है । राज्य की उत्पत्ति जनता की भलाई के लिए ही हुई है, इसलिए वह अपने नागरिकों को कुछ ऐसे मौलिक अधिकार प्रदान करती है, जिनसे उनका सर्वागीण विकास सम्भव हो सके ।

इन मौलिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए विभिन्न देशों के लोगों ने अनेक संघर्ष किए हैं तब जाकर लोगों को इन अधिकारों की प्राप्ति हुई है । इंग्लैंड की जनता ने अपने राजा जॉन प्रथम को मैग्ना काटा (1215) नामक स्वतंत्रता का महान मांग पत्र स्वीकार करने पर बाध्य किया ।

इसके द्वारा जनता ने निरंकुश राजतंत्र को भेदकर संविधानवाद और जनता के अधिकारों का श्रीगणेश किया । इसी प्रकार 4 जुलाई 1776 को USA ने स्वाधीनता की घोषणा का जो प्रस्ताव पारित किया उनमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और अधिकारों का समर्थन किया गया और उसमें कहा गया कि – ”हम इन तथ्यों को स्वयं सिद्ध मानते हैं कि सभी मनुष्य जन्म से समान हैं तथा उनके सृष्टा ने उन्हें अनन्य अधिकार प्रदान किये हैं । जीवन स्वाधीनता एवं प्रसन्नता की चाह उन्हीं अधिकारों में गिने जाते हैं…. ।”

ADVERTISEMENTS:

फ्रांस की जनता ने भी 1789 में क्रांति द्वारा मानव अधिकारों की घोषणा में समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व भावना पर जोर दिया । फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरणा प्राप्त कर अन्य देशों ने भी अधिकारों की प्राप्ति के लिए राजाओं के एकतंत्रवाद के विरुद्ध संघर्ष को और तेज किया ।

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात राष्ट्रसंघ (League of Nations) और द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) जैसी विश्व संस्था की स्थापना ने मानव अधिकारों के प्रति विशेष ध्यान दिया । 10 दिसंबर 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्थापित मानव अधिकारों की घोषणा में नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार शामिल थे ।

Essay # 2. मौलिक अधिकारों से तात्पर्य (Meaning of Fundamental Rights):

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता मौलिक अधिकार कहलाते हैं । जॉन लॉक जैसे पाश्चात्य राजनीतिक विचारक ने मौलिक अधिकारों की श्रेणी में तीन प्रकार के अधिकारों का समर्थन किया है- जीवन स्वतंत्रता और समानता ।

किसी भी राज्य के अच्छे या बुरे होने का यही आधार होता है कि उस राज्य द्वारा व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु कितनी सुविधाएँ प्रदान की गई हैं । लानी का कथन है कि ”अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ है जिनके बिना साधारणतः कोई व्यक्ति अपना विकास नहीं कर पाता ।”

ADVERTISEMENTS:

भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार:

भारत में मौलिक अधिकारों की मांग भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ ही शुरू हुई । इसकी मांग तत्कालीन विहानों और राष्ट्रीय नेताओं द्वारा समय-समय पर ब्रिटिश सरकार से की गई । जहां गाँधी द्वारा स्वराज्य के अधिकार की बात की गई, वहीं बाल गंगाधर तिलक ने नारा लगाया कि ”स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा” ।

1928 की नेहरू रिपोर्ट और 1931 के करांची अधिवेशन में अधिकारों की मांग को दोहराया गया । 1946 में ब्रिटिश कैबिनेट मिशन ने भी मौलिक अधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाया ।

इसी क्रम को जारी रखते हुए संविधान सभा में भी मौलिक अधिकारों के बारे में खुलकर वाद-विवाद हुआ । जिसके फलस्वरूप नागरिकों के लिए भारतीय संविधान के भाग-3 में सात मौलिक अधिकारों को स्थान दिया गया किंतु संविधान के अ वे संशोधन जोकि 1978 में किया गया, के द्वारा संपत्ति के मौलिक अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से निकालकर अनुच्छेद 300 क में रख दिया गया तथा इसे एक कानूनी अधिकार बना दिया गया ।

Essay # 3. मौलिक अधिकारों का वर्णन (Types of Fundamental Rights):

ADVERTISEMENTS:

वर्तमान में भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को छ: मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं जो भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक वर्णित हैं ।

भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किये जाने वाले छ: मूल अधिकारों का वर्णन (Six Basic Rights Provided by Indian Constitution):

1. समानता का अधिकार (Right to Equality):

संविधान में प्रदत मौलिक अधिकारों में प्रथम समानता का अधिकार है जिसका वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 में किया गया है ।

(i) कानून के समक्ष समानता (अनुच्छेद 14) [Equality before the Law (Article 14)]:

इस अनुच्छेद में कहा गया है कि भ राज्य क्षेत्र में राज्य किसी व्यक्ति को कानून के सम्मुख समानता और कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा । इसका तात्पर्य यह है कि कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं चाहे जाति, रंग, धर्म, लिंग, आदि कुछ भी क्यों न हो । इस प्रकार इस अधिकार में दो बातें कही गई हैं- कानून की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान हैं तथा सभी को कानून कार समान संरक्षण प्राप्त होगा ।

परंतु इस अधिकार के कुछ अपवाद भी है:

(a) अपनी शक्तियों और कर्तव्यों के निर्वहन में राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल द्वारा किए गए किसी कृत्य के लिए उसे किसी न्यायालय में जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता ।

(b) विदेशी राज्यों के अध्यक्षों या राजदूतों के विरूद्ध भारतीय विधि के तहत कार्यवाही नहीं की जा सकती ।

(c) अनुच्छेद 361 के अनुसार राष्ट्रपति या राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान उसके विरूद्ध कोई आपराधिक प्रक्रिया नहीं शुरू की जा सकती ।

(ii) भेदभाव की मनाही (अनुच्छेद 15) [Ban on Discrimination (Article 15)]:

अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि राज्य के द्वारा धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव निषेध है । इस अनुच्छेद में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ हैं- धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों तथा मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों में किसी नागरिक को अयोग्य व प्रतिबंधित नहीं किया जाएगा तथा उन कुओं, तालाबों, नहाने के घाटों, सड़कों व सैर के स्थानों, जिनकी राज्य के द्वारा अंशतः या पूर्णतया देखभाल की जाती है, के प्रयोग करने से किसी भी नागरिकों को प्रतिबंधित नहीं किया जाएगा ।

अपवाद:

अनुच्छेद 15 में दिए गए अधिकारों के दो अपवाद हैं । प्रथम, राज्य को अधिकार है कि वह स्त्रियों व बच्चों के लिए विशेष उपबंधों की व्यवस्था कर सकता है । द्वितीय, राज्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लोगों की भलाई के लिए विशेष व्यवस्थाओं का प्रबंध कर सकता है ।

(iii) सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता (अनुच्छेद 16) [Equality of Opportunity for Government Jobs (Article 16)]:

इस अनुच्छेद के खंड (1) में कहा गया है कि राज्य में सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के संबंध में सब नागरिकों को समान अवसर मिलेंगे । जबकि खंड (2) में निहित है कि सरकारी नौकरियों या पदों पर नियुक्ति के संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उदभव और जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा । सबको सरकारी नौकरी तथा पदों की प्राप्ति के लिए बराबर अवसर दिए जाएंगे ।

अपवाद:

(a) इस अनुच्छेद का किसी ऐसी विधि पर कोई प्रभाव नह होगा जो यह व्यवस्था करती हो कि किसी धार्मिक संस्था के कार्य से संबद्ध कोई पदाधिकारी उसी धर्म या सम्प्रदाय का हो ।

(b) सरकार पिछड़े हुए नागरिकों के लिए, जिन्हें सरकारी सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है, स्थान सुरक्षित कर सकती है ।

(c) संसद किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र से संबंधित पद की नियुक्ति के लिए विकास संबंधी योग्यताएँ निर्धारित कर सकती है ।

(iv) छुआछूत या अस्पृश्यता की समाप्ति (अनुच्छेद 17) [End of Untouchability (Article 17)]:

इस अनुच्छेद के द्वारा छुआछूत का अंत कर दिया गया अर्थात् दूसरे के साथ अछूतों जैसे व्यवहार निषेध हैं । इस अनुच्छेद में कहा गया है कि अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी अयोग्यता को लागू करना एक दंडनीय अपराध होगा । संसद ने 1955 में ‘अस्पृश्यता अपराध अधिनियम’ के द्वारा इसे एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया है ।

1976 में सरकार ने एक कानून पास किया जिसे नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम कहा जाता है । इस कानून के अनुसार छुआछूत मानने वाले और उसका प्रचार करने वाले को 2 वर्ष तक की कैद और एक हजार रूपये तक जुर्माना किया जा सकता है ।

(v) उपाधियों का अंत (अनुच्छेद 18) [End of Degrees (Article 18)]:

अनुच्छेद 18 में उपाधियों की समाप्ति संबंधी निम्नलिखित बातों का उल्लेख किया गया है:

(a) कोई भारतीय नागरिक किसी विदेशी राज्य से उपाधि स्वीकार नहीं करेगा ।

(b) सेना और शिक्षा संबंधी उपाधि के अतिरिक्त राज्य और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा ।

(c) कोई व्यक्ति जो भारतीय नागरिक नहीं है किंतु भारत में किसी लाभप्रद अथवा भरोसे के पद पर नियुक्त है तो बह भारतीय राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि प्राप्त नहीं कर सकता ।

2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) [Right to Freedom (Article 19-22)]:

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19, 20, 21 और 22 के अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक को स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है । अनुच्छेद 19 में वर्णित स्वतंत्रताएं केवल भारतीय नागरिकों को ही प्राप्त है जबकि अनुच्छेद 20, 21 व 22 में वर्णित स्वतंत्रताएं भारतीय नागरिकों और विदेशियों दोनों को समान रूप से प्राप्त है ।

(i) अनुच्छेद 19 (Article 19):

मूल संविधान के द्वारा भारतीय नागरिकों को सात प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान की गई थीं लेकिन 44वें संविधान संशोधन द्वारा संपत्ति के मौलिक अधिकार के साथ-साथ संपत्ति की स्वतंत्रता की समाप्ति कर दी गई ।

अतः अनुच्छेद 19 भारतीय नागरिकों को छ: प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान करता है:

(a) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता [19(1) (क)] [Speech and Freedom of Expression 19 (1) (a)]:

भारत के प्रत्येक नागरिक को अपने विचार, लेखन, भाषण देने व अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार है । प्रेस भी विचारों के प्रकट करने का साधन है, इसीलिए अनुच्छेद 19 (क) के अंतर्गत प्रेस की स्वतंत्रता भी निहित है लेकिन इस स्वतंत्रता पर युक्ति-युक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं ।

(b) शांतिपूर्वक बिना हथियार के सम्मेलन करने की स्वतंत्रता [19(1) (ख)] [Freedom to Peacefully Convene without Arms 19 (1) (b)]:

 

अनुच्छेद 19 (ख) के अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक को बिना अस्त्र-शस्त्र के शांतिपूर्वक सम्मेलन करने की स्वतंत्रता है । इसके तहत सभा करने तथा जुलूस, आदि निकालने का अधिकार है लेकिन सार्वजनिक हित और सुरक्षा के आधार पर इस स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है ।

(c) संगम और संघ बनाने की स्वतंत्रता [19(1) (ग)] [Sangam and Freedom of Association 19 (1) (c)]:

इस अनुच्छेद के द्वारा भारतीय नागरिकों को यह स्वतंत्रता प्रदान की गई है कि वे अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं व प्रवृतियों के आधार पर समुदायों या संघों का निर्माण कर सकते हैं किंतु इन समुदायों का उद्देश्य तथा कार्यक्रम शांतिपूर्ण तथा वैधानिक होना चाहिए । देश की प्रभुता व अखंडता या सार्वजनिक व्यवस्था के हित में इस स्वतंत्रता को सीमित करने को राज्य का अधिकार है ।

(d) भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण [19(1) (घ)] [Uninterrupted Transmission in the State of India 19 (1) (d)]:

भारतीय संविधान नागरिकों को बिना रोक-टोक के भ्रमण करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है । भारतीय नागरिक एक राज्य से दूसरे राज्य में तथा भारत संघ के एक कोने से दूसरे कोने तक भ्रमण कर सकता है लेकिन सार्वजनिक हित में या फिर किसी अनुसूचित जनजाति के संरक्षण के लिए राज्य इस पर युक्ति युक्त प्रतिबंध लगा सकता है ।

(e) निवास करने या बस जाने की स्वतंत्रता [19 (1) (ड)] [Freedom of Living or Going to Live [19 (1) (d)]:

यह अनुच्छेद भारतीय नागरिकों को देश के किसी भी हिस्से में अस्थायी या स्थायी रूप से बसने की स्वतंत्रता प्रदान करता है लेकिन इस स्वतंत्रता को भी उपरोक्त आधार पर प्रतिबंधित या सीमित किया जा सकता है ।

(f) कोई वृति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार [19 (1) (छ)] [Right to do Any Business, Occupation, Business or Business 19 (1) (g)]:

इस अनुच्छेद में नागरिकों को इच्छानुसार व्यवसाय करने की स्वतंत्रता दी गई है । नागरिक जीवन निर्वाह के लिए किसी भी धंधे या व्यवसाय को अपना सकते हैं लेकिन सार्वजनिक हित के आधार पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है ।

(ii) अपराधों के लिए दोष सिद्धि के संबंध में संरक्षण (अनुच्छेद 20) [Protection with Regard to the Offense for Crimes (Article 20)]:

इस अनुच्छेद में निम्नलिखित बातों का उल्लेख है:

(a) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि यह सिद्ध न हो जाए कि उसने उस समय किसी अधिरोपित विधि का उल्लंघन किया है तथा उस विधि के उल्लंघन के लिए निर्धारित दंड से अधिक दंड नहीं दिया जा सकता ।

(b) किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा ।

(c) किसी भी अपराध के लिए अभियुक्त द्वारा किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरूद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा ।

(iii) प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21) [Protection of Life and Somatic Freedom (Article 21)]:

इस अनुच्छेद में जीवन के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई है । इसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं । 44वें संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि अनुच्छेद 21 के अधीन प्राप्त जीवन तथा दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को संकटकाल के समय भी निलंबित नहीं किया जा सकता ।

(iv) बंदीकरण तथा नजरबंदी से संरक्षण (अनुच्छेद 22) [Protection from Captive and Detention (Article 22)]:

अनुच्छेद 22 कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण प्रदान करता है, जिसमें निम्न प्रावधान है:

(a) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारण से तुरंत अवगत कराना पड़ेगा तथा उसे अपनी रूचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने एवं अपने बचाव करने का अधिकार दिया जाएगा ।

(b) गिरफ्तार किये गए व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर (इसमें यात्रा में लगने वाला समय सम्मिलित नहीं होगा) निकट के मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित करना होगा ।

3. शोषण के विरूद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23 और 24) [Rights against Exploitation (Article 23 and 24)]:

इसमें नागरिकों के शोषण के विरूद्ध अधिक्तरों का वर्णन किया गया है । इस अधिकार का उद्देश्य है कि समाज का कोई शक्तिशाली वर्ग किसी निर्बल वर्ग पर अन्याय न कर सके ।

(i) मानव के दुर्व्यापार और बलातश्रम पर रोक (अनुच्छेद 23) [Prevention of Human Misdeeds and Bullying (Article 23)]:

मानव के दुर्व्यापार पर रोक से तात्पर्य है कि स्त्रियों, बच्चों तथा पुरूषों के क्रय-विक्रय पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । इसका उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय है । इसी प्रकार किसी व्यक्ति से बिना मजदूरी के या फिर जबरदस्ती काम नहीं लिया जा सकता ।

(ii) बाल श्रम का निषेध (अनुच्छेद 24) [Prohibition of Child Labour (Article 24)]:

इस अनुच्छेद में यह प्रावधान है कि 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नहीं लगाया जाएगा, जिससे कि उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पडे ।

4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25 से 28) [Right to Freedom of Religion (Article 25 to 28)]:

भारत एक पंथ निरपेक्ष राज्य है । प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को अपनाने तथा धार्मिक कार्य करने में स्वतंत्रता प्राप्त है । राज्य भी सभी धर्मों को समान दर्जा देता है तथा उन्हें फलने-फूलने के समान अवसर प्रदान करता है । अनुच्छेद 25 से 28 तक निम्नलिखित धार्मिक स्वतंत्रताओं का उल्लेख किया गया है ।

(i) अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) [Freedom of Conduct and Conduct of Unity of Religion (Article 25)]:

(a) अनुच्छेद 25(1) में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार तथा स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को धर्म को अबाध रूप से मानने एवं प्रचार करने का समान अधिकार होगा ।

(b) अनुच्छेद 25(2) के अनुसार राज्य इस संबंध में ऐसी विधि बना सकेगा जो-धार्मिक आचरण से संबंधित किसी राजनीतिक, वित्तीय या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निबंधन करती है ।

सुधार एवं सार्वजनिक कल्याण के लिए सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों के लिए खोलने का उपबंध करती है । कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्स धर्म के मानने का अंग माना जाएगा । हिन्दुओं के प्रति निर्देश का अर्थ सिख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वालों के प्रति भी निर्देश तथा संस्थाओं से तात्पर्य भी इन सभी की संस्थाओं से है ।

(ii) धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 26) [Freedom of Management of Religious Functions (Article 26)]:

इस अनुच्छेद में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय अथवा उसके किसी अनुभाग को:

(a) धार्मिक और परोपकार के उद्देश्यों से संस्थाएँ स्थापित करने एवं चलाने का,

(b) धार्मिक मामलों में अपने कार्य स्वयं करने का,

(c) चल और अचल संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का तथा

(d) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार होगा ।

(iii) धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27) [Freedom about the Payment of Taxes for the Accretion of Religion (Article 27)]:

किसी भी व्यक्ति को कोई ऐसा कर अदा करने के लिए विवश नहीं किया जाएगा ।

(iv) सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा पर रोक (अनुच्छेद 28) [Prohibition of Religious Education in Government Educational Institutions (Article 28)]:

इस अनुच्छेद में कहा गया है कि राज्य के खर्च से चलाई जा रही किसी भी शिक्षण संस्था में धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं की जाएगी । उपर्युक्त प्रावधान उस शिक्षा संस्था में लागू नहीं होता जिसका प्रशासन राज्य करता है, लेकिन वह किसी ऐसे न्याय के अधीन स्थापित हुई है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना अनिवार्य है ।

इसके अतिरिक्त राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता प्राप्त शिक्षा संस्था में होने वाली उपासना में किसी भी व्यक्ति को भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता ।

5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30) [Right to Culture and Education (Article 29-30)]:

भारत एक विशाल देश है । इसके निवासियों का रहन-सहन, खान-पान, भाषा, रीति रिवाज, सभ्यता तथा संस्कृति भिन्न-भिन्न प्रकार की है ।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अधीन नागरिकों को, विशेषतया अल्पसंख्यकों को कुछ सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकार प्रदान किए गए हैं:

(i) अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29) [Protection of Minorities Interest (Article 29)]:

(a) भारत के राज्य क्षेत्र के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी लिपि, संस्कृति या भाषा है, उसे बनाये रखने का अधिकार है ।

(b) राज्य निधि से सहायता प्राप्त या राज्य द्वारा पोषित किसी शिक्षा संस्था में किसी भी नागरिक को केवल जाति, भाषा, मूलवंश या धर्म के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा ।

(ii) शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (अनुच्छेद 30) [Right to Minority Sections (Article 30) to Establish and Administer Educational Institutions]:

(a) धर्म या भाषा के आधार पर सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाएँ स्थापित करने एवं उनका प्रशासन करने का अधिकार है ।

(b) राज्य ऐसी संस्थाओं की संपत्ति को अनिवार्य रूप से अर्जित करते समय यह ध्यान रखेगा की संस्था को इतनी रकम मिल जानी चाहिए कि उसके हित बने रहे ।

(c) राज्य शिक्षा संस्थाओं को सरकारी सहायता देने में इस प्रकार की शिक्षा संस्थाओं तथा अन्य शिक्षा संस्थाओं मैं कोई भेदभाव नहीं करेगा ।

6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) [Right to Constitutional Remedies (Article 32)]:

संविधान में वर्णित मूल अधिकारों की घोषणा निरर्थक साबित हो सकती थी यदि संविधान में उनकी रक्षा की व्यवस्था न की जाती । इस व्यवस्था के अभाव में कोई व्यक्ति, राज्य या अन्य संस्था इन अधिकारों के उपभोग में बाधा पैदा कर सकता था ।

इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने इन मूल अधिकारों की रक्षा के लिए संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को भी संविधान में स्थान दिया है । नागरिक इन मूल अधिकारों को लागू कराने के लिए उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शरण ले सकता है । अतः इस अनुच्छेद के माध्यम से संविधान ने मूल अधिकारों की रक्षा का भार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को सौंपा है ।

संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित लेख संवैधानिक उपचार कहलाते है जो कि निम्नलिखित हैं:

1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Demonstration):

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Hebeas Corpus) का शाब्दिक अर्थ है ”शरीर प्राप्त करना” इसके द्वारा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह बन्दी बनाए गए किसी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश दे सकता है । न्यायालय अगर इस बात से संतुष्ट हो जाए कि अमुक व्यक्ति को अवैध रूप से बंदी बनाया गया है तो वह उसकी मुक्ति के आदेश दे सकता है । वास्तव में इस व्यवस्था से कार्यकारिणी निरंकुश नहीं हो पाती ।

2. परमादेश लेख (Mandamus):

परमादेश (Mandamus) का शाब्दिक अर्थ है ‘हम नियंत्रण करते हैं’ । जब कोई व्यक्ति या संस्था अपने कर्तव्य का पालन न करे तो न्यायालय उसे अपने कर्तव्य पालन के लिए परमादेश लेख द्वारा आदेश दे सकता है । भारत में परमादेश उन अधिकारियों और अन्य व्यक्तियों के विरूद्ध दिया जा सकता है जो किसी लोक-कर्तव्य के लिए उत्तरदायी होते हैं । साथ ही साथ यह आदेश या रिट न्यायालयों और न्यायिक निकायों के विरूद्ध भी जारी की जा सकती है ।

3. प्रतिषेध लेख (Prohibition):

जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहा हो तो उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय प्रतिषेध लेख के माध्यम से उस अधीनस्थ न्यायालय को ऐसे कार्य रोक देने का आदेश दे सकता है ।

4. उत्प्रेषण लेख (Certiorari):

उत्येषण का लेख भी उच्चतम या उच्च न्यायालयों द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के विरूद्ध जारी किया जाता है जो अपने क्षेत्राधिकार का उल्लंघन करते हैं । प्रतिषेध एवं उत्येषण लेख के बीच मुख्य अंतर यह है कि जहां प्रतिषेध लेख उस समय जारी किया जाता है, जब न्यायिक प्रक्रिया चल रही हो जबकि उत्येषण का लेख उस समय जारी किया जाता है जब किसी मामले में निर्णय दिया जा चुका हो ।

5. अधिकार पृच्छा लेख (Quo Warranto):

यह लेख न्यायालय द्वारा उस सार्वजनिक अधिकारी के विरूद्ध जारी किया जाता है, जिसके बारे में यह संशय हो कि उसने कोई सार्वजनिक पद असंवैधानिक रूप से ग्रहण कर लिया है और यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उसका दावा पूर्णतया अवैधानिक है तो उसे अपदस्थ कर दिया जाता है । लेकिन संबंधित पद सार्वजनिक होना चाहिए और संविधान या विधि द्वारा सृजित होना चाहिए ।

इस प्रकार अनुच्छेद 32 के अधीन उपर्युक्त कार्रवाई केवल तभी की जा सकती है जब संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता हो । संवैधानिक उपचार चूँकि स्वयं एक मौलिक अधिकार है इसलिए न्यायालय इन अधिकारों के उल्लंघन के विरूद्ध संरक्षण प्राप्त करने के लिए दिए गए आवेदनों को ग्रहण करने से इंकार नहीं कर सकता । वास्तव में संवैधानिक उपचार का विशेष महत्व है । इसीलिए डा॰ अम्बेडकर ने इसे संविधान का हृदय और आत्मा कहा है ।

निवारक निरोध अधिनियम (Preventive Detention Act):

संविधान में निवारक निरोध का उल्लेख अनुच्छेद 22 के खंड 4 में किया गया है । निवारक निरोध का उद्देश्य किसी व्यक्ति को अपराध किये जाने से रोकना है । अतः निवारक निरोध का अर्थ किसी व्यक्ति को बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के किसी अपराध को किए जाने से पूर्व ही नजरबंद करना । भारत में निवारक निरोध सामान्यकाल और संकटकाल दोनों में ही प्रभावी रहता है । जबकि ब्रिटेन, अमेरिका, आदि प्रजातंत्रात्मक राज्यों में केवल युद्धकाल में ही इसका आश्रय लिया जाता है ।

निवारक निरोध का उद्देश्य किसी व्यक्ति को किसी अभियोग के लिए दंड देना नहीं है, बल्कि उसे अपराध करने से रोकना है । यह निवारक निरोध राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाए रखने, रक्षा, विदेशी कार्य या भारत की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकता है । अतएव विधानमंडल यह अधिनियमित कर सकता है और ऐसी विधियों के विरूद्ध व्यक्ति को दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार नहीं होगा ।

निवारक हिरासत कानून जिन्हें संसद द्वारा बनाया गया है:

1. निवारक हिरासत अधिनियम-1950, जो 1969 में समाप्त हो गया

2. आंतरिक सुरक्षा अधिनियम का रखरखाव (MISA) -1971 जिसे 1978 में बंद कर दिया गया

3. विदेशी मुद्रा का संरक्षण एवं व्यसन निवारण अधिनियम (COFEPOSA)-1974

4. राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) – 1980

5. काला बाजारी का निवारण एवं आवश्यक वस्तु की आपूर्ति का रखरखाव अधिनियम (PBMSECA) – 1980

6. आतंकवादी एवं विध्वंसक गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम (टाडा) – 1985, यह 1995 में समाप्त हो गया

7. मादक द्रव्य एवं मानसिक वस्तुओं आदि का गैर-कानूनी धंधा निवारण (PITNDPSA) अधिनियम – 1988

8. आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA) – 2002

संपत्ति के अधिकार की स्थिति (Property Rights Status):

वर्तमान समय में भारतीय नागरिकों को जो छ: मूल अधिकार प्राप्त हैं, उनमें संपत्ति का अधिकार शामिल नहीं है लेकिन 44वें संविधान संशोधन से पूर्व भारतीय नागरिकों को संपत्ति का अधिकार मूल अधिकार के रूप में प्राप्त था । अनुच्छेद 19(1) तथा 31 में इसे स्थान दिया गया था जिसके तहत सभी नागरिकों को संपत्ति अर्जित करने, रखने तथा बेचने का अधिकार था ।

इस संपत्ति को लोकहित में केवल सरकार द्वारा अधिग्रहण किया जा सकता था लेकिन इसके लिए समुचित मुआवजा देना अनिवार्य था । संविधान के 44वें संशोधन (1978) द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया तथा संविधान के भाग 12 में एक नया अध्याय 4 जोड़ा गया ।

अनुच्छेद 300(A) में संपत्ति के अधिकार को रख कर एक विधिक अधिकार बना दिया गया, जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से विधि के प्राधिकार से ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं ।

इस संशोधन का यह प्रभाव हुआ कि अब संपत्ति से संबंधित अधिकार में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 में वर्णित संविधान संशोधन की विधि को अपनाने की आवश्यकता नहीं होगी । संसद द्वारा साधारण नियम की तरह संपत्ति से संबंधित नियम बनाए जा सकते हैं ।

अतः वर्तमान में संपत्ति के अधिकार को कानूनी दर्जा प्रदान किया गया है । जिसका तात्पर्य यह है कि राज्य को व्यक्ति की संपत्ति लेने का अधिकार है लेकिन ऐसा करने के लिए उसे किसी विधि का सहारा लेना होगा । कार्यपालिका के आदेश मात्र से किसी को भी उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा अपितु राज्य ऐसा केवल अपनी विधायिनी शक्ति के प्रयोग द्वारा ही कर सकता है ।

Home››Essay››Fundamental Rights››