लिंग असमानता पर निबंध | Essay on Gender Inequality in Hindi!
समाज से अर्थव्यवस्था का संबंध काफी घनिष्ठ रूप से है तथा परिवार के वृहद रूप को समाज कहते हैं । अर्थशास्त्र में विकास शब्द का संबंध कल्याण मात्र से भी है । विकास शब्द से तात्पर्य है उसके चहुंमुखी विकास तथा उसे संबंधित प्रत्येक क्षेत्र व वर्ग के विकास से होता है ।
अर्थशास्त्र का विकास नारी के विकास किये बिना सम्भव नहीं है । परंतु सवाल उठता है कि इस संदर्भ में वास्तविकता क्या है ? एक और जहां महिलाओं की संख्या कुल जनसंख्या की लगभग 50 प्रतिशत से भी कम है उसकी भागीदारी का प्रतिशत उसकी संख्या के अनुपात से कहीं अधिक है, वहीं दूसरी ओर समय-समय पर उसके पहचान तक को अस्वीकार किया जाता रहा है ।
एक ओर जहां देश के समक्ष विकास की महान् चुनौतियां मुंह बाये खड़ी है जिनकी ओर सम्पूर्ण विश्व का ध्यान है, वहीं दूसरी ओर देश के सामने महानतम चुनौती है महिलाओं के विकास की, उसकी स्थिति में सुधार की जिसे सब जानते हुए भी अनदेखा करते रहे हैं ।
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इतिहास इस बात का गवाह है कि जब कभी पुरुष प्रधान सभ्यता ने नारी जाति की अवहेलना की, समाज का विकास बाधित हुआ, उसका पतन हुआ, किन्तु जब नारी जाति को मान-सम्मान दिया गया उसे प्रेरणा व स्फूर्तिदायिनी जगजननी का स्थान दिया गया, तब समाज का विकास उल्लेखनीय रहा ।
अर्थात् महिलाओं की स्थिति को हमेशा एक समान नहीं समझा गया । एक ओर जहां ‘यत्र नार्य: पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अथवा ‘यदि ईश्वर प्रकाश पुंज है तो नारी उसकी किरण है जो प्रकाश को चारों ओर बिखेर देती है’ अथवा ‘यदि ईश्वर शब्द है तो नारी उसका अर्थ है’ जैसी उक्तियां प्रचलित हैं, वहीं दूसरी ओर नारी के पालन-पोषण को पड़ोसी के पौधे को सींचने के समान बताया गया ।
उसे मात्र एक आर्थिक उत्तरदायित्व माना गया । मनु ने तो यहां तक कहा कि हिन्दू महिला आजीवन पुरुष पर निर्भर है बचपन में पिता पर, विवाहोपरान्त पति पर तथा वृद्धावस्था में पुत्र पर ।
इसमें से एक भी अवस्था में पुरुष का आश्रय न रहने पर उसे कलंकित व उपेक्षित किया गया तथा उसके जीवन को अपमान व तिरस्कार की ज्वाला में जला दिया गया । केवल भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों मैं भी महिलाओं की अपमान व तिरस्कार से जूझना पड़ रहा है ।
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यद्यपि मानव समाज महिला व पुरुष दोनों की सम्मिलित रचना है व समाज के ढांचे को सँवारने में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान है तथापि केवल जैविक आधार पर अंतर होने के कारण महिलाओं को अत्यन्त निकृष्ट माना गया है । मैकबेथ में स्पष्ट कहा गया है कि पुत्र का जन्म देने वाली महिलाएं ही सम्मान योग्य हैं । इजराइल में भी परिवार पुत्र के बिना अधूरा माना जाता है ।
चीन में तो महिलाएं पुत्री को जन्म देने से अधिक अच्छा आत्महत्या करना समझती हैं । इसके अतिरिक्त जापान, थाईलैण्ड आदि कई देशों में तलाक का सबसे प्रमुख कारण पुत्र का जन्म न होना अथवा पुत्री का जन्म पाया गया है ।
केवल कुछ मातृ-सत्तात्मक समाजों में ही महिलाएं पुरुषों की भांति समान सामाजिक स्थिति की भागीदारी होती हैं तथा स्वतंत्रतापूर्वक उच्च सांस्कृतिक मानों को प्रभावित करती हैं, किन्तु उसकी संख्या बहुत की कम होने के कारण ये आस-पास के पुरुष प्रधान समाज से अत्यधिक प्रभावित हो गई हैं ।
इन प्रभावों ने वहां की महिलाओं के सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन की महत्ता को निरन्तर कम किया है । लेकिन सच्चाई तो यह है कि समाज के 50 प्रतिशत सदस्यों को पीछे धकेल कर समाज के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है ।
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यदि हम भारतीय महिलाओं की स्थिति पर भिन्न-भिन्न कालों के आधार पर ध्यान दे तो पाएंगे कि वैदिक काल में नारी प्रत्येक पग पर पुरुष की सहगामिनी हुआ करती थीं । उसे शिक्षा प्राप्त करने व वेद पढ़ने का अधिकार प्राप्त था ।
वे सामाजिक नीतियों के निर्धारण, नियंत्रण व संचालन में अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान दे सकती थी । मैत्रेयी, गार्गी व लीलावती के रूप में हमें उस युग के अनेक उदाहरण मिलते हैं जो न केवल उच्च स्तरीय विदूषियाँ थी बल्कि उच्चतर गणित, पारिस्थितिकी तथा समाज विज्ञानों, मानवीय विज्ञानों में भी निपुण थीं ।
उस युग की महिलाओं के विषय में मनु ने लिखा है कि उस समय महिलाओं का समान देवी के रूप में किया जाता था, किन्तु उत्तर वैदिक युग में नारी की दशा गिरती गई व मध्यकाल तक का युग नारी जाति के लिए बहुत अंधकारमय रहा ।
इस काल में ही पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, सती-प्रथा, विवाह-विच्छेद की समस्या, अन्तर्जातीय विवाहों की समस्या तथा कन्या व्यापार आदि समस्याएं उत्पन्न हुई । भारत में अंग्रेजों के आगमन तथा उनके द्वारा अंग्रेजी शिक्षा के प्रारम्भ ने समाज के विचारों, मनोवृत्तियों व मूल्यों का काफी प्रभावित किया ।
यही वह समय था जब नारी व परिवार संबंधी मान्यताएं बदलने लगीं, स्त्री पुरुष की समानता को महत्व दिया जाने लगा, संवैधानिक सुधारों के लाए होने पर भारतीय नारी को मताधिकार का राजनीतिक अधिकार प्राप्त हुआ तथा अनेक नारी सुलभ पेशे जैसे- नर्सिंग, डॉ.क्टरी, शिक्षण-कार्य, स्टेनो टार्डपिंग तथा क्लर्कों आदि अस्तित्व में आए जिनसे स्त्रियों को आर्थिक स्वतंत्रता मिली ।
इसी का परिणाम है कि परिवार में स्त्री की स्थिति सहयोगी व मित्र की मानी जाने लगी, सेविका की नहीं । किन्तु महिलाओं का प्रश्न अब सिर्फ सामाजिक जीवन के विभिन्न प्रकरणों में पुरुष के साथ उनके अधिकारों की समानता अथवा परिवार में महिलाओं की स्थिति से ही संबंधित नहीं रहा है ।
बल्कि यह उसके परिवर्तन ही दिशा में संबंधित वृहद प्रश्न का अंग बन गया है और महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन समाज में पुरुषों व महिलाओं की बदलती हुई भूमिका पर निर्भर करता है ।
उपनिवेश युग के पश्चात संसार में जो भी आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक बदलाव हो रहे हैं, वे सभी संसार भर की महिलाओं की समस्याओं से संबंधित हैं और जिन्होंने तृतीय विश्व के देशों को प्रभावित किया है ।
सातवें दशक से पूर्व तक यह समझा जाता रहा कि तृतीय विश्व के देशों में विकास की प्रक्रिया तीव्र नहीं हो सकती क्योंकि वहां लगभग आधी जनसंख्या (महिलाओं) को विकास प्रक्रिया से दूर रखते हुए उनकी समस्याओं को अनदेखा कर दिया गया ।
किन्तु सातवें दशक में शिक्षित महिलाओं में नई चेतना का जन्म हुआ । संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस दशक को महिला दशक के रूप में मनाए जाने की घोषणा की गई जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं की स्थिति में भले की नगण्य-सा सुधार हुआ हो परन्तु इससे शिक्षित महिलाओं को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय करने में काफी सहयोग मिला ।
महिलाएं अपनी स्थित व अपने अधिकारों के विषय में सचेत होने लगीं । इसी चेतना ने उन्हें आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक न्याय तथा पुरुष के साथ समानता के अधिकारों की मांग करने के लिए प्रोत्साहित किया ।
भारत में भी जैसा कि ए.आर. देसाई ने एक आलेख में कहा- “भारतीयों महिलाओं में नई संवेदना व चेतना का विकास हो रहा है जिससे अब उसे अधिक समय तक उन पारिवारिक, संस्थागत, राजनैतिक और सांस्कृतिक मानदण्डों की घुटन में नहीं रहना पड़ेगा जिनके कारण उसकी स्थिति सदैव अपमानजनक रही है ।”
विश्व में महिला की जनसंख्या 50 प्रतिशत है किन्तु यह आधी जनसंख्या पुरुष प्रधान समाज में पुरुष निर्मित नियमों के तहत किसी तरह से जीवन यापन कर रही है ।
विकास को सदैव समाज के विभिन्न वर्गों की प्रभावित करने वाली बहुआयामी प्रक्रिया होना चाहिए । महिलाओं की स्थिति में सुधार समाज के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक पहलुओं तथा सामाजिक ढांचे को प्रभावित करेगा ।
महिला के व्यक्तित्व में समाज के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पहलू स्वाभाविक रूप से निहित होते हैं, अत: उनसे संबंधित मुद्दे अलग रखने व उपेक्षित करने कि लिए नहीं है अपितु संपूर्ण विकास की समस्या में ही शामिल हैं ।
संयुक्त राष्ट्र के भूतपूर्व महासचिव कुर्त वाल्दहीम ने संयुक्त राष्ट्र आयोग को महिलाओं की स्थिति की रिपोर्ट देते हुए कहा था- ”जबकि महिलाएं विश्व की आधी जनसंख्या व एक-तिहाई श्रम-शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, वे विश्व की आय का केवल दसवां भाग तथा विश्व की सपत्ति का एक प्रतिशत से भी कम प्राप्त कर पाती हैं । वे कुल कार्यशील समय में से दो-तिहाई समय तक कार्य करने के लिए उत्तरदायी हैं । विश्व के निरक्षरों में तीन में से दो महिलाएं हैं । जबकि साक्षरता की दर में वृद्धि हो रही है, महिलाओं की निरक्षरता दर में वृद्धि हुई है । तृतीय विश्व में महिलाएं 50 प्रतिशत से अधिक खाद्य सामग्री की प्रक्रिया का 100 प्रतिशत कार्य स्वयं संपादित करती हैं औद्योगिक क्षेत्र में जिन्हें आज विकसित राष्ट्र कहा जाता है, वहां भी महिलाओं को पुरुषों के समान कार्यों के लिए केवल (तीन-चौथाई का भी आधा) 3/8 भाग ही प्राप्त होता है । उनका वर्गीकरण कम वेतन पर महिला प्रधान कार्यों के लिए कर दिया जाता है । महिलाओं के प्रति यह भेदभाव व्यवहार तब तक बना रहेगा जब तक कि महिलाओं का बहुमत निर्णय-प्रक्रिया को यहां तक कि महिलाओं के पक्ष में कानून निर्माण प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करेगा । महिलाओं की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आ पाएगा ।”