Here is an essay on the ‘Harappan Culture’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Harappan Culture’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on the Harappan Culture
Essay Contents:
- हड़प्पा संस्कृति का प्रस्तावना (Introduction to Harappan Culture)
- हड़प्पा संस्कृति का भौगोलिक विस्तार (Geographical Coverage of Harappan Culture)
- हड़प्पा की नगर-योजना और संरचनाएँ (Town Planning and Structure during Harappan Civilization)
- हड़प्पा संस्कृति में शिल्प और तकनीकी ज्ञान (Crafts and Technical Knowledge during Harappan Civilization)
- हड़प्पा संस्कृति में राजनीतिक संगठन (Political Organisation during Harappan Culture)
- हड़प्पा संस्कृति में राजनीतिक संगठन (Political Organisation during Harappan Culture)
- हड़प्पा संस्कृति ओर धार्मिक प्रथाएँ (Religious Practices during Harappan Culture)
- सिंधु घाटी के पुरुष देवता (Male Deities of the Indus Valley)
- हड़प्पा संस्कृति में वृक्षों और पशुओं की पूजा (Worship of Trees and Animals during Harappan Culture)
- हड़प्पा संस्कृति का – उद्भव, उत्थान और अवसान (Harappan Culture – Evolution, Uplift and the Expiration)
- सिंधु घाटी में नए लोगों का आगमन (Arrival of New People in Indus Valley)
- हड़प्पा उत्पत्ति की समस्या (Problem in the Origin of Harappa)
- क्या हड़प्पा संस्कृति वैदिक थी ? (Was Harappan Culture Vedic ?)
- हड़प्पा संस्कृति के निरंतरता की समस्या (Harappan Culture and Its Problem of Continuity)
Essay # 1. हड़प्पा संस्कृति का प्रस्तावना (Introduction to Harappan Culture):
ADVERTISEMENTS:
पाकिस्तानी पंजाब स्थित हड़प्पा में प्राप्त कांस्ययुगीन नगरीय संस्कृति महान खोज थी । 1853 ई॰ में ब्रिटिश अभियंता अलेक्जेंडर कनिंघम ने, जो महान उत्खनक और अन्वेषक हुए हड़प्पा संस्कृति की मोहर देखी । मोहर के ऊपर वृषभ और कुल छह अक्षर अंकित थे लेकिन उन्होंने उसका महत्व नहीं समझा ।
बहुत बाद में, 1921 ई॰ में जब भारतीय पुरातत्वविद दयाराम साहनी ने हड़प्पा की खुदाई शुरू की तब इसकी संभावनाओं की चर्चा होने लगी । प्राय: उसी समय इतिहासकार राखालदास बनर्जी ने सिंध में मोहेंजोदड़ो की खुदाई की । दोनों ने मृण्पात्र और अन्य पुरावशेष खोज निकाले जिनसे विकसित सभ्यता का संकेत मिलता था ।
1926 से 1934 ई॰ तक एम॰ एस॰ वत्स ने हड़प्पा की खुदाई की; इसकी खुदाई ई॰ जे॰ एच॰ मैके के द्वारा भी हुई । 1934 ई॰ से जॉन मार्शल ने मौहेंजोदड़ो की खुदाई का भार अपने ऊपर ले लिया । 1946 ई॰ में मोर्टिमर ह्वीलर ने हड़प्पा की खुदाई की । इस प्रकार स्वतंत्रता और विभाजन के पहले के उत्खनन द्वारा हड़प्पा संस्कृति के अनेक स्थलों के जहाँ कांसे का इस्तेमाल होता था महत्तपूर्ण पुरावशेष प्रकाश में लाए गए ।
स्वतंत्रता के बाद के समय में भारत और पाकिस्तान दोनों के पुरातत्त्वविदों ने हड़प्पाई और उससे जुड़े स्थलों की खुदाई की । सूरज भान, एम॰ के॰ धावलिकर, जे॰ पी॰ जोशी, बी॰ बी॰ लाल, एस॰ आर॰ राव, बी॰ के॰ थापर, आर॰ एस॰ बिष्ट और कुछ अन्य पुरातत्वविदों ने इस सिलसिले में गुजरात हरियाणा और राजस्थान में काम किया ।
ADVERTISEMENTS:
एफ॰ ए॰ खान ने पाकिस्तान में सिंधु घाटी के अंतर्गत कोटदीजी नामक स्थल की खुदाई की और एम॰ आर॰ मुगल ने हकरा तथा प्राक्-हकरा संस्कृतियों की खुदाई पर अधिक ध्यान दिया । एल॰ एच॰ दानी ने पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में गंधार के मकबरों की खुदाई की । अमरीकी ब्रिटिश फ्रांसीसी और इतालवी पुरातत्त्वविदों ने हड़प्पा सहित अनेक स्थलों पर काम किया ।
अब हमारे पास प्रचुर मात्रा में हड़प्पाई सामग्रियाँ हैं, यद्यपि उत्खनन और अन्वेषण अभी भी जारी हैं । सभी विद्वान हड़प्पा संस्कृति के नगरीय स्वरूप पर एकमत हैं । लेकिन हकरा-घग्गर नदी से शिनाख्त हुई सरस्वती नदी की भूमिका और इस संस्कृति के निर्माता की पहचान पर भिन्न-भिन्न मत हैं ।
Essay # 2. हड़प्पा संस्कृति का
भौगोलिक विस्तार (Geographical Coverage of Harappan Culture):
ADVERTISEMENTS:
सिंधु या हड़प्पा संस्कृति उन अनेकों ताम्रपाषाण संस्कृतियों से पुरानी है जिनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है लेकिन यह उन संस्कृतियों से कहीं अधिक विकसित है । इस संस्कृति का उदय ताम्रपाषाणिक पृष्ठभूमि में भारतीय उपमहादेश के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ ।
इसका नाम हड़प्पा संस्कृति पड़ा क्योंकि इसका पता सबसे पहले 1921 में पाकिस्तान के प्रांत में अवस्थित हड़प्पा नामक आधुनिक स्थल में चला । सिंध के बहुत-से स्थल प्राक्-हड्प्पीय संस्कृति का केंद्रीय क्षेत्र बने । परिणामस्वरूप वह संस्कृति परिपक्व होकर सिंधु और पंजाब में शहरी सभ्यता के रूप में परिणत हुई । इस परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का केंद्रस्थल पंजाब और सिंध में मुख्यत: सिंधु घाटी में पड़ता है । यहीं से इसका विस्तार दक्षिण और पूरब की ओर हुआ ।
इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अंतर्गत पंजाब, सिंध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं बल्कि गुजरात राजस्थान हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के सीमांत भाग भी थे । इसका फैलाव उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्रतट से लेकर उत्तर-पूर्व में मेरठ तक था ।
यह समूचा क्षेत्र त्रिभुज के आकार का है । इसका पूरा क्षेत्रफल लगभग 1,299,600 वर्ग किलोमीटर है । अत: यह क्षेत्र पाकिस्तान से बड़ा तो है ही प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया से भी निश्चय ही बड़ा है ।
ईसा-पूर्व तीसरी और दूसरी सहस्राब्दी में संसार भर में किसी भी संस्कृति का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति के क्षेत्र से बड़ा नहीं था । अब तक इस उपमहादेश में हड़प्पा संस्कृति के लगभग 2800 स्थलों का पता लग चुका है । इनमें कुछ हड़प्पा संस्कृति की आरंभिक अवस्था के हैं कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तर अवस्था के हैं ।
किंतु परिपक्व अवस्था वाले स्थलों की संख्या सीमित है और उनमें केवल सात को ही नगर की संज्ञा दी जा सकी है । इनमें दो सर्वाधिक महत्व के नगर थे- पंजाब में हड़प्पा और सिंध में मोहेंजोदड़ो (अर्थात् प्रेतों का टीला) । दोनों पाकिस्तान में पड़ते हैं ।
दोनों एक-दूसरे से 483 किलोमीटर दूर थे और सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे । तीसरा नगर सिंध में मोहेंजोदड़ो से 130 किलोमीटर के करीब दक्षिण में चन्हुदड़ों स्थल पर था और चौथा नगर गुजरात में खंभात की खाड़ी के ऊपर लोथल स्थल पर । पाँचवाँ नगर उत्तरी राजस्थान में कालीबंगा (अर्थात् काले रंग की चूड़ियाँ) और छठा नगर बनावली, हरियाणा के हिसार जिले में था ।
कालीबंगा की तरह इसने भी दो सांस्कृतिक अवस्थाएँ देखीं- हड़प्पा-पूर्व और हड़प्पाकालीन । कच्ची ईंटों के चबूतरों, सड़कों और मौरियों के अवशेष हड़प्पाकालीन हैं । इन छहों स्थलों पर परिपक्व और उन्नत हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते है ।
सुतकांगेडोर और सुरकोटदा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है । इन दोनों की विशेषता है एक-एक नगर-दुर्ग का होना । इसके अतिरिक्त गुजरात के कच्छ क्षेत्र में अवस्थित धोलावीरा में भी किला है और इस स्थल पर हड़प्पा संस्कृति की तीनों अवस्थाएँ मिलती हैं ।
ये तीनों अवस्थाएँ राखीगढ़ी में भी मिलती हैं जो घग्गर नदी पर हरियाणा में स्थित है और धोलावीरा से बड़ा है । उत्तर हड़प्पा अवस्था गुजरात के काठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजदी स्थलों पर पाई गई है ।
Essay # 3. हड़प्पा संस्कृति के
नगर-योजना और संरचनाएँ (Town Planning and Structure of Harappan Culture):
हड़प्पा संस्कृति की विशेषता थी इसकी नगर-योजना प्रणाली । हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो दोनों नगरों के अपने-अपने दुर्ग थे जहाँ शासक वर्ग के लोग रहते थे । प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक-एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहाँ ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे ।
इन नगरों में भवनों के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल (ग्रिड) की तरह व्यवस्थित थे । तदनुसार सड़कें एक दूसरे को समकोण बनाते हुए काटती थीं और नगर अनेक खंडों में विभक्त थे । यह बात सभी सिंधु बस्तियों पर लागू थी चाहे वे छोटी हों या बड़ी । बड़े-बड़े भवन हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो दोनों की विशेषता है; दूसरा तो भवनों में और भी समृद्ध है ।
उनके स्मारक बतलाते हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे । ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारतें देखकर सामान्य लोगों को यह भी लगता होगा कि उनके शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान हैं ।
मोहेंजोदड़ो का शायद सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल है विशाल स्नानागार; जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है । यह ईंटों के स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है । यह 11.88 मी॰ लंबा, 7.01 मी॰ चौड़ा और 2.43 मी॰ गहरा है । दोनों सिरों पर तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं ।
स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है । पास के कमरे में बड़ा-सा कुआँ है । इससे पानी निकालकर हौज में डाला जाता था । हौज के कोने में निर्गम-मुख है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था । बताया जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान संबंधी स्नान के लिए बना होगा जो भारत में हर धार्मिक कर्म में आवश्यक रहा है ।
मोहेंजोदड़ो की सबसे बड़ी इमारत है अनाज रखने का कोठार, जो 45.71 मी॰ लंबा और 15.23 मी॰ चौड़ा है । पर हड़प्पा के दुर्ग में छह कोठार मिले हैं जो ईंटों के बने चबूतरों पर दो पाँतों में खड़े हैं । प्रत्येक कोठार 15.23 मी॰ लंबा और 6.09 मी॰ चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछेक मीटर की दूरी पर है ।
इन बारह इकाइयों का समूचा क्षेत्र लगभग 838,1025 वर्गमीटर होता है जो लगभग उतना ही होता है, जितना मोहेंजोदड़ों के कोठार का है । हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इस पर दो कतारों में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं । सपष्ट है कि इनका उपयोग फसल दावने के काम में होता था क्योंकि फर्श की दरारों में गेहूँ और जी के दाने मिले हैं । हड़प्पा में दो कमरे वाले बैरक भी हैं, जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे ।
कालीबंगा में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे मिले हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग थे ।
हड़प्पा संस्कृति के नगरों में पकी ईंटों का इस्तेमाल विशेष बात है, क्योंकि मिस्र के समकालीन भवनों में धूप में सुखाई गई ईंटों का ही प्रयोग हुआ था । समकालीन मेसोपोटामिया में पकी ईंटों का प्रयोग बहुत ही बड़े पैमाने पर हुआ है । मोहेंजोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी ।
लगभग सभी नगरों के हर छोटे या बड़े मकान में प्रागंण और स्नानागार होते थे । कालीबंगा के अनेक घरों में अपने-अपने कुएँ थे । घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहाँ इनके नीचे मोरियाँ बनी हुई थीं । अक्सर ये मोरियाँ ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकी रहती थीं ।
सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे (मैनहोल) भी बने थे । सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं । कुल मिलाकर स्नानघरों और मोरियों की व्यवस्था अनोखी है । हड़प्पा की निकास प्रणाली तो और भी विलक्षण है । शायद कांस्य युग की दूसरी किसी भी सभ्यता ने स्वास्थ्य और सफाई को इतना महत्व नहीं दिया जितना कि हड़प्पा संस्कृति के लोगों ने दिया ।
Essay # 4. हड़प्पा संस्कृति में
शिल्प और तकनीकी ज्ञान (Crafts and Technical Knowledge during Harappan Civilization):
हड़प्पा संस्कृति कांस्य युग की है । यों तो इस संस्कृति के लोग पत्थर के बहुत-सारे औजारों और उपकरणों का प्रयोग करते थे, लेकिन वे कांस्य के निर्माण और प्रयोग से भी भली-भांति परिचित थे । सामान्यत: कांसा, तांबे में टिन मिलाकर धातुशिल्पियों द्वारा बनाया जाता था ।
पर दोनों में एक भी धातु हड़प्पाई लोगों को आसानी से उपलब्ध नहीं थी । इसलिए हड़प्पा में काँसे के औजार बहुतायत से नहीं मिलते हैं । अयस्कों (ताम्र-खनिजों) की अशुद्धियों से लगता है कि वह तांबा राजस्थान की खेत्री ताम्र-खानों से मँगाया जा सकता था, हालाँकि बलूचिस्तान से भी मँगाया जा सकता था ।
टिन शायद अफगानिस्तान से कठिनाई के साथ मँगाया जाता था, यद्यपि बताया गया है कि टिन की कुछ पुरानी खदानें हजारीबाग और बस्तर में पाई गई हैं । हड़प्पाई स्थलों में जो कांसे के औजार और हथियार मिले हैं उनमें टिन की मात्रा कम है । फिर भी ये जो कांसे की वस्तुएं छोड़ गए हैं वे नगण्य नहीं हैं ।
इन वस्तुओं से संकेत मिलता है कि हड़प्पा समाज के शिल्पियों में कसेरों (कांस्य-शिल्पियों) के समुदाय का महत्वपूर्ण स्थान था । वे प्रतिमाओं और बरतनों के साथ-साथ कई तरह के औजार और हथियार भी बनाते थे, जैसे कुल्हाड़ी, आरी, छुरा और बरछा । हड़प्पाई शहरों में कई अन्य महत्वपूर्ण शिल्प भी चलते थे ।
मोहेंजोदड़ो से बने हुए सूती कपड़े का एक टुकड़ा निकला है, और कई वस्तुओं पर कपड़े की छाप देखने में आई है । कताई के लिए तकलियों का इस्तेमाल होता था । बुनकर ऊनी और सूती कपड़ा बुनते थे । ईंटों की विशाल इमारतें बताती हैं कि स्थापत्य (राजगीरी) महत्वपूर्ण शिल्प था ।
इससे राजगीरों स्थापतियों के वर्ग के अस्तित्व का भी आभास मिलता है । हड़प्पाई लोग नाव बनाने का काम भी करते थे । मिट्टी की मुहरें बनाना और मिट्टी की पुतलियाँ बनाना भी महत्वपूर्ण शिल्प थे । स्वर्णकार चांदी सोना और रत्नों के आभूषण बनाते थे ।
सोना, चांदी संभवत: अफगानिस्तान से और रत्न दक्षिण भारत से आते थे । हड़प्पाई कारीगर मणियों के निर्माण में भी निपुण थे । कुम्हार के चाक का खूब प्रचलन था और हड़प्पाई लोगों के मृद्भांडों की अपनी खास विशेषताएँ थीं । ये भांडों को चिकने और चमकीले बनाते थे ।
Essay # 5. हड़प्पा संस्कृति में
राजनीतिक संगठन (Political Organisation during Harappan Culture):
हमें हड़प्पा के राजनीतिक संगठन का कोई स्पष्ट आभास नहीं है । किंतु यदि सिंधु सभ्यता की सांस्कृतिक एकता पर ध्यान दिया जाए तो ऐसी एकता किसी केंद्रित सत्ता के बिना संभव नहीं हुई होगी ।
यदि हड़प्पाई सांस्कृतिक अंचल को राजनीतिक अंचल भी समझा जाए तो इस उपमहादेश ने मौर्य साम्राज्य की स्थापना से पूर्व इतनी बड़ी राजनीतिक इकाई कभी नहीं देखी । इस इकाई की अद्भुत दृढ़ता इसी से स्पष्ट हो जाती है कि यह लगभग 600 वर्षों तक निरंतर कायम रही ।
मिस्र और मेसोपोटामिया के नितांत विपरीत किसी भी हड़प्पाई स्थल पर मंदिर नहीं पाया गया है । किसी भी प्रकार का कोई भी धार्मिक भवन नहीं मिला है । इसका अपवाद विशाल स्नानागार हो सकता है, जिसका उपयोग नहाने-धोने (शुद्धि या सफाई) के लिए किया जाता होगा ।
हड़प्पा अंचल में धार्मिक विश्वासों और आचारों में एकरूपता नहीं है । इसलिए यह सोचना गलत होगा कि हड़प्पा में पुरोहितों का वैसा ही शासन था जैसा कि निचले मेसोपोटामिया के नगरों में था । ऐसा संकेत मिलता है कि उत्तर हड़प्पाई अवस्था में गुजरात के लोथल में शायद अग्नि पूजा की परंपरा चली किंतु इसके लिए मंदिरों का उपयोग नहीं होता था ।
शायद हड़प्पाई शासकों का ध्यान विजय की ओर उतना नहीं था जितना वाणिज्य की ओर और हड़प्पा का शासन संभवत: वणिक वर्ण के हाथ में था । ध्यान रहे कि सिंधु सभ्यता में अस्त्र-शस्त्र का अभाव है ।
Essay # 6. हड़प्पा संस्कृति ओर धार्मिक प्रथाएँ (Religious Practices during Harappan Culture):
हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री-मूर्तिकाएँ भारी संख्या में मिली हैं । एक मूर्तिका में स्त्री के गर्भ से निकलता पौधा दिखाया गया है । यह संभवत: पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा ।
इसलिए मालूम होता है कि हड़प्पाई लोग धरती को उवर्रता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसित् की पूजा करते थे ।
लेकिन हड़प्पाई लोग मिस्रवासियों की तरह मातृ-सत्तात्मक थे या नहीं इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । मिस्र में राज्य या संपत्ति का उत्तराधिकार कन्या को मिलता था किंतु हड़प्पा समाज में उत्तराधिकार का स्वरूप क्या था यह हमें ज्ञात नहीं है ।
कुछ वैदिक सूक्तों में पृथ्वी माता की स्तुति है, किंतु उसको कोई प्रमुखता नहीं दी गई है । सुदीर्घकाल के बाद ही हिंदू धर्म में इस मातृदेवी को उच्च स्थान मिला है । ईसा की छठी सदी और उसके बाद से ही दुर्गा, अंबा, काली, चंडी आदि विविध मातृदेवियों को पुराणों और तंत्रों में आराध्य देवियों का स्थान मिला । कालक्रमेण प्रत्येक गाँव की अपनी अलग-अलग देवी हो गई ।
Essay # 7. सिंधु घाटी के पुरुष देवता (Male Deities of the Indus Valley):
पुरुष देवता एक मुहर पर चित्रित किया गया है । उसके सिर पर तीन सींग हैं । वह एक योगी की ध्यान मुद्रा में एक टाँग पर दूसरी टाँग डाले बैठा (पद्मासन लगाए) दिखाया गया है । उसके चारों ओर एक हाथी, एक बाघ और एक गैंडा है आसन के नीचे एक भैंसा है और पांवों पर दो हरिण हैं ।
मुहर पर चित्रित देवता को पशुपति महादेव बतलाया जाता है । पर यह संदेहास्पद लगता है क्योंकि सींग वाले देवता अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी पाए गए हैं । निस्संदेह हम लिंग-पूजा का भी प्रचलन पाते हैं जो कालांतर में शिव की पूजा से गहन रूप से जुड़ गई थी ।
हड़प्पा में पत्थर पर बने लिंग और योनि के अनेकों प्रतीक मिले हैं । संभवत: ये पूजा के लिए बने थे । ऋग्वेदे में लिंग-पूजक अनार्य जातियों की चर्चा है । लिंग-पूजा हड़प्पा काल में शुरू हुई और आगे चलकर हिंदू समाज में पूजा की विशिष्ट विधि मानी जाने लगी ।
Essay # 8. हड़प्पा संस्कृति में वृक्षों और पशुओं की पूजा (Worship of Trees and Animals during Harappan Culture):
सिंधु क्षेत्र के लोग वृक्ष-पूजा भी करते थे । एक मुहर (सील) पर पीपल की डालों के बीच विराजमान देवता चित्रित हैं । इस वृक्ष की पूजा आज तक जारी है ।
हड़प्पा काल में पशु-पूजा का भी प्रचलन था । कई पशु मुहरों पर अंकित हैं । इनमें सबसे महत्व का है एक सींग वाला जानवर (यूनीकार्न) जो गैंडा हो सकता है । उसके बाद महत्व का है कूबड़ वाला साँड़ ।
आज भी जब ऐसा साँड़ बाजार की गलियों में चलता है तो धर्मात्मा हिंदू इसे रास्ता दे देते हैं । इसी तरह सींग वाले देवता के चतुर्दक पशुओं की उपस्थिति से प्रकट होता है कि उनकी भी पूजा होती थी ।
इन बातों से स्पष्ट होता है कि सिंधु प्रदेश के निवासी वृक्ष पशु और मानव के स्वरूप में देवताओं की पूजा करते थे, परंतु वे अपने इन देवताओं के लिए मंदिर नहीं बनाते थे जैसा कि प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में बनाया जाता था ।
धर्मोपासना सूचक वस्तुओं के रहते हुए भी हड़प्पा के नगरीकरण को धर्म से जोड़ना ठीक न होगा जो बात कांस्य युग के अन्य नगरीय समाजों पर भी लागू होती है । जब तक सिंधु लिपि पड़ी नहीं जाती तब तक हड़प्पाई लोगों के धार्मिक विश्वासों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है ।
तावीज बड़ी तादाद में मिले हैं । शायद हड़प्पाई लोग विश्वास करते थे कि भूत-प्रेत उनका अनिष्ट कर सकते हैं और इसीलिए उनसे बचने के लिए तावीज पहनते थे । आर्येतर परंपरा से संबद्ध माने जाने वाले अथर्ववेद में अनेकों तंत्र-मंत्र या जादू-टोने दिए गए हैं और रोगों का तथा भूत-प्रेतों को भगाने के लिए तावीज बताए गए हैं ।
Essay # 9. हड़प्पाई लिपि (Harappan Script):
प्राचीन मेसोपोटामियाइयों की तरह हड़प्पाई लोगों ने भी लेखन-कला का आविष्कार किया था । यद्यपि हड़प्पाई लिपि का सबसे पुराना नमूना 1853 में मिला था और 1923 तक पूरी लिपि प्रकाश में आ गई किंतु वह अभी तक पड़ी नहीं जा सकी है ।
कुछ लोग इसे द्रविड़ या आद्य-द्रविड भाषा से जोड़ने का प्रयास करते हैं कुछ लोग संस्कृत से तो कुछ लोग सुमेरी भाषा से परंतु इन पठनों में से कोई भी संतोषप्रद नहीं है । लिपि न पड़े जाने के कारण साहित्य में हड़प्पाई लोगों का क्या योगदान रहा कुछ कहा नहीं जा सकता । हम उनके विचारों और विश्वासों के बारे में भी कुछ नहीं कह सकते हैं ।
पत्थर की मुहरों और अन्य वस्तुओं पर हड़प्पाई लेखन के लगभग 4000 नमूने हैं । हड्प्पाइयों के अभिलेख उतने लंबे-लंबे नहीं है जितने मिस्रियों और मेसोपोटामियाइयों के हैं । अधिकांश अभिलेख मुहरों पर हैं और हर एक में दो-चार ही शब्द हैं । इन मुहरों का प्रयोग धनाढ्य लोग अपनी निजी संपत्ति को चिह्नित करने और पहचानने के लिए करते होंगे ।
इस लिपि में कुल मिलाकर 250 से 400 तक चित्राक्षर (पिक्टोग्राफ) हैं और चित्र के रूप में लिखा हर अक्षर किसी ध्वनि भाव या वस्तु का सूचक है । हड़प्पा लिपि वर्णनात्मक नहीं बल्कि मुख्यत: चित्रलेखात्मक है । मेसोपोटामिया और मिस्र की समकालीन लिपियों के साथ इसकी तुलना करने के प्रयास किए गए हैं । परंतु यह तो सिंधु प्रदेश का आविष्कार है और पश्चिम एशिया के लिपियों से इसका कोई संबंध दिखाई नहीं देता है ।
माप-तौल:
लिपि का ज्ञान हो जाने से निजी संपत्ति का लेखा-जोखा रखना आसान हो गया होगा । सिंधु क्षेत्र के नगरवासियों को व्यापार और अन्य आदान-प्रदानों में माप-तौल की आवश्यकता हुई और उन्होंने इसका प्रयोग भी किया ।
बाट के रूप में व्यवहृत बहुत-सी वस्तुएँ पाई गई हैं । उनसे प्रकट होता है कि तौल में 16 या उसके आवर्त्तको का व्यवहार होता था, जैसे 16, 64, 160, 320 और 640 । दिलचस्प बात यह है कि सोलह के अनुपात की यह परंपरा भारत में आधुनिक काल तक चलती रही है ।
हाल तक एक रुपया सोलह आने का होता था । हड़प्पाई लोग मापना भी जानते थे । ऐसे डंडे पाए गए हैं जिन पर माप के निशान लगे हुए हैं । इनमें एक डंडा कांसे का भी है ।
मृद्भाड़:
हड़प्पाई लोग कुम्हार के चाक का उपयोग करने में बड़े कुशल थे । उनके अनेक बरतनों पर विभिन्न रंगों की चित्रकारी देखने को मिलती है । हड़प्पा-भांडों पर आमतौर से वृत्त या वृक्ष की आकृतियाँ मिलती है । कुछ ठीकरों पर मनुष्य की आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं ।
मुहरें (सीलें):
हड़प्पा संस्कृति की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ हैं उसकी मुहरें । अब तक लगभग 2000 सीलें प्राप्त हुई हैं । इनमें से अधिकांश सीलों पर लघु लेखा के साथ-साथ एकसिंगी जानवर भैंस, बाघ, बकरी और हाथी की आकृतियाँ उकेरी हुई हैं ।
प्रतिमाएँ:
हड़प्पाई शिल्पी धातु की खूबसूरत मूर्तियाँ बनाते थे । कांसे की नर्तकी उनकी मूर्तिकला का सर्वेश्रेष्ठ नमूना है । पूरी मूर्ति गले में पड़े हार के अलावा एकदम नग्न है । कुछ हड़प्पाई प्रस्तर प्रतिमाएँ मिली हैं । सेलखड़ी की एक मूर्ति के बाएं कंधे तथा दाएँ हाथ के नीचे अलंकृत वस्त्र हैं और सिर के पीछे उसके बालों की छोटी लटें बनी हुई पट्टिका द्वारा संवारी गई हैं ।
मृण्मूर्तिकाएँ:
सिंधु प्रदेश में भारी संख्या में आग में पकी मिट्टी की बनी मूर्तिकाएँ (जो टेराकोटा कहलाती हैं) मिली हैं । इनका प्रयोग या तो खिलौने के रूप में या पूज्य प्रतिमाओं के रूप में होता था । इनमें पक्षी कुत्ते भेड़ गाय-बैल और बंदर की प्रतिकृतियाँ मिलती हैं ।
पुरुषों और स्त्रियों की प्रतिकृतियाँ भी मिली हैं जिनमें पुरुषों से स्त्रियों की संख्या अधिक है । जहाँ मुहरें और प्रतिमाएँ मंजी दक्षता के साथ बनाई गई हैं वहीं ये मृण्मूर्तियाँ बहुत ही सरल कलाकृतियाँ हैं । इन दोनों कोटियों के शिल्पों के बीच जो अंतर है वह इनका इस्तेमाल करने वाले वर्गों के बीच अंतर का सूचक है ।
प्रथम कोटि की कलाकृतियों का उपयोग उच्च वर्ग के लोगों में होता था और द्वितीय कोटि का जनसामान्य में । प्रस्तर-शिल्प में हड़प्पा संस्कृति पिछड़ी हुई थी । प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की तरह यहाँ हम कोई महान प्रस्तर-प्रतिमा नहीं पाते हैं ।
Essay # 10. हड़प्पा संस्कृति का –
उद्भव, उत्थान और अवसान (Harappan Culture – Evolution, Uplift and the Expiration):
परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का अस्तित्व मोटे तौर पर 2550 ई॰ पू॰ और 1900 ई॰ पू॰ के बीच रहा । लगता है, अपने अस्तित्व की पूरी अवधि भर यह संस्कृति एक ही प्रकार के औजारों हथियारों और घरों का प्रयोग करती रही । सारी जीवन-पद्धति में एकरूपता बनी रही ।
वही नगर-योजना, वही मुहरें, वही मृण्मूर्तियाँ और लंबे-लंबे चर्ट-फलक दिखाई देते रहे । लेकिन इस अपरिवर्तनीयता पर बहुत अधिक जोर देना ठीक नहीं होगा । हमें मोहेंजोदड़ो की मृद्भांड कला में समय-समय पर परिवर्तन भी दिखाई देते हैं ।
ईसा-पूर्व उन्नीसवीं सदी में आकर इस संस्कृति के दो महत्वपूर्ण नगर हड़प्पा और मोहेंजोदड़ो लुप्त हो गए, लेकिन अन्य स्थानों में हड़प्पा संस्कृति धीरे-धीरे क्षीण हुई और क्षीण होते-होते भी गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के अपने सीमांत क्षेत्रों में लंबे समय तक जीवित रही ।
हड़प्पा संस्कृति का उद्भव जानना जितना कठिन है उतना ही कठिन उसका अंत जानना है । कई हड़प्पा-पूर्व बस्तियों के अवशेष पाकिस्तान के निचले सिंध और बलूचिस्तान प्रांत में तथा राजस्थान के कालीबंगा में मिले हैं । हड़प्पा-पूर्व किसान उत्तर गुजरात के नागवाड़ा में भी रहते थे ।
परंतु किस तरह इन देशी बस्तियों से परिपक्व हड़प्पा संस्कृति उद्भूत हुई यह बात स्पष्ट नहीं है । न ही हमें इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि इस उपमहादेश के हड़प्पाई नगरों के पनपने में किसी बाहरी प्रभाव का हाथ था । हो सकता है कि हड़प्पा की शहरी संस्कृति के विकास में मेसोपोटामिया के नगरों से कुछ प्रेरणा मिली हो ।
परंतु हड़प्पा संस्कृति देशी ढंग की थी इस बात में कोई शंका नहीं है । इसमें कई ऐसे तत्व हैं जो इसे पश्चिम एशिया की समकालीन संस्कृतियों से पृथक करते हैं । सिंधु सभ्यता के नगरों की योजना जाल-पद्धति की है और इसमें सड़कों नालियों और मलकुंडों की अच्छी व्यवस्था है ।
दूसरी ओर मेसोपोटामिया के नगरों में बेतरतीब बढ़ते जाने की प्रवृत्ति देखी जाती है । हड़प्पा संस्कृति के सभी नगरों में सभी मकान आयताकार हैं जिनमें पक्का स्नानघर और सीढ़ीदार कुआँ संलग्न है । पश्चिम एशिया के नगरों में इस तरह की नगर योजना नहीं पाई गई है ।
संभवत: कीट द्वीप के नोसस (Knossos) नगर को छोड़ प्राचीन युग के किसी भी अन्य नगर में जल-निकास का ऐसा उत्तम प्रबंध देखने को नहीं मिला । हड़प्पाई लोगों ने पकी ईंटों के इस्तेमाल में जिस कौशल का परिचय दिया है वैसा पश्चिम एशिया वाले नहीं दे पाए । हड्प्पाइयों के मृद्भांड और उनकी मुहरें अपने खास ढंग की हैं और इन पर अंकित पशु-मंडल स्थानीय है ।
सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने अपनी एक खास लिपि बनाई, जिसका मिस्र और मेसोपोटामिया की लिपि से कोई साम्य नहीं है । यद्यपि हड़प्पा संस्कृति कांस्ययुगीन संस्कृति थी, तथापि इसमें कांसे का सीमित उपयोग हुआ और ज्यादातर पत्थर के औज़ार ही चलते रहे ।
अंत में, हड़प्पा संस्कृति का क्षेत्र जितना विशाल था उतना विशाल और किसी भी समकालीन संस्कृति का नहीं था । हड़प्पा नगर की संरचना पाँच किलोमीटर के घेरे में फैली हुई है और इस तरह कांस्य युग में अपने ढंग की बृहत्तम संरचनाओं में आती है ।
अभी तक हड़प्पा जैसा नगर विस्तार अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिला है । मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यताएँ तो 1900 ई॰ पू॰ के बाद भी टिकीं रहीं लेकिन हड़प्पा की नगरीय संस्कृति लगभग उसी समय लुप्त हो गई । इसके बहुत-से कारण बताए जाते हैं ।
कहा जाता है कि सिंधु क्षेत्र में वर्षा की मात्रा 3000 ई॰ पू॰ के आसपास तनिक-सी बड़ी और फिर ईसा-पूर्व दूसरी सहस्राब्दी के आरंभ भाग में कम हो गई । इससे खेती और पशुपालन पर बुरा असर पड़ा । कुछ लोगों का मत है कि पड़ोस के रेगिस्तान के फैलने से मिट्टी में लवणता बढ़ गई और उर्वरता घटती गई इसी से सिंधु सभ्यता का पतन हो गया ।
दूसरा मत यह है कि जमीन धँस गई या ऊपर उठ गई जिससे इसमें बाढ़ का पानी जमा हो गया भूकंप के कारण सिंधु नदी की धारा बदल गई जिसके फलस्वरूप मोहेंजोदड़ो का पृष्ठ प्रदेश वीरान हो गया । यह भी मत है कि हड़प्पा संस्कृति को आर्यों ने नष्ट किया पर इसका साक्ष्य बहुत कम है ।
कांस्य युग की इस विशालतम सांस्कृतिक सत्ता के विघटन के क्या-क्या परिणाम हुए यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है । हम नहीं जानते हैं कि क्या नगर के उजड़ जाने से वणिक और शिल्पी लोग देहांत की ओर चले गए और वहाँ हड़प्पा के तकनीकी कौशलों को फैलाया । हमें सिंधु पंजाब और हरियाणा की नगरोत्तर काल की स्थिति के बारे में काफी जानकारी नहीं है ।
सिंधु क्षेत्र के भीतर हम खेतिहरों की बस्तियाँ तो पाते हैं लेकिन पूर्वकाल की संस्कृति के साथ उनका संबंध स्पष्ट नहीं होता है । हमें स्पष्ट और पर्याप्त जानकारी की अपेक्षा है ।
Essay # 11. सिंधु घाटी में नए लोगों का आगमन (Arrival of New People in Indus Valley):
हड़प्पा संस्कृति की उत्तरकालीन अवस्थाओं में कुछ बाहरी औजार और मृद्भांड पाए गए हैं जिनसे संकेत मिलता है कि सिंधु घाटी में बाहर के लोग धीरे-धीरे प्रवेश करने लगे थे । मोहेंजोदड़ो की अंतिम अवस्था में असुरक्षा और अशांति के कुछ लक्षण दिखाई देते हैं ।
आभूषणों की निधियाँ स्थान-स्थान पर गड़ी मिली हैं और एक स्थान पर आदमी की खोपड़ियों का ढेर मिला है । मोहेंजोदड़ो की ऊपरी सतहों पर नई किस्म की कुल्हाड़ियाँ छुरे और पसलीदार और सपाट चूलवाली छुरियाँ मिली हैं । ये कुछ बाहरी आक्रमण के संकेत देती हैं ।
हड़प्पा की अंतिम अवस्था के एक कब्रिस्तान में नए लोगों के अवशेष मिले हैं जहाँ नवीनतम स्तरों पर नए प्रकार के मृद्भांड हैं । नए प्रकार के मृद्भांड बलूचिस्तान के कुछ स्थलों पर भी मिलते हैं । पंजाब और हरियाणा के कई स्थलों पर लगभग 1200 ई॰ पू॰ के उत्तरकालीन हड़प्पा मृद्भांडों के साथ-साथ धूसर मृद्भांड (ग्रे वेअर) और चित्रित धूसर मृद्भांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) पाए गए हैं जो आमतौर से वैदिक लोगों से जुड़े हैं । ये सारे काम उन अश्वारोही लोगों के हो सकते हैं जो ईरान अथवा दक्षिण मध्य एशिया से पहाड़ियों के रास्ते आए होंगे । लेकिन अधिकांश नए लोग पंजाब और सिंधु के हड़प्पाई नगरों के तहत-नहस होने के बाद आए ।
यद्यपि वैदिक आर्य अधिकांशत: उसी सप्त-सिंधु प्रदेश में बसे जहाँ एक समय हड़प्पा संस्कृति विराजमान थी तथापि हमें ऐसा कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं मिलता है कि सुदृढ़ हड्प्पाइयों और आर्यों के बीच कोई भारी संग्राम हुआ था । 1500 ई॰ पू॰ और 1200 ई॰ पू॰ के बीच उत्तर-हड़प्पा संस्कृति वाले लोगों के साथ वैदिक संस्कृति वाले जत्थों का कहीं-कहीं सामना हुआ होगा ।
Essay # 12. हड़प्पा उत्पत्ति की समस्या (Problem in the Origin of Harappa):
लगभग 4000 ई॰ पू॰ में पाकिस्तान के अंतर्गत चोलिस्तान की मरुभूमि में हकरा नदी के इलाके में हड़प्पा संस्कृति के पहले की अनेक कृषक बस्तियाँ मिलती हैं । लेकिन कृषक बस्तियाँ मृद्भांड पूर्व नवपाषाण युग में सिंधु घाटी के किनारे बलूचिस्तान के पूर्वी छोर पर लगभग 7000 ई॰ पू॰ में प्रकट हुईं । इसी समय से लोग बकरियाँ, भेड़ और मवेशी पालने लगे । वे गेहूँ और जौ भी उपजाने लगे ।
पाँचवीं सहस्राब्दी ई॰ पू॰ से, जब अन्नागार का प्रचलन हुआ जीविका उपार्जित करने की ये प्रक्रियाएँ विस्तृत हुईं । पाँचवीं और चौथी सहस्राब्दियों ई॰ पू॰ में कच्ची ईंटों का प्रयोग शुरू होने लगा । चित्रित मिट्टी के बरतन और मिट्टी की स्त्री-मूर्तियाँ भी बनने लगीं ।
बलूचिस्तान के उत्तरी भाग में रहमान डेरी नामक स्थल पर नियोजित सड़कों और आवासों की व्यवस्था हुई और वह प्राचीनतम नगर के रूप में विकसित हुआ । यह स्थल पश्चिम में प्राय: हड़प्पा के समानांतर अवस्थित था । प्रत्यक्षत: प्रारंभिक और परिपक्व हड़प्पा संस्कृतियाँ बलूचिस्तानी बस्तियों से उत्पन्न हुईं ।
कभी-कभी हड़प्पा संस्कृति के उद्भव का श्रेय मुख्यत: प्राकृतिक पर्यावरण को दिया जाता है । आज हड़प्पा क्षेत्र का पर्यावरण शिल्प और कृषि के लिए अनुकूल नहीं है । लेकिन तीसरी सहस्राब्दी ई॰ पू॰ में वहाँ का वातावरण शुष्क नहीं था । हमारे पास इन बातों के साक्ष्य हैं कि 3000-2000 ई॰ पू॰ में सिंधु में भारी वर्षा होती थी और सिंधु नदी और उसकी सहायक नदी सरस्वती में जिसकी पहचान सिंधु की सूखी नदी हकरा से की जाती है, पानी का अच्छा बहाव था ।
कभी-कभी सिंधु संस्कृति को सरस्वती संस्कृति कहते हैं । लेकिन हड़प्पाई हकरा में पानी का बहाव यमुना और सतलज की देन था । ये दोनों नदियाँ हिमालय में विवर्तनिक परिवर्धन के कारण कुछ शताब्दियों तक सरस्वती से मिली रहीं । इसलिए हड़प्पा संस्कृति को बढ़ावा देने का श्रेय सिंधु के साथ इन दोनों नदियों को भी मिलना चाहिए न कि केवल सरस्वती को । इसके अतिरिक्त सिंधु क्षेत्र में भारी वर्षा होने के साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता है ।
Essay # 13. क्या हड़प्पा संस्कृति वैदिक थी ? (Was Harappan Culture Vedic ?):
कभी-कभी हड़प्पा संस्कृति को ऋग्वैदिक कहते हैं । लेकिन इस संस्कृति की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता है । नियोजित नगर शिल्प वाणिज्य और ईंटों की बनी बड़ी-बड़ी संरचनाएँ परिपक्व हड़प्पा संस्कृति की विशेषताएँ है ।
ऋग्वेद में ये विशेषताएँ नहीं हैं । वे ईंटों का प्रयोग नहीं करते थे । प्रारंभिक वैदिकजन हड़प्पा संस्कृति के प्रायः संपूर्ण क्षेत्र में रहते थे लेकिन वे लोग अफगानिस्तान में भी रहते थे ।
हड़प्पा संस्कृति की परिपक्व नगर अवस्था 2500 ई॰ पू॰ से 1900 ई॰ पू॰ तक बनी रही । लेकिन ऋग्वेद का काल लगभग 1500 ई॰ पू॰ माना जाता है । इसके अतिरिक्त हड़प्पा संस्कृति के लोगों और वैदिक लोगों को बिल्कुल समान वनस्पतियों और पशुओं की जानकारी थी ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता ।
ऋग्वेद में केवल जी का उल्लेख है लेकिन हड़प्पा संस्कृति के लोगों को गेहूँ, तिल और मटर की भी जानकारी थी । हड़प्पा संस्कृति के लोग गैंडा से परिचित थे, लेकिन यह वैदिक लोगों को अज्ञात था । बाघ के साथ भी यही बात है । वैदिकजन के मुखिया अश्व सवार होते थे । यही कारण है कि इस पशु का ऋग्वेद में 215 बार उल्लेख हुआ है ।
लेकिन हड़प्पा नगरवासियों को घोड़ों की जानकारी शायद ही थी । हड़प्पाई मृण्मूर्तिकाओं में हाथी मिलता है लेकिन प्राचीनतम वेद में यह घोड़े की तुलना में महत्वहीन है । हड़प्पा संस्कृति के लोगों को लेखन-कला ज्ञात थी । उनकी लिखाई को जिसे ‘सिंधु लिपि’ कहते हैं अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है ।
इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के लोगों की भाषा के बारे में हमें स्पष्ट अनुमान नहीं है लेकिन प्रारंभिक वैदिकजन हिंद-आर्य भाषा बोलते थे जिसके भिन्न-भिन्न रूप अभी भी दक्षिण एशिया में प्रचलित हैं ।
Essay # 14. हड़प्पा संस्कृति के निरंतरता की समस्या (Harappan Culture and Its Problem of Continuity):
कुछ विद्वान हड़प्पा संस्कृति के बने रहने की चर्चा करते हैं और दूसरे विद्वान इसके नगरीकरण से देहातीकरण में परिवर्तन पर विचार करते हैं । चूंकि नगरीय संस्कृति हड़प्पा संस्कृति की मौलिक विशेषता थी, अतएव उसके समाप्त हो जाने पर हम इस संस्कृति के बने रहने की बात नहीं सोच सकते हैं । इसी प्रकार, हड़प्पा संस्कृति के नगरों का देहातीकरण साधारण रूपांतरण नहीं है ।
इसका अर्थ यह हुआ कि 1500 वर्षों के लिए नगर लिपि और पकी ईंटों का लोप हो गया । ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये तत्व उत्तर भारत में कुषाणकाल के नगरों के अंत के बाद लुप्त नहीं हुए थे । कहा जाता है कि उत्तर भारत के गंगा के मैदानों और अन्य क्षेत्रों में हडप्पा संस्कृति 1900 ई॰ पू॰ में अपने अंत के बाद भी बरकरार रही ।
लेकिन प्रथम सहस्राब्दी के प्रथमार्द्ध की मानी जानेवाली चित्रित धूसर मृद्भांड (पी॰ जी॰ डबल्यू॰) की संस्कृति में हड़प्पा संस्कृति की कोई प्रमुख विशेषता नहीं मिलती है । चित्रित धूसर मृद्भांड की संस्कृति में बड़ी इमारतें पकी ईंटें कांसा नगरीकरण और लिखावट नहीं मिलती हैं ।
दूसरी ओर इस संस्कृति की अपनी विशिष्ट मृद्भांड है । यद्यपि लगभग 1500 ई॰ पू॰ के एक-दो पकी ईंटों के दृष्टांत प्रस्तुत किए जाते हैं, तथापि उत्तर भारत में लगभग 300 ई॰ पू॰ में उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड (नादर्न ब्लैक पालिश्ड वेयर) में ही पकी ईंटें मिलती हैं । इसी प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अंत के बाद लिखावट ब्राह्मी लिपि के रूप में उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड की संस्कृति में प्रकट हुई ।
लेकिन यह लिपि बाएं से दाहिने लिखी जाती थी जबकि हड़प्पाई लिपि दाहिने से बाएँ लिखी जाती थी । इसी प्रकार उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड की उत्पत्ति हड़प्पा संस्कृति के मृदभांड से नहीं हो सकती है ।
उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड की अवस्था में पाँचवीं शताब्दी ई॰ पू॰ में मध्य गंगा के मैदानों में लोहे के प्रभावकारी प्रयोग ने नई सामाजिक-आर्थिक संरचना को जन्म दिया । लेकिन लोहे और सिक्के जो उत्तरी काले पालिशदार मृद्भांड के साथ मिलते हैं हड़प्पा संस्कृति के अंग नहीं हैं ।
यद्यपि हड़प्पा संस्कृति के कुछ छुट-फुट मनके गंगा के मैदानों में पहुँच गए तथापि इन्हें हड़प्पा संस्कृति का प्रमुख तत्व नहीं माना जा सकता है । इसी प्रकार हड़प्पा संस्कृति के मृद्भांड और मृण्मूर्तियाँ 2000 ई॰ पू॰ के बाद तक बनती रहीं लेकिन केवल ये ही वस्तुएँ परिपक्व हड़प्पा संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं ।
फिर भी हड़प्पा संस्कृति के छुट-फुट तत्व राजस्थान, मालवा, गुजरात और ऊपरी दकन की ताम्रपाषाण संस्कृतियों में बरकरार रहे । ऐसा लगता है कि 1900 ई॰ पू॰ में नगरीय हड़प्पा संस्कृति के अंत के बाद हिंद-आर्य और तत्कालीन मौजूदा संस्कृतियों के बीच कुछ आदान-प्रदान होते रहे ।
हड़प्पा संस्कृति के लोगों की मानी गई मुंडा और प्राक्-द्रविड भाषाएँ जारी रहीं । पारस्परिक आदान-प्रदान के कारण आर्य तथा प्राक्-आर्य दोनों भाषाएँ समृद्ध हुईं । हालाँकि संस्कृत में मिट्टी के बरतन और कृषि के लिए प्राक्-आर्य शब्द पाते हैं लेकिन हिंद-आर्यों की भाषा के ही जो इस उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में फैली थी, अधिक शब्द पाते हैं ।