भारत की विदेश नीति पर निबंध | Essay on India’s Foreign Policy in Hindi.
Essay Contents:
- भारतीय विदेश नीति का प्रारम्भ (Introduction to India’s Foreign Policy)
- भारतीय विदेश नीति के निर्धारक तत्व (Determinants of India’s Foreign Policy)
- भारतीय वैदेशिक नीति के मूल तत्व व सिद्धांत (Principles of India’s Foreign Policy)
- वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारत की विदेश नीति (India’s Foreign Policy in Current International Perspective)
- भारत की विदेश नीति का मूल्यांकन (Evaluation of India’s Foreign Policy)
Essay # 1. भारतीय विदेश नीति का प्रारम्भ (Introduction to India’s Foreign Policy):
भारतीय विदेश नीति के निर्धारण और बाध्यताएँ भारत विश्व में एक विस्तृत भू-भाग तथा विशाल जनसंख्या वाला देश है अतः इसकी विदेश नीति का विश्व राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ता है । का प्रारम्भ
भारत की विदेश नीति की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए जवाहरलाल ने सितंबर 1946 में यह कहते हुए उदघोष किया था, ”वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में भारत एक स्वतंत्र नीति का अनुसरण करेगा और गुटों की खींचतान से दूर रहते हुए संसार के समस्त पराधीन देशों को आत्म-निर्णय का अधिकार प्रदान कराने तथा जातीय भेदभाव की नीति का दृढ़तापूर्वक उन्मूलन कराने का प्रयत्न करेगा ।”
ADVERTISEMENTS:
नेहरू का यह कथन आज भी भारत की विदेश नीति का आधारस्तंभ है । भारत की विदेश नीति की मूल बातों का समावेश हमारे संविधान के अनुच्छेद 51 में किया गया है जिसके अनुसार राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढावा देगा, राज्य राष्ट्रों के मध्य न्याय और सम्मानपूर्वक संबंधों को बनाये रखने का प्रयास करेगा राज्य अंतर्राष्ट्रीय कानूनों तथा संधियों का सम्मान करेगा तथा राज्य अंतर्राष्ट्रीय झगडों को पंच फैसलों द्वारा निपटाने की रीति को बढावा देगा ।
इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भारत के विदेश संबंधों का कार्यान्वयन निम्नलिखित प्रमुख सिद्धातों से संचालित रहा है:
(i) भारत की प्रभुसत्तात्मक स्वतंत्रता की रक्षा ।
(ii) शक्ति गुटों से दूर रहकर स्वतंत्र विदेश नीति का अनुसरण ।
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(iii) परतंत्र लोगों की स्वतंत्रता के सिद्धांत की स्वीकृति एवं साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद का विरोध ।
(iv) अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा समृद्धि के लिए सब शांतिप्रिय देशों तथा संयुक्त राष्ट्र से सहयोग ।
(v) विश्व तनाव में कमी करना ।
(vi) न्याय तथा ईमानदारी के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था तथा सहयोग का अधिक समान ढाँचा बनाना ।
ADVERTISEMENTS:
(vii) विश्व राजनीति में समान भागीदारिता की प्राप्ति के लिए तीसरे विश्व में एकता तथा भाईचारे को प्रोत्साहित करना ।
इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु भारत गुटनिरपेक्षता तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर चलता रहा है तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय भाग लेता रहा है ।
Essay # 2. भारतीय विदेश नीति के निर्धारक तत्व (Determinants of India’s Foreign Policy):
डा॰वी॰पी॰ खुदरा के अनुसार – ”ऐतिहासिक परम्पराओं, भौगोलिक स्थिति और भूतकालीन अनुभव भारतीय विदेश नीति के निर्माण में प्रभावक कर्तव्य रहे हैं ।”
नीति के निर्धारक तत्वों का वर्णन निम्नलिखित है:
1. भौगोलिक तत्व:
किसी भी देश के वैदेशिक नीति के निर्धारण में उस देश की भौगोलिक परिस्थितियों का महत्वपूर्ण हाथ होता है । नेपोलियन बोनापार्ट ने भी कहा था कि- ”किसी देश की विदेश नीति उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती हैं ।” भारतीय विदेश नीति के निर्माण में भारत के आकार, एशियाई देशों में उसकी विशेष स्थिति, एशियाई उपमहाद्वीप में उसकी भूमिका तथा भारतीय भू-भाग से जुड़ी सामुद्रिक तथा पर्वतीय सीमाएँ जैसे भौगोलिक तत्व की महत्ता है ।
भारत के उत्तर में साम्यवादी चीन, इस्लामिक देश पाकिस्तान और अफगानिस्तान पश्चिमोत्तर है । इन देशों की सामाजिक राजनीतिक, वैदेशिक नीति को देखकर भारत अपने वैदेशिक सबध निर्धारित करता आ रहा है ।
2. गुटबंदियों:
भारत जब स्वाधीन हुआ तो विश्व दो गुटों में बंटा हुआ था । इन दो गुटों की प्रतिद्वंद्विता शीत युद्ध का कारण बनी जब भारत स्वतंत्र हुआ तो उसके सामने यह प्रश्न आया कि वह किस गुट के साथ जाए । भारत ने इस स्थिति में गुटों से पृथक रहना ही ठीक समझा क्योंकि यह दोनों गुटों के बीच सेतु संबंध का कार्य करना चाहता था ।
भारत द्वारा तटस्थता और असंलग्नता को वैदेशिक नीति अपनाने का प्रधान कारण यही था कि भारत दोनों गुटों से अलग रहते हुए भी दोनों से मैत्रीपूर्ण संबंध भी बनाए रखना चाहता था ।
3. विचारधाराओं का प्रभाव:
भारत की विदेश नीति के निर्धारण में शांति और अहिंसा पर आधारित गाँधीवादी विचारधारा का भी गहरा प्रभाव दिखाई देता है । इस विचारधारा से प्रभावित होकर ही संविधान के अनुच्छेद 51 में विश्व शांति की चर्चा की गई है । विश्व की दो विचारधाराएँ मार्क्सवाद और उदारवाद किसी में भी प्रत्यक्ष रूप से भारत का पूर्ण विश्वास नहीं था बल्कि उसने मिश्रित विचारधारा को अपनाकर मिश्रित अर्थव्यवस्था को भी चुना और इसका प्रभाव भारत की विदेश नीति निर्धारण में भी रहा है ।
4. आर्थिक तत्व:
भारत की आर्थिक उन्नति तभी संभव थी जब अंतर्राष्ट्रीय शांति बने रहे । आर्थिक दृष्टि से भारत का अधिकांश व्यापार पाश्चात्य देशों के साथ था और पाश्चात्य देश भारत का शोषण कर सकते थे भारत अपने विकास के लिए अधिकतम विदेशी सहायता का भी इच्छुक था । इस दृष्टिकोण से भारत का सभी देशों के साथ मैत्री का रखना आवश्यक था और वह किसी भी एक गुट से नहीं बंध सकता था । गुटबंदी से अलग रहने के कारण उसे दोनों गुटों से आर्थिक सहायता प्राप्त हो सकती थी ।
5. सैनिक तत्व:
स्वतंत्रता के समय भारत की सैन्य स्थिति काफी दुर्बल थी अपनी रक्षा के लिए वह पूरी तरह विदेशों पर निर्भर था । अपनी सैनिक दुर्बलता के कारण ही वर्षों शिकंजे में रखने वाले ब्रिटेन के राष्ट्रमंडल का सदस्य बना, ताकि उसे समय अनुसार सैनिक सहायता मिलती रहे । इस दृष्टिकोण से भारत का सभी देशों के साथ मैत्री का बर्ताव रखना भी आवश्यक था ।
6. राष्ट्रीय हित:
नेहरू ने संविधान सभा में कहा था, ”किसी भी देश की विदेश नीति की आधारशिला उसके राष्ट्रीय हित की सुरक्षा होती है और भारत की विदेश नीति का भी ध्येय यही है” । भारत के दो प्रकार के राष्ट्रीय हित हैं- स्थायी राष्ट्रीय हित जैसे देश की अखंडता तथा अस्थायी राष्ट्रीय हित जैसे विदेशी पूँजी तथा तकनीकी विकास राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में ही भारत ने पश्चिमी एशिया के संकट में इजराइल के बजाय अरब राष्ट्रों का समर्थन किया ।
7. ऐतिहासिक परम्पराएं:
प्राचीन काल से ही भारत की नीति शांतिप्रिय रही है । भारत ने किसी भी देश पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया । भारत की यह परम्परा वर्तमान विदेश नीति में स्पष्ट दिखाई देती है । भारत की विदेश नीति में विश्व शांति और बंधुत्व पर बल दिया गया है जिसके पीछे ऐतिहासिक परम्परा ही है ।
Essay # 3. भारतीय वैदेशिक नीति के मूल तत्व व सिद्धांत (Principles of India’s Foreign Policy):
स्वाधीन भारत की विदेश नीति का विश्लेषण करने पर निम्नांकित विशेषताएँ भारतीय विदेश नीति की दिखाई देती है:
1. गुटनिरपेक्षता:
भारतीय विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण तथा विलक्षण सिद्धांत गुटनिरपेक्षता है । जिस समय दोनों महाशक्तियाँ शीत युद्ध की नीति पर चल रही थी तब भारतीय निर्माताओं ने विश्व शांति तथा भारतीय सुरक्षा तथा आवश्यकताओं के हित में यही ठीक समझा कि भारत को शीत युद्ध तथा शक्ति राजनीति से दूर रखा जाए ।
इस प्रकार भारत ने अलग रहते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनाया । स्वतंत्रता से लेकर आज तक भारत इस नीति का पालन कर रहा है । इसके साथ ही भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन को चलाने में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।
2. साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध:
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन दासतां में पिसने के बाद भारत को साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद की शोषण प्रवृत्ति का पूर्ण आभास है । इन बुराइयों के विरोध को भारत ने अपनी विदेश नीति का मुख्य सिद्धांत माना है । भारत ने उपनिवेशीय शासन से छुटकारा पाने वाले देशों के स्वतंत्रता संघर्ष में उनका साथ दिया है । भारत और अन्य गुटनिरपेक्ष देशों की कोशिशों के कारण नामीबिया को 20 मार्च, 1990 को स्वतंत्रता प्राप्त हुई ।
3. नस्लवादी भेदवाद का विरोध:
भारत नस्लों की समानता में विश्वास करता है तथा किसी भी नस्ल के लोगों से भेदभाव का पूर्ण विरोध करता है । अपनी इस वैदेशिक नीति के सिद्धांत के आधार पर ही भारत ने दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी शासन की कड़ी आलोचना की है और दक्षिण अफ्रीका के विरूद्ध कुछ प्रतिबंध भी लगाए तथा उससे कूटनीतिक संबंध तोड़ लिये ।
नेल्सन मंडेला के प्रयासों से दक्षिण अफ्रीका को श्वेत अत्याचारी शासन से मुक्ति मिली । अतः भारत ने भी दक्षिण अफ्रीका पर लगे प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया ।
4. साधनों की शुद्धता:
साधनों की शुद्धता की गांधीवादी सदगुण के प्रभाव में भारत की विदेश नीति, झगडों के निपटारे के लिए, शांतिपूर्ण साधनों में अपना पूर्ण विश्वास प्रकट करती है । शांतिपूर्ण तथा अंहिसात्मक साधनों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों का शांतिपूर्ण निपटारा करने का दृढ़ समर्थक तथा अनुयायी रहा है । भारत युद्ध, आक्रमण तथा शक्ति का विरोध करता है ।
5. पंचशील की नीति:
साधनों की शुद्धता के विश्वास ने भारत को पंचशील का सिद्धांत अपनाने के लिए प्रेरित किया है । पंचशील सिद्धांत का अर्थ है व्यवहार या आचरण के पाँच नियम । 20 जून 1954 को प्रधानमंत्री नेहरू तथा चीनी प्रधानमंत्री चानु-एन॰ लाई के बीच पंचशील के एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए ।
जिन्हें दोनों ही राष्ट्रों द्वारा अपनी-अपनी विदेश नीतियाँ तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनाना था । पंचशील के सिद्धांतों को मान्यता देना स्थायी अंतर्राष्ट्रीय शांति लाने का सकारात्मक ढंग समझा जाता है ।
6. संयुक्त राष्ट्र संघ तथा विश्व शांति के लिए समर्थन:
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के मूल सदस्यों में से एक है । संयुक्त राष्ट्र की विचारधारा का समर्थन करने तथा इसके क्रियाकलापों में सक्रियता, सकारात्मक तथा रचनात्मक रूप से भाग लेना भारतीय विदेश नीति का महत्वपूर्ण सिद्धांत रहा है । भारत ने अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों का निपटारा हमेशा ही संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में करने की नीति अपनाई है ।
भारत ने पिछले कुछ वर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन की माँग की है तथा इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए अपना दावा प्रस्तुत किया है । इन सभी सिद्धांतों ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में भारत को उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान की है ।
Essay # 4. वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारत की विदेश नीति (India’s Foreign Policy in Current International Perspective):
1990 के बाद बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भारत ने भी अपनी विदेश नीति में बदलाव किया है । शीत युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व में एक ध्रुवीय व्यवस्था कायम हो गई है । वैश्वीकरण अथवा भूमंडलीकरण के चलते अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में विचारधारा का समापन होने के कगार पर है और प्रत्येक राष्ट्र आर्थिक हित को प्रधानता देने में लगा है ।
ऐसे परिवर्तित परिवेश में भारतीय विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य क्या होने चाहिए तथा इन लक्ष्यों की पूर्ति वर्तमान समसामयिक विश्व में कहीं तक पूरी की जा सकती है ।
इसका वर्णन निम्नलिखित बिंदुओं के अंर्तगत किया जा सकता है:
1. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता प्राप्त करना तथा इसके पुर्नगठन का सर्मथन करना:
संयुक्त राष्ट्र के पुर्नगठन करने वालों में भारत प्रमुख है क्योंकि इसका मत है कि 1945 से अब तक संयुक्त राष्ट्र के अन्य संगठनों तथा विश्व राजनीति में काफी परिवर्तन हुआ है । अतः ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र का पुर्नगठन किया जाना चाहिए । साथ ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भी अपना दावा प्रस्तुत किया है ।
भारत का दावा है कि उसे स्थाई सदस्यता इसलिए भी दी जानी चाहिए क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक राष्ट्र होते हुए विश्व शांति के सभी प्रयासों में संयुक्त राष्ट्र के साथ कदम से कदम मिलाकर चला है । अपने इन प्रयासों के चलते भारत के नेताओं ने विभिन्न देशों में यात्रा कर विश्व जनमत को अपनी ओर करने के सभी प्रयासों को बनाए हुए हैं ।
2. परमाणु शक्ति के रूप में भारत की छवि को पेश करना:
भारत ने अपनी परमाणु नीति की समीक्षा 1998 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में की थी । अतः इस नीति के चलते भारत ने मई 1998 में पोखरण II अभियान के नाम से परमाणु परीक्षण कर पूरे विश्व को अपनी परमाणु क्षमता का परिचय दे दिया है और पूरे विश्व में यह संदेश भी दिया कि उसका परमाणु कार्यक्रम केवल शांति के लिए है न कि युद्ध के लिए ।
3. भारत का एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभारना:
यह भी अब भारत की विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य बन गया है । भारत चाहता है कि 21वीं शताब्दी में वह एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए । आज भारत अपनी साँपटवेयर तकनीक के कारण विश्व के चुनिंदा देशों में से एक हो गया है जिसके चलते वह अपनी आर्थिक शक्ति को और मजबूत कर सकता है ।
भारत में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की यात्रा के दौरान भारतीय और अमेरिकीय कंपनियों के बीच ऊर्जा, पर्यावरण तथा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कुल 2 अरब डालर निवेश के 12 समझौते हुए हैं । साथ ही वियतनाम और इंडोनेशिया के राष्ट्रपतियों तथा सिंगांपुर और कम्बोडिया के प्रधानमंत्रियों आदि की भारत यात्रा भी आर्थिक उद्देश्यों को लेकर हुई थी ।
भारत ने एशिया में क्षेत्रीय सहयोग संगठन, विशेषकर सार्क, आसियान, हिमतक्षेस आदि के माध्यम से आर्थिक सहयोग को बढाने की दिशा में कार्य किया है और इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य भारत को एक प्रमुख आर्थिक शक्ति के रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत करना रहा है ।
4. C.T.B.T. को न्यायपूर्ण बनाना:
सी॰टी॰बी॰टी॰ का विरोध भारत इसलिए करता रहा है क्योंकि यह पश्चिमी देशों के परमाणु अधिकारों को तो सुरक्षित रखती है जबकि परमाणुविहीन देशों के परमाणु परीक्षणों और उत्पादन पर रोक लगाती है । अतः भारत ने इस संधि को भेदभाव पूर्ण मानते हुए इस पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं ।
भारत ने वर्तमान में भी अपनी विदेश नीति के प्रमुख लक्ष्य के रूप में यह नीति अपनाई है कि वह CTBT के वर्तमान स्वरूप पर हस्ताक्षर नहीं करेगा । भारत इसके स्वरूप को बदलकर इसे एक ऐसे कार्यक्रम से जोड़ना चाहता है जिसमें विश्व के सभी देश एक निश्चित अवधि में सभी हथियारों को नष्ट कर देंगे ।
5. विदेशों में सुदृढ़ मित्रों की तलाश/विदेश यात्राओं का दौर:
भारत ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनी भूमिका को और सुदृढ़ करने के लिए विदेशों में अपने मधुर संबंधों को बढाने की नीति अपनाई है जिसके लिए भारत के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, गृहमंत्री, विदेश मंत्री तथा रक्षा मंत्रियों ने विदेशों की यात्रा करके विश्व जनमत को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका से अवगत करा दिया है ।
1999 में राष्ट्रपति की चीन यात्रा तथा फ्रांस यात्रा, गृह मंत्री की 2000 में इजराइल, फिलीस्तीन, फ्रांस तथा इंग्लैंड की यात्रा, प्रधानमंत्री की इटली और पुर्तगाल की यात्रा, तथा सितंबर 2001 की घटना के बाद अमेरिका की यात्राओं से यह साफ झलकता है कि भारत विदेशी मित्रों को अपनी मजबूत स्थिति से अवगत कराना चाहता है ।
6. अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ विश्व जनमत तैयार करना:
भारत प्रारंभ से आतंकवाद के विरोध की मुहिम के अंर्तगत विश्व को इसका परिणाम बताता रहा है लेकिन कारगिल युद्ध, (1999), सितंबर 2001 की घटना, तथा भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले के बाद भारत ने अपनी नीति के तहत आतंकवाद को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरोध की मुहिम चलाई है और इसके विरूद्ध विश्व जनमत तैयार किया है ।
भारतीय नेताओं की विदेश यात्राओं के दौरान प्रमुख मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद ही था । सन् 2001 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन में भारत ने आतंकवाद पर सकारात्मक स्वरूप तैयार करने के लिए एक विश्व सम्मेलन का प्रस्ताव रखा जिसका फ्रांस और इंग्लैंड ने समर्थन किया ।
7. दक्षिण एशिया का नेतृत्व और प्रतिनिधित्व:
वर्तमान में भारतीय विदेश नीति का एक लक्ष्य यह भी है कि वह दक्षिण एशिया में सबसे बडा देश होने के नाते अपनी प्रमुख भूमिका अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में निभाए । भारत चाहता है कि इस क्षेत्र के सभी विवाद आपसी सहयोग तथा द्विपक्षीय आधार पर सुलझाए जाने चाहिए । किसी तीसरी शक्ति के हस्तक्षेप का भारत ने विरोध किया है । भारत ने कश्मीर विवाद पर पाकिस्तान से बातचीत के द्वारा हल करने की पेशकश की है ।
8. अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए प्रयास करने की नीति:
भारत की विदेश नीति का प्रमुख आधार है अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा की स्थापना । वर्तमान में भी भारत ने इस नीति पर कार्य जारी रखा है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा विश्व शांति के प्रत्येक प्रयास में सहभागी बने रहने की नीति अपनाई है । भारत ने खाड़ी युद्ध (1991) तथा अफगानिस्तान में शांति की स्थापना में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका में अपना सहयोग प्रदान किया है लेकिन साथ ही भारत ने संयुक्त राष्ट्र पर अमेरिकी दादागिरी का भी विरोध किया है ।
9. ‘नाम’ की प्रासंगिकता को बनाये रखना:
भारत ने 1990 के बाद बदले हुए अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में भी गुटनिरपेक्षता को अपनी विदेश नीति का प्रमुख लक्ष्य स्वीकार किया है । 1990 के बाद इस मंच को भारत विकासशील देशों के लिए आर्थिक मुद्दों की माँग के लिए पेश करना चाहता है । भारत की मान्यता है कि ‘नाम’ एक ऐसा विश्वस्तरीय मच है जिसकी अवहेलना कोई नहीं कर सकता ।
भारत ने NAM की प्रासंगिकता को बनाये रखने के लिए कई तर्क भी दिये हैं- जैसे, ‘नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’ की प्राप्ति के लिए यह एक सुदृढ़ भय है, अमेरिका जैसी महाशक्ति के विकल्प के रूप में भी भारत NAM को देखता है, अमेरिकी दादागिरी तथा विश्व की आर्थिक मंडियों पर उसके कब्जे को NAM एक बेहतर विरोध मंच प्रदान करता है तथा NAM ही वह शक्ति है जो विश्व को एकध्रुवीय बनने से रोक सकता है ।
संयुक्त राष्ट्र के पुर्नगठन तथा संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में अपने स्थाई सदस्यता के दावे को भी भारत NAM के माध्यम से मजबूती से पेश कर सकता है । अतः भारत की वर्तमान में यह नीति रही है कि NAM को बनाये रखा जाए और इसके माध्यम से विकासशील देशों के बीच सहयोग को और बढाया जाए ।
10. भारत-पाकिस्तान संबंधों में सुधार के प्रयत्न:
भारत ने हमेशा पाकिस्तान को एक अच्छे पडोसी का दर्जा प्रदान किया है । संसद पर हमले की दुखद घटना के बाद जो संबंध भारत-पाकिस्तान के बीच समाप्त हो गए थे उसे भारत ने फिर से शुरू करने की पेशकश की है । वर्तमान में भारत की विदेश नीति का एक लक्ष्य यह भी है कि पड़ोसियों से अपने संबंधों को सुधारा जाए ।
इसी के चलते भारत ने पाकिस्तान के साथ रेल सेवा, बस सेवा, वायु सेवा खोलने के साथ-साथ अन्य नए रूटों की आवाजावी तथा पासपोर्ट नियम लचीले करने का भी प्रस्ताव रखा है साथ ही भारत ने पाकिस्तान से क्रिकेट संबंधों को शुरू करने का फैसला किया है ।
द्विपक्षीय मुद्दों को आपसी बातचीत से हल करने की मुहिम के अंर्तगत भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जनवरी 2004 में इस्लामाबाद में होने वाले सार्क शिखर-सम्मेलन में भाग लेना, तथा पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से द्विपक्षीय सहयोग पर बातचीत करने का निर्णय किया है ।
उपरोक्त लक्ष्य वर्तमान में भारत की विदेश नीति के प्रमुख आयाम भी हैं । जिन्हें भारत ने बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के अंर्तगत ढालने की कोशिश की है ।
Essay # 5. भारत की विदेश नीति का मूल्यांकन (Evaluation of India’s Foreign Policy):
वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बदलते परिदृश्य के कारण भारत की विदेश नीति में भी बदलाव आया है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विदेश नीति में जिन विचारों को अपनाया गया था उनमें समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है ।
शीत युद्ध की स्थिति, सोवियत संघ का पतन, शीत युद्ध का अन्त, अमेरिका का इराक पर हमला, आतंकवादी घटनाएँ विशेषकर अमेरिका तथा भारत में और विश्व पर अमेरिकी दादागिरी तथा युरोपियन युनियन का बनना, अफ्रीकी संघ का निर्माण, सार्क, जैसे क्षेत्रीय संगठनों का निर्माण आदि घटनाओं ने भारत की विदेश नीति को बदलते संबंधों के आधार पर पुर्नविचार करने के लिए एक नई दिशा प्रदान की ।
विद्वानों का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बदलते परिदृश्य के कारण भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी वैदेशिक नीति को नया रूप प्रदान करने की होगी । भारत को परम्परागत हितों, राष्ट्रीय हितों एवं सुरक्षा, एकता एवं अखंडता को बरकरार रखना, तीव्र गति से आर्थिक विकास, एवं इस बात को निश्चित करना होगा कि वैदेशिक नीतियों के निर्धारण में भारत बाहरी प्रभावों से मुक्त रह सके ।
आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने वैदेशिक संबंधों को फिर से नये रूप में प्रस्तुत करे । आज अमेरिका पाकिस्तान के बजाय भारत के साथ अधिक मित्रता की नीति अपना रहा है । भारत को सोच-समझकर अमेरिका के साथ आर्थिक विकास की नीति अपनानी होगी । इसी प्रकार पाकिस्तान से आतंकवाद का मुद्दा, तथा कश्मीर का मुद्दा द्विपक्षीय बातचीत के आधार पर हल करने के प्रयास ढूँढने होंगे ।
साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के दावे को विश्व के विकासशील देशों के सामने सुदृढ़ तरीके में प्रस्तुत करना होगा ताकि वो भारत को इस सम्मान को दिलाने में सहायता करे । इसके अलावा पड़ोसियों के साथ भी भारत को आर्थिक तथा सुरक्षात्मक तनाव पर अधिक ध्यान देने की नीति अपनानी होगी ।
स्पष्ट है कि विश्व के बदलते राजनीतिक परिवेश में भारत को समायोजन की नीति का पालन करना उचित होगा इसके द्वारा भारत न केवल अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित रख सकता है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर एक नायक की भूमिका भी निभा सकता है ।