भारत पर निबंध: शीर्ष तीन निबंध | Essay on India: Top 3 Essays in Hindi language.
Essay # 1. भारत : एक सामान्य परिचय (India : A General Introduction)
भारत का नामकरण (Naming of India):
भारत एक महान देश है । यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति उतनी ही पुरानी है जितना कि मानव उत्पत्ति । भारत की विशालता के आधार पर इसे उपमहाद्वीप की संज्ञा दी गई है । इसका प्राचीन नाम आर्यावर्त था । राजा भरत के नाम पर इसका नाम भारतवर्ष पड़ा । वैदिक आर्यों का निवास स्थान सिंधु घाटी में था ।
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पर्शिया (आधुनिक ईरान) के लोगों ने सबसे पहले सिन्धु घाटी से भारत में प्रवेश किया । वे लोग ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ की तरह करते थे तथा वे सिन्धु नदी को हिन्दू नदी कहते थे इसी आधार पर इस देश को हिन्दुस्तान नाम दिया । ये लोग सिन्धु (Sindhu) का बदला रूप हिन्दू (Hindu) यहाँ के निवासियों के लिए भी प्रयोग करते थे ।
जैन पौराणिक कथाओं के अनुसार हिन्दू और बौद्ध ग्रंथों में भारत हेतु जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग किया गया है । भारत के लिए प्रयुक्त इंडिया शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के इण्डोस (Indos) से हुआ है । यूनानियों ने सिन्धु को इंडस तथा इस देश को इंडिया कहा ।
जेम्स अलेक्जेंडर ने अपने विवरण में हिंदू (Hindu) का ह (H) हटाकर देश को इंदू (Indu) नाम से सम्बोधित किया था । बाद में परिवर्तित होकर यह इंडिया हो गया । भारत के संविधान के अनुच्छेद-1 में भारत अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ होगा (India, that is Bharat shall be a Union of States) शब्दों को स्पष्ट किया गया है ।
Essay # 2. भारत : स्थिति व विस्तार (India – Position and Expansion):
भारत की भौगोलिक स्थिति पृथ्वी के उत्तरी-पूर्वी गोलार्द्ध में 8०4′ से 37०6′ उत्तरी अक्षांश तथा 68०7′ से 97०25′ पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है । 82 1/2० पूर्वी देशान्तर इसके लगभग मध्य से होकर गुजरती है इसी देशांतर के समय को देश का मानक समय माना गया है ।
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यह इलाहाबाद के निकट नैनी से होकर गुजरती है । जो कि भारत के पाँच राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा तथा आन्ध्र प्रदेश से जाती है ।
यहाँ का समय ग्रीनविच ममय से 5 घंटा 30 मिनट आगे है । ‘कर्क रेखा’ भारत के श्वग मध्य भाग एवं आठ राज्यों से गुजरती है वे हैं-गुजरात, राजस्थान मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा तथा मिजोरम । पूरे भारत का लगभग अधिकांश क्षेत्र मनी जलवायु वाले क्षेत्र के अंतर्गत आता है लेकिन कर्क रेखा इसे उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधों में बाँटती है ।
भारतीय भू-भाग की लंबाई पूर्व से पश्चिम तक 2,933 किमी. नथा उत्तर से दक्षिण तक 3,214 किमी. हैं । इस प्रकार, भारत लगभग चतुष्कोणीय देश है । प्रायद्वीपीय भारत त्रिभुजाकार आकृति में होने के कारण हिन्द महासागर को 2 शाखाएँ अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में विभाजित करता है । हिंद महासागर और उसकी शाखाएँ अरब सागर व बंगाल की खाड़ी क्षेत्र में तटीय सीमा बनाती हैं ।
भारत की स्थलीय सीमा की लम्बाई 15,200 किमी. तथा मुख्य भूमि की तटीय सीमा की लम्बाई 6,100 किमी. है । द्वीपों समेत देश के कुल तटीय सीमा 7515.5 किमी. है । इस प्रकार, भारत की कुल सीमा 22,716.5 (15200+7516.5) किमी. है । ‘गुजरात’ की तटीय सीमा सबसे लम्बी है, क्योंकि इसमें सर्वाधिक क्रीक है ।
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भारत का दक्षिणतम बिंदु ‘इंदिरा प्वाइंट’ है, जो ग्रेट निकोबार द्वीप में 6०45 उत्तरी अक्षांश पर स्थित है । पहले इसका नाम ‘पिग्मिलियन प्वाइंट’ था । यह भूमध्य रेखा से 876 किमी. दूर है । 2004 में हिंद महासागर क्षेत्र में भूकंप से उत्पन्न हुई सुनामी के कारण इंदिरा प्वाइंट का बड़ा भाग समुद्र में डूब गया था । भारत के सबसे उत्तरी बिंदु ‘इंदिरा कॉल’ जम्मू-कश्मीर राज्य में है ।
भारत का अक्षांशीय विस्तार विषुवत-वृत्त से उत्तरी ध्रुव की कोणात्मक दूरी का 1/3 भाग है । मिनिकॉय व लक्षद्वीप के मध्य 9० चैनल एवं मालदीव व मिनिकॉय के बीच 8० चैनल गुजरती है । लिटिल अंडमान और कार निकोबार के बीच 10० चैनल गुजरती है । ‘इंदिरा म्वाइंट’ और इंडोनेशिया के बीच ग्रेट चैनल ।
भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किमी. है, जो विश्व के कुल क्षेत्रफल का 2.43% है । क्षेत्रफल के दृष्टिकोण से भारत का रूस, कनाडा, चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील व आस्ट्रेलिया के बाद सातवाँ स्थान है । जबकि जनसंख्या के दृष्टिकोण से चीन के बाद भारत का दूसरा स्थान है जहाँ विश्व की कुल जनसंख्या का 17.5% भाग निवास करती है ।
भारत हिंद महासागर में केन्द्रीय अवस्थिति रखता है तथा यह एकमात्र देश है, जिसके नाम पर किसी महासागर का नाम पड़ा है । हिंद महासागर भारत के लिए पर्याप्त भू-राजनीतिक, भू-सामरिक, आर्थिक व व्यापारिक महत्व रखता है । भारत की ‘प्रादेशिक समुद्री सीमा या क्षेत्रीय विस्तार सागर’ की आधार रेखा से 12 समुद्री मील (नॉटिकल मील) की दूरी तक है ।
‘आधार रेखा’ वस्तुतः टेढ़े-मेढ़े तट को मिलाने वाली कल्पित सीधी रेखा है । स्थलीय भाग एवं आधार रेखा के मध्य स्थित सागरीय जल को ‘आंतरिक जल’ (Internal Water) कहते हैं ।
‘अविच्छिन्न मंडल या संलग्न क्षेत्र’ (Contiguous Zone) की दूरी आधार रेखा से 24 समुद्री मील (1 समुद्री मील=1.8 मील) आगे तक है । इस क्षेत्र में भारत को साफ-सफाई तथा सीमा शुल्क की वसूली के वित्तीय अधिकार है ।
देश का ‘अनन्य आर्थिक क्षेत्र’ (Exclusive Economic Zone) आधार रेखा से 200 समुद्री मील तक है, जिसमें भारत को वैज्ञानिक अनुसंधान व नए द्वीपों के निर्माण तथा प्राकृतिक संसाधनों के विदोहन की छूट मिली हुई है । इसके बाद ‘उच्च सागर’ (High Sea) का विस्तार है, जहां सभी राष्ट्रों को समान अधिकार हैं ।
भारत देश में 29 राज्य और 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं । हमारे निकटतम पड़ोसी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, चीन, नेपाल, भूटान, म्यांमार तथा बांग्लादेश हैं । नेपाल व भूटान, भारत व चीन के मध्य अंतस्थ राज्य (बफर स्टेट) है । श्रीलंका भी भारत का पड़ोसी देश है, जो हिन्द महासागर में पाक जलसंधि द्वारा भारत की मुख्य भूमि से पृथक है ।
‘आदम ब्रिज’ तमिलनाडु एवं श्रीलंका के मध्य स्थित है । ‘पाम्बन द्वीप’ आदम ब्रिज का ही हिस्सा है । पम्बन द्वीप पर ही रामेश्वरम् स्थित है, आदम ब्रिज के उत्तर में पाक की खाड़ी एवं दक्षिण में मन्नार की खाड़ी स्थित है ।
Essay # 3. भारत की भूगर्भिक संरचना (Geologic Structure of India)
भूगर्भिक संरचना की दृष्टि से भारत को तीन स्पष्ट भागों में विभाजित किया जा सकता है:
A. दक्षिण का प्रायद्वीपीय पठार (Peninsular Plateau of the South):
यह ‘गोंडवानालैंड’ का ही एक भाग है एवं भारत ही नहीं वरन विश्व के प्राचीनतम चट्टानों से निर्मित है । प्री-कैम्ब्रियन काल के बाद से ही यह भाग कभी भी पूर्णतः समुद्र के नीचे नहीं गया । यह आर्कियन युग के आग्नेय चट्टानों से निर्मित है जो अब नीस व शिस्ट के रूप में अत्यधिक रूपांतरित हो चुकी हैं ।
प्रायद्वीपीय भारत की संरचना में चट्टानों के निम्न क्रम मिलते हैं:
See the following Sequence of Rocks in the Structure of Indian Peninsular:
1. आर्कियन क्रम की चट्टानें (Archean Rocks):
ये अत्यधिक प्राचीन प्राथमिक चट्टानें हैं जो नीस व सिस्ट के रूप में रूपांतरित हो चुकी हैं । बुंदेलखंड नीस व बेल्लारी नीस इनमें सबसे प्राचीन हैं । बंगाल नीस व नीलगिरि नीस भी इन चट्टानों के उदाहरण हैं ।
2. धारवाड़ क्रम की चट्टानें (Dharwar Rocks):
ये आर्कियन क्रम के प्राथमिक चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से बनी परतदार चट्टानें हैं । ये अत्यधिक रूपांतरित हो चुके हैं एवं इसमें जीवाश्म नहीं मिलते । कर्नाटक के धारवाड़ एवं बेल्लारी जिला, अरावली श्रेणियाँ, बालाघाट, रीवा, छोटानागपुर आदि क्षेत्रों में ये चट्टानें मिलती हैं । भारत के सर्वाधिक खनिज भंडार इसी क्रम के चट्टानों में मिलते हैं । लौह-अयस्क, तांबा और स्वर्ण इन चट्टानों में पाए जाने वाले महत्वपूर्ण खनिज हैं ।
3. कुड़प्पा क्रम की चट्टानें (Kudppa Rocks):
इनका निर्माण धारवाड़ क्रम के चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से हुआ है । ये अपेक्षाकृत कम रूपांतरित हैं परन्तु इनमें भी जीवाश्म का अभाव मिलता है । कृष्णा घाटी, नल्लामलाई पहाड़ी क्षेत्र, पापाघानी व चेयार घाटी आदि में ये चट्टानें मिलती हैं ।
4. विंध्य क्रम की चट्टानें (Vindhya Rocks):
कुड़प्पा क्रम की चट्टानों के बाद ये चट्टानें निर्मित हुई हैं । इनका विस्तार राजस्थान के चित्तौड़गढ़ से बिहार के सासाराम क्षेत्र तक है । विंध्य क्रम के परतदार चट्टानों में बलुआ पत्थर मिलते हैं । इन चट्टानों का एक बड़ा भाग दक्कन ट्रैप से ढँका है ।
5. गोंडवाना क्रम की चट्टानें (Gondwana Rocks):
ऊपरी कार्बोनीफेरस युग से लेकर जुरैसिक युग तक इन चट्टानों का निर्माण अधिक हुआ है । ये चट्टानें कोयले के लिए विशेष महत्वपूर्ण है । भारत का 98% कोयला गोंडवाना क्रम के चट्टानों में मिलता है ।
ये परतदार चट्टानें हैं एवं इनमें मछलियों व रेंगनेवाले जीवों के अवशेष मिलते हैं । दामोदर, महानदी और गोदावरी व उसकी सहायक नदियों में इन चट्टानों का सर्वोत्तम रूप मिलता है ।
6. दक्कन ट्रैप (Deccan Traps):
इसका निर्माण मेसोजोइक महाकल्प के क्रिटेशियस कल्प में हुआ था । इस समय ‘विदर्भ क्षेत्र’ में ज्वालामुखी के दरारी उद्भेदन से लावा का वृहद उद्गार हुआ एवं लगभग 5 लाख वर्ग किमी. का क्षेत्र इससे आच्छादित हो गया ।
इस क्षेत्र में 600 से 1500 मी. एवं कहीं-कहीं तो 3000 मी. की मोटाई तक बैसाल्टिक लावा का जमाव मिलता है । यह प्रदेश ‘दक्कन ट्रैप’ कहलाता है । राजमहल ट्रैप का निर्माण इससे भी पहले जुरैसिक कल्प में हो गया था ।
प्रायद्वीपीय पठार का महत्व (The Importance of the Peninsular Plateau):
भौगोलिक तौर पर दक्कन का पठार लंबवत् संचलन के उदाहरण रहे हैं एवं यहाँ अनेक जल प्रपात मिलते हैं, जिनसे यहाँ जल विद्युत उत्पादन संभव है । पठारी भागों पर अनेक प्राकृतिक खड्डों के मिलने के कारण यहाँ तालाबों की अधिकता है, जिनसे सिंचाई व्यवस्था संभव हो पाती है ।
दक्कन के लावा पठार के अपरदन एवं अपक्षयन से उपजाऊ काली मिट्टी निर्मित हुई है जो कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है । पश्चिमी घाट के अधिक वर्षा वाले समतल उच्च भागों पर लैटेराइट मिट्टी का निर्माण हुआ है, जिन पर मसालों, चाय, कॉफी आदि की खेती की जाती है । प्रायद्वीपीय पठार के शेष भागों की लाल-मिट्टियों में मोटे अनाज, चावल, तंबाकू एवं सब्जियों की खेती हो पाती है ।
पश्चिमी घाट के अत्यधिक वर्षा वाले प्रदेशों में सदाहरित वन मिलते हैं एवं यहाँ सागवान, देवदार, आबनूस, महोगनी, चंदन, बांस आदि आर्थिक दृष्टिकोण से उपयोगी वनों की लकड़ियाँ मिलती है । इस पठार के आंतरिक भागों में कम वर्षा वाले क्षेत्रों में घास-भूमियाँ मिलती है, जिसके आधार पर पशुपालन संभव हो पाता है ।
प्रायद्वीपीय पठार भारत के खनिज संसाधनों के अधिकांश भाग की पूर्ति करता है । यहाँ की भूगर्भिक संरचना सोना, तांबा, लोहा, यूरेनियम, बाक्साइट, कोयला, मैंगनीज आदि खनिजों में सम्पन्न है । छोटानागपुर के पठार को ‘भारत का रूर प्रदेश’ भी कहते हैं, क्योंकि यहाँ खनिज संसाधनों का विपुल भंडार है ।
इन्हीं खनिज संसाधनों के आधार पर यहाँ विभिन्न खनिज आधारित उद्योग-धंधों की स्थापना संभव हो सकी है । पठारी भाग के तटीय भागों पर अनेक खाड़ियाँ और लैगून मिलते हैं जहाँ बंदरगाहों व पोताश्रय का निर्माण संभव हो सका है ।
B. उत्तर की विशाल पर्वतमाला (Vast Ranges of the North):
हिमालय का निर्माण एक लम्बे भू-गर्भिक ऐतिहासिक काल से गुजरकर सम्पन्न हुआ है । इसके निर्माण के संबंध में कोबर का ‘भू-सन्नति सिद्धान्त’ (Geo-Syncline Theory) एवं हैरी हेस का ‘प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत’ सर्वाधिक मान्य है । कोबर ने भू-सन्नतियों को ‘पर्वतों का पालना’ (Cradle of Mountain) कहा है । ये लंबे, संकरे व छिछले जलीय भाग है ।
उनके अनुसार आज से 7 करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय के स्थान पर टेथिस (Tethys) भू-सन्नति थी जो उत्तर की अंगारालैंड को दक्षिण के गोंडवानालैंड से पृथक करती थी । इन दोनों के अवसाद टेथिस भू-सन्नति में जमा होते रहे एवं इन अवसादों का क्रमशः अवतलन होता रहा ।
इसके परिणामस्वरूप दोनों संलग्न अग्रभूमियों में दबाव जनित भू-संचलन उत्पन्न हुआ जिनसे क्युनलुन एवं हिमालय-काराकोरम श्रेणियों का निर्माण हुआ । वलन स अप्रभावित या अल्प प्रभावित मध्यवर्ती क्षेत्र ‘तिब्बत का पठार’ के नाम से जाना गया । वर्तमान समय में हैरी हेस के द्वारा प्रतिपादित प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत हिमालय की उत्पत्ति की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या करता है ।
इसके अनुसार लगभग 7 करोड़ वर्ष पूर्व उत्तर में स्थित यूरेशियन प्लेट की ओर भारतीय प्लेट उत्तर-पूर्वी दिशा में गतिशील हुआ । दो से तीन करोड़ वर्ष पूर्व ये भू-भाग अत्यधिक निकट आ गए, जिनसे टेथिस के अवसादों में वलन पड़ने लगा एवं हिमालय का उत्थान प्रारम्भ हो गया । लगभग एक करोड़ वर्ष पूर्व हिमालय की सभी श्रृंखलाएँ आकार ले चुकी थी ।
सेनोजोइक महाकल्प के इयोसीन व ओलीगोसीन कल्प में वृहद हिमालय का निर्माण हुआ, मायोसीन कल्प में पोटवार क्षेत्र के अवसादों के वलन से लघु हिमालय बना । शिवालिक का निर्माण इन दोनों श्रेणियों के द्वारा लाए गए अवसादों के वलन से प्लायोसीन कल्प में हुआ । क्वार्टरनरी अर्थात् नियोजोइक महाकल्प के प्लीस्टोसीन व होलोसीन कल्प में भी इसका निर्माण होता रहा है ।
हिमालय वास्तव में अभी भी एक युवा पर्वत है, जिसका निर्माण कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है । हिमालय के क्षेत्र में आने वाले भूकम्प, हिमालयी नदियों के निरन्तर होते मार्ग परिवर्तन एवं पीरपंजाल श्रेणी में 1500 से 1850 मीटर की ऊँचाई पर मिलने वाले झील निक्षेप ‘करेवा’ हिमालय के उत्थान के अभी भी जारी रहने की ओर संकेत करते हैं ।
हिमालय का महत्व (Importance of the Himalaya):
हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप की प्राकृतिक एवं राजनीतिक सीमा बनाता है । इसकी भौगोलिक परिस्थिति के कारण ही, भारतीय उपमहाद्वीप का शेष एशिया से अलग व्यक्तित्व बन सका है । भारत की जलवायु को निर्धारित करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है ।
यह जाड़ों में आने वाली ध्रुवीय हवाओं को भारतीय भू-भाग पर आने से रोकता है, जिसके फलस्वरूप भारत इन ध्रुवीय हवाओं के प्रकोप से बच जाता है । इसी प्रकार वर्षा काल में हिमालय, मानसूनी हवाओं को रोककर भारतीय भू-भाग में पर्याप्त वर्षा कराता है, जिस पर हमारी कृषि निर्भर है ।
हिमालय, नदियों को वर्षवाहिनी भी बनाये रखता है, क्योंकि हिमालय के हिम के पिघलने से नदियों में जल की आपूर्ति वर्षभर होती रहती है । इन नदियों के वर्षवाहिनी होने के कारण यहाँ विभिन्न सिंचाई परियोजनाएँ संपन्न हो पाती है ।
उदाहरण के लिए सतलज, यमुना, गंगा आदि नदियों से निकाले गए नहरों को देखा जा सकता है । हिमालय की नदियाँ अपने साथ बड़ी मात्रा में अवसाद भी लाती हैं, जिनसे उपजाऊ जलोढ़ मैदानों का निर्माण होता है ।
हिमालय विविध संसाधनों के विकास का संभावित प्रदेश भी हैं । यहाँ कोबाल्ट, निकेल, जस्ता, तांबा, एंटीमनी, विस्मथ जैसे धात्विक खनिज संसाधन हैं, इसकी जटिल भू-गर्भिक संरचना के कारण धात्विक खनिजों का खनन अभी संभव नहीं हो पा रहा है ।
यहाँ कोयला, पेट्रोलियम जैसे अधात्विक संसाधन भी हैं । अधात्विक संसाधनों के अंतर्गत हिमालय की टर्शियरी संरचना में कोयला के विभिन्न प्रकार मिलते हैं । इनमें सबसे अच्छी गुणवत्ता वाला एंथ्रासाइट कोयला भी उपलब्ध है जो कि कारगिल क्षेत्र के रियासी में मिलता है ।
वन संसाधनों के अंतर्गत, सागवान, शीशम, ओक, लॉरेल, देवदार, मैगनेलिया, बांस, आदि के वन आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यधिक उपयोगी है । इन वन क्षेत्रों में दुर्लभ जड़ी बूटियाँ भी मिलती है, जिस पर हमारा आयुर्वेदिक उद्योग आधारित है ।
हिमालय क्षेत्र में शीतोष्ण घास-भूमियों पर यहाँ के पशु (भेड़-बकरी) निर्भर करते हैं । हिमालय विभिन्न प्रकार के जंगली जीव-जंतुओं का विशाल आश्रय स्थल भी है । वास्तव में हिमालय-क्षत्र को जैव-विविधता का विशाल भंडार भी कहा जा सकता है ।
हिमालय पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र भी है । इसका एक व्यापक सांस्कृतिक महत्व भी रहा है । हिमालय, अपने दक्षिणी भाग के लोगों में समेकित संस्कृति के विकास का आधार रहा है । विविधताओं के बावजूद राजनीतिक व सांस्कृतिक एकत्व का बोध कराने में उसकी महती भूमिका रही है ।
C. उत्तर भारत का विशाल मैदानी भाग (The Vast Plains of North India):
इनका निर्माण क्वार्टनरी या नियोजोइक महाकल्प के प्लीस्टोसीन एवं होलोसीन कल्प में हुआ है । यह भारत की नवीनतम भूगर्भिक संरचना है । टेथिस भू-सन्नति के निरन्तर संकरा व छिछला होने एवं हिमालयी व दक्षिणी भारतीय नदियों द्वारा लाए गए अवसादों के जमाव से यह मैदानी भाग निर्मित हुआ है ।
इसके पुराने जलोढ़ ‘बांगर’ एवं नए जलोढ़ ‘खादर’ कहलाते हैं । इस मैदानी भाग में प्राचीन वन प्रदेशों के दब जाने से कोयला और पेट्रोलियम के क्षेत्र मिलते हैं ।
मैदानी भागों का महत्व (The Importance of the Plains):
मैदानी भाग हमारी वृहद जनसंख्या के जीवन का आधार है, क्योंकि इसकी उपजाऊ जलोढ़ मृदा में विभिन्न तरह के फसल उपजाए जा सकते हैं । इससे हमारे जनसंख्या व पशुओं को आहार प्राप्त होता है । साथ ही अनेक कृषि आधारित उद्योगों को कच्चा माल भी प्राप्त हो पाता है ।
नदियों का क्षेत्र होने के कारण इस प्रदेश में नहरें निकालकर सिंचाई व नहरी परिवहन कार्य किए जा सकते हैं । इन मैदानी भागों में भूमिगत जल का विशाल भंडार हैं जिनसे लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । इन मैदानी भागों में नदियों की अधिकता के कारण इन क्षेत्रों में मत्स्य पालन का विकास किया जा सकता है ।
अवसादी भूगर्भिक संरचना के कारण ये पेट्रोलियम पदार्थों के संभावित संचित भंडार हैं । भूमि के प्रायः समतल होने के कारण इन क्षेत्रों में सड़क व रेल परिवहन का विकास अपेक्षाकृत आसानी से किया जा सकता है ।