भारतीय बैंकिंग सिस्टम पर निबंध: इतिहास और विकास | Essay on Indian Banking System: History and Development in Hindi language!
Essay # 1. भारत में अधिकोषण पद्धति का इतिहास (History of Indian Banking System):
बैंकिंग व्यवसाय अत्यधिक प्राचीन है । प्राचीन काल से ही महाजन, सुनार, सर्राफ आदि रुपये के लेन-देन में लगे है । ईसा से 2000 वर्ष पूर्व वेबीलोन में साख का लेन-देन होता था । प्रारंभिक बैंकिंग के प्रमाण चाल्दिया, फोनीसिया एवं मिस्त्र के इतिहास में मिलते हैं ।
ग्रीस में सिक्का ढलाई का कार्य मंदिरों में होता था । प्राचीन भारत में सजा, नवाब और महाराजा अपने-अपने राज्य में साहूकारों को बसाकर उनसे ऋण लेते थे । ये साहूकार अन्य लोगों के भी ऋण देते थे । सर्वप्रथम सन् 1148 में जिनोवा में एक (Cascade Giorgio) एक बैंक की स्थापना की गई । सन् 1157 में बैंक ऑफ वेनिस एवं 1481 में बैंक ऑफ वार्सिलोना खोला गया ।
आधुनिक बैंकिंग प्रणाली 17वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई जब सन् 1609 में बैंक ऑफ अमेस्टर्डम (हॉलैंड) सन् 1619 में बैंक ऑफ हम्बर्ग (जर्मनी) तथा सन् 1694 में बैंक ऑफ इंग्लैण्ड की स्थापना की गई । इसके बाद आज तक अनेक प्रकार के बैंक प्रारंभ हुये ।
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वर्तमान समय में इनकी गति अत्यधिक तीव्र है । प्रो.क्राउथर ने बैंकिंग इतिहास व्याख्या करते हुए लिखा है कि ”आधुनिक बैंकों के तीन पूर्वज हैं- व्यापारी, महाजन और सर्राफ” ।
कुछ विद्वानों का मत है कि बैंक शब्द की प्रचलन 12वीं शताब्दी में हुआ था । बैंक शब्द इटेलियन भाषा के Banco या Banues शब्द से बना है जिसका अर्थ बैंच होता था । बैंकों (Banco) का अर्थ उस बैंच से लिया जाता था जिस पर बैठकर व्यापारी मुद्रा स लेन-देन करते थे ।
इसी से कालान्तर में बैंक शब्द का प्रयोग मुद्रा का लेन-देन करने वाली संस्थाओं के लिए होने लगा । कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि बैंक शब्द की उत्पत्ति जर्मन भाषा के Bank (बैंक) बैंक से हुई जिसका अर्थ ”मिले-जुले” या शामलाती” या संयुक्त स्कन्ध कोष (Joint Stock Fund) से है । मेकलिओड (Mcleod) के अनुसार बैंक शब्द का वास्तविक अर्थ ”ढेर” होता है । इस प्रकार बैंक शब्द अनेक व्यक्तियों के द्वारा एकत्रित किये गये सामूहिक कोष को सूचित करता है ।
बैंकिंग के विकास की दशाएं:
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प्राचीन काल के बैंकों का रूप आधुनिक बैंकों से भिन्न था एवं उनके कार्य भी सीमित थे । इनके कार्य को विकास धीरे-धीरे हुआ है ।
इनके इस विकास से निम्नलिखित छः स्थितियों में बाटा जा सकता है:
(1) मुद्रा परिवर्तन:
प्राचीन काल के सुनार व साहूकार प्रारम्भ में केवल मुद्राओं को बदलने का ही कार्य करते थे । उस जमाने में छोटे-छोटे अनेक राज्य थे और प्रत्येक राज्य में अलग-अलग सिक्के चला करते थे । उस समय आज जैसे बैंक नहीं थे । अतएव ये साहूकार मुद्रा का परिवर्तन करने हेतु अपने पास बड़ी मात्रा में देश-विदेश की मुद्रा रखा करते थे ।
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जब कभी कोई विदेशी या देशी व्यापारी मुद्रा परिवर्तन कसने के लिये आता था, तब ये उसे उसकी इच्छानुसार मुद्रा दे देते थे । इससे व्यापारियों को बहुत सुविधा होती थी ।
(2) मुद्रा का जमा करना:
धीरे-धीरे साहूकारों की साख में जनता का विश्वास बढ़ने लगा और वे अपनी मुद्राएं इन साहूकारों के पास अमानत के रूप में जमा कराने लगे । पुराने जमाने में मुद्रा सोने-चाँदी जैसी मूल्यवान धातुओं की हुआ करती थी, अतएव जनता को अपने धन की रक्षा करने की आवश्यकता होती थी ।
मुद्रा जमा कतने वालों को यह सुविधा दी जाती थी कि वे जब चाहे अपनी मुद्राएँ वापिस ले सकते थे । जमा कराई गई मुद्राओं पर ब्याज नहीं दिया जाता था, परन्तु प्रारम्भ में मुद्रा को सुरक्षित रखने के कार्य के लिए साहूकार कुछ शुल्क या फीस भी लिया करते थे । इस प्रकार धन जमा कराने की प्रथा का प्रारम्भ हुआ ।
(3) मुद्रा उधार देना:
कुछ समय बाद साहूकारों को यह अनुभव हुआ कि लोग जितनी मुद्राएँ अमानत के रूप में उनके पास जमा कराते हैं, इसमें से बहुत कम मुद्राएँ वे वापिस निकालते हैं, इस प्रकार शेष रकम उनके पास बेकार पड़ी रहती है । यह देखकर सर्राफों ने इस अतिरिक्त धन को ब्याज पर देना शुरू कर दिया ।
मुद्रा की अधिक आवश्यकता होने के कारण सर्राफों ने जमाकर्ताओं से न केवल शुल्क लेना बन्द कर दिया बल्कि जमा रकम पर ब्याज देना भी आरम्भ कर दिया । परिणामस्वरूप उनकी अमानतें धीरे-धीरे बढने लगीं । जमाकर्ताओं को कम ब्याज दिया जाता था, परन्तु ऋण लेने वालों से अधिक ब्याज वसूल किया जाता था । इस प्रकार साहूकार लोग मुद्राओं के उधार लेन-देन से लाभ उठाते थे । यहीं से जमा बैंकिंग (Deposit Banking) की प्रथा का प्रारम्भ हुआ ।
(4) चैक प्रथा:
सर्राफों के पास जो रकम जमा की जाती थी, उसके बदले जमाकर्ताओं को एक रसीद दी जाती थी । सर्राफ के प्रति जनता का विश्वास बहुत था अतएव ये रसीदें सर्राफ के अपने-अपने क्षेत्र में लेन-देन के भुगतान के रूप में स्वीकार की जाने लगी । इस प्रकार सर्राफे की रसीदे आधुनिक बैंक के चैक (Cheque) की तरह काम में आने लगीं । यह चैक प्रथा का प्रारम्भिक रूप था ।
(5) नोट निकालना:
साहूकारों ने जब यह देखा कि उनकी रसीदें उनकी साख के करण बाजार में स्वीकार की जाती है, तो उन्होंने मुद्रा में ऋण न देते हुए इस प्रकार की रसीदों में ही उधार देना प्रारम्भ कर दिया । ये रसीदें माँग पर भुगतान करने का वचन (Promise to Pay the Bearer on Demand) होती थीं । यही वाक्य आधुनिक युग के कागज के नोटों पर भी लिखा रहता है । अतः ये रसीदें ही नोट या पत्र- मुद्रा (Paper Money) का प्राथमिक रूप था ।
(6) अन्य कार्य:
बैंकिंग व्यवसाय में अधिकाधिक लाभ होता देखकर नये-नये व्यक्ति इस व्यापार को करने लगे । इससे बैंकों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ने लगी । बैंकिंग का कार्य करने के लिए व्यवस्थित संस्थाएँ व क्यनियाँ बनने लगीं । बैंकों ने ग्राहकों को अनेक प्रकार की सुविधाएं देना प्रारम्भ कर दिया ।
शासन ने भी बैंकों के महत्व को अनुभव किया एवं उनके कार्यों पर नियंत्रण करने के लिए नियम बनाये । बैंकों ने उधार लेन-देन के कार्यों के अलावा अन्य कार्य भी करना शुरू कर दिए । आधुनिक बैंक तो शासन की ओर से अनेक कार्य करते हैं, जैसे- पत्रमुद्रा का संचालन करना, साख का नियंत्रण, बैंकिंग प्रणाली पर नियंत्रण आदि । इस प्रकार बैंकों के कार्यों का विस्तार होता गया ।
बैंकिंग के विकास का इतिहास:
इतिहास से पता चलता है कि आज से कई हजार वर्ष पहले भी विश्व के अनेक देशों में बैंकिंग का कार्य होता था । इतना अवश्य था कि बैंकिंग के प्रारम्भिक काल में आज जैसे बैंक नहीं थे और यह कार्य सर्राफों और सुनायें के द्वारा किया जाता था ।
सबसे पहले बेबीलोन में बैंकिंग प्रणाली का विकास हुआ । यहाँ सर्राफों के अलावा जन-साधारण भी मुद्रा के लेन-देन न व्यवसाय करता था । उस देश के प्राचीन इजिबी बैंक (Igibi Bank) की कार्य प्रणाली बहुत विकसित थी । बेबीलोन के बाद यूनान, रोम और इटली में बैंकिंग व्यवसाय ने काफी उन्नति की । यूरोप के सभी देशों में यहूदी जाति के कारण बैंकिंग ने बहुत उन्नति की ।
इटली में लम्बर्ड व्यापारियों ने बैंकिंग के विकास में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की थी और इसमें से कुछ ने लन्दन नगर में जाकर इस व्यवसाय को आरम्भ किया । इटली में अब से 2150 वर्ष पूर्व की राज्य की ओर से दी गई एक आज्ञा का प्रमाण मिलता है, जिसके अनुसार बैंकों को अपने कार्यालय स्थापित करने का आदेश दिया गया था । इससे ज्ञात होता है कि इस युग में भी बैंकिंग के कार्य में सरकार का हस्तक्षेप था ।
इसके बाद कई शताब्दियों तक बैंकिंग का कार्य शिथिलता से चलता रहा । इसके दो प्रमुख कारण थे- एक ओर राजनैतिक अशांति थी तथा दूसरी ओर सामाजिक विचारधारा ब्याज लेने के पक्ष में नहीं थी । मध्ययुग की अराजकता और लगातार युद्धों के कारण बैंकिंग का कार्य बढने नहीं पाया ।
कुछ दार्शनिकों ने भी रुपया उधार देकर ब्याज लेने की प्रथा को अनुचित एवं निन्दनीय बताया । अरस्तु का कहना था कि ”पूँजी स्वभाव से बांझ होती है, अतएव ब्याज लेना अनुचित है । ब्याज लेने का अर्थ यह होता है कि हम अपने निर्धन एवं असहाय साथियों की दीन अवस्था से लाभ उठाना चाहते हैं ।”
धीरे-धीरे इस विचारधारा में परिवर्तन हुआ । लोग ब्याज के महत्व एवं आवश्यकता को स्वीकार करने लगे । यहूदी प्रारम्भ से ही ब्याज लेना व देना उचित मानते थे । अब अन्य लोग भी ऐसा ही मानने लगे । परिणामस्वरूप बड़े-बड़े साहूकारों का उदय हुआ ।
उस समय न केवल जनता उधार लेती थी वरन् साहूकार राजा को भी ऋण दिया करते थे । इसके एक ओर व्यवसाय की उन्नति हुई, परन्तु साथ ही अनेक व्यवसायियों को अपना कारोबार बन्द भी कर देना पड़ा । इसका कारण यह था कि कई बार राजा ऋण चुकाने से इन्कार कर देते थे और साहूकार को परेशान करते थे परन्तु ये परिस्थितियां ज्यादा समय तक नहीं रहीं ।
बैंकिंग प्रथा की वास्तविक प्रगति सत्रहवीं शताब्दी से दिखाई देती है, जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई और उद्योग व व्यापार ने उन्नति की । आधुनिक प्रकार का सबसे पहला बैंक सन् 1401 में स्पेन में स्थापित किया गया था । इसके पश्चात् सन् 1607 में हॉलैण्ड में ‘बैंक ऑफ एम्सटरडम’ और सन् 1619 में जर्मनी में ‘बैंक ऑफ हेम्बर्ग’ और सन् 1694 में इंग्लैण्ड में ‘बैंक ऑफ इंग्लैण्ड’ की स्थापना हुई थी ।
जब बैंकों में का कार्य बढ़ने लगा एवं उसमें अधिक जोखिम अनुभव होने लगी, तो बैंकिंग का कार्य करने के लिए संयुक्त पूंजी वाली कम्पनियों बनायी गई । संयुक्त पूँजी वाले बैंकों की स्थापना के बाद से बैंकिंग का तेजी से विकास होने लगा । सन् 1708 तक नोटों को निर्गमित करने का अधिकार या तो देश की सरकार के हाथ में आ गया था या केन्द्रीय बैंक इस कार्य को करता था । इस प्रकार धीरे-धीरे बैंक, का महत्व आर्थिक क्षेत्र में निरंतर बढ़ता जा रहा था ।
Essay # 2. भारत में अधिकोषण पद्धति का विकास (Development of Banking System in India):
भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकस का इतिहास बहुत पुराना नहीं है । प्रथम प्रेसीडैन्सी बैंक सन् 1840 में बम्बई में स्थापित हुई । इसके बाद सन् 1843 में बैंक ऑफ मद्रास तथा सन् 1906 में बैंक ऑफ बंगाल की स्थापना हुई ।
तदुपरान्त सन् 1921 में इन तीनों बैंकों को मिलाकर ”इम्पीरियल बैंक ऑफ इण्डिया” की स्थापना की गयी और सन् 1955 में राष्ट्रीयकरण के उपरान्त इसका नाम बदलकर ”स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया” रख दिया गया । इसी मध्य सन् 1860 में एक बैंकिंग कानून पास किया गया जिसके अन्तर्गत देश में मिश्रित पूँजी वाले अनेक बैंकों की स्थापना की गई ।
केन्द्रीय बैंकिंग जाँच कमेटी (1929) के सुझावों के आधार पर सन् 1935 में केन्द्रीय बैंक के रूप में रिजर्व बैंक ने अपना कार्य प्रारम्भ किया । 1 जनवरी, 1949 को रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया । इसी मध्य भारतीय बैंकिंग का समुचित नियमन करने के लिये मार्च 1949 में एक बैंकिंग निगमन कल पास किया गया जिसमें रिजर्व बैंक को व्यापक अधिकार प्रदान किए गए ।
देश के ग्रामीण और कृषि क्षेत्र को वित्तीय सुविधाएँ प्रदान करने के लिए सहकारी बैंकों की स्थापना की गई । बैंकिंग व्यवस्था को आर्थिक विकास से जोड़ने एवं सभी वर्गों के लोगों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से 19 जुलाई, 1969 को देश के प्रमुख 14 व्यापारिक बैंकों एवं 15 अप्रैल, 1980 से 6 और निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया ।
ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं के विस्तार के लिए सन् 1975 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना पूरे देश में की गई । देश के औद्योगिक विकास के लिए अनेक विशिष्ट संस्थाओं जिन्हें विकास बैंक कहा जाता है, की स्थापना की गई । इन विकास बैंकों में IDBI, IFCI, ICICI, SIDBI एवं NABARD प्रमुख हैं ।
इस प्रकार भारत की बैंकिंग प्रणाली में अनेक प्रकार की वित्तीय संस्थाएँ कार्यरत हैं, जैसे- रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया, सार्वजनिक क्षेत्र के व्यापारिक बैंक, निजी क्षेत्र के व्यापारिक बैंक, सहकारी बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, विकास बैंक, निवेश बैंक आदि ।
इनके अलावा देश में अनेक गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ भी हैं जो वित्तीय व्यवस्था से संबंधित महत्वपूर्ण कार्य करती हैं । केन्द्र सरकार ने देश की बैंकिंग प्रणाली को युक्तियुक्त एवं विकासोन्मुख बनाने के लिए समय-समय पर अनेक समितियों का गठन किया है । इन समितियों में सन् 1991 में गठित नरसिंहम समिति का विशेष महत्व है ।
इस समिति ने भारतीय बैंकिंग प्रणाली को प्रतिस्पर्द्धात्मक, दक्ष एवं उत्तरदायित्व पूर्ण बनाने से संबंधित अनेक सुझाव दिये । पुनः श्री नरसिंहम की अध्यक्षता में बैंकिंग सुधारों के लिए एक समिति गठित की गई । इस समिति ने 1998 में अपना प्रतिवेदन दिया ।
इस समिति के कुछ महत्वपूर्ण सुझाव निम्न प्रकार हैं:
1. भारत में बैंकिंग संरचना तीन स्तरीय होना चाहिए । सबसे ऊपर स्टेट बैंक के साथ तीन-चार और बड़े बैंक होना चाहिए तथा निचले स्तर पर ग्रामीण बैंक होने चाहिए जो कृषि एवं सहायक गतिविधियों को साख सुविधा उपलब्ध कराएँ ।
2. बैंकों को अपने कार्य-कलापों में अधिक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए और पूँजी बाजार में मारता लायी जानी चाहिए । विदेशी बैंकों के लिये भी नई शाखाएँ खोलने में मार नीति अपनाई जानी चाहिए ।
3. व्यापारिक बैंकों एवं विकस संस्थाओं (IDBI, ICICI) के कार्य एक समान होते जा रहे हैं । अतः विकास बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को धीरे-धीरे व्यापारिक बैंकों में बदल दिया जाना चाहिए ।
4. कमजोर बैंकों को या तो मजबूत बनाया जाना चाहिए या उन्हें बन्द कर दिया जाना चाहिए ।
5. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को देश के तथा विदेशों के पूँजी बाजारों से पूँजी एकत्रित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।
6. उन सभी ऋणों को जिनके वापस मिलने की सम्भावना कम है या बिल्कुल नहीं है कि गारन्टी की रकम से मिलने वाले धन की मात्रा को निर्धारित करना चाहिए । इन परिसपत्तियों में ”परिसम्पत्ति की पुर्ननिर्माण कम्पनी को हस्तान्तरित कर दिया जाना चाहिए ।”
7. प्राथमिक क्षेत्र में दी जाने वाली साख पर व्याज सम्बन्धी रियायतों को खत्म कर दिया जाना चाहिए । व्यापारिक बैंक में द्वारा दिये जाने वाले 2 लाख रुपये से कम के ऋण पर से ब्याज सम्बन्धी प्रतिबन्ध हटा दिये जाने चाहिए ।
8. बैंकों की कुल परिसम्पत्तियों में अनार्जित परिसम्पत्ति (Non-Performing Assets) का प्रतिशत कम होना चाहिए ।
9. परिसम्पत्ति की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिये यदि सरकार की गारन्टी पर दिए गए ऋण भी वापस नहीं हो रहे हैं तो उन्हें भी अनार्जक परिसम्पत्ति (Non-Performing Assets – NPA) माना जाना चाहिए ।