भारत में राष्ट्रवादी आंदोलन | Nationalist Movements in India in Hindi.
राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगति आधुनिक भारतीय इतिहास की अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषता है ।
राष्ट्रीयता की प्रगति (१९०५-१९१६ ई॰) (Progress of Nationality (1905-19 16 AD)):
राष्ट्रीय आंदोलन की द्वितीय अवस्था १९०५ ई॰ में प्रारंभ होती है । अपने अस्तित्व के प्रथम बीस वर्षों (१८८५-१९०५ ई॰) में कांग्रेस ने बहुतेरे प्रस्ताव पास किये । मगर सरकार ने उनपर कोई ध्यान न दिया । इसके प्रयत्नों का एकमात्र उल्लेखनीय परिणाम था १५९२ ई॰ का इंडियन कौंसिल ऐक्ट ।
किसी तरह की भड़कदार सफलता मिलने में इस विफलता ने कांग्रेस के पूर्णसुधारवादी दल को मजबूत बना दिया । इस दल ने अधिक लड़ाकू रुख अख्तियार किया तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रबलतर कार्य की माँग की । इस नवीन भावना को १९०४-१९०५ ई॰ में रूस पर हुई जापान की महान् विजय से उत्तेजना मिल गयी ।
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लार्ड कर्जन के बंग-भंग (१९०५ ई॰) के जनगर्हित काम से यह पराकाष्ठा पर पहुंच गयी । यह काम प्रशासनिक क्षमता प्रदान करने का रंग देकर किया गया था । मगर जिस बंधन (मेल) ने बंगालियों को मिला रखा था, वह नष्ट हो गया । फलत: स्वतंत्र विचारकारी व्यक्तियों का बंगाली समाज, जो राजनीतिक दृष्टि से आगे था, बहुत कमजोर पड़ गया ।
इसने उन्हें दो अलग प्रांतों में फाड़कर रख दिया । दोनों प्रातों में आबादी के दूसरे तत्व उनसे संख्या में अधिक हो जाते थे । यहीं नहीं, बंग-भंग ने धार्मिक विरोध को भी प्रदीप्त किया । इस प्रकार इसने एक सच्ची राष्ट्रीय भावना की अभिवृद्धि में बाधा डाली, जो (भावना) धर्म-विश्वास और समाज से ऊपर उठी होती है ।
बंगाल का बँटवारा राष्ट्रवादियों के, जिनके नेता हिन्दू और मुस्लिम दोनों थे, प्रवलतम विरोध के बावजूद किया गया था । इसने इनमें प्रतिरोध की भयंकर भावना जगा दी तथा राजनीतिक आंदोलन को एक नया मोड़ दे दिया ।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी, विपिनचंद्र पाल, ए॰ रसूल, अश्विनीकुमार दत्त और अरविंद घोष-जैसे नेताओं के मार्ग-प्रदर्शन में आंदोलन दावानल के समान समस्त बंगाल में और यहाँ तक कि इसके बाहर भी दूर तक फैल गया । श्री गोखले ने, जिन्होंने १९०५ ई॰ में कांग्रेस की अध्यक्षता की, यह कहकर परिस्थिति का सही मूल्यांकन किया ।
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“बँटवारे के फलस्वरूप बंगाल की जन-भावना में जो भयानक परिवर्तन हुआ है, वह हमारी राष्ट्रीय प्रगति के इतिहास में सीमाचिह्न होगा ।…प्रांत पर सच्ची राष्ट्रीय चेतना की लुहर छा गयी है । कठोर और अनियंत्रित नौकरशाही के अत्याचार के विरुद्ध बंगाल के वीरत्वपूर्ण प्रतिरोध ने समस्त भारत को चकित एवं तृप्त किया है । उसके कष्ट व्यर्थ नहीं सहे गये हैं, जब कि उन्होंने देश के सभी भागों को सहानुभूति एवं उच्चाकांक्षा में समीप लाने में मदद की है ।”
बंगालियों ने सरकार का खुले आम विरोध किया । उन्होंने ब्रिटिश मालों के बायकाट (बहिष्कार) स्वदेशी (स्वदेशी वस्तुओं का व्यवहार) एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार-जैसे राजनीतिक अस्त्रों का प्रयोग कर उसपर दबाव डालने की चेष्टा की ।
१९०६ ई॰ में जो कांग्रेस हुई, उसने न केवल इन योजनाओं का समर्थन किया, बल्कि अपने इतिहास में पहली बार “स्वशासित ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रचलित शासन-प्रणाली” को अपना लक्ष्य बनाया, जिसे अध्यक्ष ने संक्षेप में “स्वराज” नामक एक शब्द में व्यक्त किया ।
इन परिवर्तनों में प्रतिबिंबित नवीन भावना का तिलक, विपिनचंद्र पाल, लाजपत राय तथा अन्य “चरमपंथी” (गरम दल के अनुयायी) नेताओं ने समर्थन किया । किन्तु सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फीरोज शाह मेहता और गोखले-जैसे “माडरेट” (नरम या उदार विचारवाले राजनीतिक) नेता इसके साथ-साथ नहीं चले । १९०७ ई॰ में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में दोनों दलों में खुल्लमखुल्ला फूट पड़ गयी । नौ वर्षों तक चरमपंथी वर्ग कांग्रेस के बाहर रहा ।
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इन घटनापूर्ण वर्षों में बहुत-कुछ घट गया । लार्ड कर्जन ने बंगाल को खंड-खंड कर दिया । भारतीय शिक्षित वर्गों ने दावा किया कि वे “नवीन राष्ट्रीयता” (यह नाम उन्हीं का दिया हुआ था) के पैगम्बर हैं । कर्जन ने इन दावों पर ध्यान न दिया । लार्ड कर्जन की नीति की ये दोनों बातें रंग लायीं ।
१९०६ ई॰ में ढाका के नवाब सलीमुल्ला ने मुसलमानों का एक स्थायी राजनीतिक संगठन कायम किया । इसका नाम पड़ा मुस्लिम लीग । इसने वंग-भंग का समर्थन किया तथा ब्रिटिश मालों के बायकाट का विरोध किया । सरकार ने दमन-चक्र चलाया ।
बंगाल के बहुतेरे लोगों पर और बाहर के उनके सहानुभूति-प्रदर्शकों पर भी (जिनमें तिलक भी थे) मुकद्दमे चलाये गये तथा उन्हें कैद के हवाले क्रिया गया । १८१८ ई॰ के एक पुराने नियम का सहारा लेकर कुछ नेता बिना मुकद्दमे चलाये निर्वासित कर दिये गये । शांतिपूर्ण धरना देनेवाले (पिकेटिंग करनेवाले) पीटे गये और जेल भेज दिये गये । सभाएँ पुलिस द्वारा लाठी-चार्जों से भंग कर दी गयीं ।
जन-आंदोलन कड़ाई के साथ दबा दिये गये । ये कार्रवाइयाँ राष्ट्रीय आंदोलन के रोकने में असफल रहीं । इसके विपरीत, इन्होंने एक गुप्त षड्यंत्र को जन्म दिया । जिसका उद्देश्य था अफसरों को जान से मारकर सरकार को भयभीत करना । कलकत्ते की बाह्य सीमाओं पर गुप्त रूप से बम तैयार किये जाते थे ।
भारतीय राजनीति में “अराजकतावादी आंदोलन” (जैसा कि इसका नाम पड़ा एक नवीन तत्व बन गया । सरकारने अनेक दमनकारी कानून पासकर परिस्थिति को नियंत्रण में लाने की चेष्टा की ।
इन कानूनों ने सभा करने के अधिकार को सख्ती से परिसिमित कर दिया, बम बनाने की सामग्री रखने के लिए भारी जुर्माने की व्यवस्था की, मुकद्दमे की सुनवाई की प्रणाली में ऐसा परिवर्तन किया कि सजा देना आसान हो जाये और व्यक्तियों एवं राजनीतिक संगठनों के ऊपर कार्यकारिणी को प्राय: असीमित शक्तियों से सम्पन्न किया ।
१९१० ई॰ के भारतीय प्रेस कानून ने राजद्रोहात्मक प्रकाशनों के लिए भारी जुर्मानों और प्रेस की जन्ती की व्यवस्था की । प्रकाशनों की परिभाषा ऐसे ढीले-ढाले ढंग से की गयी कि इनमें सरकार की प्राय: कोई भी स्वतंत्र आलोचना समाहित की जा सकती थी । “वर्जित” सामग्री धारण करनेवाली पुस्तकों, अखबारों और अन्य कागजातों को जष्य कर लेने की व्यवस्था की गयी ।
आमसभाओं और प्रेस पर प्रतिबंध लगाकर और निष्पक्ष न्याय को प्राय: असम्भव बनाकर जन जीवन को पूर्णत: कुचल दिया गया । मुकद्दमा चलाकर सरकार ने बहुसंख्यक व्यक्तियों को सजाएँ दीं । प्राय: हमेशा ही ये सजाएँ कठोर हुआ करती थीं और अनेक दृष्टान्तों में प्रतिशोध पूर्ण भी ।
यहां तक कि भारत के राज्य-सचिव लॉर्ड मॉर्ले ने भी इन सजाओं को “अरक्षणीय” “धृणित” और “राक्षसी” कहा । जब दमन-नीति अपने उद्देश्य में असफल रही, तब सरकार ने १९०९ ई॰ में मार्ले-मिंटो सुधार देकर तथा दो वर्ष बाद बंग-भंग को रूपभेदित कर “माडरेटों को मिलाने” की कोशिश की । माडरेट प्रारंभ में अत्यंत आनंदित हुए ।
किन्तु उनमें से अधिकतर ने १९०९ ई॰ के सुधार के अंतर्गत कुछ नियमों को-विशेषकर मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचन-क्षेत्र-निर्माण करो-बहुत नापसंद किया । यह नीति “फूट डालो और शासन करो” की नीति मानी गयी । वस्तुत: इसीने माडरेटों को सरकार से विमुख कर दिया तथा १९१६ ई॰ में लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के रेडिकल वर्ग के साथ इसके मेल का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।
पृथक् निर्वाचन के लागू होने का एक मनोरंजक इतिहास है । यह मुसलमानों को मिलाने और उन्हें कांग्रेस आंदोलन के विरुद्ध खड़ा करने के लिए नये वाइसराय लार्ड मिंटो द्वारा अपनायी गयी एक युक्ति थी ।
यदि स्वयं सरकार द्वारा नहीं, तो कम-से-कम बिटिश अफसरों द्वारा प्रोत्साहित मुसलमानों के एक शिष्ट-मंडल को इसके लिए राजी कर लिया मया कि वह एक जाति की हैसियत से प्रतिनिधित्व माँगे तथा इसके लिए भी एक प्रार्थना करें “कि उनकी स्थिति न केवल उनकी संख्या के आधार पर, बल्कि उनकी जाति के राजनीतिक महत्व और उसके द्वारा साम्राज्य के प्रति की गयी सेवा को ध्यान में रखकर भी की जानी चाहिए” ।
लार्ड मिंटो ने दोनों सुविधाएँ दे दीं । लेडी मिंटो की १ अक्टूबर, १९०६ ई॰ की डायरी में दर्ज एक बात से हम जानते हैं कि ब्रिटिश अफसरवर्ग द्वारा इस काम का अत्यंत आनंदपूर्वक स्वागत किया गया था । उसके मतानुसार इस काम ने “छ: करोड़ बीस लाख आदमियों को राजद्रोहात्मक विरोध की श्रेणी में मल जाने से पीछे खींच लिया” ।
यहाँ तक कि महान् लिबरल (उदारदली) राजनीतिज्ञ लार्ड मार्ले ने भी “पृथक् निर्वाचन” एवं “वेटेज” की इस चतुर युक्ति का समर्थन किया । यह वस्तुत: भारतीय राष्ट्रीयता की पीठ में छुरा भोंकना था ।
रैम्जे मैकडोनल्ड ने, जो आगे चलकर ब्रिटेन का प्रधान मंत्री हुआ, परिस्थिति का सही मूल्यांकन किया, जब कि उसने कहा कि “मुसलमान नेता कतिपय ऐंग्लोइंडियन अफसरों द्वारा प्रेरित किये जा रहे हैं । इन अफसरों ने शिमला एवं लंदन में गुप्त रूप से राजनीतिक प्रगति को प्रोत्साहित किया है तक्त मुसलमानों को विशेष कृपा दिखाकर, पहले से सोचे हुए द्वेषवश, हिन्दू एवं मुस्लिम जातियों के बीच फूट का वीज बोया है ।”
१९०६ ई॰ में स्थापित मुस्लिम लीग प्रारंभ में मुख्यत: कुछ मुसलमानों का एक संगठन थी, जो “नवीन राष्ट्रीयता” के बदले धर्म के बंधन पर जोर देते थे । इसका रुख पहले वर्जनकारी था किंतु ज्यों-ज्यों इसकी संख्याएँ बढ़ती गयीं, त्यों-त्यों यह राष्ट्रीयतावादी भावना अपनाता गया, जो देश में प्राण-संचार कर रही थी ।
१९१३ ई॰ में इसने “साम्राज्य के अंतर्गत स्व-शासन” को अपने लक्ष्य के रूप में अपनाया । टर्की और ब्रिटेन के बीच युद्ध ने मुसलमानों के मजबूत वर्गों में प्रबल ब्रिटेन-विरोधी भावनाएँ जगायीं तथा उनके एवं कांग्रेस के बीच सहयोग का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।
कांग्रेस और लीग दोनों ने १९१६ ई॰ में अपने अधिवेशन लखनऊ में किये तथा प्रसिद्ध “लखनऊ पैक्ट” किया, जिसके अनुसार कांग्रेस ने पृथक् निर्वाचन स्वीकार कर लिया दोनों संगठनों ने मिलकर डोमिनियन स्टेटस के आधार पर एक संविधानिक योजना तैयार की ।
१९१६ ई॰ का वर्ष जिसने भारत के सामान्य हित के लिए कांग्रेस के माडरेट एवं रेडिकल वर्गों का मेल और कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच मित्रतापूर्ण सहयोग देखे, दो होम रूल लीगों के उद्घाटन के लिए भी स्मरणीय है । इसमें एक की स्थापना उसी वर्ष अप्रैल में लोकमान्य तिलक द्वारा हुई थी तथा दूसरी की पाँच महीने बाद एनी बेसेंट द्वारा हुई थी ।
इन दोनों संस्थाओं ने राजनीतिक सुधारों की “कांग्रेस लीग योजना” के पक्ष में जबर्दस्त प्रचार करने में सहयोग की भावना से काम लिया ।
अन्तिम अवस्था (१९३७-१९४७ ई॰) (Final Stage (1937-1947 AD)):
एक बार फिर कांग्रेस ने, १९२२ ई॰ के समान, निर्णय किया कि १९३५ के कानून द्वारा लाये गये सुधारों में भाग लिया जाए, जिस (कानून) का जिक्र हो चुका है । १९२७ ई॰ के प्रारम्भ में चुनाव हुआ । जहाँ तक जनरल या मुख्यत: हिन्दू सीटों का सम्बन्ध था, कांग्रेस ने बाजी मार ली ।
मुसलमानों ने प्रत्येक प्रांत में कांग्रेस के साथ संयुक्त मंत्रिमंडल बनाना चाहा । मगर कांग्रेस ने किसी भी ऐसे व्यक्ति को मंत्रिमंडल में रखने से इनकार कर दिया, जो उसका विश्वास (क्रीड़) नहीं मानता था । इस निर्णय ने कांग्रेस और मुसलिम लीग के बीच की दरार को और भी चौड़ा कर डाला ।
मिस्टर जिन्ना अब तक कांग्रेस के प्रति अनुकूल रहे थे । एक बार तो उन्होंने इस विचार का जोरदार खंडन किया था कि भारत एक राष्ट्र नहीं है । अब उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि “मुसलमान कांग्रेस सरकार के अधीन न्याय अथवा निरपेक्ष व्यवहार की आशा नहीं कर सकते” ।
यह विचार अब अधिकतर मुसलमान मानने लगे । मिस्टर जिन्ना मुसलिम जाति के असंदिग्ध नेता हो गये । वे प्रति वर्ष लीग के अध्यक्ष चुने जाते रहे । लीग ने शीघ्र समस्त भारत में मुसलमानों के बड़े अंश को अपने चारों ओर इकट्ठा कर लिया ।
कांग्रेस ने ग्यारह प्रांतों में से सात में मंत्रिमंडल बनाये । उसका शासन अत्यंत सफल था । अतएव शीघ्र उसकी लोकप्रियता बढ़ चली । उसकी सदस्य-संख्या १९३६ ई॰ के प्रारम्भ में पाँच लाख से कम थी यह बढ्कर १९३९ ई॰ के अंत तक पचास लाख हो गयी । किन्तु शीघ्र कांग्रेस में एक “वाम पक्ष” विकसित होने लगा था ।
इसकी महान् शक्ति तब स्पष्ट हो गयी, जब इस पक्ष के नेता सुभाषचंद्र बोस ने अध्यक्षता के लिए गाँधीजी तक के मनोनीत व्यक्ति को पराजित कर डाला । माडरेट वर्ग ने अंत में सुभाषचंद्र बोस को त्यागपत्र देने को लाचार कर दिया । तब उन्होंने “अग्रगामी दल” (“फार्वर्ड ब्लाक”) नामक एक नवीन दल बनाया । इस खुले भेद ने कांग्रेस की शक्ति और प्रतिष्ठा को काफी घटा दिया ।
फिर भी कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने सफलतापूर्वक सुधारों को चलाया । १९३९ ई॰ में द्वितीय विश्व-युद्ध के छिड़ने के पहले एक राजनीतिक परिस्थिति पूर्ण रूपसे शांत रही । युद्ध छिड़ने पर कांग्रेस ने इस बात पर आपत्ति की कि भारत को उसकी सहमति के बिना युद्ध में घसीटा गया । कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने एक जबर्दस्त घोषणा निकाली जिसमें उसने “साम्राज्यवादी ढंगों पर चलाये जानेवाले युद्ध में सहयोग” देने से इनकार कर दिया ।
समिति ने ब्रिटिश सरकार से यह भी पूछा कि वह बताए कि उसके युद्धोद्देश्यों में साम्राज्यवाद का निष्कासन एवं भारत के प्रति स्वतंत्र राष्ट्र के समान व्यवहार संमिलित है या नहीं । कोई संतोषजनक उत्तर न मिला । तब सभी कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने अक्टूबर-नवम्बर १९३९ ई॰ में त्यागपत्र दे दिया ।
जब जर्मन बार-बार जीतते गये, तब कांग्रेस ने कई बार युद्धोद्योग में सहयोग की इच्छा प्रकट की, यदि कम-से-कम केंद्र में एक अस्थायी राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हो जाए । सरकार की ओर से अधिक-से-अधिक रियायत वाइसराय के ८ अगस्त, १९४० ई॰ के वक्तव्य में दी गयी ।
उसने राष्ट्रीय सरकार प्रदान करना अस्वीकार किया, क्योंकि उसकी संमति में “इसके अधिकार को भारत के राष्ट्रीय जीवन के बड़े एवं शक्तिशाली तत्व नहीं मानते” । इन तत्वों से उसका आशय स्पष्टत: मुसलमानों से था ।
किन्तु उसने निम्नलिखित बातें स्वीकृति के लिये उपस्थित कीं:
(१) युद्ध के बाद एक प्रतिनिधि संस्था की स्थापना, जो भारत के लिए एक नवीन संविधान बनाएगी;
(२) अतिरिक्त भारतीय सदस्यों को मनोनीत कर वाइसराय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल को बृहत्तर बनाना तथा
(३) एक “युद्ध सलाहकारी कौंसिल” नियुक्त करना, जिसमें ब्रिटिश भारत एवं भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि होंगे ।
कांग्रेस ने इस “अगस्त प्रस्ताव” को बिलकुल असंतोषजनक माना तथा अक्टूबर, १९४० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में एक व्यक्तिगत भद्र अवज्ञा आंदोलन प्रारंभ किया । यह अगति की अवस्था (डैडलौक, वह अवस्था जिसमें बहुत जटिलता के कारण मामला आगे न चल सके) डेढ़ वर्षों तक कायम रही ।
अंत में जब जापानी, मलाया रौंदने के बाद, तेजी से बर्मा में बढ़ने लगे, तब अंग्रेजों ने मैत्रीपूर्ण भाव-भंगिमा दिखलायी । ८ मार्च, १९४२ ई॰ को रंगून का पतन हुआ और तीन बार यह घोषित हुआ कि ब्रिटिश मंत्रिमंडल के सदस्य सर स्टैफोर्ड किस्म भारत भेजे जाएंगे ।
किस्म ने एक तौर से अगस्त प्रस्ताव को दुहराया । उन्होंने डोमिनियन स्टेटस तथा युद्ध की समाप्ति के बाद एक संविधान-निर्मात्री सस्था का वादा किया । किन्तु उन्होंने भारत के शासन में किमी तात्कालिक परिवर्तन की आशा नहीं दिलायी ।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार किया तथा किम मिशन (मार्च-अप्रैल, १९४२ ई॰) की पूर्ण विफलता में समाप्ति हुई । इन समझौता- सम्बन्धी बातचीतों में बराबर ही कांग्रेस मुसलिम लीग की सहायता का भरोसा नहीं कर सकती थी ।
मिस्टर जिन्ना ने अब कहा कि “एक एकजातीय राष्ट्र और मानव-गणना की प्रणाली की धारणा पर संसदीय “शासन को जनतांत्रिक व्यवस्था” भारत में असंभव है । उन्होंने सार्वजनिक तौर से यह विचार प्रकट किया कि न तो अल्पसंख्यकों के रक्षार्थ पूर्वोपाय (संरक्षण) और न पृथक् निर्वाचन दल ही मुसलमानों को केंद्र में कांग्रेस राज से बचा सकते थे ।
जब प्रांतों में कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया, तब मुस्लिम लीग ने संपूर्ण भारत में मुक्ति और कृतज्ञताप्रकाश का दिवस मनाया (दिसम्बर, १९३९ ई॰) । जनवरी, १९४० ई॰ में मिस्टर जिन्ना ने घोषणा की कि हिन्दु और मुसलमान दो पृथक् राष्ट्र हैं, “जिन दोनों को अपनी सामान्य मातृभूमि के शासन में अवश्य ही भाग लेना चाहिए” ।
तीन महीनों के बाद, मुसलिम लीग के लाहौर अधिवेशन (मार्च, १९४० ई॰) में उन्होंने घोषणा की कि मुसलिम राष्ट्र को पृथक् स्वतंत्र राज्य अवश्य चाहिए । दूसरे शब्दों में, उन्होंने अब पाकिस्तान की एक पूर्णसत्ता-संपन्न राज्य के रूप में स्थापना की वकालत की ।
इस पाकिस्तान का अर्थ था पंजाब (Punjab), उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत या अफगान सूबा (Afghan Province), काश्मीर (Kashmir), सिन्ध (Sind) और बलूचिस्तान (Baluchistan) का संघ ।
यह विचार पहले नौजवान मुसलमानों के एक समूह द्वारा गोल मेज सम्मेलन के समय प्रमुखता में लाया गया था । इसे कोई समर्थन नहीं मिला था तथा मुस्लिम नेताओं द्वारा इसे “एक विद्यार्थी की योजना” “काल्पनिक एवं अव्यावहारिक” बतलाया गया था ।
यहाँ तक कि सर मुहम्मद इक्कबाल का रूपभेदित प्रस्ताव भी, जो पहले-पहल १९३० ई॰ में किया गया था और १९३९ ई॰ में दुहराया गया था, विस्तृत नहीं हुआ था । इस प्रस्ताव के अनुसार पाकिस्तान में एक या दो मुस्लिम राज्य होते और इसका भारत के शेष भाग से ढीला संघ होता ।
एक पूर्णसत्तासंपन्न राज्य के रूप में पाकिस्तान का विचार मिस्टर जिन्ना द्वारा पुनर्जीवित किया नया तथा मूस्लिम लीग द्वारा १९४० ई॰ में विधिवत् समर्थित हुआ । इस तारीख से कांग्रेस और लीग के बीच सुलह की सारी कोशिशें पाकिस्तान के इस विचार्य विपय पर विफल होती गयी । सरकार भी अब युक्तिसंगत तरीके से राष्ट्रीय सरकार के लिए कांग्रेस की मांग को यह कहकर अस्वीकार कर सकती थी कि मुसलमान इसके विरोधी थे ।
८ अगस्त, १९४२ ई॰ को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी ने अधिकतम संभव पैमाने पर जन-संघर्ष शुरू करने के पक्ष में एक प्रस्ताव अपनाया । यद्यपि कांग्रेस ने कोई वास्तविक तैयारियों नहीं की थीं, तथापि सरकार ने तुरंत कारवाई करने का निर्णय किया ।
९ अगस्त की सुबह के प्रारंभिक घंटों में सभी कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गये तथा कांग्रेस एक गैरकानूनी संस्था करार दी गयी । कोई निश्चित संगठन न था । नेतृत्व का पूर्ण अभाव था । अतएव भारत के विभिन्न भागों में बड़े पैमाने पर हिंसात्मक दंगे एवं आक्रमण और अनियमित (यत्रतत्र-घटित) दुर्व्यवस्थाएँ-जैसे तार एवं फोन की लाइनें काटना, रेलवे की पटरियाँ, स्टेशनों आदि को नुकसान पहुंचाना-हुई ।
सरकार ने फिर दमन के उपाय अपनाये कहीं-कहीं हवाई जहाजों से गोलियां चलायी गयीं । सरकारी हिसाब के अनुसार १९४२ ई॰ के अंतिम पाँच महीनों में साठ हजार से अधिक आदमी गिरफ्तार हुए; अठारह हजार, बिना मुकद्दमे चलाये, हवालत में रखे गये; तथा पुलिस या मिलिटरी की फायरिंग (गोली चलाने) से ९४० मारे गये एवं १६३० घायल हुए ।
इन दमनकारी उपायों से भारत में अशांति का बाह्य प्रदर्शन बहुत-कुछ घट गया । मगर शीघ्र ही ब्रिटिश सरकार के सामने एक दूसरा गंभीर खतरा आ धमका । सुभाष- चंद्र बोस भारत से १९४१ ई॰ में ही भाग गये थे । उन्होंने जर्मनी और जापान से संपर्क स्थापित किये ।
जब जापानियों ने मलय प्रायद्वीप जीत लिया, तब बहुत-से भारतीय सैनिक उनके हाथों में कैदी होकर जा पड़े । बोस अब ‘नेताजी’ कहे जाते थे । उन्होंने जापानी सरकार से एक संधि की । तदनुसार उन्होंने ‘आजाद हिंद फौज’ (इंडियन नेशनल आर्मी) के रूप में इन सैनिकों का संगठन कर लिया । सिंगापुर में उन्होंने आजाद हिंद सरकार का उद्घाटन किया । १९४३ ई॰ में उनके सैनिक जापानी सेना के साथ भारत की सीमा तक बढ़ आये ।
६ मई, १९४४ ई॰ को गाँधीजी स्वास्थ्य के कारण जेल से रिहा कर दिये गये । उन्होंने मिस्टर जिन्ना के साथ काफी बातचीत चलाई, किन्तु कोई समझौता नहीं हुआ । अक्टूबर, १९४३ ई॰ में ही लार्ड लिनलिथगो के बाद लार्ड वावेल वाइसराय होकर आ चुके थे ।
मार्च, १९४५ ई॰ में वे हवाई जहाज से लंदन गये तथा एक खास प्रस्ताव के साथ लौटे । वह प्रस्ताव यों था कि वाइसराय एवं प्रधान सेनापति को छोड्कर उनकी कौंसिल के अन्य सदस्य भारतीय होंगे जो भारतीय राजनीतिक दलों में से मुसलमानों एवं तथाकथित सवर्ण हिन्दुओं के बीच समता के आधार पर चुने जाएँगे ।
व्यक्ति चुनने के लिए उन्होंने २५ जून, १९४५ ई॰ को शिमला में एक सम्मेलन बुलाया । मगर कांग्रेस और लीग समझौते पर न आ सके । अतएव सम्मेलन टूट गया । इसके कुछ ही समय बाद ब्रिटेन में मजदूर दल शक्ति-आरूढ हुआ ।
नवीन ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजनीतिक गत्यवरोध समाप्त करने की जमकर कोशिश की । उसने निर्णय किया कि केंद्रीय और प्रांतीय दोनों भारतीय कौंसिलों के लिए नया चुनाव कराया जाए मार्च के प्रस्तावानुसार भारतीय सदस्यों के साथ, चुनाव के शीघ्र बाद, वाइसराय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल का पुनर्निर्माण किया जाए तथा यथासंभव जल्द-से-जल्द संविधान-निर्मात्री संस्था को बुलाया जाए ।
१९४६ ई॰ के प्रारंभ में चुनाव हुआ । सामान्य स्थानों के बारे में कांग्रस ने और मुस्लिम स्थानों के बारे में मुस्लिम लीग ने बाजी मार ली । जापान के पतन के पश्चात बोस द्वारा संगठित आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी या आई॰ एन॰ ए॰) ने अंग्रेजों के सामने आत्म-समर्पण कर दिया ।
इसके कुछ अफसरों पर भारत में राजद्रोह (विश्वासघात) का मुकद्दमा चलाया गया । यह सरकार के लिए अत्यंत नीतिशून्य कदम था, क्योंकि इसने भारतीय जनता को एक वैसे संगठन का पूरा चित्र दे दिया, जिसकी उसे अब तक बहुत कम जानकारी थी । देश में उत्साह की लहर फैल गयी । कुछ नगरों में प्रदर्शन भी हुए ।
१८ फरवरी, १९४६ ई॰ को राजकीय भारतीय नौ-सेना की नाविक-श्रेणी (रेटिंग्स) खुला विद्रोह कर उठी । कुछ दिनों तक इसने गंभीर रूप धारण कर रखा था । १९ फरवरी, १९४६ ई॰ को ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने धोषणा की कि ब्रिटिश मंत्रि-मंडल के तीन सदस्य भारत जाएँगे, जिनका उद्देश्य होगा “भारतीय मत के नेताओं के संयोग से भारत में पूर्ण स्वशासन के शीघ्र कार्यान्वयन को प्रोन्नत करना” ।
पीछे, १५ मार्च को, उसने भारतीय संविधानिक विकास के संभव लक्ष्य के रूप में पूर्ण स्वाधीनता का जिक्र किया, यदि भारतीय ऐसा चाहें । कैबिनेट मिशन मार्च, १९४६ ई॰ में दिल्ली पहुँचा । उसने कांग्रेस और लीग के नेताओं के साथ कई सम्मेलन किये । उन दोनों के बीच कोई समझौता संभव न था । अतएव मिशन ने १६ मई, १९४६ ई॰ को एक वक्तव्य निकाला । इसमें उसने भारत के भविष्य शासन के बारे में संक्षेप में अपना विचार प्रकट किया तथा एक विस्तृत संविधान बनाने की कार्य-प्रणाली प्रस्तुत की ।
कैबिनेट मिशन ने रियासत-सहित समग्र भारत के लिए संघीय शासन की सिफारिश की । संघीय शासन विदेशी मामले, प्रतिरक्षा एवं परिवहन देखता । अन्य शक्तियाँ प्रांतों एवं रियासतों में निहित होतीं । ब्रिटिश भारत तीन प्रांत-समूहों में विभक्त होता- एक में पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत, सिंध एवं बलुचिस्तान होते दूसरे में बंगाल एवं आसाम होते तथा तीसरे में अवशिष्ट भाग होते ।
संघीय संविधान २१६ सदस्यों की संविधान-निर्मात्री एसेंब्ली द्वारा बनाया जाता । ये सदस्य प्रांतीय लेजिस्लेटिव एसेंब्लियो द्वारा सांप्रदायिक आधार पर और संघ में मिलनेवाली रियासत। के प्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित होते ।
तीनों-प्रांत-समूहों के प्रतिनिधि प्रत्येक समूह के प्रांतों का संवीधान बनाने के लिए अलग-अलग इकट्ठे होते । प्रत्येक प्रांत को नवीन संविधान के अंतर्गत अपनी लेजिस्लेटिव कौंसिल के प्रथम चुनाव के बाद, संघीय सरकार से हट जाने का अधिकार दिया गया । कैबिनेट मिशन ने इस बात की सिफारिश भी की कि विभिन्न दलों के नेताओं से वाइसराय की एक्विक्यूटिव कौंसिल का पुनर्निर्माण कर एक अस्थायी राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की जाए ।
६ जून को मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव कबूल कर लिये । मगर साथ ही उसने यह भी दुहराया कि पूर्ण सर्वसत्ताप्राप्त पाकिस्तान के लक्ष्य की प्राप्ति अभी भी भारत के मुसलमानों का अपरिवर्तनीय उद्देश्य बनी हुई थी । कांग्रेस ने वाइसराय के राष्ट्रीय सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । मगर उसने संविधान बनाने के उद्देश्य से संविधान-निर्मात्री एकली में भाग लेना कबूल कर लिया । कैबिनेट मिशन ने २९ जुन को भारत छोड़ा ।
मुस्लिम लीग ने माँग की कि यदि कांग्रेस अस्थायी सरकार में भाग न ले, तो भी वाइसराय को अपनी इस योजना को आगे बढ़ाना चाहिए । इसे वाइसराय ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वह पहले ही घोषणा कर चुका था कि अस्थायी सरकार कैबिनेट मिशन की योजना के स्वीकार करनेवाले सभी दलों की सरकार होगी ।
कैबिनेट मिशन की योजना की व्यवस्था के सम्बन्ध में भी मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच तीव्र अंतर थे । कुछ उग्र विवाद के बाद मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन योजना की अपनी स्वीकृति विधिवत् लौटा ली । इसपर, अपनी पूर्व घोषणा के अनुसार वाइसराय ने, लीग के किसी प्रतिनिधि के बिना ही, अपनी एक्जिक्यूटिव कौंसिल का पुनर्निर्माण कर लिया ।
यह कांग्रेस की पूर्ण विजय थी । पृथक्तावादी मुसलमानों में इसकी घोर प्रतिक्रिया हुई । मुस्लिम लीग ने १६ अगस्त, १९४६ ई॰ को “सीधी कारवाई” के दिन के रूप में निश्चित किया । उस दिन लीग के कुछ समर्थक तो शांतिपूर्ण प्रदर्शनों से संतुष्ट रहे, मगर कलकत्ते का एक उपद्रवी वर्ग नियंत्रण के पूर्णतया बाहर हो गया ।
कुछ हिन्दू मारे गये तथा उनके घर और दूकानें लूटी गयीं एवं जला डाली गयीं । शीघ्र ही हिन्दुओं ने बदला ले लिया । कुछ दिनों तक कलकत्ते की सड़कें निकृष्टतम सांप्रदायिक दंगों के क्रीड़ास्थल बनी रहीं । वीभत्स हिंसा होती रही । इसने आधुनिक भारत के प्रथम नगर के नाम को कलंकित कर डाला । न तो लीग मंत्रिमंडल ने और न गवर्नर और वाइसराय ने, जो कानून एवं व्यवस्था के लिए अंतिम रूप से उत्तरदायी थे इस हिंसा के रोकने के काफी उपाय किये ।
२ सितम्बर को श्री जवाहरलाल नेहरू और उनके सहकर्मियों ने वाइसराय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के रूप में शपथ-ग्रहण किया । इसके तुरंत बाद, नोआखाली जिले एवं कोमिला के सटे भाग के कुछ गाँवों के हिन्दुओं को अपर संप्रदाय के सशस्त्र पुरुषों के गरोहों द्वारा संगठित आक्रमणों से दारुण कष्ट हुआ । इसका बदला बिहार में लिया गया, जहाँ बहुत-से-मुसलमानों को हिन्दुओं से वही बर्ताव मिला । श्री नेहरू हवाई जहाज से बिहार पहुँचे तथा वहाँ के कांग्रेस मंत्रिमंडल ने उपद्रव दबाने के जोरदार उपाय किये ।
वाइसराय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल, नेहरू के मार्ग-प्रदर्शन में, मंत्रिमंडल के समान काम करने लगी । इसने भारतीय सरकार की पूरी आत्मा एवं दृष्टि को बदल डाला । इस प्रकार लार्ड वावेल की शक्ति करीब-करीब अस्तित्वहीन हो चली । इसलिए उन्होंने अब सांप्रदायिक समता के नाम पर लीग के सदस्यों को बराबर बोझ के रूप में लाना चाहा ।
उन्होंने श्री नेहरू से कहा कि लीग ने संविधान-निर्मात्री एसेंल्ली में भाग लेना स्वीकार कर लिया है । उस संगठन के सदस्यों को सम्मिलित कर वे एक्विक्यूटिव कौंसिल का पुनर्निर्माण कर बैठे । इस नवीन तत्व के आगमन से कौंसिल की टीम भावना (एक साथ मिलकर काम करने की भावना) नष्ट हो गयी, क्योंकि लीग के सदस्यों ने खुल्लमखुल्ला सम्मिलित उत्तरदायित्व के विचार को अस्वीकार किया ।
इससे भी खराब बात यह हुई कि लीग ने संविधान-निर्मात्री एसेंब्ली में भाग नहीं लिया, तथा मिस्टर जिन्ना ने इसका उद्घाटन कर लोगों को विस्मय-चकित कर डाला कि इसने (लीग ने) कभी वैसा करना कबूल नहीं किया था । वाइसराय के लिए यह कुत्सित परिस्थिति थी ।
ब्रिटिश सरकार ने ६ दिसम्बर को घोषणा की कि यदि मुस्लिम लीग कंस्टिटधुएंट एसेंब्ली में भाग नहीं लेगी, तो कम-से-कम मुस्लिम बहुमतवाले प्रांतों के सम्बन्ध में इस संस्था (एसेंब्ली) का निर्णय ब्रिटिश सरकार द्वारा कार्यान्वित नहीं हो सकेगा ।
इस तरह ब्रिटिश सरकार ने इस कुत्सित परिस्थिति में सुधार लाने के लिए कुछ नहीं किया । तो भी, लीग के सदस्यों के बिना ही, कांस्टिटयूएंट एसेंब्ली ९ दिसम्बर, १९४६ ई॰ को बैठी । डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद अध्यक्ष चुने गये । संविधान के विभिन्न भागों का प्रारूप तैयार करने के लिए विभिन्न समितियाँ नियुक्त कर दी गयीं ।
यह कठिन वातावरण २० फरवरी, १९४७ ई॰ तक जारी रहा, जब कि ब्रिटिश सरकार ने नीति-सम्बन्धी एक महत्वपूर्ण घोषणा की । इसने जून, १९४७ ई॰ तक भारत छोड़ने की अपनी इच्छा जाहिर की तथा अंग्रेजों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने का प्रबंध करने के निमित्त लार्ड मांउटबैटन को भारत का वाइसराय नियुक्त किया ।
इस अत्यंत महत्वपूर्ण घोषणा से सारे भारत में हार्दिक उत्साह फैल गया । हाँ, मुस्लिम लीग को इससे निराशा हो गयी । तब इसने फिर एक बार “सीधी कारवाई” का सहारा लिया । सारे पंजाब में दंगे हो गये तथा शीघ्र उत्तरपश्चिम सीमा प्रांत में फैल गये । विस्तृत क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लूट-खसोटें, गृहदाह, हत्या और हिंसा होती रही ।
इन क्रमिक सांप्रदायिक दंगों का अत्यंत दुर्भाग्यवश परिणाम हुआ । हिन्दू और सिख अब तक जोरदार रूप से संयुक्त भारत के पक्ष में थे । किन्तु अब धीरे-धीरे वे इसकी अव्यावहारिकता महसूस करने लगे । उन्होंने मुसलमानों केकंस्टिटयूएंट एसेंबली में भाग लेने से इनकार करने पर पंजाब एवं बंगाल में बँटवारे की मांग की ।
लार्ड मांउटबैटन ने २४ मार्च, १९४७ ई॰ को वाइसराय के रूप में पद-ग्रहण किया । ३ जून को उन्होंने प्रसिद्ध घोषणा प्रसारित की । इसमें उन्होंने “अंग्रेजों से भारतीयों को शक्ति हस्तांतरित करने की प्रणाली” प्रस्तुत की ।
इस नवीन कार्यप्रणाली या नीति की मुख्य बातें संक्षेप में इस प्रकार हैं:
(१) यदि मुस्लिम बहुमतवाले क्षेत्र चाहें, तो वे एक पृथक् डोमिनियन बना सकते हैं । उस हालत में उस उद्देश्य के लिए एक नवीन संविधान-निर्मात्री एसेंब्ली बैठेगी । मगर ऐसा होने पर, यदि उन प्रांतों के विधानमंडलों के हिन्दू बहुमतवाले जिलों के प्रतिनिधियों ने चाहा, तो बंगाल एवं पंजाब का बँटवारा होगा ।
(२) उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में जनमतसंग्रह (रेफरेंडम) होगा, जिसके द्वारा यह तिश्चय किया जाएगा कि उसे पाकिस्तान में शामिल होना है या नहीं ।
(३) जनमतसंग्रह द्वारा लोगों के विचार जानने के बाद सिलहट जिला बंगाल के मुस्लिम क्षेत्र के साथ मिला दिया जाएगा ।
(४) बंगाल और पंजाब में हिन्दू एवं मुस्लिम प्रांतों की सीमाएँ निर्धारित करने के लिए सीमा कमीशनों की नियुक्ति होगी ।
(५) पार्लियामेंट के वर्तमान अधिवेशन में तुरंत भारत को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए (अथवा यदि बँटवारे का फैसला होता है, तो दो डोमिनियन बनाने के लिए) कानून बनाया जाएगा । इस संबंध में संविधान-निर्मात्री एसेकी (या एसेंब्लियों) के अंतिम निर्णय पर इससे कोई क्षति न पहुंचेगी ।
इस ऐतिहासिक घोषणा का जनता द्वारा मिश्रित भावनाओं के साथ स्वागत हुआ । हिन्दुओं और सब विचारों (दृढ़विश्वासों) के राष्ट्रवादियों ने भारत की इस चीरफाड़ पर अफसोस प्रकट किया जब कि लीग के मुसलमान इस “सिरकटे और पतिंगों द्वारा जर्जरीकृत” पाकिस्तान से पूर्ण संतुष्ट नहीं हुए-एक बार मिस्टर जिन्ना ने होनेवाले पाकिस्तान का ऐसा ही वर्णन किया था ।
जो हो, इसे साधारणत: सबने स्वीकार किया कि समय को देखते हुए नवीन योजना भारतीय समस्या का सबसे अच्छा व्यावहारिक हल था । तदनुसार कांग्रेस और लीग दोनों ने इसे कबूल कर लिया । पंजाब और बंगाल का बँटवारा ब्रिटिश सरकार-द्वारा नियुक्त दो कमीशनों द्वारा कराया गया ।
सर सिरिल रैडक्लिफ दोनों कमीशनों के अध्यक्ष थे । भारत स्वतंत्रता बिल को ब्रिटिश पार्लियामेंट नं बिना किसी मतभेद के १ जुलाई, १९४७ ई॰ को पास कर दिया । इसने १५ अगस्त, १९४७ ई॰ को सत्ता हस्तांतरित करने की तिथि निश्चित की । तदनुसार १४-१५ अगस्त की आधी रात को दिल्ली में संविधान-निर्मात्री एसेंब्ली का एक विशेष अधिवेशन किया गया ।
इसने गंभीर तौर पर ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के एक भाग के रूप में भारत की स्वतंत्रता की घोषणा की तथा लौर्ड माउंटबैटन को नवीन भारत डोमिनियन का प्रथम गवर्नर-जनरल नियुक्त किया । मिस्टर जिन्ना पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर-जनरल चुने गये । पाकिस्तान ने अपनी खास कस्टिटयऐंट एसेंबली बुलाने के लिए शीघ्र ही कदम उठाये ।
१५ अगस्त, १९४७ ई॰ ने इस प्रकार ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लंबे राष्ट्रीय संघर्ष का अंत देखा । यह भारत के इतिहास में स्मरणीय दिवस है । यह तिथि उसकी लाखों जनता के हृदयों में सदैव अंकित रहेगी ।