एकाधिकार पर निबंध | Essay on Monopoly in Hindi.

एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में किसी देश की आर्थिक वृद्धि, एकाधिकार की उत्पत्ति और आर्थिक शक्तियों के कुछ एक बड़े हाथों में केन्द्रीकरण से जुडी होती है । यह विश्व के अल्प-विकसित एवं विकसित देशों का सुस्थापित अनुभव है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था कोई अपवाद नहीं है ।

एकाधिकारिक वृद्धि और शक्तियों के कुछ ही हाथों में केन्द्रीकरण की कुप्रथा को नियन्त्रित करने के लिये, भारतीय संविधान के राज्य नीति के अपने निर्देशात्मक नियमों में कुछ उद्देश्यों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार हैं:

(i) समाज के सामग्रिक साधनों के स्वामित्व और नियन्त्रण का वितरण इस प्रकार किया जाये कि वह सांझी भलाई के लिये उपयोगी हों, और

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(ii) आर्थिक प्रणाली के संचालन के परिणामस्वरूप धन का केन्द्रीकरण न हो और उत्पादन के साधन सब की हानि का कारण न बने ।

इसलिये, औद्योगिक नीति के 1956 के प्रस्ताव तथा अन्य उपायों द्वारा भारत सरकार एकाधिकारिक प्रथाओं और आर्थिक शक्तियों के कुछ ही हाथ में केन्द्रीकरण को कम करने की ओर ध्यान दे रही है । अक्तूबर, 1960 में भारत सरकार ने पी. सी. महालेनोबिस की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया ताकि आर्थिक शक्तियों के केन्द्रीकरण की सीमा तय हो । तथापि, सरकार द्वारा किये गये इन उपायों के विस्तार में जाने के लिये आवश्यक है कि इनके अर्थ और वृद्धि पर संक्षिप्त विचार किया जाये ।

सरल शब्दों में अंग्रेजी भाषा का शब्द मोनोप्ली (Monopoly) दो शब्दों मोनो (Mono) और पोली (Poly) के मिश्रण से बना है जिसका अर्थ है उत्पादन पर अत्युत्तमता (Supermacy over Production) । यह कुल उत्पादक क्षमता के पर्याप्त मात्रा के स्वामित्व से, कच्चे माल तथा अन्य आगतों पर नियन्त्रण से अथवा जानकारी के एक मात्र स्वामित्व से जिसका अर्थ है- एकस्व अधिकार से परिणामित होती है ।

वाकिल के अनुसार आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण का अर्थ है लोगों की बड़ी संख्या के जीवन को प्रभावित करने वाले आर्थिक निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता जिसका उपयोग एक अथवा अधिक व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जिन्होंने किसी प्रकार इस क्षमता को प्राप्त कर लिया है ।

एकाधिकार जाँच आयोग (1964) ने एकाधिकारिक व्यापार प्रथाओं को इस प्रकार परिभाषित किया ”वह जिसका उपयोग एकाधिकारिक शक्तियों का आनन्द उठाने वाले लोगों द्वारा कार्य, समझ अथवा समझौते द्वारा उस शक्ति के लाभ उठाये जाने के लिए किया जाता है अथवा इस शक्ति का संरक्षण, वृद्धि अथवा दृढ़ीकरण किया जाता है ।”

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इसी प्रकार ”मोनोप्लस्टिक एण्ड रस्ट्क्टिव ट्रेड प्रैक्टिसक एक्ट, 1969” इसका वर्णन ऐसे व्यवहार के रूप में करता है जिसका प्रभाव कीमतों को असंगत स्तर पर रखने से है, उत्पादन कम करने या नियन्त्रित करने पर है, किसी भी प्रकार की वस्तुओं की पूर्ति और वितरण पर है अथवा किसी अन्य प्रकार से सेवाओं की पूर्ति और वितरण पर है, बिना कारण उत्पादन में प्रतियोगिता को रोकने अथवा कम करने पर है, तकनीकी विकास अथवा पूँजी निवेश के विपरीत है, भारत में उत्पादित, पूर्ति की गई अथवा वितरित वस्तुओं और सेवाओं को हानि पहुँचाने से है ।

भारत में इन उद्यमों को ‘प्रभुत्वपूर्ण उद्यम’ (Dominant Undertakings) और ‘एकाधिकारिक उद्यम’ (Monopolistic Undertakings) कहा जाता है । तथापि, प्रभुत्वपूर्ण उद्यम वह है जो या तो स्वयं या फिर परस्पर सम्बन्धित उद्यमों के साथ मिलकर कुल वस्तुओं अथवा सेवाओं के 1/3 भाग का अपनी श्रेणी के व्यापार का उत्पादन, पूर्तियां, वितरण अथवा नियन्त्रण करते हैं जिसका उत्पादन, पूर्ति अथवा वितरण उनके मूल्य, लागत, कीमत, मात्रा, क्षमता अथवा नियुक्त श्रमिकों की संख्या अनुसार किया जाता है ।

एकाधिकारिक उद्यम, इसके विपरीत प्रभुत्वपूर्ण उद्यम है अथवा जो दो (अधिक नहीं) स्वतन्त्र उद्यमों के साथ मिल कर उत्पादन, पूर्तियां और वितरण करते हैं अथवा अन्यथा भारत में इसकी श्रेणी में उत्पादितापूर्ति किये गये अथवा वितरित से आधे (कम नहीं) का नियन्त्रण करते, जो उनके मूल्य, लागत, कीमत, मात्रा, क्षमता और नियुक्त श्रमिकों के सन्दर्भ में होता है । वास्तव में, यह प्रमुत्वपूर्ण एवं एकाधिकारिक उद्यम अपने नियन्त्रण का प्रयोग करते हैं जिससे अर्थव्यवस्था के विशेष क्षेत्रों में गलत प्रथाएँ जन्म लेती हैं ।

धारणा को भली-भांति समझने के लिये हमें प्रतिरोधक व्यापार प्रथाओं (Restrictive Trade Practices) (RTPs) के सम्बन्ध में कुछ जानना आवश्यक है । आर. टी. पी. वे प्रथाएं हैं जो पूंजी अथवा साधनों के उत्पादन की धारा अथवा विवरण की धारा में तैयार वस्तुओं के मुक्त प्रवाह को एकाधिकार द्वारा ऐसी प्रतिबन्धक व्यापार प्रथाओं का आश्रय लिया जाता है तो यह एकाधिकार की प्रतिबन्धक व्यापार प्रथाएं बन जाती हैं जिसे एम. आर. टी. पी. कहते हैं ।

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एकाधिकार जांच आयोग ने एकाधिकारिक प्रथाओं और प्रतिबन्धक प्रथाओं का स्पष्ट शब्दों में अन्तर किया । आयोग ने कहा ”प्रत्येक प्रथा चाहे यह कार्य द्वारा या समझ द्वारा अथवा समझौते द्वारा हो औपचारिक हो या अनौपचारिक जिसके द्वारा लोग एकाधिकारिक शक्ति का प्रयोग उस शक्ति का लाभ उठाने के लिये करते हैं और प्रत्येक कार्य, समझ अथवा समझौता जो संरक्षण वृद्धि अथवा दृढ़ीकरण के लिये किया जाता है, ऐसी शक्ति को उचित रूप में एकाधिकारिक प्रथा कहा जा सकता है ।”

दूसरी ओर प्रतिबन्धक प्रथाएं दर्शाती हैं । ”एकाधिकारियों के अतिरिक्त अन्य लोगों द्वारा किये गये व्यवहार जो प्रतियोगी शक्तियों के मुक्त व्यवहार को रोकते हैं अथवा पूंजी या साधनों के मुक्त बहाव को उत्पादन अथवा वितरण के प्रवाह में तैयार वस्तुओं को अन्तिम उपभोक्ता के हाथों तक पहुंचने से पहले किसी बिन्दु पर रुकावट डालते हैं ।”

निम्नलिखित कुछ सामान्य प्रतिबन्धक व्यवहार हैं जिनका अनुकरण भारत तथा अन्य कुछ देशों में एकाधिकारियों द्वारा किया जाता है:

(क) कीमतों का क्षैतिज निर्धारण

(ख) कीमतों का उद्धर्व निर्धारण तथा पुन: बिक्री संभाल,

(ग) क्रेताओं के बीच भेदभाव,

(घ) बाजारों का विभिन्न उत्पादकों के बीच निर्धारण,

(ङ) बहिष्कार,

(च) एक मात्र व्यवहार समझौते और

(छ) बन्धक उपाय तथा प्रबन्ध ।

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