भारत में गरीबी का घटना अनुपात | Poverty Reduction Ratio in India in Hindi.

आज देश में गरीबी घटी है, साथ ही ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्र में गरीबी में कमी आई है परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी का ग्राफ तीव्र गति से गिरा है । इसका प्रमुख कारण कुछ अर्थशास्त्री व नीति निर्माता ग्रामीण क्षेत्र में जारी गरीबी उन्तुलक योजनाओं की सफलता को मानते हैं जबकि कुछ का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र में होने वाले पलायन से ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी में कमी आई है ।

परन्तु वास्तव में इन दोनों का संयुक्त परिणाम ही इसका प्रमुख कारण है । भारत में गरीबी को कम करने में रिसाव-प्रभाव की भी भूमिका संदेह के दायरे में है क्योंकि पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे कुछ राज्यों में कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि हुई है, परन्तु इन राज्यों में गरीबी में कोई कमी नहीं हुई है ।

संकेत शब्द:

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गरीबी, रिसाव-प्रभाव, असमानता, गिन्नी गुणांक, शहरीकरण, प्रगतिशील कराधान, आर्थिक संवृद्धि, पारदर्शिता, अर्द्ध सामंती उत्पाद संबंध एवं हरित क्रांति ।

प्रस्तावना:

अक्सर यह मानाpopo जाता है कि वे लोग गरीब हैं जो एक निश्चित न्यूनतम उपभोग का स्तर प्राप्त करने में असफल रहते हैं । परन्तु विशेषज्ञों ने गरीबी की समस्या का अध्ययन किया है वे इस बात से एकमत नहीं हैं कि कितनी आय न्यूनतम उपभोग स्तर प्रदान करने के लिए काफी है ।

इसका कारण यह है कि, शहरी क्षेत्र में रहन-सहन की लागतें ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक होती हैं क्योंकि न केवल शहरों में कीमतें अधिक होती हैं बल्कि शहरों में रहने वाले लोगों को कुछ ऐसे खर्च भी करने पड़ते हैं, जो ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को नहीं करने पड़ते ।

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भारत में अनेक अर्थशास्त्रियों एवं आर्थिक संस्थाओं ने निर्धनता के निर्धारण के लिए अपने अनेक प्रमाप बनाए हैं ।  योजना आयोग ने एक वैकल्पिक परिभाषा अपनाई है जिसमें आहार संबंधी जरूरतों को ध्यान में रखा गया हैं । इस परिभाषा के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन तथा शहरी क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2100 कैलोरी प्रतिदिन के हिसाब से भी जिन्हें नहीं प्राप्त हो पाता, उसे गरीबी रेखा से नीचे माना गया है ।

भट्‌टी (1974) का कथन है कि निरपेक्ष और सापेक्ष गरीबी आय वितरण की असमानता से घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं । असनान आय विवरण से सापेक्ष गरीबी उत्पन्न होती हे बिना इसके कि आय का स्तर क्या है ? या सबसे नीचे के माप के लोगों की आय क्या है ? अथवा उससे कहा तक वंचित है ?

दूसरी तरफ निरपेक्ष गरीबी एक सामूहिक हीनता या दरिद्रता को उसके भौतिक अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट होती है । इस संबंध में कोरियन (1978) ने कहा है कि गरीबी वह सामाजिक आर्थिक स्थिति हे, जिसमें समाज में उपलब्ध साधनों को कुछ लोगों की आवश्यकताओं की तुष्टि हेतु किया जाता है, जबकि बहुतायत लोगों की मूलभूत आवश्यकतायें भी संतुष्टि नहीं होती है ।

गाडिगिल (1965) ने कहा है कि गरीबी और कुछ नहीं है, बल्कि एक न्यूनतम सीमा के नीचे रहने वाली जनसंख्या का जीवन स्तर है । इस संदर्भ में अमर्त्य सेन का यह कथन महत्वपूर्ण है कि गरीब कोई एक आर्थिक वर्ग नहीं है । गरीबी बहुत सी आर्थिक परिस्थितियों का परिणाम है । इसलिए गरीबी की समस्या का हल करने के लिए स्वयं गरीबी की संकल्पना से परे जाना होगा ।

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इस आधार पर विभिन्न लोगों के बीच दो चरण होने चाहिए । पहले चरण में यह पता लगाना चाहिए कि अलग-अलग लोगों को कितना मिला और इस आधार पर प्रतिव्यक्ति आय के किसी मापदंड के सहारे गरीबी का पता लगाना चाहिए ।

दूसरे चरण में हमें इस बात का अनुमान लगाना चाहिए कि स्थिति वास्तव में कितनी ‘खराब’ है और एक खराब स्थिति दूसरी खराब स्थिति से कितनी भयावह है । यह जानना काफी नहीं कि कितने लोग गरीब है । यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि गरीब लोग ‘कितने’ गरीब है ।

उद्देश्य:

(i) ग्रामीण, शहरी एवं देश की कुल गरीबी का अध्ययन करना,

(ii) गरीबी के कारणों का पता लगाना,

(iii) गरीबी उन्मूलन की रणनीति का मूल्यांकन करना ।

कोई अर्थशास्त्री या सांख्यिकीविद इस तथ्य पर सवाल नहीं उठा रहा है कि गरीबी पहले की तुलना में तेजी से घटी है । हो सकता है कि इस बारे में मतभेद हों कि गरीबी को परिभाषित किस तरह किया जाए या आबादी का कितना फीसदी गरीबी के दायरे में माना जाए । लेकिन गरीबी रेखा को किसी भी तरह परिभाषित किया जाए, तथ्य तो यही हे कि इससे नीचे आने वाले लोगों का प्रतिशत उल्लेखनीय रूप से कम हो रहा है ।

भारत में ग्रामीण गरीबी में तेजी से कमी आई है । दांडेकर व रथ ने ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी में गिरावट एवं शहरी क्षेत्र में गरीबी में कम गिरावट के संबंध में कहा है कि शहरी क्षेत्रों में रहने वाले गरीब मूल रूप से ग्रामीण क्षेत्र से आए हैं अर्थात गरीबी का शहरीकरण हुआ है ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी में गिरावट तो आई है लेकिन आज भी 257 प्रतिशत गरीबी ग्रामीण क्षेत्र में पाई जाती है जो शहरी क्षेत्र की तुलना में दोगुनी है ।

वास्तव में गरीबी का मूल आधार ग्रामीण क्षेत्रों में है । भारत में ग्रामीण गरीबी का मूल कारण कृषि में अर्द्ध सामंती उत्पाद संबंधों का होना है । स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधारों के लिए जो कदम उठाए गए वे अपर्याप्त थे और वे उत्पादन संबंधों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं ला सके ।

इसलिए खेतिहर मजदूरों के परिवार, काफी संख्या में छोटे व सीमांत किसान तथा भूमिहीन-गैर कृषि क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिकों के परिवार गरीब है । कीथ ग्रिफिन ने आनुभाविक तथ्यों के आधार पर तर्क दिया है कि ऐसी कृषि व्यवस्था में जहाँ भूमि का अत्यन्त असमान वितरण हो तथा वित्त व अन्य कृषि लागतों (जैसे- उर्वरक, उन्नत किस्म के बीज आदि) पर कुछ लोगों का अपेक्षाकृत मजबूत अधिकार हो, वहाँ नई कृषि तकनीक अपनाने से न केवल आय आसमानताएँ बढ़ती है बल्कि अत्यन्त निर्धन लोगों के अनुपात में भी वृद्धि होती है ।

परन्तु जॉन डन्ल्यू मिलर का दृष्टिकोण अलग है । उनके अनुसार नई तकनीक से खाद्यानों की उत्पादन लागत गिरती है जिससे खाद्यानों की कीमत कम होता है तथा श्रम के लिए माँग बढ़ती है ।  क्योंकि गरीबी का मुख्य उपभोज्य वस्तु खाद्यान है और क्योंकि रोजगार ही उनका मुख्य आय-स्त्रोत है इसलिए नई कृषि तकनीकों का गरीबों के ऊपर अत्यन्त अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि आर्थिक संवृद्धि का लाभ स्वतः रिस-रिसकर जनसंख्या के सभी वर्गों को प्राप्त हो जाता है जिससे गरीबी अपने आप कम हो जाती है । इसे रिसाव-प्रभाव कहा जाता है भारतीय कृषि के संदर्भ में रिसव-प्रभाव का अर्थ यह लिया जाता है कि भूमि सुधारों के बिना भी कृषि उत्पादन में वृद्धि लाकर गरीबी के स्तर को कम किया जा सकता है ।

एम एस आहलूवालिया के अनुसार, भारत में इस तरह का रिसाव-प्रभाव काम कर रहा है । वर्धन ने भारत में रिसाव-प्रभाव को कारगर नहीं माना है । उनके अनुसार हरित क्रान्ति के कारण एक समृद्ध धनी कृषक वर्ग का विकास हुआ जो शहर में बनी वस्तुओं के प्रति आकर्षित हुआ ।

इसके फलरवरूप ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय दस्तकारों व कारीगरों द्वारा बनाई गई वस्तुओं की माँग गिरी और ये लोग और ज्यादा गरीब हो गए । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि धनी किसानों की बढ़ती हुई राजनैतिक शक्ति के कारण खाद्यानों की निर्देशित कीमतें लगातार बढ़ती गई हैं जबकि खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बहुत ही कम रह गई है । अर्थात खाद्यानों की कीमतों में वृद्धि की तुलना में मजदूरी में वृद्धि बहुत कम हुई है ।

मोनटेक सिंह अहलूवालिया उन लोगों के तर्कों को स्वीकार नहीं करते जो रिसाव-प्रभाव के अस्तित्व को नकारते हैं फिर भी वे केवल रिसाव-प्रभाव को पर्याप्त नहीं मानते । उनके अनुसार, आर्थिक संवृद्धि की युक्ति के पूरक के रूप में ऐसे कार्यक्रमों को अपनाए जाने की आवश्यकता है जो गरीबी पर सीधा प्रहार करें ।

केवल रिसाव-प्रभाव पर आश्रित रहने से गरीबी निवारण में बहुत समय लगेगा । आज एक सामान्य व्यक्ति से लेकर अर्थशास्त्रियों, समाज सुधारकों, राजनेताओं आदि सबके जेहन में एक बात अवश्य गूँजती है कि आखिर ऐसा क्यों है ? कि तमाम गरीबी निवारण के कार्यक्रमों के बाद आपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है ।

इस असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित है:

(1) गरीबी निवारण कार्यक्रम का पूरा ध्यान अतिरिक्त आय की सृजन पर केन्द्रित रहा है । इसलिए दीर्घकालीन आधार पर गरीबी को दूर करने के लिए आवश्यक सामाजिक आगतों की पूर्ति पर ध्यान नहीं दिया गया है । इसका अर्थ यह है कि परिवार कल्याण, पौष्टिक आहार, सामाजिक सुरक्षा तथा न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर ध्यान नहीं दिया गया है ।

(2) गरीबी निवारण का आर्थिक आयोजन के उददेश्य के रूप में स्पष्ट रूप से पहली बार उल्लेख पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में हुआ । चौथी पंचवर्षीय योजना समाप्त होने के वक्त तक गरीबों को आर्थिक आयोजन से कोई फायदा नहीं हुआ था । इसका प्रमुख कारण था आर्थिक आयोजन का दोषपूर्ण चरित्र जो एक ओर तो आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को प्रोत्साहित करता है तथा दूसरी ओर मुद्रा स्फीति को जन्म देकर मजदूरी पर आश्रित शहरी और ग्रामीण गरीबों की स्थिति को और भी सोचनीय बनाता है ।

(3) गरीबी में पर्याप्त कमी न होने का एक प्रमुख कारण यह है कि आयोजकों ने यह मान लिया है कि विकास विधि द्वारा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी और इसके साथ प्रगतिशील कराधान और सार्वजनिक कल्याण नीतियों के परिणामस्वरूप गरीबों का जीवन-स्तर उन्नत हो जाएगा । लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं ।

(4) आयोजक इस मूल तथ्य को नहीं समझ पाए हैं कि विकास और असमानता में कमी दोनों ही व्यापक गरीबी को सफलतापूर्वक दूर करने के लिए अनिवार्य है । इस बात पर बल देते हुए श्रीमती कमलासूरी एवं एम गंगाधर लिखते हैं ये सब इस बात की ओर संकेत करते हैं कि भारत में निर्धनता देश में चिरस्थापित आर्थिक ढाँचे का परिणाम है जिसमें आय प्रदान करने वाली परिसम्पतों का असमान वितरण विद्यमान है । दीर्घकाल के लिए गरीबी को दूर करने की संस्थानात्मक बीमारी का उपचार करना होगा ।

अत: बिना समृद्धि के दुश्चक्र को तोड़े बिना गरीबी के दुश्चक्र को तोड़ने का प्रयास संचयी प्रक्रिया पर प्रभाव नहीं डाल सकता, न ही यह गरीबों और अमीरों में बढ़ती हुई खाई को पाट सकता है । इस संदर्भ में “गरीबी हटाओ” कार्यक्रम गरीबी दूर करने के लिए अपूर्ण हैं । दूसरे शब्दों में इसकी सहायता के लिए “अमीरी हटाओ” कार्यक्रम चलाना होगा । जो सुनने में अच्छा नहीं है लेकिन इसका अर्थ है कि आय की असमानता को कम करना ।

(5) भू-सुधार या शहर सम्पत्ति पर अधिकतम सीमा लगाकर आय प्रदान करने वाली परिसम्पतों के वितरण को सुधारने के लिए जो मनोबल दिखाना चाहिए था, वह व्यक्त नहीं किया गया । इसी कारण इसमें सान संस्थानात्मक परिवर्तनों की बात अधमने ढंग से की गई है । परिणामत: गरीबी की दर कम करने का लक्ष्य बिना संस्थानात्मक परिवर्तन के एक मृगतृष्णा है ।

(6) भारत में रोजगार परक जितनी भी योजनाएँ संचालित है वह योजनाएं दीर्घकाल तक रोजगार देने से सक्षम नहीं है । अतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम के गुजरात व कर्नाटक में कार्यान्वयन की समीक्षा की है ।

गुजरात के लिए ही इन्दिरा हीरवे ने ऐसा प्रयास किया है । ग्रामीण खेतिहर मजदूर रोजगार गारंटी कार्यक्रम के मूल्यांकन का प्रयास पंजाब के लिए किया गया है । इन अध्ययनों से मुख्य निष्कर्ष यह निकलता है कि रोजगार कार्यक्रमों ने केवल अल्पकाल के लिए रोजगार अवसर पैदा किए । इसलिए गरीबी पर इनका कोई दीर्घकालीन प्रभाव नहीं पड़ा है ।

(7) इसके अलावा योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार. कार्यान्वयन में लापरवाही पारदर्शिता का अभाव, जवाबदेही का न होना भी योजनाओं की असफलता एवं गरीबी में पर्याप्त कमी न होने की असफलता का मूल कारण है ।

सुझाव एवं निष्कर्ष:

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारत में गरीबी कम हुयी है । इससे ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में भी गरीबी में कमी आई है । परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी का ग्राफ तीव्र गति से गिरा है । इसका प्रमुख कारण कुछ अर्थशास्त्री व नीतिनिर्माता ग्रामीण क्षेत्र में जारी गरीबी निवारण योजनाओं की सफलता को मानते हैं तथा इनमें से कुछ का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्र के गरीब शहरी क्षेत्र में पालायन किये हैं इससे ग्रामीण क्षेत्र की गरीबी में कमी आ गई है ।

परन्तु वास्तव में इन दोनों का संयुक्त परिणाम ही इसका प्रमुख कारण है । भारत में गरीबी को कम करने में रिसाव-प्रभाव की भी भूमिका संदेह के दायरे में है, क्योंकि पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे कुछ राज्यों में कृषि क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि हुई है, परन्तु इन राज्यों में गरीबी में कोई खास कमी नहीं हुई है ।

आज देश में गरीबी दूर करने के लिए व्यापक प्रयास करने की आवश्यकता है । ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी को दूर करने के लिए कृषि में निवेश को बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि कूरियन ने अपने अध्ययन में पाया कि यदि ग्रामीण क्षेत्रों के सबसे गरीब वर्ग को एक रूपया दिया जाता है तो आय में कुल 1.916 रू. की वृद्धि होती है जबकि शहरी क्षेत्र में मात्र 0.640 रू. की वृद्धि हो पाती है ।

इसी के साथ भारत में गरीबी को दूर करने के लिए जहाँ एक और कृषि क्षेत्र की अदृश्य बेरोजगारी को उद्योग क्षेत्र की और प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है वहीं दूसरी ओर उद्योग क्षेत्र का विकास भी एक अनिवार्य शर्त है तभी बेरोजगारों को रोजगार देना संभव हो सकेगा । लेविस एवं रेनिसफाई के सुझाव से भी भारत अपनी गरीबी को कम कर सकता है ।

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