भारत में गरीबी और खाद्य सुरक्षा पर निबंध | Essay on Poverty and Food Security in India in Hindi Language!
वर्तमान में संपूर्ण विश्व के समक्ष खाद्य सकट ने विकराल व भीषण समस्या का रूप धारण कर लिया है । विश्व बैंक के अनुसार पिछले तीन वर्षों में खाद्य पदार्थों की कीमतों में 83 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिसके कारण खाद्य सुरक्षा पर खतरों के बादल मंडरा रहे हैं ।
वर्तमान में हमारा देश भी खाद्य समस्या से जुझ रहा है । देश में बढ़ती जनसंख्या व आय के बढ़ते साधनों के साथ मांग की तीव्रता से बढ़ने के कारण खाद्यान्नों की मांग व पूर्ति में अंतराल बढ़ता जा रहा है । इसी वजह से कीमतों में भी लगातार वृद्धि हो रही है । कृषि की रीढ़ माने जाने वाले देश भारत में भी प्राकृतिक संसाधनों जैसे- मृदा, जल, वायु में लगातार गिरावट होती जा रही है ।
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खाद्य सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा का अंग है । देश की तेजी से बढ़ती जनसंख्या के लिये खाद्यान्न की आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करना नितांत आवश्यक है, जिससे कोई भी भूखा न सो सके । साथ ही खाद्यान्न के क्षेत्र में भारत दुनिया का नेतृत्व कर सके । अत: भविष्य में खाद्यान्न आपूर्ति के लिये प्रभावी कार्य व्यापक तौर पर करने की आवश्यकता इस विकट परिस्थिति में सघन कृषि प्रणाली अपनाकर कृषि उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है ।
हरित क्रांति के सफल क्रियान्वयन द्वारा भारत की कृषि उत्पादकता क्षमता में लगभग तीन से चार गुना वृद्धि हुई है । कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिये कई महत्वपूर्ण कारकों का समन्वय आवश्यक माना गया है जैसे- उन्नत बीज, सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशी, रसायन, मृदा आदि जो पर्यावरण के अवयव हैं ।
इन कारकों में मृदा की भूमिका सभी फसलों के आधार के रूप में निर्विवाद स्वीकार की गयी है । महान दार्शनिक अरस्तू ने तो मृदा को ‘फसलों के पेट’ की संज्ञा दी है, क्योंकि फसलों का पोषण मृदा द्वारा ही संभव है ।
मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में भोजन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । बढ़ती जनसंख्या, खाद्य पदार्थों की अनौचित्यपूर्ण वितरण, खाद्य पदार्थों का अनौचित्यपूर्ण तरीके से उत्पादन आज की महती समस्या है । बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण पाने के लिये सभी उपाय निष्क्रिय होते जा रहे हैं । देश के कुछ हिस्सों में अत्यधिक मात्रा में खाद्य पदार्थ उपलब्ध है, जबकि कुछ हिस्सों में वे आम व्यक्ति के लिये भी उपलब्ध नहीं है ।
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कृषि उत्पादक गेहूँ चना, दाल जैसी मूलभूत कृषि उत्पादों को छोड़कर तिलहन व नगद फसलों को उगाने में अधिक रूचि ले रहे हैं जिससे उत्पादित पदार्थों में मांग और पूर्ति की विषमतायें उत्पन्न हो रही हैं । भारत सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा बिल लाना एक सराहनीय कदम हे किन्तु अभी भी खाद्य पदार्थों में उत्पादन एवं आपूर्ति की कई विषमतायें हैं जिसको यह शोध पत्र इंगित कर रहा है ।
भारत में खाद्यान्न की स्थिति:
भारत विश्व के देशों की तरह खाद्य सुरक्षा के प्रति जागरूक है तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत निरंतर विभिन्न कार्यक्रमों के द्वारा इस दिशा में प्रगति कर रहा है भारत विगत दशकों से आत्मनिर्भर होता जा रहा है । तीन दशकों से भारत में गरीबी में कमी आयी है ।
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यह निम्न तालिका से स्पष्ट है:
उक्त तालिका से स्पष्ट है कि गरीबी रेखा के नीचे के जनसंख्या के प्रतिशत में वृद्धि हुई है तथा गरीबी कम हुई है और देश खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना है ।
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि खाद्य सहायता पर केन्द्र सरकार का व्यय 1980-81 में जहां 650 करोड़ रूपये था जो 2000-01 में 12120 करोड़ रूपये हो गया । अर्थात 20 गुणा व्यय में वृद्धि हुई है इसी प्रकार 2009-10 में 46907 करोड़ रूपये हो गया जो कि 1980-81 की तुलना में लगभग 70 प्रतिशत अधिक व्यय भार बढ़ा है । अत: तालिका से स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार का खाद्य सहायता पर व्यय भार अधिक बढ़ा है ।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से जो देश अपने द्वारा उपभोग के लिये आवश्यक खाद्यों के लिये देशी उत्पादन पर मुख्यत: विश्वास करती है और इससे भी बफर स्टॉक पर बल देते हैं उसे खाद्य स्वावलम्बिता की रणनीति कहा जा सकता है ।
इस रणनीति को प्रथम चरण में हरित क्रांति कहा गया । किन्तु संतुलित भोजन जिसमें अनाज, दालें, सब्जियों और फलों की आवश्यक मात्रा शामिल हो उपलब्ध कराना एक स्वप्न मात्र ही है । पारिवारिक स्तर पर खाद्य सुरक्षा खाद्य पदार्थों की भौतिक और आर्थिक सुरक्षा की पहुँच तक सीमित है ।
तभी मात्रा गुणवत्ता और खाद्य पदार्थों की कीमतों के लिये क्रयशक्ति का सवाल जनता के समक्ष उठ खड़ा होता है । गरीब वर्ग की सहायता के लिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये गरीबों को सहायता हेतु प्रारंभ कर दिया गया । किन्तु इसका लाभ गरीब वर्ग के स्थान पर अमीर वर्ग ने उठाना प्रारंभ कर दिया । परिणामत: सार्वजनिक वितरण प्रणाली परिवार के स्तर पर खाद्य सुरक्षा में बाधित सुधार करने में सफल नहीं हुई है ।
शहरीकरण के कारण कृषि क्षेत्रफल में कमी:
वर्तमान परिवेश में बढ़ता शहरीकरण औद्योगीकरण और आधुनिकीरण की वजह से कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल दिनों दिन घटता जा रहा है । स्वतंत्रता के पश्चात कृषि के लिये उपयोग की जा रही प्रति व्यक्ति भूमि हैक्टेयर में निरंतर गिरावट हो रही है जिस कारण खाद्यान्न उत्पादन में भी निरंतर गिरावट देखने को मिल रही है । स्वतंत्रता प्राप्ति के 60 वर्ष पश्चात भी केवल 40 प्रतिशत कृषि क्षेत्र सिंचाई के आधीन है तथा 60 प्रतिशत कृषि फसलें आज भी वर्षा के आधीन हैं ।
इस कारण कृषि उत्पादन में जोखिम व अनिश्चितता का वातावरण बना रहता है । बढ़ती जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति के लिये प्रति इकाई भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के अलावा और कोई उपाय नहीं है । खाद्य सुरक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति के लिये आंदोलन का प्रारंभ 1969 में किया गया ।
इसी क्रम में भूमि सुधार कार्यक्रम 1960-61 में किया गया । इस कार्यक्रम के दौरान जमींदारी व जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन, भू जोतों की अधिकतम सीमा, काश्तकारों की सुरक्षा, चकबंदी जैसे कार्यक्रमों को प्राथमिकता प्रदान की गयी । इसके बाद हरित क्रांति से खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि हुई और हमारा देश आत्मनिर्भर बन गया ।
1997-2002 में खाद्य सुरक्षा हेतु किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य प्राप्त हो सके इसे ध्यान में रखते हुये सरकार द्वारा प्रमुख कृषि उपजों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा की गयी, जिससे कृषकों को शोषण से छुटकारा मिला ।
प्राकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़, ओलावृष्टि से किसानों को संरक्षण प्रदान करने के लिये फसल बीमा योजना का शुभारंभ किया गया । गरीब परिवारों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने हेतु सरकार ने 1997 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लागू किया गया, गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों को विशेष राशनकार्ड जारी किये गये ।
वर्ष 2000 में अत्योदय अन्न योजना द्वारा एवं करोड़ निर्धनतम परिवारों को खाद्य सुरक्षा प्रदान की गयी । 35 किलो अनाज रियायती मूल्य पर उपलब्ध एवं 2 रूपये किलो गेहूँ 3 रूपये किलो चावल प्रदान किया गया हे । निर्धन वरिष्ठ नागरिकों के लिये 1 अप्रैल, 2000 को खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत अन्नपूर्णा योजना को प्रारंभ किया गया इन्हें दस किलो अनाज निशुल्क दिया जाता है ।
भुखमरी बढ़ने के कारण केन्द्र सरकार ने वर्ष 2001 में ग्राम पंचायत स्तर पर खाद्यान बैंके की स्थापना की घोषणा की जिससे भुखमरी, अल्पपोषण, कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटा जा सके । इसी तारतम्य में वर्ष 2004 में काम के बदले अनाज योजनाएँ को प्रारंभ किया गया है जिससे कि मजदूर वर्ग को खाद्य सुरक्षा प्रदान की जा सके । भारत सरकार ने 2007 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की स्वीकृति प्रदान की जिसका उद्देश्य खाद्यान्न की बढ़ती मांग एवं पूर्ति के बीच संतुलन स्थापित किया जा सके ।
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि पर विपरीत प्रभाव:
वर्तमान में खाद्य सुरक्षा के समक्ष विश्व जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्या है जिसके कारण फसल उत्पादन संबंधी, मानव स्वास्थ्य संबंधी ओर मौसम की विषमतायें संबंधी समस्याऐं सामने आ रही हैं । विश्व जलवायु परिवर्तन के कारण मानव, पेड़ पौधों, जीव जन्तुओं का विकास और वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ है ।
साथ ही ग्लोबलवार्मिंग के कारण कहीं सूखा, कहीं लू, कहीं बर्फ, तो कहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं । इससे फसल चक्र भी अनियमित हो गया है तथा उत्पादन और उत्पादकता दोनों प्रभावित हो रहे हैं । फसल चक्र में महत्वपूर्ण घटक जल का अत्यधिक दोहन होने के कारण सिंचित क्षेत्रों में सतही व भूमिगत जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, जिसका फसल की उपजाऊपन व फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
फसलों की सिचाई उत्पादकता बढ़ाने के लिये की जा रही है, जिससे जल का अपव्यय तो होता ही है । साथ ही उर्वरक भूमि भी खराब होने लगती है । जिससे अनाज का उत्पादन घटने लगता है, इसी के साथ ही बढ़ती जनसंख्या के कारण बीज, खाद, पानी, बिजली जैसी कृषि के लिये आवश्यक सुविधाओं के महंगे होने के कारण कृषि घाटे का सौदा बन कर रह गयी है ।
खेती पर मंडराते सकट के बादलों के कारण किसान पलायन कर रहे हैं जो कि खाद्य सुरक्षा के लिये शुभ सकेत नहीं है । अत्यंत दु:ख की बात है यह भी है कि एक ओर भारतीय किसान ऋण ग्रस्तता कि बोझ तले दबा हुआ है वहीं दूसरी ओर अशिक्षित होने के कारण तकनीकी ज्ञान एवं दक्षता की कमी है, जिसके कारण फसलोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
कृषि उत्पादकता बढ़ाने हेतु सुझाव:
कृषि उत्पादन की सर्वप्रथम आवश्यकता पानी को माना गया है । सिचाई की विधि का चुनाव भूमि की विशेषतायें, कोई जाने वाली फसलों, सिचाई की नालियों की क्षमता, सिचाई स्त्रोतों का आकार, सिचाई जल के गुण, जलवायु परिवर्तन की परिस्थितियों के आधार पर दिया जाता है । सिंचाई के लिये वर्तमान में स्प्रिंगलर खेती को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है जिससे जल के उपयोग की क्षमता को बढ़ाया जा सकेगा ।
पौधों की आवश्यकता के अनुसार मृदा में उचित प्रकार के उर्वरक का उचित मात्रा में प्रयोग करना श्रेयस्कर होगा । कृषि में विविधिकरण द्वारा विभिन्न फसलों के क्षेत्र को बढ़ाने की जरूरत है तथा साथ ही अधिक उपज देने वाली किस्मों में सुधार एवं उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी । सघन फसल पद्धति को अपनाना होगा ।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक समान मूल्यों पर आधारित हो जो कि गरीबों को उपलब्ध हो सके । भोजन का आवंटन घर में उपभोक्ता इकाईयों की संख्या पर निर्भर हो । किसानों को उनके फसलों का उचित मूल्य मिलना चाहिये ताकि वे अधिक खाद्यान्न उत्पन्न करें जिससे देश को खाद्यान्न आयात न करना पड़े ।
किसानों को बीज, खाद्य, उर्वरक, डीजल. बिजली सस्ती दर पर उपलब्ध कराकर सीधे सब्सिडी का लाभ दिया जाना चाहिये । किसानों को आसान किश्तों पर कर्ज कम ब्याज दर पर मिलना चाहिये । खाद्यान्नों के लिये कीटनाशकों का प्रयोग कम से कम करना चाहिये जिससे स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव न पड़े ।
खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने हेतु सुझाव:
(i) खाद्य एवं कृषि के क्षेत्र को विकसित करना ।
(ii) खाद्य के लिये प्रत्यक्ष साधन की आय प्रदान करते है उनसे खाद्य पदार्थ खरीदे जा सकते हैं ।
(iii) भूमि तथा अन्य प्राकृतिक साधनों तक पहुंच को प्रोन्नत करना ।
(iv) स्वरोजगार के अवसरों का विस्तार करना ।
(v) आय हस्तांतरण योजना को चालू करना ।
(vi) ऐसे ग्राम विकास को प्रोन्नत करना, जो अधिक गरीब है ।
(vii) खाद्य-पूर्ति और खाद्य कीमतों को स्थिर करना ।
(viii) गरीब परिवारों को सस्ती ब्याज दर पर उधार उपलब्ध कराना ।
(ix) प्राकृतिक विपत्तियों जैसे- बाढ़, सूखा, भूकम्प आदि के दौरान खाद्य सहायता उपलब्ध कराने की प्रक्रिया में सुधार करना ।
(x) खाद्य सुरक्षा हेतु पोषण सम्बन्धी भिन्न सरकारी योजनाऐं जैसे प्रायोगिक पोषण प्रोजेक्ट, विशेष पोषण प्रोग्राम, समन्वित बाल विकास योजना,
दोपहर के भोजन का प्रोग्राम आदि को अपनाना ।