सामाजिक आंदोलनों पर निबंध | Essay on Social Movements in Hindi!

Essay # 1. सामाजिक आंदोलन का अर्थ (Meaning of Social Movements):

विगत वर्षों में विद्वानों द्वारा सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन में विशेष रुचि दिखाई गई है । इस क्षेत्र में साहित्य का तेजी से विस्तार हो रहा है । सामाजिक आंदोलनों का स्वरूप राजनीतिक दलों व हित समूहों सहित राजनीतिक सहभागिता के परंपरागत रूपों से कुछ भिन्न है । सामाजिक आंदोलनों के इस स्वरूप को स्पष्ट करना ही इस साहित्य का मूल विषय है ।

आंदोलन किसी उद्देश्य को बढ़ावा देते हैं । ये निश्चित लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करते है और ये आंदोलन अपनी विविधताओं को भी दर्शाते है । आंदोलन सामाजिक तंत्र (नेटवर्क) द्वारा गतिशील होने पर ही सफलता पाते है । लोग ही इस बात का निर्णय करते हैं कि सामूहिक कार्यवाही की जाए या नहीं । पारस्परिक संवाद और सामाजिक तंत्र ही सामाजिक आंदोलनों में ”सामाजिक” शब्द को परिभाषित करते है ।

इसी प्रकार यदि राजनीतिक अवसर ज्यादा हों तो आंदोलनों का निर्माण होता है । अधिक अवसरों के कारण सहयोगी तत्त्व प्रकाश में आते हैं और प्रतिकूल तत्वों की कमजोरियों से भी पर्दा उठाया जा सकता है । सामूहिक प्रयास एकजुट करके संगठनकारी तत्त्व सूत्रधार बन जाते हैं जो बाहरी अवसरों संगियों और संसाधनों को आंदोलनों में बदल देते है ।

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विवादास्पद मुद्दे, सामाजिक तंत्र और सांस्कृतिक संरचनाएं लोगों की एकजुटता को शिथिल कर देती है । इसकी वजह से आंदोलनों की गतिशीलता में बाधा उत्पन्न होती है । सामाजिक दोलनों के सम्मुख दुविधात्मक स्थिति होती है क्योंकि वे घटनाक्रम जो सामूहिक कार्यवाही के लिए प्रेरित करते हैं उनमें नियंत्रण की शक्ति नहीं होती ।

इस असमंजस के आंतरिक और बाहरी आयाम दोनों है । आंतरिक रूप से आंदोलन जनसाधारण को उन तत्त्वों पर सक्रियता दिखाने के लिए प्रेरित करते हैं जिन पर उनका नियंत्रण नहीं होता । इसके द्वारा आंदोलन में सामूहिक सक्रियता को बढ़ावा

मिलता है । हालांकि, आंदोलन में समर्थकों का नेतृत्व भी इसके विस्तार को बढ़ाने में मदद करता है । आंदोलन को खड़ा करने वाले बाहरी अवसरों के कारण ये दलबंदी को भी बढ़ावा देते हैं ।

टैरी आंदोलनों को जनसाधारण द्वारा संगठित चुनौतियों का नाम देते है जिनके उद्देश्य समान होते हैं और विशिष्ट वर्ग प्रतिपक्षियों एवं सत्ताधारियों के साथ पारस्परिक संवाद द्वारा वे अपने आंदोलन को मजबूती के साथ बनाए रखते है । अत: इसकी चार आनुभाविक विशेषताएँ हैं- प्रथम- संगठित चुनौती, दूसरा, आंदोलन का एक साझा उद्देश्य, तीसरा यह उन कर्ताओं के बीच दृढ़ता पर आधारित है जो निरंतर संवाद में विश्वास रखते है ।

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विलकिंसन का मत है कि समाज में क्रांतिकारी बदलाव लाने की प्रतिबद्धता एक सामाजिक आंदोलन की महत्वपूर्ण विशेषता होती है । इन्हें रचनात्मक और निर्माणात्मक तत्व कहा जा सकता है । सामूहिक गतिविधियां कई प्रकार की हो सकती हैं, जैसेकि अल्पकालिक या निरंतरशील संस्थानीकृत, आकस्मिक इत्यादि । ये संगठित समूहों द्वारा संस्थाओं के भीतर संचालित होती हैं और इसके सदस्य उद्देश्यों के नाम पर कार्य करते हैं ।

ये गतिविधियां विवादास्पद तब बनती है जब इसका सहारा वे लोग ले लेते है जिनकी संस्थाओं तक पहुंच नहीं होती । वे नए या अस्वीकृत दावों के आधार पर काम करने लगते है और इस प्रकार दूसरी को मौलिक रूप से चुनौती देते है । संघर्षशील सामूहिक गतिविधि सामाजिक आंदोलनों का आधार होती है क्योंकि यही वह माध्यम है जिसके द्वारा सर्वसाधारण साधन संपन्न प्रतिपक्षियों का सामना करते हैं ।

प्रतिपक्षियों को चुनौती देते समय सामाजिक आंदोलन एकात्मकता का परिचय देते हैं । कभी-कभार आंदोलनों को राज्य के दमन का भी सामना करना पड़ता है । आंदोलन में शक्ति को बढ़ावा तब मिलता है जब आम लोग विशिष्ट वर्ग सत्ताधारियों और प्रतिपक्षियों से हाथ मिला लेते हैं । आंदोलनों का निर्माण तब होता है जब उन सामाजिक कर्ताओं के लिए राजनीतिक अवसर खुल जाते हैं जिनके पास प्राय: इनका अभाव होता है ।

Essay # 2. सामाजिक आंदोलनों की विशेषताएं (Characteristics of Social Movements):

समाजशास्त्रियों, राजनीतिक विद्वानों आदि द्वारा विभिन्न परिभाषाएं देने के बावजूद सामाजिक आंदोलनों की परिभाषा को लेकर सर्वसम्मति का अभाव है । पहले सिद्धांतकार आंदोलनों के तीन तथ्यों पर प्रकाश डालते थे । ये तीन तथ्य है अतिवाद और हिंसा । औद्योगिक और फ़्रांसीसी क्रांतियों के साथ-साथ फांसीवाद नाजीवाद और स्टालिनवाद में हिंसा और अतिवाद अथवा उग्रवाद के लक्षण मौजूद थे ।

ADVERTISEMENTS:

यहां सामाजिक आंदोलनों की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है । इसकी अन्य विशेषताएं है- संगठित चुनौती, साझा उद्देश्य एकात्मकता और संगठनात्मक संरचना ।

i. सामूहिक चुनौती:

सामूहिक गतिविधियों के कई रूप है जैसेकि मतदान, हित समूहों में गठबंधन फुटबॉल मैच आदि, पर ये सब सामाजिक आंदोलनों को नहीं दर्शाते । विशिष्ट वर्ग अधिकारी वर्ग सांस्कृतिक मान्यताओं और अन्य गुटों के विरुद्ध प्रत्यक्ष और विघटनकारी गतिविधि द्वारा आधिपत्यपूर्ण शक्ति संरचना को चुनौती देना आंदोलन है । संगठित चुनौती ही एकमात्र गतिविधि नहीं होती ।

आंदोलनों में सदस्यों का विशिष्ट प्रोत्साहन, समर्थकों के बीच सर्वसम्मति का निर्माण करना सत्ताधारियों के साथ वाद-संवाद में भाग लेना और सांस्कृतिक रूढ़ियों को चुनौती देने जैसी प्रक्रियाएँ भी शामिल होती है । हालांकि, संगठित या सामूहिक चुनौती सामाजिक आंदोलनों की सबसे प्रमुख विशेषता होती है ।

संसाधनों (पूंजी, संगठन, राज्य तक पहुंच) के अभाव में संगठन सामूहिक चुनौती का प्रयोग समर्थकों का नेतृत्व हासिल करने और प्रतिपक्षियों का ध्यान आकर्षित करने के लिए करते है ।

ii. समान उद्देश्य एवं:

प्रतिपक्षियों, सत्ताधारियों या विशिष्ट वर्ग के विरुद्ध एक समान दावा ही वह कारण है जिसकी वजह से जनता संगठित होकर आंदोलन करती है । साझे या आच्छादित हित एवं मूल्य ही उनकी सामूहिक गतिविधियों का आधार होते हैं । हंसी और खेल तथा जन आक्रोश दोनों ही सिद्धांत साधन-संपन्न सत्ताधारियों के विरुद्ध सामूहिक गतिविधि में शामिल खतरा को अनदेखा करते है ।

iii. एकात्मकता:

हित सामाजिक आंदोलन का एक सामान्य और प्रभावकारी लक्षण है । सहभागियों के साझे हित ही आंदोलन को एकजुट करते हैं । सर्वसम्मति को सक्रिय बनाकर आंदोलन के सूत्रधार ऐसे सामंजस्य को बल प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है । नेतागण एकात्मकता अथवा पहचान की भावनाओं को गहराई से जोड़कर सामाजिक आंदोलन का निर्माण करते हैं ।

यही कारण है कि अतीत में सामाजिक वर्ग की बजाय राष्ट्रवाद एवं नृजातीयता (वास्तविक आस्था पर आधारित) आंदोलन के गठन के सबल आधार थे । इस प्रकार सामाजिक आंदोलन उपद्रव या जन उत्पात से भिन्न हैं क्योंकि दगो में हिस्सा लेने वाले लोगों में एकात्मकता का अभाव होता है ।

iv. सामूहिक गतिविधि को प्रबल करने वाली संगठनात्मक संरचना:

संगठित आंदोलनों से पूर्व दंगे विद्रोह और उपद्रव होते थे । विरोधियों के खिलाफ सामूहिक कार्यवाही ने कलहकारी घटनाओं को सामाजिक आंदोलन में बदल दिया । राजनीतिक अवसर की संरचना में बदलाव सामूहिक सक्रियता के लिए प्रेरणास्रोत हैं । सामूहिक गतिविधियों का विस्तार-क्षेत्र और समय-सीमा सामाजिक तंत्र द्वारा लोगों की गतिशीलता और उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़े प्रतीकों पर निर्भर है ।

उन्नीसवीं सदी के दौरान संस्थात्मक राजनीति में चुनाव अभियान और हड़तालों ने ध्यान आकर्षित किया । इस प्रकार भविष्य का स्वरूप इस बात पर निर्भर नहीं कि सामूहिक कार्यवाही का असर कितना उग्र या व्यापक होगा बल्कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसे किस प्रकार से ग्रहण किया जाता है और यह राष्ट्र-राज्य स्वयं पार-राष्ट्रीय एवं महाराष्ट्रीय निकायों के साथ तालमेल बैठा रहा है इसलिए शायद सामाजिक आंदोलन भी सामंजस्य कायम कर लेगा ।

हालाँकि, सामाजिक आंदोलनों के स्वरूप को स्पष्ट करना सरल लगता है पर साथ ही यह विरोधाभासपूर्ण भी है । डायनी का मानना है कि सामाजिक आंदोलनों को हमेशा ही व्यवस्था-विरोधी पद्धतियाँ अपनाने की जरूरत नहीं होती और न ही वे उस ढीली संगठनात्मक संरचना में विश्वास रखते हैं जिससे आंदोलन का गठन होता है ।

कभी-कभार आंदोलन श्रेणीबद्ध भी होते हैं जैसेकि हरित शांति आंदोलन शिष्टता । इस प्रकार डायनी सामाजिक आंदोलनों को राजनीतिक या सांस्कृतिक विवादों में शामिल विभिन्न लोगों समूहों संगठनों आदि के बीच अनौपचारिक संवादों का तंत्र मानते हैं ।

Essay # 3. सामाजिक आंदोलनों के अध्ययन में सैद्धांतिक उपागम (Theoretical Approaches to the Study of Social Movements):

जब कुछ प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया जाता है तो एक सिद्धांत का जन्म होता है । सामाजिक आंदोलन पर बने महान साहित्य के आधार पर विभिन्न सिद्धांतकारों ने मूलत: तीन प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश की है ।

(i) कारणों में अतर के बावजूद लोग सामूहिक कार्यवाही क्यों करते हैं ? उन्हें ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए ?

(ii) जब वे ऐसा करते हैं तो क्यों करते हैं ?

(iii) सामूहिक गतिविधि के क्या परिणाम हो सकते है ?

सामाजिक आंदोलन सिद्धांत के अवलोकन की दृष्टि से (उदाहरणार्थ- स्टॉक, 1995; बनी 1997; डैला पोर्टा एवं डायनी, 1999) सामाजिक आंदोलनों को समझने के लिए हम विभिन्न दृष्टिकोणों (उपागमों) का अध्ययन कर सकते हैं जैसे कि सामूहिक आंदोलन सिद्धांत, साधन संचालन सिद्धांत, राजनीतिक अवसर संरचना ।

i. सामूहिक गतिविधि सिद्धांत (Collective Movements Theory):

सामूहिक गतिविधि का सिद्धांत इस बात पर आधारित है कि सामूहिक हित के आधार पर लोग प्रतिक्रिया दर्शाने के लिए कैसे तैयार हो जाते हैं । मार्क्स, लेनिन और ग्राम्शी ने इस बात पर ध्यान दिया है कि सामूहिक आंदोलन का गठन किस प्रकार होता है ।

हालांकि, उन्होंने सामाजिक संरचना सर्वसाधारण के बीच संबंध पर बहुत कम ध्यान दिया है पर वे उस सामूहिक सक्रियता की समस्या को समझ गए जो सामाजिक संरचना में व्याप्त है । मार्क्स के अनुसार- लोग सामूहिक गतिविधियों में तभी हिस्सा लेंगे यदि उनके प्रतिरोधियों के साथ-साथ उनका अपना सामाजिक वर्ग भी पूर्ण विकसित होगा ।

पश्चिमी सर्वहारा वर्ग के संदर्भ में इसका अर्थ है कि पूंजीवाद उन्हें जबरन बड़े पैमाने के उन कारखानों में काम करने के लिए विवश करेगा जहां अपने उपकरणों पर श्रमिकों का स्वामित्व न हो पर वे सामूहिक प्रतिक्रिया दर्शाने के लिए संसाधनों का विकास कर सकते हैं ।

ऐसे संसाधनों में वर्ग-चेतना और संघ निर्माण शामिल है । तथापि पूंजीवाद से जुड़े राष्ट्रवादी एवं संरक्षणवादी मजदूरों का मत है कि वर्ग-चेतना की बजाय उनकी ओर से सामूहिक प्रतिक्रिया की जरूरत अधिक है ।

लेनिन ने संगठनात्मक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया । उन्होंने पेशेवर क्रांतिकारियों के श्रेष्ठजन का समाधान प्रस्तावित किया । मार्क्स के सर्वहारा का प्रतिनिधित्व करते हुए यह अग्रगण श्रमिकों के ”यथार्थ हित” के स्व-नियुक्त संरक्षक की भूमिका निभा सकता है । लेनिन को संगठन सामूहिक गतिविधि की समस्या का समाधान दिखाई दिया ।

अग्रगण या संरक्षण की धारणा उस ऐतिहासिक स्थिति की संगठनात्मक प्रतिक्रिया थी जिसमें श्रमजीवी वर्ग स्वयं क्रांति लाने में असमर्थ था । पर इसने ”चेतना” लाने के लिए नेताओं द्वारा पथ प्रदर्शन की भावना को बल प्रदान किया । यह प्रवृत्ति यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र में पहले से ही मौजूद थी ।

जब लेनिन पश्चिम में क्रांति लाने में असफल हुए तब ग्राम्शी जैसे मार्क्सवादी ने अनुभव किया कि पश्चिमी समाजों में श्रमिकों की स्व-चेतना का विकास करके क्रांति लाने में सिर्फ संगठन ही पर्याप्त नहीं थे । उन्होंने वैचारिक सामूहीकरण की बात की यानी श्रमिक वर्ग से आए बुद्धिजीवी जो पार्टी के बुद्धिजीवी वर्ग के संपूरक होगे ।

इस प्रकार जहां लेनिन ने संगठनात्मक जरूरत की बात की वहां ग्राम्शी ने सर्वसम्मति की आवश्यकता पर बल दिया । लेनिन की मान्यता थी कि नेताओं के अग्रदूत बुद्धिजीवी वर्ग से आएंगे जबकि ग्रान्ती ने नेतृत्व और नेतृत्व क्षमता के अनेक स्तरों की जरूरत महसूस की । इन तीनों ही सिद्धांतकारों ने सामूहिक गतिविधि के संरचनात्मक आधार के विभिन्न तत्वों पर बल दिया ।

मार्क्स ने पूंजीवादी समाज के मौलिक मतभेदों पर एक ऐसा लेख लिखा जिसने आंदोलन की गतिशीलता और आंदोलन के निर्माण के लिए संगठन की रूपरेखा का प्रतिपादन किया और प्राणी ने व्यापक सर्वसम्मति के निर्माण के लिए सांस्कृतिक आधार को जरूरी बताया ।

अत: सामाजिक आंदोलन का आधुनिक सिद्धांत इन तीन दशाओं पर आधारित है । यद्यपि, मार्क्स ने राजनीति के स्वतंत्र प्रभाव को कम महत्त्व दिया है तथा लेनिन और ग्रामशी ने श्रमिकों पूंजीपतियों व राज्यों के बीच पारस्परिक प्रक्रिया के रूप में अपनी राजनीति के मूल्यांकन में आधुनिक आंदोलन सिद्धांत की जरूरत महसूस की ।

इस प्रकार मार्क्सवादियों ने इस बात को जानने की कोशिश की कि सामूहिक गतिविधि किस प्रकार होती है । उस समय के सिद्धांतकारों ने इसका आक्रोश और क्रोध के आकस्मिक प्रस्कुटन के आधार पर मूल्यांकन किया । सापेक्ष वचन की घटनाओं ने विश्लेषण का विस्तार किया । इन्हें गैर-लोकतांत्रिक माना गया ।

ii. साधन संचालन सिद्धांत (Resource Mobilization Theory):

1970 के दशक में सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतकारों ने नागरिक अधिकार आंदोलन, नारीवादी आंदोलन आदि अपने समय के आंदोलनों के आधार पर यह तर्क दिया कि आंदोलन के संचालक साधनविहीन नहीं बल्कि खिन्न और असंतुष्ट थे । परिणामस्वरूप इस असंतोष के विरोध में सामाजिककर्ता विभिन्न वर्गीय पृष्ठभूमियों से आए । सामाजिक आंदोलनों के कर्ता बौद्धिक प्राणी होते हैं जो एक संपोषित गतिविधि के माध्यम से अपने साझे उद्देश्यों को हासिल करने का प्रयास करते हैं ।

iii. राजनीतिक अवसर संरचना (Political Opportunity Structure)

यदि राजनीतिक अवसर हों तो जनता सामाजिक आंदोलन में भाग लेती है और सामूहिक कार्यवाही द्वारा वह नए आंदोलनों को भी जन्म देती है । राजनीतिक अवसर आंदोलन की शक्ति को गतिशील बनाते हैं । जिन समूहों के पास राजनीतिक सुअवसर होते है वे अपनी छोटी-मोटी शिकायतों और अपर्याप्त आंतरिक सोती के बावजूद भी आंदोलन के रूप में प्रकट हो सकते हैं । इसके विपरीत, वे समूह जिनकी समस्याएँ भी गंभीर होती है और संसाधन होते हैं पर अवसरों का अभाव हो तो वे उभर ही नहीं पाते ।

राजनीतिक सरचना समूह के बाहरी संसाधनों पर बल देती है जिनका दुर्बल और असंगठित चुनौतियों के बावजूद लाभ उठाया जा सकता है। जब आम नागरिकों को कभी-कभार नेतागण प्रोत्साहित करते हैं तब सामाजिक आंदोलन प्रतिक्रिया दिखाते है और ये अवसर हर प्रकार के गठबंधन से पर्दा उठाते हैं व यह दर्शाते हैं कि विशिष्ट वर्ग और अधिकारी वर्ग की कमजोरियां क्या हैं।

इस प्रकार राजनीतिक अवसर संरचना विभिन्न गतिशील कारकों को समझने में मदद करती है। पहला यह सामाजिक आंदोलनों पर बदलाव के असर को समझने में मदद करती है। इसके अध्ययन में अमेरिकी साहित्य का बहुत बड़ा योग है।

इसके अलावा विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाओं के संदर्भ में पार-राष्ट्रीय तुलनात्मक आदोलनों का अध्ययन भी शामिल है।

डैला पोर्टा और डायनी (1989 पू. 12) के अनुसार- राजनीतिक अवसर संरचना में विभिन्न संदर्भगत तत्त्व शामिल हैं जैसेकि:

(a) राजनीतिक संस्थाएं,

(b) राजनीतिक संस्कृति,

(c) सामाजिक आंदोलनों के प्रतिपक्षियों का आचरण,

(d) मित्र राष्ट्रों का आचरण ।

iv. नव सामाजिक आंदोलन उपागम (New Social Movement Approaches):

सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतकारों का कहना है कि सामाजिक आंदोलनों ने बड़े-बड़े सामाजिक बदलाव उत्पन्न किए है जबकि अमेरिकी अध्ययन के मुताबिक सामूहिक गतिविधि पर साधन संचालन सिद्धांत का प्रभाव दिखता है । अपने स्वरूप के कारण युक्तिपरक तत्त्वों की बुनियाद संसाधन संरक्षण के लिए औपचारिक संगठन निर्माण द्वारा यांत्रिक क्रियाविधि पर आधारित हो गई है ।

कुछ विद्वानों ने इस दृष्टिकोण पर प्रश्नचिह्‌न लगाए है तो कुछ ने इसकी आलोचना की है । इस विवेचन ने विभिन्न आयामों से आंदोलनों को समझने की संकल्पनाओं का निर्माण किया है । नव सामाजिक आंदोलन सिद्धांत का सार यूरोप के सामाजिक सिद्धांत और राजनीतिक दर्शनशास्त्र में मिलता है । इस दृष्टिकोण की उत्पत्ति सामूहिक गतिविधि के विश्लेषण में परंपरागत मार्क्सवाद की कमियों के फलस्वरूप हुई ।

एक नव सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतकार के अनुसार परंपरागत मार्क्सवाद दो प्रकार की सीमाओं के कारण सामूहिक गतिविधि के समकालिक रूप को पूरी तरह स्वीकृत नहीं कर पाया । पहला मार्क्सवाद आर्थिक परिवर्तनवाद की मान्यता है कि सभी प्रकार की राजनीतिक गतिविधियाँ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का परिणाम हैं । फलत: अन्य सभी सामाजिक तर्क गौण हैं ।

दूसरे, मार्क्सवादी विश्लेषण सामूहिक गतिविधि को बढ़ावा देने वाले अन्य सभी सामाजिक तत्त्वों को अनदेखा करके उन्हें अर्थव्यवस्था के वर्गीय तत्त्वों तक ही सीमित कर देता है | नव समाजिक आंदोलन के विचारक सामूहिक गतिविधि को परिभाषित करने के लिए राजनीति विचारधारा संस्कृति आदि अन्य तत्त्वों पर आधारित कारकों जैसेकि नृजातीयता और समाज की लिंग व्यवस्था पर भी ध्यान देते हैं ।

अत: नव सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतकार सर्वहारा क्रांति से जुड़े पुराने समाज आंदोलन सिद्धांत की जगह सामूहीकरण गतिविधि के विभिन्न विन्यास की बात करते हैं । हालांकि, नव सामाजिक आंदोलन सिद्धांत मार्क्सवाद के विपरीत आलोचनात्मक प्रतिक्रिया है परंतु कुछ नए सामाजिक आंदोलन सिद्धांतकारों ने मार्क्सवाद में संशोधन का प्रयास भी किया है ।

नव सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतकारों ने कई रूपातरों को ध्यान में रखा है । सर्वप्रथम, यह सिद्धांत उस नागरिक समाज या सांस्कृतिक क्षेत्र में सांकेतिक क्रियाविधि को रेखांकित करता है जिसमें सामूहिक गतिविधि के साथ-साथ राजनीतिक क्षेत्र की गतिविधि भी शामिल है |

दूसरा, इस आंदोलन के सिद्धांतकार उस प्रक्रिया के महत्त्व पर बल देते है जिससे आंदोलन का निर्माण होता है और जो शक्ति का आकलन करने के बजाय स्वसंचालन और आत्मनिर्णय का संचार करती है । तीसरा, कुछ सिद्धांतकार संसाधनों पर विवाद के समक्ष सामूहिक गतिविधि में उत्तर-भौतिकवादी मूल्यों की भूमिका पर बल देते है । चौथा, नव सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतकार सामूहिक पहचान निर्माण की प्रक्रिया को संरचनात्मक कारकों पर आधारित न मानकर इस प्रक्रिया को समस्यात्मक बनाने की कोशिश करते हैं ।

पांचवां ये सिद्धांतकार केवल समूह या वर्ग की अवस्थिति पर नहीं बल्कि सामाजिक रूप से निर्मित विचारधारा के स्वरूप पर बल देते हैं । अंतत: नव सामाजिक आंदोलन केंद्रीकृत जालतंत्र (नेटवर्क) पर बल देने के बजाय आंदोलन को बनाए रखने वाले कई पारस्परिक तंत्रों को मान्यता देते हैं । नव सामाजिक आंदोलन के सभी सिद्धांतकार सामाजिक संपूर्णता के कुछ ऐसे मॉडलों की बात करते है जो सामूहिक गतिविधि की उत्पत्ति के लिए संदर्भ प्रदान करते हैं ।

गेल ओमवेट ने नव सामाजिक आंदोलनों की परिभाषा करते हुए निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया है । सर्वप्रथम, सामाजिक बदलाव के उद्देश्य से व्यापक संगठन संरचना और विचारधारा पर आधारित होने के कारण ये आंदोलन स्वयं में नए इसलिए हैं क्योंकि ये अपनी विचारधारा के माध्यम से अपने दमन और शोषण की अभिव्यक्ति करते है और ”नए” संदर्भ में इस दमन व शोषण से मुक्ति का संबंध परंपरागत मार्क्सवाद से है और वह भी सुस्पष्ट अंतरों के साथ ।

इन्हें केवल मजदूर वर्ग के संरक्षकों के नेतृत्व में संचालित होने वाले मात्र ”लोकप्रिय आंदोलन” नहीं माना जा सकता । तीसरे, ये ऐसे समूह है जिन्हें परपरानिष्ठ मार्क्सवादियों ने अनदेखा कर दिया था जैसेकि दलित क्षुद्र महिलाएं आदि या फिर नए पूंजीवाद से जुड़ा शोषित वर्ग (नव किसान आंदोलन) । ”निजी संपत्ति” और ”मजदूर श्रम” की पूर्वधारणा के कारण इन पर विचार ही नहीं किया गया ।

नव सामाजिक आंदोलन की उपरोक्त वर्णित विशेषताओं के बावजूद महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या सभी नए आंदोलन एकसमान है अथवा एक-दूसरे से भिन्न है । चूंकि ये आंदोलन उत्तर-भौतिकवादी मूल्यों का समर्थन करते हैं, ये अनौपचारिक संगठन है और एक नए सांस्कृतिक विन्यास के साथ उभरे हैं इसलिए इस श्रेणी को अन्य दिशाओं से चुनौतियों का सामना करना पड़ा है ।

कुछ विद्वानों का मत है कि कुछ ऐसे आंदोलन जिन्हें नव सामाजिक आंदोलन नहीं माना जाता उनमें भी ऐसी विशेषताएँ पाई जाती हैं । नव सामाजिक आंदोलनों की इसलिए भी आलोचना की जाती है कि वे एक ओर तो नए आंदोलनों के ऐतिहासिक पूर्ववर्ती की ओर सकेत करते हैं तो दूसरी ओर, इस बात पर कि किस प्रकार नव सामाजिक आंदोलनों की श्रेणी क्रमिकता को छिपाती है और पुराने एवं नए आंदोलनों के मध्य अतर को बढ़ाती है ।

नव सामाजिक आंदोलनों की संकल्पना को चुनौती देना तो आसान है पर ”नए” सामाजिक आंदोलनों की श्रेणी को नकारना व गलती होगी । नि:संदेह सामाजिक

आंदोलन का इतिहास यह दर्शाता है कि कुछ ” नया ” घटने जा रहा है। कुछ ”नए” का सबंध सार्वजनिकता से है। इसके अलावा । इसका संबध अर्ध-राजनीतिक अभिव्यक्ति तथा निजी एवं आत्मनिष्ठ तत्त्वों की खोज से भी है । इसका यह अर्थ नहीं कि किसी अलग प्रकार के ”नए” ने सामाजिक आंदोलनों की पुरानी कोटि का स्थान ले लिया है। कुछ ऐसे परिवर्तन हो गए है जिनका संबंध सार्वजनिक व निजी की अस्पष्टता जैसे समकालिक समाज के वृहत् स्तरीय संगठनों और राजनीतिक जीवन में व्यवस्थित आदेशकों की प्रबलता दोनों से है ।

नव सामाजिक आंदोलन सिद्धांत में सांकेतिक प्रतिक्रिया 9 आत्मनिर्णय उत्तर-भौतिकवादी मूल्य सामूहिक पहचान, समस्याओं की अभिव्यक्ति और संरचनाओं के सम्मुख चुनौतियों पर बल देने के साथ-साथ समकालिक सामाजिक सक्रियतावाद के बारे में पर्याप्त जानकारी है । इस प्रकार नव सामाजिक आंदोलनों ने सामाजिक आंदोलन ”क्यों” से ध्यान हटाकर सामाजिक आंदोलन ”कैसे” पर केंद्रित किया है ।

Essay # 4. विश्व सामाजिक फोरम (World Social Forum):

विश्व सामाजिक फोरम कोई संगठन नहीं है और न ही यह कोई संयुक्त मोर्चा मच है बल्कि ‘यह तो नागरिक समाज व आंदोलनों के लिए विमर्शपूर्ण चिंतन विचारधारा के लोकतांत्रिक संवाद, प्रस्तावों के प्रतिपादन प्रभावी गतिविधियों के लिए अपने अनुभवों के आदानप्रदान और पारस्परिक संबंधों के उद्देश्य से एक मुक्त सभा क्षेत्र है । नागरिक समाज के ये समूह और आंदोलन नव-उदारवाद तथा पूजी एवं साम्राज्यवाद के किसी भी रूप द्वारा दुनिया में प्रभुत्व के विरुद्ध है और ये मानवता पर केंद्रित समाज की स्थापना के लिए वचनबद्ध है ।

विश्व सामाजिक फोरम पर प्रस्तुत विकल्प उस वैश्वीकरण की प्रक्रिया के विरुद्ध है जिस पर राष्ट्रीय सरकारों के सहयोजन से बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय निगमों और इन निगमों की हितपूर्ति करने वाली सरकारों एवं अतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की पकड़ मजबूत है । इनका निर्माण यह सुनिश्चित करने के लिए हुआ है कि एकात्मक रूप से वैश्वीकरण विश्व इतिहास में एक नए दौर का निर्माण करेगा ।

यह सभी राष्ट्रों के प्रत्येक नागरिक और सार्वभौमिक मानव अधिकारों तथा पर्यावरण का सम्मान करेगा । साथ ही यह सामाजिक न्याय समानता एवं नागरिकों की प्रभुत्ता को सुनिश्चित करके लोकतांत्रिक अतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं और संस्थाओं पर आधारित होगा । विश्व सामाजिक फोरम दुनिया भर के सभी देशों से नागरिक समाज संगठनों व आंदोलनों को आपस में जोड़ता है पर यह विश्व नागरिक समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई निकाय नहीं है ।

विश्व सामाजिक फोरम एक बहुलवादी, परिवर्तनशील, संस्कृति-मुका गैर-सरकारी और गैर-दलीय संदर्भ है जो विकेद्रीकृत रीति से उन संगठनों एवं आंदोलनों को आपस में जोड़ता है जो एक अन्य विश्व के निर्माण के लिए स्थानीय से लेकर अतर्राष्ट्रीय स्तरों तक ठोस कदम उठाने के लिए प्रयत्नशील हैं । विश्व सामाजिक फोरम हमेशा ही एक ऐसा मच रहेगा जो बहुलवाद और इसमें भाग लेने वाले संगठनों एवं आंदोलनों की भिन्न-भिन्न गतिविधियों के लिए खुला रहता है ।

साथ ही यह विभिन्न लिंग व्यवस्थाओं नृजातीयताओं सस्कृतियों, पीढ़ियों और भौतिक क्षमताओं की दृष्टि से भी स्वतंत्र है बशर्ते कि इसके सिद्धातों का पालन किया जाए । इस फोरम पर न ही पार्टी के प्रतिनिधि और न ही सैन्य संगठन भाग ले सकते है । केवल इसके चार्टर की प्रतिबद्धता को स्वीकृत करने वाले सरकारी नेताओं और विधानसभा के सदस्यों को व्यक्तिगत तौर पर इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है ।

विश्व सामाजिक फोरम अर्थव्यवस्था, विकास और इतिहास के सभी सर्वाधिकारवादी एवं नियत्रणवादी विचारो तथा राज्य द्वारा सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में हिंसा के प्रयोग का विरोधी है । यह मानव अधिकारों वास्तविक लोकतंत्र के संचालन सहभागी लोकतंत्र, शांतिपूर्ण संबंध, लोगों के बीच समानता व भाईचारे का सम्मान करता है और हर प्रकार के आधिपत्य एवं व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के दमन की निदा करता है ।

पर्यावरणीय आंदोलन (Environment Movements):

पर्यावरणीय आंदोलन का जन्म के दशक में हुआ । यह उसी तेजी के साथ आगे बढ़ा जिस तेजी के साथ यह शुरू हुआ था । पृथ्वी के प्रवासियों में बढ़ती मांगों और बढ़ती जागरूकता के कारण ही ऐसा संभव हुआ । इस आंदोलन के परिणामस्वरूप बढ़ती जन अपील और विभिन्न कानूनों एवं जीव-विविधता उद्यानों के निर्माण से ही इसकी सफलता का अनुमान लगाया जा सकता है ।

अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में ही इसने लगभग सत्तर पर्यावरणीय कानून लागू करने और राष्ट्रीय पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1969 को पारित कराने में मदद की । यह एक ऐसा अधिनियम है जिसके द्वारा सरकार बेहतर जीवन के लिए न्यूनतम मानदडों को सुनिश्चित करती है । पर्यावरणवाद, वास्तव में एक पर्यावरण आंदोलन है जो दुनिया के सभी हिस्सों में कही कम तो कही ज्यादा तेजी के साथ संचालित हो रहा है ।

अधिकांश देशों मेख पर्यावरणवाद का इतिहास एक जैसी रीति से संचालित हुआ है । समकालिक दशक में यह एक व्यापक सामाजिक आंदोलन बन गया है । पर्यावरणवाद की पहली लहर औद्योगीकरण की शुरुआत के साथ ही आरंभ हो गई थी। यह औद्योगिक क्रांति की नैतिक व सांस्कृतिक समीक्षा पर आधारित थी । औद्योगिक क्रांति से मानव इतिहास में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया । इसने वस्तुओं के उत्पादन से लेकर परिवहन तक प्राकृतिक जगत मैं बड़े-बड़े बदलाव किए । इसने संपूर्ण भू-दृश्य को बदल कर रख दिया ।

प्रौद्योगिकी का जिस तरह से विकास किया गया उससे जनसंख्या में भी इजाफा हुआ । खुले और प्राकृतिक स्थल को फैक्टरियों व शहरों में ढाल दिया गया । इससे न केवल प्रकृति का विनाश हुआ बल्कि मनुष्य को नुकसान पहुंचाने वाली रासायनिक क्रियाओं में भी वृद्धि हुई । प्रदूषण भी बढ़ा । यद्यपि कोई भी पर्यावरणीय आंदोलन नहीं था पर प्रत्येक व्यक्ति ने इस बात का अनुभव किया कि प्रकृति सकट की स्थिति में है ।

यह सब लेखकों की कृतियों और लेखों में नजर आने लगा । वर्ड्सवर्थ जैसे लेखकों ने अपने काव्यों में प्रकृति के विनाश पर चिता व्यक्त की । उन्हें स्वच्छदतावादी कहा जाता था । चार्ल्स डिकस जैसे उपन्यासकार अपने समय की कामकाजी व जीवन सबधी परिस्थितियो की आलोचना के लिए जाने जाते थे । गांधी जी ने मांगो की अधिकता पर खेद प्रकट करते हुए नैतिक मानदंडों और सादे जीवन की बात की ।

दूसरा चरण तब आया जब जन समर्थन द्वारा बुद्धिजीवी प्रतिक्रिया को बल मिला । इसे वैज्ञानिक संरक्षणवाद का नाम दिया गया । इसने पुराने दौर में वापसी नहीं की पर इसने वैज्ञानिक पद्धतियों से औद्योगिक विकास का परीक्षण किया । यह अनुभववाद पर आधारित था जिसके द्वारा विशेषज्ञों ने अत्यधिक औद्योगिक क्रांति की गभीरताओं से निपटने की ओर सकेत किया ।

संरक्षण क्षमता का सिद्धांत था । यह पोषणकारी विकास पर आधारित था ताकि भावी पीढ़ियों के लिए पर्याप्त संरक्षण किया जा सके । सैद्धांतिक रूप से पर्यावरणीय आंदोलन तीन दृष्टिकोणो पर आधारित था । पहले दृष्टिकोण ने नैतिक मूल्यों के आधार पर औद्योगिक क्रांति की समीक्षा की । इसने पुराने दौर में विश्वास दिखाया । दूसरे दृष्टिकोण का विज्ञान द्वारा मौजूदा संसाधनी के संरक्षण में विश्वास था । तीसरा दृष्टिकोण निर्वासन पर आधारित था अर्थात् प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ न की जाए अथवा मानवीय जनसंख्या पर रोक लगाई जाए ।

वैश्विक रूप से पर्यावरणीय आदोलन की शुरुआत रेचल कार्सन की कृति साइलेट स्टिर्ग के साथ हुई । उन्होंने कृत्रिम रूप से बनाए गए पहले जंतुनाशक डीडीटी. के प्रभावों की चर्चा की । उन्होंने यह दर्शाने का प्रयास किया कि किस प्रकार किटाणुओं को मारने वाला यह जंतुनाशक खाद्य शृंखला में आगे बढ़कर मनुष्य तक पहुँचाता है । यह सभी प्राणियों में बीमारियाँ फैलाता है । प्रकृति पर इसके प्रभावों की थोडी सी जानकारी के साथ ही प्रयोगशाला में तैयार ये रसायन खतरनाक साबित हो सकते ।

इस पुस्तक ने विभिन्न प्राणियों के बीच आपसी जटिल सम्बन्धों पर प्रकाश डाला । इसने मनुष्य को यह आभास कराया कि प्रकृति उनसे रहित नहीं है। हालांकि, इस पुस्तक का प्रभाव केवल शिक्षण और वाद-संवाद तक ही सीमित रहा । इस कृति ने कुछ बुद्धिजीवियों के जागरूक बनाया । उन्होंने इन समस्याओं पर चर्चा भी की पर इससे कोई नीतिगत निर्णय सामने नहीं आ सके ।

इस पुस्तक ने कुछ अन्य वाद-विवादों को भी जन्म दिया जैसेकि जर्मन ब्रिटिश विचारक ई.एफ. शूमेशर ने अपनी कृति इकोनामिक्स ऑफ परमानेस में संपोषित अर्थव्यवस्था की बात की । अर्थव्यवस्था तब तक गतिशील नहीं हो सकती जब तक उसका संभरण न किया जाए । इस प्रकार आवश्यकताओं को सीमित किए जाने पर चर्चा की गई। इसने प्रकृति पर प्रहार करने वाली बड़ी-बड़ी और शक्तिमान मशीनों पर नियंत्रण की बात की ।

तथापि इस काल को पोषणकारी पर्यावरण पर महान वाद-विवाद का युग माना जाता है । पर्यावरणीय आंदोलन के दूसरे दौर में हम देखते हैं कि जिस वाद-संवाद का विकास किया गया था उसे क्रियाकलापों में बदल दिया गया ।

हालांकि, यह विवाद कोई आंदोलन नहीं था पर इसने आंदोलन का निर्माण करने में मदद की । किसी भी आंदोलन के लिए एक समान या साझे उद्देश्य की जरूरत होती है। इसकी अनुभूति उन्हीं वाद-विवादों में हो गई थी जो पहले चरण में उत्पन्न हुए थे । यह घटना तब घटी जब 1969 में कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में छात्रों के एक दल ने परिसंवाद (सेमिनार) कक्ष में घुसकर प्रदूषण के खिलाफ नारे लगाने शुरू कर दिए थे । उन्होंने कचरे के ढेर को आग लगा दी और कक्ष को ताला लगा दिया ।

उन्होंने ऊपर से एक मरती हुई बतख वहां छोड़ दी और भीड़ पर गरमाते हुए उसे आगे आकर बचाने के लिए चिल्लाते रहे । इस घटनाक्रम ने विवाद और सक्रियता के बीच अतर को दूर किया । इसने संरक्षणवादियों को जन अधिकारियों के साथ मिलकर राज्य नीतियों को प्रभावित करने के लिए प्रोत्साहन दिया । पर्यावरणीय आंदोलन में विभिन्न योजनाएँ शामिल की गई जैसे कि जागरूकता निर्माण अभियान पृथ्वी दिवस का आयोजन आदि । ये तरीके कम क्रांतिकारी थे। इस आंदोलन के लिए सभी समूहों से समर्थक आगे आए ।

इस आंदोलन में विभाजन के बीज नहीं थे क्योंकि पर्यावरण हर प्राणी पर किसी-न-किसी तरीके से प्रभाव डालता है । इस आंदोलन के रोजाना प्रदर्शन के कारण कुछ समीक्षक सामने आए जो पर्यावरण आंदोलन को अधिक प्रचंड बनाना चाहते थे । उग्र पर्यावरण आंदोलन को आनेस नेइस की कृति डीप इकोलॉजी से प्रेरणा मिली। उनकी कामना प्रकृति को निर्वासित या बेरोक-टोक छोड़ देने की थी ।

उनकी आकाश थी कि मानवकेद्रवाद का स्थान जीवकेद्रवाद अर्थात् जहां विश्व को अन्य प्रजातियों की दृष्टि से देखा जाता है द्वारा ले लिया जाए । एक अन्य प्रकार का पर्यावरणवाद तब शुरू हुआ जब आंदोलन सीधे चुनावी राजनीति में उतर गया । यह जर्मनी में ग्रीन पार्टी की स्थापना के साथ शुरू हुआ ।

1979 में निर्मित ग्रीन पार्टी ने 1983 के चुनावों में बुडेस्टैक में विस्मयकारी प्रवेश किया । यह पहली पार्टी थी जिसने रूडॉल्फ बाहरों के नेतृत्व में यह कहा कि यूरोप और उत्तर अटलांटिक में आर्थिक संवृद्धि तृतीय विश्व के पर्यावरणीय शोषण के कारण ही संभव हुई है । शुरुआत में ग्रीन पार्टी प्रदूषणकारी फैक्टरियों को बद कराने और परमाणु सामग्री के उत्पादन पर रोक लगाने के अभियान चला रही थी ।

इसने दुनिया के सभी हिस्सों का ध्यान आकर्षित किया । परंतु वैश्वीकरण ने अपने इस उद्देश्य में ग्रीन पार्टी को मर्यादित कर दिया । अब यह पर्यावरण के लिए कोई पार्टी नहीं रह गई थी। इसने अपने मतदाताओं को सुरक्षित बनाए रखने के लिए अपनी स्थिति को संतुलित बनाए रखा और यह बस ”सभी पर पकड़” बनाकर रखने वाली पार्टी रह गई ।

आमतौर पर यह मान्यता है कि पर्यावरणवाद धनी राष्ट्रों से जुड़ी प्रक्रिया है । ऐसा इसलिए है क्योंकि संपन्न राष्ट्रों ने आवश्यक वृद्धि दर हासिल कर ली है और अब इन देशों में रहने वाले लोग स्वच्छ हवा, पानी मृदा पर आधारित बेहतर जीवनस्तर और एक खुशहाल एवं स्वस्थ जीवन चाहते हैं । गरीब देश स्वयं पर्यावरणीय आंदोलनों का गठन नहीं कर सकते, हालांकि उपरोक्त उपलब्धियाँ तथाकथित ”धनी देश” हासिल कर रहे हैं पर गरीब देशों में उठे पर्यावरणीय आंदोलन ने काफी सीमा तक अतर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है ।

उदाहरण के लिए मलेशिया के जंगल में शिकारियों और किसानों का एक छोटा-सा समुदाय बसा हुआ है । उनकी भूमि और आवास स्थल पर वाणिज्यिक लकड़हारों ने हस्तक्षेप किया जिससे वहां की मृदा भूमि, नदी आदि पर असर पड़ा । प्रकृति के निकट रहने वाले इस समुदाय ने प्रदर्शन किया और रास्ता जाम कर दिया जिससे उन लोगों को वापस लौट जाना पड़ा । दूसरा उदाहरण है नर्मदा बचाओ आंदोलन ।

यह आंदोलन गुजरात में नर्मदा नदी पर बनाए जा रहे सरदार सरोवर बांध के विरुद्ध मेधा पाटेकर के नेतृत्व में चलाया गया । यह बांध बहुत बड़े भू-भाग को जलमग्न कर सकता था और इसके द्वारा हजारों लोगों को विस्थापित भी होना पड़ा था। तीसरा उदाहरण वगरि मथाई का है जिन्होंने केन्या के ग्रीन बेल्ट आंदोलन की अगुआई की । वह अपने देश की पहली महिला प्रोफेसर थीं जिन्होंने अपने विश्वविद्यालय का पद त्यागकर महिलाओं में वृक्षारोपण के प्रति जागरूकता जगाने के लिए अभियान चलाया ।

उपरोक्त उदाहरण गरीब देशों में पर्यावरणवाद की कुछ प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालते है । प्रथम, अपनी गतिविधियों द्वारा वे सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं । वाणिज्यिक वननाशन, विशाल बाँधो का निर्माण आदि ग्रामीण आजीविका के लिए सकट है । यह आर्थिक समस्या को जन्म देता है जिसके लिए आवश्यक कार्यवाही की जरूरत है । आमतौर पर उपेक्षित वर्ग ही समस्या से जूझता है इसलिए आंदोलन को उस संपन्न वर्ग का समर्थन प्राप्त नहीं है जो विकासकारी गतिविधियों से लाभ उठाते है ।

पीड़ितों द्वारा अपनाई गई पद्धतियों में याचिका दर्ज कराना शामिल है जिससे उन्हें यह उम्मीद होती है कि राज्य उनकी समस्याओं पर ध्यान देगा । चूंकि राज्य इन सब बातों कर देता है इसलिए अभियान चलाए जाते हैं और फिर भूख हडतालों रास्ते जाम आदि के रूप में सीधी कार्यवाही करके आदोलन का गठन किया जाता है । इस आंदोलन को प्राय: देश की महिलाओं का अधिक समर्थन मिला है।

नि:संदेह महिलाओं में एक स्वच्छ और बेहतर पर्यावरण के लिए गहन जागृति है । द्वितीय, महिलाएं अपने दैनिक जीवन के लिए प्रकृति पर अधिक निर्भर हैं । उनकी कार्यशैली कभी भी विनाशकारी नहीं होती क्योंकि उनके मन में हमेशा भविष्य की चिता रहती है ।

इस प्रकार पर्यावरण से जुड़े साहित्य में “पर्यावरणीयनारीवाद” का जन्म हुआ है । उत्तराखड में जो चिपको आंदोलन हुआ था उसमें महिलाओं के समूह ने व्यावसायिकों द्वारा वृक्षों को कटने से बचाने के लिए पेड़ को गले लगा लिया और पीछे नहीं हटी ।

दुनिया भर में पर्यावरणीय आंदोलन ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने में योगदान दिया है । इसने नागरिकता को मजबूत बनाने में मदद की है । पर्यावरणीय विनाश पर काबू पाने के प्रयासों ने असंख्य समूहों को मौलिक अधिकारों की मांगो के लिए एकजुट कर दिया है ।

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