मृदा अपरदन पर निबंध | Essay on Soil Erosion in Hindi language!
अपक्षयित पदार्थों का अन्यत्र स्थानान्तरण ही ‘अपरदन’ कहलाता है ।
अपरदन में भाग लेने वाली प्रमुख प्रक्रियाएँ इस प्रकार हैं:
i. अपघर्षण (Abrasion):
ADVERTISEMENTS:
जब कोई प्रक्रम अपने साथ पत्थर, कंकड़, बालू आदि पदार्थों को लेकर आगे बढ़ती है तो इन पदार्थों के सम्पर्क में आने वाली चट्टानों के क्षरण को अपघर्षण कहते हैं ।
ii. सन्निघर्षण (Attrition):
किसी प्रक्रम के साथ बहने वाले पदार्थों के आपस में टकराकर छोटा होने की प्रक्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं ।
iii. घोलन या संक्षारण (Corrosion):
ADVERTISEMENTS:
घुलनशील चट्टानों जैसे- डोलोमाइट, चूना पत्थर आदि का जलक्रिया द्वारा घुलकर शैल से अलग होना संक्षारण कहलाता है । यह भूमिगत जल एवं बहते जल द्वारा होता है । इससे कार्स्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है ।
iv. जलगति क्रिया (Hydraulic Action):
जब जल की तीव्र गति के कारण चट्टान टूट-फूटकर अलग हो जाती हैं तो उसे जलगति क्रिया कहते हैं । यह सागरीय तरंगों एवं नदी द्वारा होती है ।
v. जलदाब क्रिया (Water Pressure):
ADVERTISEMENTS:
जब किसी चट्टान में जल के दबाव के कारण अपरदन की क्रिया होती है तो उसे जलदाब क्रिया कहा जाता है । यह मुख्यतः सागरीय तरंगों द्वारा होती है ।
vi. उत्पाटन (Plucking):
यह हिमानियों द्वारा होती है । यह अपने प्रवाह-मार्ग की चट्टानों को तोड़ते हुए आगे बढ़ती है । इस प्रक्रिया को ही उत्पाटन कहा जाता है ।
vii. अपवहन (Deflation):
यह पवन के द्वारा शुष्क या अर्द्धशुष्क प्रदेशों में अवसादों की उड़ाव क्रिया है ।
अपरदन चक्र (Erosion Cycle):
अपरदन चक्र बहिर्जात व अंतर्जात बलों का सम्मिलित परिणाम होता है । अंतर्जात बल (पटल विरूपणी बल, ज्वालामुखी क्रिया, भूकम्प आदि) धरातल पर विषमताओं का सृजन करते हैं । धरातलीय उत्थान द्वारा पर्वत, पठार, पहाड़ियाँ एवं धरातलीय अवतलन द्वारा झील, खाइयाँ, गर्त आदि का निर्माण होता है ।
जैसे ही धरातल में उत्थान द्वारा विषमताओं का सृजन होता है, बहिर्जात बल समतल स्थापक बल के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं तथा इनसे विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है ।
सर्वप्रथम स्कॉटिश भूगर्भशास्त्री जेम्स हटन ने भू-आकृतियों के संदर्भ में ‘एकरूपतावाद’ की अवधारणा दी तथा बताया कि ‘वर्तमान भूत की कुंजी है’ । उन्होंने कहा कि ‘न आदि का पता है और न अंत का भविष्य’ ।
उनकी एकरूपतावादी संकल्पना को उनके शिष्यों जॉन प्लेफेयर व सर चार्ल्स ल्येल ने आगे बढ़ाया । स.रा. अमेरिकी भूगोलवेत्ता विलियम मोरिस डेविस के अनुसार किसी भी स्थलाकृति के निर्माण व विकास का एक ऐतिहासिक क्रम होता है, जिसके अंतर्गत उसे तरुण (Young), प्रौढ़ (Mature) एवं जीर्ण (Old) अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है ।
उनकी इस विचारधारा पर डार्विन के ‘जैविक विकासवादी अवधारणा’ का प्रभाव है । डेविस ने बताया कि स्थलाकृतियाँ चट्टानों की संरचना, अपरदन के प्रक्रमों व समय की अवधि या विभिन्न अवस्थाओं का परिणाम होती हैं । इसे ‘डेविस का त्रिकट’ (Trio of Davis) भी कहा जाता है ।
डेविस के अनुसार अपरदन चक्र समय की वह अवधि है, जिसमें एक उत्थित भूखंड अपरदन की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अंततः एक समप्राय मैदान (Peneplain) में बदल जाता है तथा इसमें कहीं-कहीं थोड़े उठे हुए भाग मोनाडनॉक के रूप में शेष बचे रहते हैं ।
जर्मनी के वाल्टर पेंक ने अपने भू-आकृतिक चक्र डेविस के त्वरित व अल्पावधि उत्थान की अवधारणा की आलोचना की है तथा उनकी अवस्था संकल्पना की आलोचना करते हुए, उन्होंने बताया है कि स्थलाकृतियाँ उत्थान एवं निम्नीकरण की दर तथा दोनों की प्रावस्थाओं के परस्पर सम्बंधों का प्रतिफल होती है ।
उन्होंने उठते हुए स्थल खंड का नाम प्राइमारम्प रखा तथा अपरदन के प्रक्रम से गुजरने के बाद स्थलाकृति का अंतिम परिणाम समप्राय मैदान के बदले इंड्रम्प को बताया । एल.सी. किंग ने अर्द्धशुष्क प्रदेशों के लिए पेडीप्लेनेशन चक्र की संकल्पना दी है ।
अपरदन के प्रक्रम (The Erosion Process):
इसके अंतर्गत बहता जल (नदी), भूमिगत जल, सागरीय तरंग, हिमानी, परिहिमानी पवन आते हैं ।
अपरदन के प्रक्रम दो प्रकार की स्थलाकृतियों का निर्माण करते हैं:
(i) अपरदन से,
(ii) निक्षेपण से ।
नदी (बहता जल) River – Flowing Water:
कोई नदी अपनी सहायक नदियों समेत जिस क्षेत्र का जल लेकर आगे बढ़ती है, वह स्थान प्रवाह क्षेत्र या नदी-द्रोणी (River Basin) या जलग्रहण क्षेत्र (Catchment Area) कहलाती है ।
एक नदी-द्रोणी दूसरी नदी द्रोणी से जिस उच्च भूमि द्वारा अलग होती है, उसे जल विभाजक (Water Shed or Divide) कहते हैं । उदाहरण के लिए, उत्तर में अरावली पर्वत श्रेणी और इसके उत्तर की उच्च भूमि सिन्धु व गंगा-द्रोणियों को अलग करने के कारण जलविभाजक का कार्य करती है ।
नदी द्वारा निर्मित स्थलरूप निम्न हैं:
i. ‘V’ आकार की घाटी (‘V’ Shaped Valley):
नदी द्वारा अपनी घाटी में की गई ऊर्ध्वाकार काट के कारण घाटी पतली, गहरी और ‘V’ आकार की हो जाती है । इसमें दीवारों का ढाल तीव्र व उत्तल होता है । यद्यपि घाटियों में थोड़ा क्षैतिज अपरदन भी होता है, परंतु घाटी को गहरा करने का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है । आकार के अनुसार ये दो प्रकार के होते हैं- गॉर्ज और कैनियन ।
सामान्य रूप में बहुत गहरी तथा सँकरी घाटी को गॉर्ज या कंदरा कहते हैं । कभी-कभी प्रपातों के द्रुत गति से पीछे हटने से भी गॉर्ज का निर्माण होता है । भारत में सिन्धु, सतलज एवं ब्रह्मपुत्र द्वारा क्रमशः निर्मित सिन्धु गॉर्ज, शिपकीला गॉर्ज व दिहांग गॉर्ज प्रसिद्ध है ।
गॉर्ज के विस्तृत रूप को कैनियन या संकीर्ण नदी कंदरा कहते हैं । यह अपेक्षाकृत खड़ी ढाल वाली होती है । विश्व में कैनियन का सबसे अच्छा उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका में कोलोरेडो नदी पर स्थित ‘ग्रैंड कैनियन’ है ।
ii. जलप्रपात (Water Falls) व क्षिप्रिका (Rapids):
जब नदियों का जल ऊँचाई से खड़े ढाल से अत्यधिक वेग से नीचे की ओर गिरता है तो उसे जलप्रपात कहते हैं । इसका निर्माण चट्टानी संरचना में विषमता के कारण असमान अपरदन, भूखंड में उत्थान, भ्रंश कगारों के निर्माण आदि के कारण होता है ।
उत्तर अमेरिका का नियाग्रा जलप्रपात और दक्षिणी अफ्रीका की जाम्बेजी नदी पर स्थित विक्टोरिया जलप्रपात इसके उदाहरण हैं ।
भारत में कर्नाटक राज्य में शरावती नदी पर स्थित जोग या गरसोप्पा जलप्रपात 260 मीटर की ऊँचाई से गिरता है । नर्मदा नदी का धुआँधार जलप्रपात (9 मीटर) तथा सुवर्णरेखा नदी का हुण्डरू जलप्रपात (97 मीटर) अपने प्राकृतिक भू-दृश्य के लिए प्रसिद्ध है । क्षिप्रिका की ऊँचाई जलप्रपात से कम होती है ।
iii. जलोढ़ शंकु (Alluvial Cone):
जब नदियाँ पर्वतीय भाग से निकलकर समतल प्रदेश में प्रवेश करती है तो चट्टानों के बड़े-बड़े अवसाद पीछे छूट जाते हैं तथा उनसे बनी आकृति जलोढ़ शंकु कहलाती है । विभिन्न जलोढ़ शंकुओं के मिलने से भाबर प्रदेश का निर्माण होता है ।
iv. जलोढ़ पंख (Alluvial Fans):
पर्वतीय भाग से निकलने के क्रम में नदियों के अवसाद दूर-दूर तक फैल जाते हैं । अतः इनसे पंखनुमा मैदान का निर्माण होता है जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं । अनेक जलोढ़ पंखों के मिलने से गिरिपद मैदान या तराई प्रदेश का निर्माण होता है ।
v. नदी विसर्प (Meanders):
मैदानी क्षेत्रों में नदी की धारा दाएँ-बाएँ, बल खाती हुई प्रवाहित होती है तथा विसर्प बनाती है । ये विसर्प ‘एस’ (S) आकार की होती है । नदियों का ऐसा घूमना अधिक अवसादी बोझ के कारण होता है ।
vi. गोखुर झील (Oxbow Lake):
जब नदी अपने विसर्प को त्यागकर सीधा रास्ता पकड़ लेती है तब नदी का अवशिष्ट भाग गोखुर झील या छाड़न झील कहलाता है ।
vii. तटबंध (Levees):
आगे बढ़ने के दौरान नदियाँ अपरदन के साथ-साथ बड़े-बड़े अवसादों का किनारों पर निक्षेपण भी करती जाती है, जिससे किनारे पर बांधनुमा आकृति का निर्माण हो जाता है । इसे प्राकृतिक तटबंध कहते हैं ।
viii. बाढ़ का मैदान (Flood Plain):
जब नदी की परिवहन शक्ति बहुत कम हो जाती है तो अत्यधिक अवसादों का निक्षेपण करने लगती है । फलस्वरूप अपने तल पर ही अवसादों का निक्षेपण करने के कारण उसकी धारा तक अवरुद्ध हो जाती है तथा उसका जल आस-पास के मैदानों में फैल जाता है ।
इस समतल व चौरस मैदान को बाढ़ का मैदान कहा जाता है । इसमें प्रतिवर्ष बाढ़ के कारण नए अवसादों का जमाव होता रहता है ।
ix. डेल्टा (Delta):
निम्नवर्ती मैदानों में ढाल की न्यूनता व अवसादों की अधिकता के कारण नदी की परिवहन शक्ति कम होने लगती है तथा वह अवसादों का जमाव करने लगती है । इससे डेल्टानुमा (∆) आकृति बनती है ।
डेल्टा को कई प्रकारों में बाँटा जा सकता है:
i. चापाकार डेल्टा (Accurate Delta) – नील नदी एवं गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा ।
ii. पंजाकार डेल्टा (Bird Foot Delta) – मिसीसिपी-मिसौरी नदी का डेल्टा ।
iii. ज्वारनदमुखी डेल्टा (Estuarine Delta) – भारत में नर्मदा व ताप्ती का डेल्टा ।
iv. दंताकार डेल्टा (Cuspate Delta) – एब्रो डेल्टा ।