भारत की मिट्टी पर निबंध | Essay on the Soils of India in Hindi language!
मिट्टी एक बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन है । मृदा शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ‘सोलम’ (Solum) से हुई है, जिसका अर्थ है ‘फर्श’ । प्राकृतिक रूप से उपलब्ध मृदा पर कई कारकों का प्रभाव होता है, जैस- मूल पदार्थ, धरातलीय दशा, प्राकृतिक वनस्पति, जलवायु, समय आदि ।
वनस्पतियाँ मिट्टी में ह्यूमस (जैविक पदार्थ) की मात्रा को निर्धारित करती हैं । मृदा निर्माण की प्रक्रिया को मृदाजनन (Pedo Genesis) कहते हैं ।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने भारत की मिट्टियों का विभाजन 8 प्रकारों में किया है ।
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ये निम्न हैं:
1. जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil):
यह मिट्टी देश के 40 प्रतिशत भागों में लगभग 15 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है । इसमें रेत, गाद, मृत्तिका (क्ले) के भिन्न-भिन्न अनुपात होते हैं । तटीय मैदानों व डेल्टा प्रदेशों में यह प्रचुरता से मिलती है ।
गिरिपाद मैदानों में भी इसकी बहुतायत है । भूगर्भशास्त्रीय दृष्टिकोण से इसे बांगर व खादर में विभक्त किया जाता है । प्राचीन जलोढ़क को ‘बांगर’ कहते है, जिसमें कंकड़ व कैल्शियम कार्बोनेट भी होता है ।
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इसका रंग काला या भूरा होता है । इसका विस्तार नदी के बाढ़ के मैदानी क्षेत्र में पाया जाता है, जहाँ प्रतिवर्ष बाढ़ के दौरान मिट्टी की नवीन परत का जमाव होता है । बांगर मिट्टियों की उर्वरता बनाए रखने के लिए भारी मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती है ।
खादर मिट्टी से यह लगभग 30 मी. की ऊँचाई पर मिलता है । नवीन जलोढ़ जिसे खादर भी कहा जाता है, प्रत्येक साल बाढ़ द्वारा लाई गई मिट्टियाँ होती हैं ।
बांगर की अपेक्षा यह अधिक उपजाऊ होती है । जलोढ़ मिट्टियाँ पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चूना व कार्बनिक तत्वों में धनी होती हैं, परन्तु इसमें नाइट्रोजन व ह्यूमस की कमी पाई जाती है ।
शुष्क क्षेत्रों में इस मृदा में लवणीय और क्षारीय गुण भी पाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषाओं में रेह, कल्लर या धूर नामों से भी जाना जाता है । जलोढ़ मिट्टी धान, गेहूँ, गन्ना, दलहन, तिलहन आदि की खेती के लिए उपयुक्त है ।
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2. काली मिट्टी (Black Soil):
इसे रेगुर मिट्टी या कपासी मिट्टी भी कहा जाता है । अंतर्राष्ट्रीय रूप से इसे उष्ण कटिबंधीय चरनोजम भी कहा जाता है । इसका रंग काला होता है तथा यह कपास की खेती हेतु सबसे उपयुक्त मिट्टी है । इस प्रकार की मिट्टी 12० से 25० उत्तरी अक्षांश और 37० से 80० पूर्वी देशान्तरों के बीच पाई जाती हैं, जो लगभग 5.46 लाख वर्ग किमी. में विस्तृत है ।
इसका निर्माण ज्वालामुखी लावा के अपक्षयण व अपरदन से हुआ है । इसके निर्माण में चट्टानों की प्रकृति के साथ-साथ जलवायु की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । मैग्नेटाइट, लोहा, एल्यूमिनियम सिलिकेट, ह्यूमस आदि की उपस्थिति के कारण इसका रंग काला हो जाता है ।
यह गीली होने पर चिपचिपी हो जाती है जबकि सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती है, इसलिए इसे स्वतः जुताई वाली मिट्टी या ‘स्वतः कृष्य मिट्टी’ भी कहा जाता है । इस मिट्टी में नमी धारण करने की बेहतर क्षमता होती है । शुष्क कृषि के लिए यह सबसे उपयुक्त मिट्टी मानी जाती है ।
ऊँचाई के भागों की तुलना में निचले क्षेत्रों में ये मिट्टीयाँ अधिक उपजाऊ हैं । इसमें कपास, मोटे अनाज, तिलहन, सूर्यमुखी, अंडी, सब्जियाँ, खट्टे फल की कृषि होती है । इस मिट्टी के क्षेत्र का सबसे अधिक विस्तार महाराष्ट्र में है । यहाँ इनका निर्माण पैठिक लावा के प्रभाव से हुआ है ।
अतः यह दक्कन ट्रैप से बनी मिट्टी भी कहलाती है । इस मिट्टी में लोहा, चूना, पोटाश, एल्यूमिनियम, कैल्शियम व मैग्नेशियम कार्बोनेट प्रचुर मात्रा में होता है जबकि नाइट्रोजन, फास्फोरस व कार्बनिक तत्वों की कमी पायी जाती है ।
प्रायद्वीपीय काली मिट्टी को सामान्यतः तीन भागों में बाँटा जाता है (Peninsular Black Soil is Usually Divided into Three Parts):
i. छिछली काली मिट्टी (Shallow Black Soil):
इसका निर्माण दक्षिण में बेसाल्ट ट्रैपों से हुआ है । यह मिट्टी सामान्य दोमट से लेकर चिकनी व गहरे रंगों की होती है ।
ii. मध्यम काली मिट्टी (Medium Black Soil):
यह काले रंग की मिट्टीयाँ हैं, जिनका निर्माण बेसाल्ट, शिस्ट, ग्रेनाइट, नीस आदि चट्टानों की टूट-फूट से होता है ।
iii. गहरी काली मिट्टी (Deep Black Soil):
यही वास्तविक काली मिट्टी है, जिसका निर्माण ज्वालामुखी के उद्गार से हुआ है ।
3. लाल मिट्टी (Red Soil):
यह लगभग 5.18 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है । सामान्य से लेकर भारी वर्षा वाली दशाओं में यह प्राचीन क्रिस्टलीय शैलों के अपक्षयण व अपरदन से निर्मित हुआ है । गहरे निम्न भू-भागों में यह दोमट प्रकार की है, जबकि उच्च भूमियों पर असंगठित कंकड़ों के समान मिलता है । इनका लाल रंग लौह के ऑक्साइड की उपस्थिती के कारण है ।
ये अत्यधिक निक्षालित मिट्टी है, जहाँ सतह की मिट्टी का रंग लाल होता है तथा नीचे जाने पर यह पीले रंग का हो जाता है । यह अपेक्षाकृत कम उपजाऊ मिट्टी है तथा इसमें सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है ।
यह मुख्यतः प्रायद्वीपीय क्षेत्र में तमिलनाडु से लेकर बुंदेलखंड तक पूरब में राजमहल से लेकर पश्चिम में काठियावाड़ और कच्छ तक पायी जाती है । यह मिट्टीयाँ आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान तथा दक्षिणी-पूर्वी महाराष्ट्र, कर्नाटक के कुछ भागों में भी मिलती है ।
ऊँची भूमियों पर यह बाजरा, मूँगफली और आलू की खेती के लिए उपयुक्त है जबकि निम्न भूमियों पर इसमें चावल, रागी, तंबाकू और सब्जियों की खेती की जा सकती हैं । इस मिट्टी में घुलनशील लवणों की पर्याप्तता होती है, परन्तु फास्फोरिक अम्ल, कार्बनिक तत्व, जैविक पदार्थ, चूना व नाइट्रोजन की कमी पाई जाती है ।
4. लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil):
इन मृदाओं का अध्ययन सर्वप्रथम एफ. बुकानन (F. Buchanan) द्वारा 1905 में किया गया । यह मिट्टी 1.26 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है । ये मुख्यतः प्रायद्वीपीय भारत के पठारों के ऊपरी भागों में विकसित हुई । 200 सेमी. या अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में चूना व सिलिका के निक्षालन से इसकी उत्पत्ति होती है ।
लैटेराइट मिट्टियों का स्वरूप ‘ईंट’ जैसा होता है, भीगने पर ये कोमल तथा सूखने पर कठोर व डलीदार हो जाती है । यह सामान्यतः झाड़ व चारागाह का क्षेत्र है, परन्तु उर्वरक डालने पर चावल, रागी, काजू आदि की उपज संभव है । निचले भागों की अपेक्षा ऊपरी भागों की मिट्टीयाँ अधिक अम्लीय है ।
इस मिट्टी में लौह-ऑक्साइड व एल्यूमिनियम ऑक्साइड की प्रचुरता होती है, परन्तु नाइट्रोजन, फास्फोरिक अम्ल, पोटाश, चूना और कार्बनिक तत्वों की कमी मिलती है । ये मिट्टियाँ सह्याद्रि, पूर्वी घाट, राजमहल पहाड़ियों सतपुड़ा, असोम तथा मेघालय की पहाड़ियों के शिखरों में मिलती है । ये निचले स्तर पर और घाटियों में भी पायी जाती है ।
कणों के आकार पर लैटेराइट यों के तीन उपविभाग किए जाते हैं:
i. भूजलीय लैटेराइट:
इस प्रकार के मिट्टियों का निर्माण भूगर्भीय जल की सहायता से होती है ।
ii. गहरी लाल लैटेराइट:
इसमें लौह-ऑक्साइड और पोटाश की मात्रा अधिक होती है, किन्तु कैओलिन की मात्रा कम ।
iii. श्वेत लैटेराइट:
इसमें कैओलिन की अधिकता के कारण मिट्टी का रंग सफेद होता है ।
5. पर्वतीय मिट्टी (Hilly Clay):
इसे वनीय मृदा भी कहा जाता है । यह 2.85 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत
है । ये मृदाएँ हिमालय की घाटियों में ढलानों पर 2,700 से 3,000 मी. की ऊँचाई के भागों में पायी जाती है । जलवायु व पारिस्थितिकी के अनुसार इन मिट्टियों की प्रकृति में भिन्नता मिलती है । यह निर्माणाधीन मिट्टी है । इनका पूर्ण रूप से अध्ययन नहीं हुआ है । ह्यूमस की अधिकता के कारण यह अम्लीय गुण रखती है ।
इनकी संरचना एवं गठन गाद-दोमट से लेकर दुमट तक है । इनका रंग गहरा भूरा होता है । इस मिट्टी में कृषि हेतु उर्वरक डालने की आवश्यकता पड़ती है । भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में ह्यूमस अधिक होता है । अतः ऐसे क्षेत्रों में चाय, कॉफी, मसाले एवं उष्णकटिबंधीय फलों की खेती संभव है ।
कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मणिपुर, जम्मू-कश्मीर व हिमाचल प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में यह मिट्टी पायी जाती है । मिश्रित फल, गेहूँ, मक्का, जौ की खेती के लिए यह मिट्टी उपयुक्त होती है । जंगली मिट्टियों में पोटाश, फास्फोरस, चूने की कमी पायी जाती है ।
इन मृदाओं को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
i. दोमट पौडजोल (Loamy Podzol) ।
ii. उच्च स्थानीय (High Attitude) मृदाएँ ।
6. शुष्क और मरुस्थलीय मिट्टियाँ (Arid and Desert Soil):
शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में अरावली पर्वत और सिन्धु घाटी के मध्यवर्ती क्षेत्रों में विशेषतः पश्चिमी राजस्थान, उत्तरी गुजरात, दक्षिणी हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मिलता है । इसका विस्तार 1.42 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में है । इस मिट्टी में बालू की मात्रा पायी जाती है व ज्वार जैसे मोटे अनाजों की खेती के लिए उपयुक्त है ।
परन्तु राजस्थान के गंगानगर जिले जहाँ सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, इस मिट्टी में गेहूँ व कपास का उत्पादन होता है । इन मिट्टियों में घुलनशील लवणों एवं फास्फोरस की मात्रा काफी अधिक होती है जबकि कार्बनिक तत्वों एवं नाइट्रोजन की कमी होती है । इस मृदा को अनुर्वर श्रेणी में सम्मिलित की जाती है, क्योंकि इसमें ह्यूमस (Humus) व जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं ।
मरूस्थलीय मिट्टियों को दो उपवर्गों में विभाजित किया जाता है:
i. लिथोसेलिक (Lithosolic) ।
ii. रिगोसेलिक (Regosolic) ।
7. लवणीय व क्षारीय मिट्टियाँ (Alkaline Soil):
यह एक अंतः क्षेत्रीय मिट्टी है, जिसका विस्तार सभी जलवायु प्रदेशों में है । यह मिट्टी राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु के शुष्क व अर्द्धशुष्क प्रदेशों में 1.70 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है । सोडियम व मैग्नेशियम की अधिकता के कारण यहाँ मिट्टी लवणीय तथा कैल्शियम व पोटैशियम की अधिकता के कारण क्षारीय हो गई है ।
अतः ये खेती के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इनका स्थानीय नाम रेह, कल्लर, रकार, ऊसर, कार्ल, चाँपेन आदि है । इन मिट्टियों को चूना या जिप्सम मिलाकर सिंचित कर तथा चावल गन्ना जैसी लवणरोधी फसलों को लगाकर सुधारा जा सकता है । उस स्थिति में इसमें चावल, गन्ना, कपास, गेहूँ, तंबाकू की उपज संभव है ।
8. पीट एवं दलदली मिट्टियाँ (Peat Swamp Soil):
इसका निर्माण अत्यधिक आर्द्रता वाली दशाओं में बड़ी मात्रा में कार्बनिक तत्वों के जमाव के कारण होता है । यह मुख्यतः तटीय प्रदेशों एवं जल-जमाव के क्षेत्रों में पायी जाती है । इसमें घुलनशील लवणों की पर्याप्तता होती है, परन्तु फास्फोरस व पोटाश की कमी रहती है । गीली मिट्टी प्रायः धान की खेती के लिए उपयुक्त होती है ।
दलदली मिट्टी का निर्माण जल-जमाव के क्षेत्रों में वात निरपेक्ष दशा में मिट्टियों में लौह-तत्व की उपस्थिति व बड़ी मात्रा में वनस्पतियों के कारण होता है । यह मिट्टी खेती के लिए अनुपयुक्त है । इसमें फेरस आयरन होने से प्रायः इनका रंग नीला होता है । ये अम्लीय स्वभाव की मृदा होती है तथा इसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा 40 से 50 प्रतिशत तक होती हैं, जिसमें धान उगाया जाता है ।
मिट्टी की उर्वरता में कमी का कारण (Causes of Reduction in Soil Fertility):
i. पोषक तत्वों का ह्रास (फसल हटाने के क्रम में)
ii. निक्षालन – भारी वर्षा के कारण
iii. अपरदन – उर्वरतायुक्त मिट्टी की सतह का ह्रास
iv. कृषि भूमि का अति-उपयोग
v. दोषपूर्ण कृषि प्रबंधन
उर्वरता में वृद्धि के लिए इन कारणों पर नियंत्रण के साथ-साथ सिंचाई व फसलों में आवश्यकतानुसार खाद डालना आवश्यक है । भारतीय मिट्टियों में सामान्यतः नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की कमी होती है । कार्बनिक खादों व उर्वरकों को डालकर इस कमी को पूरा किया जाता है । चक्रीय कृषि, मिश्रित कृषि आदि से मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि होती है ।
भारत सरकार द्वारा देश के नियोजक प्रक्रिया में प्रारम्भ से ही मृदा अपरदन को रोकने का प्रयास किया जाता रहा है । देश में मृदा अपरदन व उसके दुष्परिणामों पर नियंत्रण हेतु सन् 1953 में केन्द्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड का गठन किया गया, जिसका कार्य राष्ट्रीय स्तर पर मृदा संरक्षण के कार्यक्रमों का संचालन करना था ।
इन कार्यक्रमों के अंतर्गत परिरेखीय बाँधों का निर्माण, सीढ़ीदार खेतों का निर्माण, जमीन का समतलीकरण, वनारोपण, घास के मैदानों का विकास व अन्य जैव-वैज्ञानिक कार्य शामिल थे ।
मृदा की समस्याओं के अनुसंधान एवं प्रदर्शन के लिए 8 क्षेत्रीय केन्द्रों का गठन किया गया है । मरुस्थल की समस्या के अध्ययन के लिए जो धपुर में Central Arid Zone Research Institute (CAZRI) की स्थापना की गई है ।