मृदा पर निबंध: मतलब, घटक, प्रकार और संरक्षण | Essay on Soil: Meaning, Components, Types and Conservation in Hindi!
मृदा पर निबंध (मिट्टी) | Essay on Soil
Essay Contents:
- मृदा का अर्थ (Meaning of Soil)
- मृदा घटक (Components of Soil)
- मृदा के प्रमुख प्रकार (Types of Soil)
- मृदा टैक्सोनॉमी (Soil Taxonomy)
- मृदा अपरदन (Soil Erosion)
- मृदा संरक्षण (Soil Conservation)
Essay # 1. मृदा का अर्थ (Meaning of Soil):
धरातल की ऊपरी परत, जिससे मानव समाज की अधिकतर आवश्यकता की आपूर्ति होती है, मृदा अथवा मिट्टी कहलाती है । मानव की तीन मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र एवं आवास की आपूर्ति के लिये मिट्टी सब से अधिक महत्वपूर्ण संसाधन है ।
अपक्षपि पदार्थ (Regolith), अवरण शैल की ऊपर परत जिसमें गली-सड़ी वनस्पति, कीटाणु (Humus) आदि मिश्रित हों और उसमें पेड़-पौधे उगाने की क्षमता हो, मिट्टी कहलाती है । मिट्टी मुख्यत: खनिज कणों, जैविक पदार्थों, मृदा जल एवं जीवित जीवों (Living Organism) से बनी होती है । मिट्टी के भौतिक एवं रासायनिक पदार्थों में समय के अनुसार परिवर्तन होता रहता है ।
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Essay # 2. मृदा घटक (
Components of Soil):
मिट्टी के मुख्य घटक निम्न प्रकार हैं:
1. मातृ पदार्थ (Parent Material):
कार्बोनिक एवं खनिजों का एक असंगठित पदार्थ, जो मृदा विकास के लिये मूल पदार्थ होता है ।
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2. ह्यूमस तथा जैविक खाद (Humus):
मृदा में विद्यमान विघटित जैविक पदार्थ, जिसकी उत्पत्ति वनस्पति तथा जंतुओं के गलने-सड़ने से होती है । जिस कृषि भूमि को कुछ समय के लिए जोत कर छोड़ दिया जाये, उसमें जंतु एवं पौधे गिरकर सड़ जाते हैं । ऐसी भूमि में काफी ह्यूमस पाया जाता है । गोबर और हरी-खाद आदि के द्वारा भी खेतों में ह्यूमस की मात्रा बढ़ाई जा सकती है ।
3. मृदा जल (Soil Water):
जल भी मृदा का एक मुख्य घटक है । विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में जल की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है । उष्ण मरुस्थलों तथा शुष्क प्रदेशों की मिट्टी में जल की मात्रा नाम-मात्र की होती है, जबकि आंध्र प्रदेश की मिट्टी में जल की मात्रा अधिक होती है । जल की मात्रा का प्रभाव मृदा की उर्वकता पर पड़ता है । जल की मात्रा से मिट्टी के रसायनिक तत्व भी प्रभावित होते हैं ।
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4. मृदा संरचना (Soil Texture):
मृदा की विशिष्टता की पहचान उसमें पाये जाने वाले कणों के आधार पर की जाती है । चिकनी मिट्टी (Clay) में सूक्ष्म कणों की मात्रा अधिक होती है, जबकि बलुई मृदा में मोटे कणों की मात्रा अधिक होती है । इनके विपरीत सिल्ट में महीन तथा बलुई कणों की मात्रा लगभग समान होती है (Fig. 5.6 तथा 5.7) ।
5. मृदा वर्गिकी (Soil Structure):
मृदा कणों की विद्यमानता तथा उनका संगठन । दूसरे शब्दों में महीन, मोटे कण और ह्यूमस (Humus) आपस में किस प्रकार संगठित हैं ।
6. मृदा संस्तर (Soil Horizon):
मृदा परिच्छेदिका में सुनिश्चित परत, जो स्थानीय भू-सतह के समानान्तर होती है । मृदा संस्तर को कई परतों में विभाजित किया जा सकता है जैसा कि Fig. 5.6 में दिखाया गया है ।
7. मृदा प्रोफाइल (Soil Profile):
किसी स्थान की मृदा का लम्बवत् परिच्छेदिका, जिसमें मृदा की विभिन्न परतों को तथा उनकी भौतिक एवं रासायनिक विशेषताओं को दर्शाया जाता है (Fig. 5.6) ।
8. मृदा उर्वरता (Soil Fertility):
मृदा की फसलों तथा पेड़-पौधों को उगाने की क्षमता को उसकी उर्वरता कहते हैं ।
Essay # 3. मृदा के प्रमुख प्रकार
(Types of Soil):
मृदा को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) कटिबंधीय मृदा (Zonal Soil),
(ii) गैर-कटिबंधीय मृदा (Azonal Soil) तथा
(iii) अन्तक्षेत्रीय मृदा (Interzonal Soil) ।
(i) कटिबंधीय मृदा (Zonal Soil):
जो मिट्टियाँ अपने मातृ-पदार्थ, जलवायु एवं वनस्पति से प्रभावित हों, कटिबंधीय मृदा कहलाती हैं, जैसे- भारतीय प्रायद्वीप की काली तथा लाल मिट्टी तथा कश्मीर घाटी की करेवा (Karewa) मिट्टी ।
(ii) गैर-कटिबंधीय मृदा (Azonal Soil):
ऐसी मृदा जो स्थानीय मातृ-पदार्थ, जलवायु तथा वनस्पति से प्रभावित न हो तथा गैर-कटिबंधीय मृदा कहलाती है । इस प्रकार की मृदा में ‘B’ संस्तर (B-Horizon) का अभाव होता है ।
(iii) अन्तक्षेत्रीय मृदा (Interzonal Soil):
ऐसी मृदा जो मृदा-उत्पत्ति के विभिन्न चरणों से गुजर कर न विकसित हुई हो । इसकी उत्पत्ति पर स्थानीय जलवायु तथा प्राकृतिक वनस्पति का अधिक प्रभाव नहीं देखा जाता । इस मृदा में ‘ब’ संस्तर नहीं होता ।
Essay # 4. मृदा टैक्सोनॉमी (
Soil Taxonomy):
संयुक्त राज्य अमेरिका के मृदा विशेषज्ञों ने विश्व-मृदा को भौतिक तथा रसायनिक गुणों के आधार पर विभाजित किया था, जिसको मृदा टैक्सोनॉमी कहते हैं । यह वर्गीकरण पूरी दुनिया से मृदा के नमूने (Soil Samples) एकत्रित करके विश्लेषण (Analysis) के आधार पर किया गया था (तालिका 5.3) ।
Essay # 5. मृदा अपरदन (
Soil Erosion):
मृदा की ऊपरी सतह के अनावरण (कटने) को मृदा अपरदन कहते हैं । जल तथा पवन इत्यादि के द्वारा अपरदन एक निरन्तर प्राकृतिक प्रक्रिया है । कुछ प्रदेशों में मानव द्वारा भूमि के दुरुपयोग के कारण भी अपरदन प्रक्रिया तीव्र हो जाती है । मृदा अपरदन से लगभग 75,000 मिलियन टन उपजाऊ भूमि नष्ट होती है ।
मृदा अपरदन के मुख्य क्षेत्रों को मानचित्र 5.8 में दिखाया गया है । भारत में प्रतिवर्ष लगभग 6000 मिलियन टन उपजाऊ मिट्टी अपरदित हो जाती है । मृदा अपरदन का प्रभाव केवल उन स्थानों पर नहीं होता जहाँ पर वह निक्षेपित होती है । इस महत्वपूर्ण संसाधन को सुरक्षित करने के लिये अनिवार्य कदम उठाने की आवश्यकता है ।
Essay # 6. मृदा संरक्षण
(Soil Conservation):
मृदा संरक्षण के लिये निम्न उपाय बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं:
1. वृक्षारोपण- वृक्षारोपण मृदा अपरदन में कमी लाता है । वृक्ष न केवल मृदा की ऊपरी उर्वर परत को जल द्वारा बहाये जाने अथवा हवा द्वारा उड़ाये जाने से रोकते हैं, बल्कि वे जल के रिसाव की बेहतर व्यवस्था करके मृदा में नमी और जल-स्तर (Water Label) को भी बनाये रखने में सहायक होते हैं ।
2. वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध- वृक्षारोपण के अतिरिक्त वृक्षों की निर्बाध कटाई को नियंत्रित करने की आवश्यकता है । चिपको आन्दोलन जैसे जग-जागरूकता अभियानों द्वारा वृक्ष एवं वनों के महत्व को प्रचारित एवं प्रसारित किए जाने की आवश्यकता है ।
3. समोच्च जुताई और सीढ़ीनुमा खेत बनाकर ढलानों पर खेती करना ।
4. बाढ़ नियन्त्रण- भारत में मृदा अपरदन का बाढ़ से काफी नजदीकी सम्बंध है । बाढ़ प्राय: वर्षा काल में ही आती है । अत: वर्षा काल के जल को संगृहीत करने से अतिरिक्त जल-निकासी, काफी उपयोगी हो सकता है ।
5. नदियों द्वारा अपरदन (Gully Erosion)- अवनालिकाओं तथा रेवाइन (Ravine) का उद्धार (Reclamation) मृदा अपरदन की समस्या के निदान के लिए एक आवश्यक कार्य है । चम्बल नदी की इस प्रकार की बीहड़ भूमि को फिर से कृषि योग्य बनाने का प्रयास किया जा रहा है ।
6. स्थानान्तरी कृषि पर प्रतिबंध- भारत के उत्तर-पूर्व के पर्वतीय राज्यों में बहुत-से किसान वनों को जलाकर खेती करते हैं, जिससे वन सम्पदा को भारी हानि होती है ।
7. परती भूमि को कृषि के अंतर्गत लाया जाये ।
8. लवणीय एवं क्षारीय मृदाओं को फिर से उपयोगी बनाया जाये ।
9. नहरों, नदियों तथा सागर के तटों को कटने से रोकने के लिए विशेष उपाय किये जाये ।
10. जैविक खाद का कृषि में अधिक उपयोग किया जाये । गोबर एवं हरित खाद को लोकप्रिय बनाया जाये ।
11. वैज्ञानिक फसल चक्र अपनाया जाये ।
12. सतत् कृषि की तकनीक को अपनाया जाए ।