Here is a compilation of essay on ‘Sustainable Agriculture’ for class 8, 9, 10, 11, 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Sustainable Agriculture’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on Sustainable Agriculture


Essay Contents:

  1. धारणीय कृषि अथवा ईको-फार्मिंग (Meaning of Sustainable Agriculture)
  2. टिकाऊ कृषि की विशेषताएं (Characteristics of Sustainable Agriculture)
  3. आधुनिक कृषि की समस्याएं (Problems of Modern Agriculture)
  4. आधुनिक कृषि के परिणाम तथा प्रभाव (Consequences of Modern Agriculture)
  5. टिकाऊ कृषि के उपाय (Strategy for Sustainable Agriculture)


Essay # 1. धारणीय कृषि अथवा ईको-फार्मिंग (Meaning of Sustainable Agriculture):

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धारणीय कृषि को टिकाऊ कृषि एवं ईको-फार्मिग कहते हैं । टिकाऊ कृषि की बहुत-सी परिभाषायें दी जाती है । एक परिभाषा के अनुसार धारणीय कृषि ऐसी कृषि को कहते हैं जो वर्तमान समय की आवश्यकताओं की आपूर्ति करें तथा भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं की भी आपूर्ति हो सके और परितन्त्र स्वास्थ्य रूप में बना रहे ।

करोड़ों की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या को आनाज की तथा कृषि-आधारित उद्योगों के लिये कच्चे माल की आपूर्ति के लिये कृषि की उत्पादकता को बढ़ाने की आवश्यकता है तथा पारिस्थितिकी तन्त्र को विशेष क्षति न हो इस तथ्य का भी ध्यान रखा जाना है ।

ईको-फार्मिंग (Eco-Farming) में गोबर, कम्पोस्ट तथा हरी खाद का इस्तेमाल किया जाता है । साथ ही साथ फसलों का हेर-फेर (Rotation of Crops) वैज्ञानिक ढंग से किया जाये अर्थात् मृदा उत्पादकता कम करने वाली फसलों के पश्चात दलहन की फसलें लगाना ।

संक्षेप में, धारणीय कृषि (Sustainable Agriculture) उपलब्ध संसाधनों एवं प्रौद्योगिकी के साथ अधिकतम उत्पादन करना एवं परितन्त्र को टिकाऊ बनाये रखना ही धारणीय कृषि कहलाता है । इसमें मृदा संरक्षण एवं जैविक विविधता को संरक्षित किया जाता है ।


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Essay # 2. टिकाऊ कृषि की विशेषताएं (Characteristics of Sustainable Agriculture):

धारणीय अथवा टिकाऊ कृषि में रासायनिक खादों एवं कीटनाशक दवाइयों का कम से कम इस्तेमाल किया जाता है । गोबर, कम्पोस्ट तथा हरी-खाद के उपयोग पर बल दिया जाता है ताकि मृदा की उर्वरकता बनी रहे तथा पारिस्थितिकी पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े ।

धारणीय कृषि (Sustainable Agriculture) आधुनिक कृषि से भिन्न होती है । इन दो प्रकार की कृषि प्रणालियों एवं उनकी मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में तालिका 12.1 में वर्णित किया गया है ।


Essay # 3. आधुनिक कृषि की समस्याएं (Problems of Modern Agriculture):

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आधुनिक कृषि उद्योगों की भांति संसाधनों का शोषण करती है । बड़े उद्योगों तथा खनन से निष्काषित प्रदूषण से कृषि भूमि भी प्रदूषित हो रही है । रासायनिक खाद तथा कीटाणुनाशक दवाइयों से मिट्‌टी भूगर्त जल नदियों झीलों तथा जलाशयों में प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गई है । कृषि भूमि की उर्वरकता तीव्र गति से कम हो रही है ।

आधुनिक कृषि के प्रतिकूल प्रभाव पर नियन्त्रण पाना एक कठिन कार्य हो रहा है । आधुनिक कृषि के पारिस्थितिकी तथा समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को संक्षिप्त में नीचे दिया गया है ।


Essay # 4. आधुनिक कृषि के परिणाम तथा प्रभाव (Consequences of Modern Agriculture):

1. भूमि का निम्नीकरण (Land Degradation):

भारत की 80 प्रतिशत मिट्टियां अपरदन (Erosion) से प्रभावित हैं । भूमि के निम्नीकरण के कारण बहुत-से जैविक लुप्त (Extinct) हो गये हैं ।

2. वनों का ह्रास (Depletion of Forest):

बहुत-से क्षेत्रों में जंगलों का काटा जा रहा है या उनको जलाकर झूमिंग प्रकार की खेती की जाती है । परिणामस्वरूप जंगलों के क्षेत्रफल में निरन्तर कमी होती जा रही है।

3. अत्यधिक सिंचाई (Over-Irrigation):

अवश्यकता से अधिक सिंचाई के कारण कृषि भूमि ऊसर अथवा कल्लर (Saline or Alkaline) होती जा रही हैं तथा उनके रासायनिक तत्वों में परिवर्तन हो रहा है ।

4. मिट्‌टी के पौष्टिक तत्वों का हास (Depletion of Soil Nutrients):

कृषि भूमि की उर्वरकता बनाये रखने के लिये पौष्टिक तत्वों का ठीक प्रबन्धन करना अनिवार्य होता है । आधुनिक कृषि में अरि धक उत्पादन करने के चक्कर में इन तत्वों का ठीक से प्रबंधन नहीं हो पाता ।


Essay # 5. टिकाऊ कृषि के उपाय (Strategy for Sustainable Agriculture):

1. कृषि फार्म खाद (Farmyard Manure):

टिकाऊ कृषि के लिये गोबर कम्पोस्ट तथा हरी खाद का उपयोग अनिवार्य होता है । आधुनिक कृषि में इस प्रकार की खादों का उपयोग कम होता है इसलिये मिट्‌टी की उर्वरकता कम हो रही है ।

2. प्रभावशाली एवं प्रगुण जल प्रबंधन (Efficient Water Management):

वर्षा के जल की प्रगुण प्रबन्धन की आवश्यकता है । जल प्रबंध का अर्थ है कि वर्षा जल का संचय, सिंचाई में जल का उचित उपयोग और खेत में जलभराव (Waterlogging) न होने देना ।

3. खरपतवार प्रबन्धन (Weed Management):

आधुनिक कृषि में खरपतवार को भी रासायनिक दवाईयों से समाप्त करने का प्रयास किया जाता है, जिससे मिट्‌टी की उर्वरकता बढ़ाने वाले बहुत सूक्ष्म प्राणी मर जाते हैं और भूमि की उर्वरकता में कमी आती है । खरपतवार प्रबन्धन जैविक पदार्थों के द्वारा किया जाना चाहिये । नीम की खाद खरपतवार प्रबन्धन में उपयोगी होती है । समय-समय पर गुड़ाई-नराई करके खरपतवार को फसल से साफ करना चाहिये ।

4. नाशक जीव प्रबंधन (Pest Management):

प्रायः ईको-फार्मिग (Eco-Farming) की फसलों में बीमारी कम लगती है । यदि बीमारी उत्पन्न हो जाए तो जैविक विधियों से नाशक जीव प्रबन्धन करना चाहिये । नीम की निबोलियों की खाद फसलों की बीमारियों को दूर करने का एक महत्वपूर्ण उपाय है ।

5. फसल चक्र (Rotation of Crops):

वैज्ञानिक फसल चक्र अपनाना चाहिये । धारणीय कृषि के फसल चक्र में मिट्‌टी की उर्वरकता कम करने वाली फसलों के पश्चात दलहन की फसल उगानी चाहिये । दलहनों से खेत में नाइट्रोजन की मात्रा में वृद्धि होती है । समय-समय पर खेत में हरी खाद (Green Manuring Crop) उगानी चाहिये । हरी-खाद की फसलों में सन, जूट, ढेंचा एवं बर्सीम प्रमुख हैं ।

धारणीय कृषि से पारिस्थितिकी में संतुलन स्थापित होता है, लागत खर्च कम आता है पर्यावरण प्रदूषण कम होता है । धारणीय कृषि की कुछ सीमायें एवं समस्याएं भी हैं । उदाहरण के लिये धारणीय कृषि में प्रति हेक्टेयर उत्पादन तथा कुल उत्पादन कम होता है । फसलों की बीमारियों को जल्दी से नियंत्रित नहीं किया जा सकता ।

आधुनिक कृषि को धारणीय कृषि अथवा ईको फार्मिग (Eco-farming) में बदलने के लिये तीन तीन से छह वर्ष का समय लगता है, जो कृषि में एक लम्बा समय माना जाता है । भारत में टिकाऊ कृषि (Eco-Farming) आन्दोलन की शुरूआत वर्ष 1981 हुई थी ।

उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा आदि के कुछ भागों में यह सफलतापूर्वक की जा रही है । कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि भारत की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं की आपूर्ति ईको फार्मिग (Eco-Farming) के द्वारा नहीं की जा सकती ।