सतत विकास पर निबंध | Here is an essay on ‘Sustainable Development’ for class 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Sustainable Development’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. सतत विकास का अर्थ (Meaning of Sustainable Development):
शब्द ‘सतत विकास’ का सबसे पहली बार प्रयोग ‘वर्ड कन्सर्वेशन स्ट्रेटजी’ द्वारा किया गया जिसे ‘प्रकृति और प्राकृतिक साधनों के संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संघ’ ने 1980 में प्रस्तुत किया ।
ब्रण्डटलैण्ड रिपोर्ट (Brundtland Report) के अनुसार सतत विकास का अर्थ है वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से समझौता किये बिना पूरा करना ।
अत: सतत विकास का अर्थ उस विकास से है जिसे निरन्तर चालू रहना चाहिये । यह सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सतत सुधार की रचना है जिसे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि, शिक्षा में सुधार, स्वास्थ्य तथा जीवन की सामान्य गुणवत्ता में सुधारों और प्राकृतिक पर्यावरणीय साधनों की गुणवत्ता में सुधारों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ।
ADVERTISEMENTS:
अन्य शब्दों में यह वह स्थिति है जिसमें समय के साथ आर्थिक विकास कम नहीं होता । इसे विकास के ऐसे पथ के रूप में संशोधित किया जा सकता है जिसमें भविष्य की पीढ़ियों के विकल्पों का वर्तमान पीढ़ी द्वारा अपनाये गये मार्ग द्वारा समझौता नहीं किया जाता ।
सतत विकास वह विकास है जो निरन्तर चलता है । यह प्राकृतिक पर्यावरण में सुधार द्वारा जीवन की गुणवत्ता में योगदान करता है । बदले में, यह व्यक्तियों की तुष्टि की पूर्ति करता है, आर्थिक प्रक्रिया को आगतें तथा सेवाएं उपलब्ध करता है जो मानव जीवन की सहायता करती है ।
तथापि, पीयरसे और बारफोर्ड के शब्दों में- “सतत विकास एक प्रक्रिया है जिसमें प्राकृतिक साधनों के आधार को क्षय नहीं होने दिया जाता । यह पर्यावरणीय गुणवत्ता की अब तक अप्रशंसित भूमिका पर बल देता है तथा वास्तविक आय और जीवन की गुणवत्ता की वृद्धि की प्रक्रिया में पर्यावरणीय आगतों पर भी बल देता है ।”
विश्व विकास प्रतिवेदन 2000 सभी लोगों के लिये विकास नीति के मुख्य लक्ष्य के रूप में जीवन की गुणवत्ता में सतत सुधारों के सृजन पर बल देता है ।
Essay # 2. सतत विकास का उद्देश्य (Objectives of Sustainable Development):
ADVERTISEMENTS:
सतत विकास के मुख्य उद्देश्यों का वर्णन निम्नवत् है:
1. सभी लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सतत सुधारों का सृजन ।
2. आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करके आर्थिक वृद्धि को बढ़ाना अर्थात् जीवन स्तर को ऊपर उठाना ।
3. सार्वजनिक जीवन में भाग लेने का अवसर प्रदान करना तथा पर्यावरण को स्वच्छ बनाने में सहायता करना ।
ADVERTISEMENTS:
4. अन्तरप्रजननात्मक निष्पक्षता का संवर्धन ।
5. आर्थिक विकास के शुद्ध लाभों को अधिकतम बनाने का लक्ष्य रखना बशर्ते कि सभी पर्यावरणीय और प्राकृतिक साधनों का भण्डार सुरक्षित रहे ।
6. पर्यावरणीय भण्डार तथा भविष्य की पीढ़ियों को हानि पहुंचाये बिना मानवीय एवं भौतिक पूंजी के संरक्षण और वृद्धि के लिये आर्थिक विकास को तीव्र करने का लक्ष्य रखना ।
7. दृढ़ सतत विकास प्राप्त करने का लक्ष्य रखना ताकि प्राकृतिक पूंजी भण्डार कम न हो । इसके अतिरिक्त, दुर्बल सततीयता की आवश्यकता है कि भौतिक, मानवीय और प्राकृतिक पूंजी भण्डारों का मूल्य कम न हो ।
Essay # 3. सतत विकास के लिये शर्तें/उपाय (Conditions/Measures for Sustainable Development):
सतत विकास का मापन प्राय: कठिन होता है । इसमें पर्यावरणीय हानि का मूल्यांकन तथा इसको रोकने पर आने वाली लागत से तुलना सम्मिलित होती है । इसे बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे पूंजी स्टाक का मापन, प्राकृतिक साधनों का लेखा और प्राकृतिक साधनों के संरक्षण और उपयोग के बीच वैकल्पिक सन्तुलन बनाये रखने के लिये उचित छूट दर का प्रयोग । तथापि यहां हम सतत विकास की प्राप्ति की शर्तों पर परिचर्चा करेंगे ।
जो निम्नलिखित हैं:
1. प्राकृतिक पूंजी भण्डार का मापन (Measuring Natural Capital Stock):
प्राकृतिक साधनों, सम्पत्तियों अथवा पर्यावरणीय सम्पत्ति के भण्डार में सम्मिलित है- “भूमि का उपजाऊपन, वन, मत्स्य क्षेत्र, अपशिष्ट के समावेशन की क्षमता, तेल, गैस, कोयला, ओजोन की परत और बायोज्योकैमीकल साइकलज (Biogeochemical Cycles)” ।
सतत विकास की पूर्वापेक्षित शर्त यह है कि प्राकृतिक पूंजी भण्डारों का संरक्षण और सुधार किया जाना चाहिये । इससे अर्थ यह है कि प्राकृतिक पूंजी भण्डार कम-से-कम सतत स्थिति में अवश्य रहने चाहिये ।
इसका मापन प्राकृतिक पूंजी भण्डार में परिवर्तनों के लागत-लाभ विश्लेषणों के सन्दर्भ में किया जा सकता है । इसी प्रकार जब वातावरण को साफ रखा जाता है तो यह हम सब के लिए लाभप्रद होता है ।
अत: सततता का अर्थ है प्राकृतिक पूंजी सम्पत्ति का संरक्षण और सुधार । कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि प्राकृतिक पूंजी को कोई महत्व न दिया जाये तथा इसके स्थान पर आदमी द्वारा निर्मित पूंजी और मानवीय पूंजी को अधिक महत्व दिया जाये ।
उनका विचार है कि सतत विकास का सम्बन्ध संरक्षण और सुधार से है जिसमें समस्त पूंजी भण्डार सम्मिलित है- आदमी द्वारा निर्मित पूंजी और मानवीय पूंजी । इस विचार को दक्षता और अन्तर-पीढ़ी समानता के साथ आगे बढ़ाया गया ।
समस्त पूंजी भण्डार पर विचार करते हुये इसका अर्थ है, प्राकृतिक तथा आदमी द्वारा निर्मित पूंजी । जिन्हें परस्पर प्रतिस्थापित किया जा सकता है । यह सामाजिक प्रतिफल के दर के आधार पर किया जा सकता है ।
परन्तु यह कभी-कभी ही होता है क्योंकि पर्यावरणीय अवनति से लाभ का उपभोग कर लिया जाता न कि निवेश । प्राकृतिक पूंजी से लाभ तथा आदमी द्वारा निर्मित पूंजी पर निवेश के मूल्यांकन की एक अन्य समस्या है ।
बाजार की कीमतों के आधार पर पर्यावरणीय हानि का मूल्यांकन वांछनीय नहीं है । संक्षेप में, छाया कीमतों का प्रयोग पर्यावरणीय सेवाओं का एक शुद्ध माप नहीं है ।
2. प्राकृतिक साधन अथवा हरित लेखा (Natural Resources or Green Accounting):
सतत विकास की एक अन्य शर्त अथवा माप हरित लेखा है । यह किसी राष्ट्र के लिये आय के आकलन की आज्ञा किसी देश के प्राकृतिक साधन आधार में आर्थिक हानि और क्षीणता को ध्यान में रखते हुये देता है ।
यह सतत आय स्तर का माप है जिसे प्राकृतिक सम्पत्ति के भण्डार को कम किये बिना प्राप्त किया जा सकता है । अत: इसकी आवश्यकता है कि राष्ट्रीय आय खातों की प्रणाली में प्राकृतिक सम्पत्ति के भण्डार के सन्दर्भ में समन्वय किया जाये ।
कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) के आकलन को राष्ट्रीय उत्पादन के माप द्वारा प्रतिस्थापित किया जायेगा जिसमें प्राकृतिक साधनों की अवनति की आर्थिक लागत सम्मिलित होती हे ।
इसे प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में वस्तुएं और सेवाएं उत्पादित करने की आवश्यकता है । जी. एन. पी. में प्राकृतिक सम्पत्ति का भण्डार सम्मिलित होगा तथा सतत विकास का माप NNP = GNP – DN हो सकता है । जहां DN, एक वर्ष में प्राकृतिक सम्पत्ति में मौद्रिक मूल्य का मूल्यह्रास है ।
परन्तु सतत आय के ऐसे माप का परिकलन बहुत कठिन है । यह, विशेषतया गैर -विक्रय प्राकृतिक सम्पत्तियों और बाह्यताओं के मौद्रिक मूल्यकरण के परिकलन में होता है । हरित लेखा में अनेक विवादास्पद परिकलन और मूल्यांकन होते हैं ।
3. पर्यावरणीय मूल्यों का माप (Measuring Environmental Values):
पर्यावरणीय मूल्यों के माप में, एक अन्य समस्या उत्पन्न होती है । यह पर्यावरण सुरक्षा के लाभों की तथा इस पर किये गये खर्चे की तुलना से सम्बन्धित होती है । अर्थशास्त्रियों ने विश्व विकास प्रतिवेदन 1992 में पर्यावरणीय क्षति के आर्थिक मूल्यांकन के लिये चार उपायों के सुझाव दिये हैं ।
जो इस प्रकार हैं:
(i) बाजार मूल्य (Market Prices):
विपरीत स्वास्थ्य प्रभावों और पर्यावरणीय क्षति के कारण उत्पादकता में हानि की स्थिति में बाजार मूल्य को उनका मूल्यांकन करना होता है । विधि के अनुसार मिट्टी के अपरदन, वनों की कटाई तथा वायु और जल के प्रदूषण के कारण हुई हानियों का मूल्यांकन किया जाता है ।
इसके लिये, पर्यावरणीय क्षतियों तथा उत्पादन अथवा स्वास्थ्य पर इसके प्रभावों की गणना कीमतों के आधार पर की जाती है ताकि मौद्रिक मूल्य प्राप्त हों ।
स्वास्थ्य जोखिमों से सम्बन्धित कल्याण सम्बन्धी हानियां जो प्रदूषित वातावरण के कारण होती है उन्हें उस आय द्वारा मापा जाता है जिसको बीमारी अथवा अपरिपक्व मृत्यु के कारण त्यागना पड़ता है । वास्तविक जीवन में, ऐसे अनुमानों का परिकलन कठिन होता है क्योंकि वे आय की हानि पर निर्भर करते हैं ।
(ii) प्रतिस्थापन की लागतें (Cost of Replacement):
लोग एवं फर्में वायु, जल और भूमि को पर्यावरण की हानियों से बचाने के लिये वैकल्पिक उपकरण लगवाने में निवेश करते हैं । ये निवेश पर्यावरणीय हानियों का एक अनुमान उपलब्ध कर सकते हैं । वास्तव में इन हानियों के प्रभावों को मापना कठिन होता है ।
(iii) प्रतिनिधि बाजार (Surrogate Markets):
पर्यावरणीय हानियों में अन्य बाजारों जैसे सम्पत्ति के मूल्यों और श्रमिकों के वेतनों पर पड़ने वाले प्रभावों को भी हिसाब में लिया जाता है । सम्पत्ति के प्रकरण में मूल्यांकन जोखिमों पर आधारित होता है ।
I सामान्यत: उच्च II पर्यावरणीय III जोखिमों सहित कार्यों के लिये उच्च वेतन तथा उच्च जोखिम पुरस्कार होते हैं । परन्तु यह विधि व्यवहार्य नहीं है क्योंकि श्रमिक पर्यावरण के कारण होने वाली हानियों से परिचित नहीं होते ।
(iv) सर्वेक्षण (Surveys):
एक अन्य विधि है सर्वेक्षण जिसका प्रयोग पर्यावरणीय हानियों के मूल्यांकन के लिये किया जाता है । इस विधि को विकासशील देशों में पर्यावरण के प्रभावों को जानने के लिये अपनाया जाता है । यह जातियों अथवा ऐतिहासिक वस्तुओं के सुख-सुविधा मूल्यों के निर्धारण करने में सहायता करती है ।
4. सामाजिक छूट दर (Social Discount Rate):
प्राय: यह विश्वास किया जाता है कि पर्यावरणीय अवनति लागतों का कारण बनती है । ये साधनों के उपयोगकर्त्ताओं के लाभों को सुधारती हैं । परन्तु समस्या यह है कि वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों पर पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों की लागतों और लाभों को कैसे मापा जाये?
इस कार्य के लिये छूट की दर की आवश्यकता होती है । जिससे सभी लागतों तथा लाभों पर छूट लागू की जा सके । तथापि पर्यावरणीय लागतों और लाभों की छूट के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों के बीच बहुत भ्रम और अस्पष्टता है । उपरोक्त परिचर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि सतत विकास के माप के लिये कोई स्वीकार योग्य उपाय विकसित किया जाना चाहिये ।
Essay # 4. सतत विकास के लिये नीतियां (Policies for Sustainable Development):
प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण विश्वास है कि कृषि, उद्योग, शहरीकरण तथा संरचना क्षेत्रों में होने वाला सर्वागीण विकास तथा जनसंख्या की वृद्धि पर्यावरणीय अवनति की ओर ले जाते हैं । अन्य शब्दों में पर्यावरणीय अवनति मानवीय स्वास्थ्य को हानि पहुंचाती है, आर्थिक उत्पादकता को कम करती है तथा सुख-सुविधाओं की हानि की ओर ले जाती है ।
पर्यावरणीय अवनति के हानि कारक प्रभावों को कम करने के लिए आर्थिक एवं पर्यावरणीय नीतियों का न्यायसंगत चयन और पर्यावरणीय निवेश समय की आवश्यकता है ।
आओ हम इन नीतियों का विस्तार में वर्णन करें:
1. निर्धनता को कम करना (Reducing Poverty):
सर्व प्रमुख नीति निर्धनता को दूर करना है इसलिये ऐसी परियोजनाएं आरम्भ की जानी चाहिये जो निर्धन वर्ग को रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध करें । सरकार को चाहिये कि स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और शिक्षा सेवाओं का विस्तार करें, जिससे जनसंख्या को कम करने में सहायता मिलेगी ।
नागरिक सुविधाओं जैसे पीने के जल की पूर्ति, सफाई की सुविधाएं, गन्दी बस्तियों के स्थान पर अच्छे निवास स्थान आदि देश में पर्यावरण के सुधार में बहुत सहायक होंगे ।
2. वित्तीय सहायताओं की समाप्ति (Removing Subsidies):
किसी वित्तीय लागतों के बिना पर्यावरणीय अवनति को कम करने के लिये सरकार को निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों को संसाधनों के प्रयोग के लिये दी गई रियायतों को समाप्त किया जाना चाहिए ।
वास्तव में, इन रियायतों के कारण, बिजली, उर्वरकों, कीटनाशकों, डीजल, पैट्रोल, गैस, सिंचाई के जल आदि का दुरुपयोग होता है । बदले में ये सब पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न करते हैं । इन रियायतों की समाप्ति अथवा इनको कम करने से देश को सब ओर से लाभ प्राप्त होगा ।
3. बाजार आधारित अभिगम (Market Based Approaches):
पर्यावरण के बचाव के लिये बाजार आधारित अभिगमों को अपनाने की अत्याधिक आवश्यकता है । वे उपभोक्ताओं और उद्योगों को पर्यावरण पर प्राकृतिक साधनों के प्रयोग की लागत के सम्बन्ध में बताते हैं । बाजार आधारित उपकरण (MBIS) सर्वोत्तम नीति है ।
ये दो प्रकार की है:
(i) मात्रा आधारित और कीमत आधारित वे पर्यावरणीय करों के रूप में होते हैं जिनमें सम्मिलित हैं- प्रदूषण खर्चे (निस्सरण कर/प्रदूषण कर) विपणन योग्य आज्ञा पत्र, जमाकर्त्ता कोष प्रणाली, आगत कर/उत्पाद खर्चे, विविध प्रकार के कर दरें और उपयोगकर्त्ता के प्रशासनिक खर्चे,
(ii) वायु और जल साधनों के लिये प्रदूषण कम करने से सम्बन्धित साज-सामान के लिये आर्थिक सहायता ।
4. सम्पत्ति अधिकारों का वर्गीकरण और प्रसार (Classifying and Expanding Property Right):
साधनों के अत्याधिक उपयोग पर सम्पत्ति अधिकारों का अभाव पर्यावरण को अवनति की ओर ले जाता है । इस कारण सांझी अथवा सार्वजनिक भूमि पर अधिक चराई, वनों की कटाई तथा खनिजों तथा मत्स्य क्षेत्रों का अत्याधिक प्रयोग हो जाता है ।
निजी स्वामियों के स्वामित्व के अधिकार तथा आवधिक अधिकार स्पष्ट कर देने से पर्यावरणीय समस्याएं दूर हो जायेंगी । अत: सरकारी रिकार्ड में स्वामित्व के अधिकार पूर्णतया स्पष्ट होने चाहिये ।
5. आर्थिक प्रोत्साहन (Economic Incentives):
कीमत, मात्रा और प्रौद्योगिकी से सम्बन्धित आर्थिक प्रोत्साहन पर्याप्त सहायता कर सकते हैं । प्रोत्साहन प्राय: साधनों के प्रयोगकर्त्ताओं को वायु, जल और भूमि के प्रयोग में प्रदूषकों की मात्रा के लिये विविधतापूर्वक शुल्कों के रूप में दिये जाते हैं । सरकार द्वारा निर्धारित निस्सरण मानकों से कम प्रदूषण उत्पन्न करने पर उन्हें के दी जाती हैं ।
6. नियामक नीतियां (Regulatory Policies):
पर्यावरणीय अवनति को कम करने के लिये प्रयुक्त होने वाला एक अन्य शस्त्र नियामक नीतियां हैं । नियन्त्रक को कीमत, प्रदूषण की मात्रा कीमत अथवा साधन प्रयोग अथवा तकनीकों के सम्बन्ध में निर्णय करने होते हैं । नियामक अधिकारी निर्णय यह लेता है कि क्या नीतियों को प्रत्यक्ष रूप में पर्यावरणीय समस्याओं को लक्षित करना चाहिये अथवा परोक्ष रूप में ।
वह तकनीकी मानकों का निर्धारण करता है और वायु, जल, भूमिप्रदूषकों पर नियम और खर्चे निर्धारित करता है । नियामक प्राधिकरण को पर्यावरणीय मानक लागू करने में सार्वजनिक एवं निजी प्रदूषणकर्त्ताओं अथवा साधन प्रयोगकर्त्ताओं के प्रति भेदभाव रहित होना चाहिये ।
7. व्यापार नीति (Trade Policy):
पर्यावरण के सम्बन्ध में व्यापार नीति के दो उलझाव हैं:
(i) घरेलू नीति सुधारो के सम्बन्ध में,
(ii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार नीति से सम्बन्धित ।
घरेलू व्यापार नीति कम प्रदूषण वाले उद्योगों को शहरों से दूर स्थापित करने पर बल देती है तथा प्रदूषणकारी उद्योगों के लिये साफ-सुथरी तकनीकें अपना कर पर्यावरण हितैषी प्रक्रियाओं पर बल देती है ।
8. सार्वजनिक जागरूकता (Public Awareness):
सार्वजनिक जागरूकता और सहभागिता पर्यावरणीय स्थितियों को सुधारने में बहुत सहायक हैं । पर्यावरण प्रबन्ध और पर्यावरण जागरूकता से सम्बन्धित औपचारिक और अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम पर्यावरण की अवनति को नियन्त्रित करने में और पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने में बहुत सहायता करते हैं ।
इसलिये लोगों का सहयोग लागत रहित एवं उपयोगी वन लगाने, वन्य जीवन के संरक्षण, उद्यानों की व्यवस्था, सफाई तथा जल विकास प्रणाली और बाढ़ नियन्त्रण आदि में सहायता उपलब्ध करता है ।
9. सार्वभौम पर्यावरण प्रयत्नों में सहभागिता (Participation in Global Environmental Efforts):
आधुनिक काल में यह महसूस किया जाता है कि सार्वभौम पर्यावरण प्रयत्नों में सहभागिता पर्यावरण की अधोगति उत्पन्न हानियों का न्यूनतम बनाने में सहायता करती है । इसलिये पर्यावरण के संरक्षण पर समझौते करने के प्रयत्न किये जाने चाहियें । इसमें मौन्टरीयल प्रोटोकॉल सम्मिलित है जिसका प्रयोजन ओजोन-समाप्ति के रसायनों को दूर करना है ।