Here is an essay on ‘Thunderstorm’ for class 7, 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Thunderstorm’ especially written for school and college students in Hindi language.
तूफान पर निबंध | Essay on Thunderstorm
Essay Contents:
- तड़ित झंझा का अर्थ (Meaning of Thunderstorm)
- भारत में तड़ित झंझा तथा ओला वृष्टि (Thunderstorms and Hails in India)
- एल निनो (दक्षिणी दोलन) तथा भारतीय मानसून (El-Nino (Southern Oscillation) and Indian Monsoon)
- टॉरनेडो (Tornadoes)
- आर्कटिक हरिकेन (Arctic Hurricane)
- सागरीय प्रवाह तथा तूफानी सागरीय तरंगें (Sea Surge and Storm Surge)
- जलदोलन/सेश (Seiche)
Essay # 1. तड़ित झंझा का अर्थ (Meaning of Thunderstorm):
ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवात के दौरान यदि गरज-चमक के साथ मूसलाधार वर्षा अथवा ओले पड़े तो उसको तडित-झंझा कहते हैं । तडित-झंझा, वायुमंडल की विशेष अस्थिरता को दर्शाता है । थंड्रस्ट्रोम की उत्पत्ति बादलों से भारी मात्रा में निहित-ऊर्जा निर्मुक्त होने से होती है । इस प्रक्रिया से स्थानीय स्तर भी तीव्र कम वायु भार विकसित है ।
कम वायु भार की समभार रेखायें एक-दूसरे के बहुत समीप होती हैं जिससे वायुभार ढलान में तीव्रता आती है, परिणामस्वरूप थंन्द्रस्ट्रोम की उत्पत्ति होती है । तडित-झंझा में तेज हवा नीचे से ऊपर की ओर तथा ऊपर से नीचे की ओर हवा के झोंकों की भांति चलती है । ऐसी परिस्थिति में घने-काले बादल उत्पन्न होते हैं, जिनसे गरज-चमक के साथ मूसलाधार वर्षा होती है या ओले पड़ते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
विश्व में किसी भी समय हजारों थंद्रास्ट्रोम आते रहते हैं । ऐसे तूफान सबसे अधिक विषुवत रेखीय प्रदेशों में आते हैं । युगांडा की राजधानी कंपाला में विश्व के सबसे अधिक गरज-चमक के तूफान आते हैं ।
Essay # 2.
भारत में तड़ित झंझा तथा ओला वृष्टि (Thunderstorms and Hails in India):
तड़ित झंझा भारत के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न समय पर घटित होते हैं । समय-समय पर प्रत्येक क्षेत्र में आँधी व गर्जना होते रहती है । प्रदीपन की घटना तब होती है जब एक बादल के अन्तर्गत या बादलों के बीच वोल्टेज प्रवणता वायु की वैद्युत प्रतिरोधकता को नियंत्रित कर लेती है । इसके परिणामस्वरूप एक शक्तिशाली चिंगारी निकलती है जो आशिक रूप से विभाजन को बराबर कर देती है ।
जब बादल से बादल प्रदीप्त होते हैं तो आकाश अधिक या कम समान त्वरण से चमकता है । बादल से सतह का प्रदीपन दुर्लभ होता है । इसमें इमारतों में रखे विद्युत यंत्र फट जाते हैं । इससे जंगल में आग लग सकती है । जब अत्यधिक तापमान वृद्धि के दौरान प्रदीपन का आघात होता है तो वायु का विस्फोट होता है तथा गर्जना उत्पन्न होती है ।
ADVERTISEMENTS:
क्योंकि ध्वनि की गति प्रकाश से कम होती है अतः यही कारण है कि बिजली गिरने की घटना के दौरान प्रकाश हम पहले देखते हैं तथा गर्जना बाद में सुनाई पडती है । मानसून के पहले या बाद में तड़ित झंझा के दौरान वर्षा होना व ओलावृद्धि होना महत्वपूर्ण मौसम संबंधी परिघटनाएँ है, जब वायु में पर्याप्त नमी नहीं होती, जैसाकि उत्तर-पश्चिमी भारत में होता है, तो आँधी (डस्ट स्टार्म) की घटना होती है ।
अंधी आदि के साथ तड़ित झंझा प्रायः अल्पकालिक होते हैं, किंतु कुछ अत्यंत प्रचंड व विध्वंसकारी होते हैं, जैसे बंगाल की काल बैशाखी आँधियाँ उत्तर-पश्चिम भारत में आती हैं । कुछ तड़ित झंझाओं के साथ ओले भी गिरते हैं, विशेषतया उत्तरी व मध्य भारत में तथा कभी-कभी आंतरिक प्रायद्वीपीय भारत में । शीतकाल में ओलावृष्ठि की घटनाएं कम होती हैं तथा ज्यों-ज्यों ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है ओलावृष्टि की घटनाएँ बढ़ती जाती हैं । मानसून के दौरान (सामान्य वर्षा ऋतु) समस्त देश में ओलावृष्टि की घटनाएँ नहीं होती हैं ।
ओले (Hails):
ओले संकेंद्रित परतों से निर्मित बर्फ के गोले हैं । ये सिर्फ घने काले बादल से उत्पन्न होते हैं जहाँ वायु का बहाव लगभग 160 किमी-घटा पहुँच सकता है जहाँ अत्यंत शीतल जल की प्रचुर आपूर्ति होती है । प्रारंभ में हवा का प्रवाह ओलों का कोर बनाने के लिए जल की छोटी बूँदों को हिमांक स्तर से भी आगे ले जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
कुछ बिन्दुओं पर ओले ऊपर से गिरते हैं तथा तरल जल की एक परत से टकराते हैं । यदि गोले वायु के प्रवाह द्वारा हिमांक स्तर से दोबारा उत्थापन किए जाते हैं तो दूसरी परत का निर्माण करने के लिए ये पुन: जम जाते हैं । यह क्रम कई बार पुन: घटित हो सकता है जिससे कई प्रकार की बर्फ की परतों का निर्माण होता है जिसमें साफ व दूधिया बर्फ के वैकल्पिक क्षेत्र शामिल होते हैं ।
यह प्रक्रिया चलती रहती है जब तक यह या तो वायु के निम्न बहाव या अत्यधिक भारी होने के कारण तड़ित झंझा के ऊपरी प्रवाह द्वारा लटकाने से यह ओला बन कर गिर नहीं जाता ।
जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड में लगभग 6-7 दिनों तक ओले पडते हैं परंतु समीपस्थ मैदानों में कम होकर यह 2 वर्षों में 1 बार हो सकता है । बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में ओलावृद्धि वर्ष में 1 या 2 बार होती है तथा रबी की फसल हेतु संभावित खतरा उत्पन्न करते हैं ।
प्रचंड ओलावृद्धि से बचाव कृत्रिम ओला अवरोधन की प्रक्रिया द्वारा संभव है । ओलावृद्धि के बारे में पूर्वानुमान लगाना कठिन है क्योंकि इनकी घटनाएँ छिटपुट होती हैं तथा एक सीमित क्षेत्र में होती है । वास्तव में यह एक स्थानीय परिघटना होती है ।
पश्चिमी विक्षोभ (Western Disturbance):
पश्चिमी विक्षोभ निम्न दाब वाले अंकन हैं जो भूमध्यसागर से उद्भूत होते है तथा तुर्की, सीरिया, इराक, ईरान, अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान को पार करके भारत पहुँचते हैं । पश्चिमी विक्षोभ को भारत लाने में जैट स्ट्रीम महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । नवंबर व मई के महीने में उनकी आवृत्ति बढ़ जाती है ।
इन पश्चिमी विक्षोभों की औसत आवृत्ति नवंबर व मई में 2 है तथा दिसंबर से अप्रैल तक 4 या 5 है । इन विक्षोभों से हल्की वर्षा होती है जो रबी फसलों के लिए लाभकारी है । पश्चिमी विक्षोभों के आगमन पर मानव दक्षता में भी वृद्धि होती है । शीतकालीन महीनों में विक्षोभों के बाद उत्तरी व मध्य भारत में शीत लहर आती है । ये शीत लहरें तथा तदुपरांत कोहरा व पाला गन्ने, सब्जियों तथा फल उद्यानों हेतु हानिकारक है ।
शीत लहर तथा पाला (Cold Waves and Frost):
शीतलहर तब आती है जब तापमान में सामान्य से 6०C से 8०C तक की गिरावट आती है । जब तापमान 8०c से अधिक गिर जाता है तो इसे भीषण शीतलहर की स्थिति कहा जाएगा ।
सामान्यतः भारत में शीत ऋतु दिसंबर के प्रारंभ में शुरू होती है । सर्दी के महीनों में पश्चिमी विक्षोभ के प्रभाव से उत्तरी भारत में रात्रि का तापमान सामान्य से 7०c-8०c नीचे चला जाता है तथा प्रायद्वीपीय भारत में यह सामान्य से 5०c से कम हो जाता है । भूमि का तापमान वायु के तापमान से काफी कम होता है ।
इस शीतलहर की स्थिति में फसलों पर बुरा प्रभाव पड़ता है । परिणामतः सब्जियों, पुष्प के उद्यानों, गन्ने तथा खड़ी रबी फसल को शीत लहर व भूमि पर व्याप्त पाले की वजह से भारी क्षति होती है । पाले से उत्तरी पंजाब की फसलों को भारी नुकसान होता है ।
यह दिसंबर, जनवरी व फरवरी में 10-12 दिनों तक होता है । इस क्षेत्र के दक्षिणी व पूर्वी हिस्से में पाला पड़ने की घटना कम होती है । वह तापमान जिस पर वायु ठंडी होकर संतृप्त हो जाती है ओसांक कहलाता है । जब हवा का ओसांक हिमांक से कम होता है तो पाला बनता है । इस प्रकार पाले का निर्माण तब होता है जब जल वाष्प, बिना द्रव्य बने गैस से ठोस में सीधे परिवर्तित हो जाता है । सतह पर अत्यंत लघु बर्फ के कण एकत्रित हो जाते हैं ।
जब किसी क्षेत्र में शीत हवा का पिंड घूमता है या जब रात्रि में पर्याप्त विकिरण शीत होती है तो संकट उत्पन्न हो जाता है । शीत हवा के पिंड से खड़ी रबी फसल, सब्जियों तथा पुष्प उद्यानों को व्यापक क्षति होती है ।
भारतीय मौसम विभाग कृषकों को संरक्षण के उपाय अपनाने हेतु समय-समय पर मौसम की पूर्वसूचना प्रदान करता रहता है । सींचाई व जल का छिडकाव खेतों में पाले से हुई क्षति को कम करता है । पुष्पाद्यानों में हीटर का प्रयोग कर तापमान को लगभग 5०c तक बढ़ाया जा सकता है ।
वे घाटियाँ जहाँ शीतल वायु स्थिर हो जाती है, विशेषतया मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र के अगर के खेतों में, पाले का काफी हद तक प्रभाव देखा जा सकता है । अतः पुष्पउद्यान व चाय के बागानों की स्थापना करते समय इस प्रकार की घाटियों का चयन करने से बचना चाहिए ।
Essay # 3.
एल निनो (दक्षिणी दोलन) तथा भारतीय मानसून (El-Nino (Southern Oscillation) and Indian Monsoon):
इनसो (ENSO) एल निनो (El-Nino) तथा दक्षिणी दोलन का परिवर्णी शब्द है । दक्षिणी दोलन पश्चिमी प्रशांत पर सामान्यतः निम्न वातावरणीय दाब तथा पूर्वी प्रशांत पर सामान्य उच्च दाब के बीच वायु प्रवाह का व्यूत्क्रमण है । यह व्यूत्क्रमण एल निनो के आगमन के कारण होता है ।
विश्व का गर्म समुद्री जल का सर्वाधिक विशाल क्षेत्र, जिसकी सतह का तापमान 27०c से अधिक है, पश्चिमी विषुवतीय प्रशांत इन्होनेशियाई क्षेत्र है । भारी वर्षा तथा वातावरण का उष्मन इस विशाल पूल में पर्यावरणीय तापन का स्रोत है । परंतु पूर्वी विषुवतीय प्रशांत क्षेत्र पश्चिमी भाग से सामान्य रूप से ठंडा है । ऐसा होने का कारण उत्तरपूर्वी व्यापारिक पवनें हैं तथा चिली के समुद्र तट के पास शीतल जल धारा का होना तथा शीतल गहरे जल का पेरू के तट से दूर होना है ।
सामान्य दशाओं में, उदाहरणतः गैर-एल निनो वर्ष में व्यापारिक हवाएं विषुवत रेखा के पास मिल जाती हैं तथा प्रवाह एक गर्म सतही धारा का निर्माण करती जो पूर्व से पश्चिम विषुवत रेखा के साथ घूमती है इसके परिणामस्वरूप गर्म सतही जल की मोटी परत बन जाती है जो पश्चिमी प्रशांत इण्डोनेशिया में उच्च समुद्री तल (लगभग 40 सेमी.) का निर्माण करती है । पश्चिमी प्रशांत के समुद्री सतह का तापमान पश्चिमी प्रशांत महासागर से लगभग 8०c तक अधिक होता है । परंतु एक तीक्या पेरुई धारा, ठंडे जल का उमड़ना तथा निम्न समुद्री सतह पूर्वी प्रशांत की विशेषताओं को प्रदर्शित करता है ।
समय-समय पर दक्षिणी दोलन की परिघटना होती है जो सतही दबाव पर वैश्विक स्तर का उतार-चढ़ाव है तथा जिसका कार्य केंद्र एक तरफ इन्डोनेशिया-उत्तरी आस्ट्रेलिया है तथा दूसरी तरफ दक्षिण पूर्व प्रशांत क्षेत्र है । जब यह परिघटना होती है तो उपरोक्त सामान्य स्थिति व्यापक रूप से परिवर्तित हो जाती है ।
इन्डोनेशियाई क्षेत्र में दबाव बढ़ता है । यह व्यूत्क्रमण विषुवतीय धारा में महत्वपूर्ण परिवर्तन करता है जिसमें गर्म जल पूर्व की ओर प्रवाहित होता है । गर्म जल का यह पूर्व की ओर परिवर्तन अल निनो के आगमन का प्रारंभ है जिससे पर्यावरणीय संचरण में परिवर्तन आता है ।
यह दक्षिणी दोलन की गर्म अवस्था को प्रदर्शित करता है । इस प्रकार एल निनो अनियमित पूर्वी विषुवतीय प्रशांत क्षेत्र की अनियमित उष्णता है जिसमें तापमान उल्लेखनीय रूप से सामान्य से अधिक है । एल निनो का नामकरण पेरू देश के एक क्रिसमस त्यौहार के नाम पर किया गया है जहाँ पेरू के जल की उष्णता एक बालक या क्राइस्ट बालक के जन्मदिन के आसपास होती है ।
मौसम वैज्ञानिक एलनिनो तथा दक्षिणी दोलन की दो परिघटनाओं का संदर्भ देते हैं । जो एन्सो के रूप में जलवायुविक उतार-चढ़ाव की वैश्विक व्यवस्था के पर्यावरणीय व सागरीय भाग हैं । पूर्वी प्रशांत के शीतलन का व्यूत्क्रमण ला निनो कहलाता है । एल नोनो उष्णकटिबंधीय प्रशांत में महासागर-पर्यावरणीय तंत्र एक अवरोध है जिसका मौसम व विश्व पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है ।
एलनिनो के परिणामस्वरूप ही यू.एस.ए. के दक्षिणी भाग में तथा पेरू में वर्षा की अधिकता है जिससे दक्षिणी अमेरिका में विनाशकारी बाद आती है तथा इन्डोनोशया तथा आस्ट्रेलिया में सूखा पड़ता है जिसे कभी-कभी आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण पूर्व एशिया के द्वीप समूहों में लगी विनाशकारी आग से जोड़ा जाता है ।
एल निनो के आगमन पर अर्जेन्टीना में मक्का व ज्वार को अपेक्षातया अन्य वर्षों की तुलना में काफी अधिक देखा गया है । एन्सो की अस्थिरता तथा अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में व्यापक सूखे का घटित होना देखा गया है ।
प्रदीपन एवं गरज-चमक (Lightning and Thunder):
वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर एक दिन में औसतन 80 लाख बार बिजली चमकती है । बिजली चमकने से उसका तापमान 15,000०C से 30,000०C होता है । बिजली की चमक के साथ वायुमंडल में भारी कड़क होती । बिजली चमक यदि बहुत दूरी पर हो और कड़क की आवाज न आ रही हो तो ऐसे प्रदीपन को ऊष्मा-प्रदीपन कहते हैं ।
बिजली प्रदीपन से हवाई जहाजों को भारी खतरा रहता है । इसकी लपेट में आकर बहुत-से लोगों, जीव-जंतुओं तथा पशु-पक्षियों की मृत्यु हो जाती है । प्रति वर्ष हजारों आदमी बिजली प्रदीपन से विश्व में मर जाते हैं ।
Essay # 4.
टॉरनेडो (Tornadoes):
टॉरनेडो एक भीषण भंवर होता है । जिसके केंद्र में अत्यधिक कम वायु दाब होता है । टॉरनेडो में वायु की गति बहुत तीव्र होती है । दूसरे शब्दों में टॉरनेडो एक ऐसा भयंकर ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवात है जिसका व्यास तो बहुत छोटा होता है, परंतु तूफानी हवाओं के कारण तबाही जान-माल की बहुत होती है ।
वैसे तो टॉरनेडो का व्यास दो एक किलोमीटर होता है, परंतु औसत आकार का व्यास 10 किलोमीटर तथा ऊँचाई हजारों मीटर तक हो जाती है । ऐसे टॉरनेडो का आधार छोटा होता जाता है परंतु गति में तीव्रता बढ़ती जाती है । एक सामान्य टॉरनेडो से मूसलाधार वर्षा होती है । गरज-कड़क के साथ तेज हवाएँ चलती हैं ।
एक टॉरनेडो उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित परिस्थितियों की आवश्यकता होती है:
1. धरातल अथवा सागर स्तर पर अति ऊष्ण-आर्द्र वायु राशि पाई जानी चाहिए ।
2. वायुमंडल की वायु राशि में लंबवत् अस्थिरता तापमान की परिस्थिति उत्पन्न होनी चाहिए ।
3. केरोलिस बल के कारण कम वायु भार के क्षेत्र में पवन में चक्र उत्पन्न होना चाहिए ।
संयुक्त राज्य अमेरिका के ग्रेट प्लेन में प्रायः चक्रवात आते रहते हैं । अधिकतर टॉरनेडो मार्च-अप्रेल तथा मई के महीने में आते हैं । इनकी संख्या अप्रैल में 26 मई में 18 तथा मार्च में 13 मानी जाती हैं अन्य महीनों में इनकी संख्या दो से लेकर छ: तक मानी जाती है ।
भारत वर्ष में उत्तरी भारत के मैदान में मार्च अप्रैल के टॉरनेडो आते हैं । चीन के ह्वाग हो तथा यांगटिसिकियांग के मैदानों में भी टॉरनेडो रिकार्ड किये जाते हैं ।
Essay # 5.
आर्कटिक हरिकेन (Arctic Hurricane):
आर्कटिक हरिकेन को ध्रुवीय कम वायु भार एस कहते है । ये ध्रुवीय तूफान उत्पत्ति के पश्चात कई दिनों तक बने रहते हैं । इनकी उत्पत्ति का मुख्य कारण ध्रुवीय अति ठंडी वायु राशियों दक्षिण की ओर के गर्म जल की ओर प्रस्थान करती हैं ।
गर्म जल से संपर्क करने के बाद ठंडी हवा गर्म होने लगती है, उसमें ऊष्ण की मात्रा बढ़ जाती है, वायु गर्म हल्की होकर होती है, फैलती है और वायुमंडल में ऊपर की ओर उठती है, जिससे यह संवहनी पवन-धारा को जन्म देती है । ये संवहनी पवनें कभी-कभी ध्रुवीय तूफान का रूप धारण कर लेती हैं ।
ध्रुवीय-तूफान सामान्यतः लघु आकार के होते हैं और थोड़े समय में समाप्त हो जाते हैं । क्षैतिज रूप से ये 1000 किलोमीटर तक फैले हो सकते हैं तथा दो-तीन दिन में समाप्त हो जाते हैं, परंतु ये भयानक होते हैं और इनके बारे में भविष्यवाणी करना कठिन होता है ।
इनसे जहाजरानी/नवगमन में बाधा पड़ती है तथा सागर से तेल-प्राकृतिक गैस निकालने में रुकावट आती है । इस प्रकार के तूफानों को ध्रुवीय भंवर के नाम से भी जाना जाता है ।
Essay # 6.
सागरीय प्रवाह तथा तूफानी सागरीय तरंगें (Sea Surge and Storm Surge):
सागरों में तूफानी लहरों के उठने को सागरीय अपवाह अथवा सागरीय सर्ज कहते हैं । इनकी उत्पत्ति ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के फलस्वरूप होती है । सागरीय प्रवाह में सागर का जल वायु वेग के कारण तटीय भागों में चढ़ जाता है । सागरीय प्रवाह के उत्पन्न होने में वायु, सागर तथा थल तीनों ही की विशेष भूमिका होती है । चक्रवात की तेज हवाओं के कारण सागर का जल थल पर चढ़ जाता है ।
यूँ तो सागरीय प्रवाह देखने में ज्वार-भाटे का ही स्वरूप प्रतीत होता है, परंतु सागरीय प्रवाह की लहरे तुलनात्मक रूप से ऊँची होती हैं तथा यह निचले तटों के बहुत बड़े क्षेत्र को जलमग्न कर लेती है । निचले तटीय भाग बाढ़ग्रस्त हो जाते है । इन लहरो की तीव्रता एवं भीषणता कम वायु भार अर्थात् चक्रवात के आकार एवं गति पर निर्भर करती है ।
भारत में सागरीय अपवाह प्रायः खंभात की खाडी में रिकार्ड किये जाते हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी तट एवं जापान, चीन तथा आस्ट्रेलिया के तटों पर सागरीय प्रवाह से प्रायः बाद आती रहती है ।
सागरीय अपवाह मानव समाज के लिये तबाही लेकर आता है । इससे नगर एवं ग्रामीण बस्तियाँ जलमग्न हो जाती हैं खेत-खलिहान फसलें पानी में डूब जाती हैं तथा पशु-पक्षियों की भारी संख्या में मौत हो जाती है ।
सागरीय अपवाह के बारे में सेटेलाइट एवं रडार के द्वारा भविष्यवाणी की जाती है । कभी-कभी यह तूफानी लहरें ऊँचे अक्षांशों के देशों के तटों को भी बाद की लपेट में ले लेती हैं । इस दिशा में विशेष प्रयास करने की आवश्यकता है ताकि संभावित प्रभावित होने वाले देशों को समय से चेतावनी दी जा सके ।
Essay # 7.
जलदोलन/सेश (Seiche):
किसी सागर के बंद क्षेत्र लोलक/पेंडयुलम के भांति किनारे से जल के टकराने की प्रक्रिया को सेश कहते हैं । सेश का सबसे पहले अध्ययन 18वीं शताब्दी में स्विटरजरलैंड की जेनेवा झील में किया गया था । वैज्ञानिक इस बात से चकित थे कि जनेवा झील का जल स्तर निश्चित समय के पश्चात् क्यों ऊँचा-नीचा होता रहता है ।
अध्ययन करने पर पता चला कि निरंतर समीर के कारण झील का पानी किनारे से जाकर टकराता है, और जब समीर का चलना बद हो जाता है तो झील का जल स्तर नीचा हो जाता है अर्थात् उसमें लहरें उठना बंद हो जाती है ।
सेश प्रक्रिया में झील तथा सागर के बद भागों में जल स्तर एक या दो फुट तक ऊँचा उठ जाता है । प्रायः लहरे लंबवत् होती हैं जिसमें जल का बहाव आगे या पीछे नहीं होता । सेश लहरों से कभी-कभी तटीय संपत्ति को हानि होने की संभावना बढ जाती है ।