जल चक्र पर निबंध: अर्थ और प्रक्रिया | Essay on Water Cycle: Meaning and Process in Hindi!

Essay of Water Cycle


Essay # 1.

जल-चक्र का अर्थ (Meaning of Water Cycle):

जल चक्र की प्रक्रियाएं विभिन्न प्रकार से घटित होती हैं । भूमिगत एवं भू-सतह पर प्रवाहित होते हुए व हिमावतारित क्षेत्रों में ठोस अवस्था में अनाच्छादन में सक्रिय रहता है । अपक्षय, वृहद् क्षरण एवं भौतिक एवं रासायनिक अपरदन में पानी मुख्य कारक के रूप में कार्य करता है ।

पानी पृथ्वी पर एक आधारभूत संसाधन है, जो सभी प्राकृतिक संसाधनों में प्रमुख स्थान रखता है । पानी प्रकृति की रचना में सहभागी होकर सम्पूर्ण जीवमंडल को आधार प्रदान करता है । इसका वितरण पृथ्वी पर अनेक स्थानों पर विभिन्न रूपों में पाया जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

इसका स्वरूप स्थिति एवं जलवायु के अनुसार परिवर्तित होता रहता है । गैसीय अवस्था में वायुमण्डल में जलवाष्प के रूप में, ठोस अवस्था में सूक्ष्म हिम कणों के रूप में एवं द्रव अवस्था में जल बूंदों के रूप में पाया जाता है ।

ये सभी दशायें तापमान में बदलाव के कारण बदलती रहती हैं व मौसमी प्रतिरूप प्रभावित करती हैं । पृथ्वी पर जैविक समुदाय को पानी की नियमित आपूर्ति की जरूरत होती है । यह पानी संतुलित गुणवत्तायुक्त होना चाहिए जो मुख्यत: नदियों, झीलों व भूमिगत जलभृतों से प्राप्त होता है ।

हिम के रूप में एकत्रित स्वच्छ जल मानव जो सरलता से उपलब्ध नहीं हो सकता, तथा सागरीय जल में सतियता है, परिणामत: वह पेयजल जो सरलता से प्राप्त हो सकता है उसका भण्डार सीमित है ।

जलीय चक्र में पानी की जलमण्डल, वायुमण्डल व स्थलमण्डल पर नियमित चक्रीय व्यवस्था को शामिल किया जाता है । पानी सागरों, झीलों, नदियों, स्थल हिस्से (मृदा नमी), पौधों आदि में वाष्पीकरण एवं वाष्पोत्सर्जन द्वारा वायुमण्डल में पहुंचता है ।

ADVERTISEMENTS:

पानी की विभिन्न रूपों में सम्पन्न होने वाली वह चक्रीय व्यवस्था जलीय चक्र कहलाती है । पानी चक्र में पानी का परिसंचरण विभिन्न परिमण्डलों में भी मुक्त तौर पर होता है ।

इसके अंतर्गत वायुमण्डल में वायु का उर्ध्वाधर व क्षैतिज परिसंचरण, एक स्थान से दूसरे स्थान पर नमी का स्थानान्तरण, पानी मण्डल में सागरीय धाराओं, पानी संचलन अथवा स्थलमण्डल से नदियों व हिमनद के माध्यम से पानी सागरों की तरफ जाता है ।

इसी तरह से वाष्पीकृत तथा पौधों का वाष्पोत्सर्जित स्थल से स्पन्दन के जरिये भूमि में पहुँचता है । इस तरह जलीय चक्र में तीन मुख्य प्रक्रिया सक्रिय हिस्से लेती हैं ।

प्रतिवर्ष एक प्रतिशत जल का संचारित होना विभिन्न तरह से शाखाओं व पानी भण्डारों की दृष्टि से काफी जटिल है । पानी चक्र में सहभागी पानी का बड़ा हिस्सा सागरों एवं महासागरों में स्थित है ।

ADVERTISEMENTS:

पानी का मात्रा 2.6 प्रतिशत हिस्सा ही शुद्ध पानी है शेष हिस्से स्थायी हिम के रूप में एकत्रित है । जलचक्र में नदियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है चूंकि स्थल से महासागरों व सागरों की तरफ पानी को प्रवाहित करती हैं ।

नदियाँ पानी को तीव्रता से प्रवाहित कर देती हैं व संचय नहीं रख पाती हैं पर झीलें नदियों की तुलना में पानी का संचय ज्यादा रखती हैं । पृथ्वी पर लगभग 250 बड़ी झीलें हैं । पानी विभिन्न संचयन स्थलों में गति करता है जबकि जलीय चक्र में इसकी गति विविध दर से पूर्ण होती है ।

महासागरों, हिम टोपियों व शैलों में पानी लम्बे समय तक संचित रहता है, जबकि नदियों व वायुमण्डल में लघु अवधि तक ही संचय रह पाता है, तथापि इसके पानी के पुन:चक्रण का ज्यादा महत्व है ।


Essay # 2.

जल चक्र की प्रक्रिया (Process of Water Cycle):

जल चक्र की प्रक्रिया में इसके विभिन्न स्तरों या क्रमों का इसकी गतिशीलता पर प्रभाव पड़ता है यथा- जो नमी वायुमण्डल को प्राप्त होती है वह जल, ओस हिम, पाले इत्यादि किसी भी रूप में धरातल या समुद्री को पुन: प्राप्त हो सकती हैं ।

इसलिए अवस्था तथा अवस्थि में होने वाले इन परिवर्तनों के फलस्वरूप जलीय चक्र की प्रक्रिया में बाधाएँ आती हैं । सूर्य से प्राप्त ऊर्जा (तापमान) की वजह से महासागरों का पानी जलवाष्प का रूप धारण कर वायुमण्डल में प्रवेश करता है ।

महासागरों से स्थल की तरफ चलने वाली पवन इस जलवाष्प को गति देती है तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित करती है । इसके उपरान्त इस जलवाष्प का जब संघनन होता है तब भू-सतह पर वर्षा होती है व वर्षा से धरातल को प्राप्त होने वाला यह पानी नदी नालों के रूप में भू-पृष्ठ पर बहता है एवं अन्त में महासागरों में प्रवेश कर जाता है ।

सौर ऊर्जा से यह जलचक्र गति करता है । इस तरह वर्षा से प्राप्त इस पानी का कुछ हिस्सा वनस्पतियों द्वारा वाष्पोत्सर्जन होने से ह्रास हो जाता है व कुछ पानी नाइयों, तालाबों, झीलों इत्यादि से वाष्पीकरण पुन: वायुमण्डल में पहुँच जाता है ।

धरातल पर होने वाली जलवर्षा के कुछ हिस्से की भू-सतह के नीचे अन्त:स्पन्दन हो जाता है । मृदा के इस पानी भण्डार को मृदा पानी भण्डार कहते हैं । जिसका पौधों से वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से ह्रास होता रहता है ।

कुछ पानी स्रोतों के रूप में पुन: धरातल पर आ जाता है और मृदा पानी भण्डार से कुछ हिस्सा नीचे की तरफ संचरित हो जाता है । धरातल के नीचे संगृहीत इस जलीय हिस्से को भू-गर्भीय पानी कहते हैं ।


Essay # 3.

जल चक्र की विधियाँ (Methods of Water Cycle):

इस तरह संसार स्तरीय पानी चक्र में निम्न क्रिया विधियाँ महत्वपूर्ण है:

(1) वाष्पोत्सर्जन:

पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया होती है । यह कुछ पौधों में अधिक तथा कुछ पौधों में कम होती है । यह क्रिया पत्तियों में स्थित रन्ध्रों द्वारा सम्पादित होती है । इस प्रक्रिया में भू-गर्भीय की काफी मात्रा में हानि होती है ।

इस माध्यम से पानी की हानि मुख्य तौर पर दिन में होती है । विविध पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है । पानी चक्र की क्रियाविधि में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहता है ।

मरुस्थलीय क्षेत्रों में वनस्पति की मात्रा कम पाये जाने की वजह से वाष्पोत्सर्जन कम होता है, पर सघन वनस्पति आवरण वाले क्षेत्रों में वाष्पोत्सर्जन तेज होने पर जलीय चक्र की क्रिया विधि भी तेज रहती है ।

जलीय चक्र की इस क्रिया विधि का भू-गर्भीय की मात्रा पर प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है । वाष्पोत्सर्जन की मात्रा को मृदा का गठन एवं संरचना भी प्रभावित करते हैं, क्योंकि पौधों की जड़ों को प्राप्त होने वाला पानी अन्त:स्पंदन के जरिये भूमि के अन्दर पहुँचता है । इसमें मृदा की संरचना भी उत्तरदायी होती है ।

(2) अन्त:स्पंदन:

वर्षा का जल रिसता हुआ भूमि के अन्दर पहुँचता है । पानी के अन्त:स्पंदन की दर मृदा के संगठन व संरचना से प्रभावित होती है । भूमि के पानी को सोखने की उसे सतही प्रवाह कहते हैं । वर्षा से प्राप्त पानी का कतिपय हिस्सा ढाल के अनुसार प्रवाहित हो जाता है ।

उसे सतही प्रवाह कहते हैं । मृदा की प्रकृति अन्त:स्पंदन को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती है । चिकनी मृदा में अन्त:स्पंदन की दर न्यून होती है, पर बलुई मृदा में तेज होती है । इसी तरह भूमि के रन्ध्र जितने बड़े होंगे उतनी ही तेज मात्रा में अन्त:स्पंदन तेज होगा ।

भूमि की संरचना के साथ ही उसके अन्तर्गत पाये जाने वाला जैविक तत्व भी पानी के अन्त:स्पंदन को तेज करता है । वर्षा पानी अन्त:स्पंदन द्वारा भूमि रन्ध्रों में पहुँचकर भूमिगत पानी के रूप में मौजूद रहता है । मृदा रन्ध्रों में सामान्य तौर पर हवा विद्यमान रहती है । जैसे धरातलीय पानी भूमि के अन्दर प्रवेश करता है तो इस वायु का स्थान ले लेता है ।

इस तरह वायु की मात्रा कम होने व पानी की मात्रा बढ़ने की स्थिति को जलाक्रान्त स्थिति कहते हैं । यह भूमि की सन्तृप्त अवस्था होती है अर्थात् इस सीमा के बाद भूमि पानी को धारण नहीं करती है ।

मृदा में पानी तीन रूपों में स्थित रहता है- प्रथम वह पानी जो बड़े रन्ध्र स्थानों में रहता है उसे गुरुत्वीय पानी कहते हैं । पौधे इस पानी का इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं । दूसरा, मृदा कणों के चारों तरफ पारस्परिक आकर्षण द्वारा फिल्म के तौर पर चिपका रहता है, केशीय पानी कहते हैं ।

यह पानी केशिका स्थानों व रन्ध्राकाशों में रहता है । पौधे मुख्यतया इसी पानी का इस्तेमाल करते हैं । तृतीय मृदा कणों की सतह पर बहुत पतली परत के रूप में रहता है, जिसे आर्द्रताग्राही पानी कहते हैं ।

पौधों में भी छोटे-छोटे रन्ध्र होते हैं । जिसमें पहुँचकर जल पौधे का पोषण करते हैं परन्तु जब अनावृष्टि या तापमान की अधिकता के कारण ये रन्ध्र सूख जाते हैं तो अधिक तापमान के वजह या ज्यादा दिनों तक वर्षा न होने के वजह से छोटे-छोटे रन्ध्र स्नों में पानी खत्म हो जाता है । इसके उपरांत पौधे सूखने लग जाते हैं । इस स्थिति को पौधों का ‘म्लानी बिन्दु’ कहते हैं । बालू मृदा में म्लानी बिन्दु चिकनी मृदा की अपेक्षा शीघ्रता से आता है ।

(3) वर्षा:

प्राय: देखा जाता है कि वर्षा की गति कभी मन्द तो कभी तीव्र होती है । इस तीव्रता को मापने के लिए वर्षा की दर की तीव्रता की दर का मापन करते हैं । जिन स्थानों पर वर्षा की हवाएं सबसे पहले प्रवेश करती हैं वहाँ वर्षा ज्यादा तेज होने की संभावना रहती है ।

ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा की तीव्रता ज्यादा होती है । जबकि कभी-कभी कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी बहुत तेज वर्षा होती है । तेज वर्षा से लाभ कम व हानि ज्यादा होती है । तेज वर्षा से प्राप्त पानी का उसी गति से अन्त:स्पंदन नहीं हो पाता है जिससे भूमिगत जलीय चक्र प्रभावित होता है ।

वर्षा की कुल मात्रा के आधार पर ही उक्त क्षेत्र में वनस्पति एवं फसलों का विकास होता है । वर्षा की मात्रा के साथ-साथ वर्षा के दिनों की संख्या भी महत्वपूर्ण होती है । अगर किसी स्थान पर प्राप्त होने वाली कुल वर्षा वर्ष के अधिकांश दिनों में वितरित है तो जलीय चक्र के संतुलित होने हेतु जरूरत है ।

कम वर्षा के वजह से सूखा पड़ता है ज्यादा वर्षा के वजह से बाढ़ें आती हैं । इस तरह वर्षा का स्वभाव जलीय चक्र की क्रिया विधि को प्रभावित करता है । वर्षा के साथ ही हिमवृष्टि, ओस, तुषार इत्यादि भी पानी को नियंत्रित करते हैं ।

वर्षा की मात्रा के साथ धरातलीय उच्चावच का भी सामंजस्य होता है । वर्षा का स्वभाव तेज हो अथवा ढीला, भू-सतह का ढाल उसके प्रवाह, अन्त:स्पंदन व वाष्पीकरण को प्रभावित करते हैं ।

(4) वाष्पीकरण:

वाष्पीकरण जल चक्र की प्रक्रिया का प्रमुख स्तर है । इसी प्रक्रिया के जरिए महासागरीय पानी वायुमण्डल में पहुँचता है । महासागरों से पानी का वाष्पीकरण महाद्वीपों से ज्यादा होता है । इसका मुख्य वजह पानी की पर्याप्त उपलब्धता होना है ।

एक अनुमान के अनुसार समुद्रों से 4,55,000 घन किलोमीटर पानी प्रतिवर्ष वाष्पीकरण द्वारा वायुमण्डल पहुंचता है । भू-सतह पर स्थित जलस्रोतों से 62,000 घन किलोमीटर द्वारा वायुमण्डल में पहुंचता है । इसके प्रतिकूल 98,000 घन किलोमीटर पानी जब वाष्पित होता है तो यह वायुमण्डल में समा जाता है ।

एक निश्चित सीमा से ज्यादा जलवाष्प वायु में समा सकता है । आपेक्षिक आर्द्रता 100 फीसदी होने पर वायु को सन्तृप्त कहा जाता है । जल चक्र की प्रक्रिया में धरातल का 5 प्रतिशत जल ही प्रयुक्त होता है ।

वाष्पीकरण की प्रक्रिया के आधार पर ही वर्षों की मात्रा निर्भर करती है । बुडाइको (1971) के आकलन के अनुसार महासागरीय क्षेत्रों में वाष्पीकरण की मात्रा वर्षा से ज्यादा होती है ।

इनके अनुसार महासागरों से प्रतिवर्ष 4,55,000 घन किलोमीटर पानी का वाष्पीकरण होता है, पर वर्षा द्वारा प्रतिवर्ष मात्र 409,000 घन किलोमीटर पानी ही महासागरों को पुन: प्राप्त हो पाता है । इस तरह महासागरों से प्रतिवर्ष 46,000 घन किलोमीटर पानी की हानि होती है ।

दूसरी तरफ स्थलीय भागों से प्रतिवर्ष 62,000 घन किलोमीटर पानी का वाष्पीकरण होता है, परन्तु वर्षा के स्थलीय भागों को प्रतिवर्ष 1,08,000 घन किलोमीटर पानी प्राप्त होता है ।

इसलिए स्थलीय भागों पर प्रतिवर्ष 46,000 घन किलोमीटर अतिरिक्त पानी प्राप्त होता है । यह अतिरिक्त पानी धरातलीय प्रवाह के जरिए पुन: महासागरों में पहुँच जाता है । इसलिए महाद्वीपों पर कुल वाष्पीकरण से वर्षा की मात्रा ज्यादा होती है ।

(5) धरातलीय प्रवाह:

धरातलीय प्रवाह जल चक्र की वह क्रिया विधि है जिसमें वर्षा का जल रिसाव से जमीन में न पहुंचकर ढाल के अनुसार बहता है । प्रवाहक की गति ढाल पर निर्भर करती है । तेज ढाल होगा तो प्रवाह तेज होगा व ढाल कम होगा तो प्रवाह धीमा व अन्त:स्पंदन ज्यादा होता है ।

तेज ढाल में अन्त:स्पंदन कम हो पाता है । इसके भूमि के अन्दर रिसने पर अधोभूमि प्रवाह होने लगता है । यह अपवाह बड़े-बड़े रन्ध्रों से होता है । इसकी रफ्तार काफी कम होती है । धरातलीय प्रवाह हानिकारक भी होता है । इस प्रवाह के वजह ही भूमि का पानी अपक्षरण होता है ।

व मृदा कण बहने लगते हैं । प्रवाह की गति इसकी मात्रा निर्धारित करती है । प्रवाह धीमा होगा तो महीन कण ही बहते हैं, जबकि प्रवाह तेज होने पर बड़े-बड़े चट्टानों के टुकड़े भी प्रवाह के साथ बहते हैं । सतही अपवाह को वर्षा की मात्रा प्रभावित करती है, इसमें वर्षा की मात्रा, अवधि एवं दर महत्त्वपूर्ण हैं ।

वर्षा की तेज मात्रा अपवाह तेज व कम मात्रा में धीमा होता है । वर्षा की तीव्रता धरातलीय प्रवाह की मात्रा एवं दर दोनों पर प्रभाव डालती है । इसी तरह धरातलीय क्षेत्र के जलग्रहण का आकार भी प्रवाह को प्रभावित करता है । धरातल का ढाल भी भू-स्तरी प्रवाह को प्रभावित करता है ।

तेज ढलान वाले भागों में ऊपरी क्षेत्रों में वर्षा होने पर निचले क्षेत्र जल्दी प्रभावित होते हैं । इस तरह धरातलीय पानी का प्रवाह एवं मात्रा दोनों जलीय चक्र को नियंत्रित करते हैं । जलीय चक्र के संतुलित संचारण में भूमिगत पानी का अहम योग रहता है ।

वर्षा पानी भू-सतह पर स्थित विभिन्न स्रोतों में एकत्रित होता है । जिनसे वह अन्त:स्पंदन द्वारा भूमि के अन्दर पहुँचता है, जहां से वह पौधों और जीव-जन्तुओं के इस्तेमाल हेतु उपलब्ध होता है । पौधे इसका प्राकृतिक तौर पर अपनी जड़ों द्वारा करते हैं, जबकि मानव कृत्रिम कुएँ खोदकर भू-जल को इस्तेमाल में लेता है । यह पानी नदियों, झीलों, तालाबों व प्रत्यक्ष वर्षा प्रवाह अन्त:स्पंदन द्वारा भूमिगत होता है ।

इसको पौधे अपनी जड़ों से सोखकर पत्तियों द्वारा वाष्पोत्सर्जित कर देते हैं, जिसके बाद वह पानी की चक्रीय क्रिया में सम्मिलित होता है, उसी तरह जैविक उपयोगों के दौरान प्रत्यक्ष वाष्पीकरण द्वारा भी पानी वायुमण्डल में पहुँचता है ।

सीधे मृदा से भी पानी वाष्पीकृत होता है । धरातलीय प्रवाह में से जो हिस्सा अन्त:स्पंदन करके भूमिगत होता है । उसे अन्तर्भौम पानी कहते हैं । यह पानी मिट्टियों, वनस्पतियों, नदियों व महासागरों की तरफ गतिशील होता है ।

इस तरह यह पानी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जलीय चक्र में निर्मुक्त कर दिया जाता है । अन्तर्भौम पानी को पौधे वाष्पोत्सर्जन द्वारा निर्मुक्त करते हैं । ये प्रक्रियाएँ जल-चक्र को इस तरह पूर्ण करती हैं कि जो नमी कभी पानी पिण्ड (महासागर) से वाष्पीकृत द्वारा हुई थी ।

वह वहीं दोबारा लौट आती हैं । इस चक्र को जलवायु भी प्रभावित करती है । यह शुष्क जलवायु में सीधा पड़ता है जबकि अत्यधिक शीतल जलवायु में जल-चक्र का क्रियान्वयन काफी सीमित हो जाता है । वर्षा की मात्रा में परिवर्तन का प्रमुख कारण होता है जल चक्र का असंतुलित होना ।


Essay # 4.

जलीय चक्र के प्रमुख उपचक्र (Sub-Cycle of Water Cycle):

जलीय चक्र के प्रमुख उपचक्रों को नीचे वर्णित किया जा रहा है:

(1) लघु उपचक्र:

लघु उपचक्र कम अवधि में पूर्ण होने वाला उपचक्र है ।

इसके निम्नवत दो प्रकार है:

(i) लघु उपचक्र:

महासागरों से पानी वाष्पित होकर वाष्प के रूप में गतिशील होने के बाद संघनित होकर घर्षण द्वारा फिर महासागरों में पहुँच जाता है अर्थात् महासागरों में, वायुमण्डल से पुन: महासागरों में आकर लघु उपचक्र को पूर्णता प्रदान करता है ।

(ii) अति लघु चक्र:

जब वर्षा होती रहती है तो वायुमण्डल में ही वर्षा की बूँदों का वाष्पीकरण होता रहता है । वाष्पीकृत होकर यह पानी फिर वायुमण्डल में तापमान के वजह संघनित होकर वर्षा द्वारा धरातल पर आता है तथा अति लघु उपचक्र को पूर्ण करता है ।

(2) दीर्घ उपचक्र:

अधिक समय लगने के कारण इसे दीर्घ उपचक्र कहते हैं ।

इसे भी दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:

(i) अति दीर्घ उपचक्र:

वर्षा के उपरांत जो पानी भू-सतह पर वाहित होता है । उसका कुछ हिस्सा भूमि में स्पंदित हो जाता है जो वनस्पति की जडों द्वारा सोख लिया जाता है, वनस्पति से वाष्पोत्सर्जन एवं वाष्पीकरण से यह पानी फिर वायुमण्डल में पहुँच जाता है व वर्षा द्वारा पुन: भू-सतह पर आ जाता है ।

इस तरह के उपचक्र में सर्वाधिक समय लगता है । आदर्श जल-चक्र महासागरों पर मिलता है । स्थलीय हिस्से पर नदियों, झीलों व अन्य न्यून जलसंग्रह स्थानों से पानी के महासागरों तक पहुंचने से पहले ही कुछ हिस्से का वाष्पीकरण हो जाता है एवं जलीय उपचक्र पूर्ण होते रहते हैं ।

(ii) दीर्घ उपचक्र:

जब वर्षा पानी भू-सतह पर गिरता है तो इस पानी का कुछ हिस्सा तुरन्त ही पृष्ठ से (वाहित पानी में से) वाष्पीकृत होकर वायुमण्डल में पहुंच जाता है तथा घर्षण द्वारा पुन: भू-पृष्ठ पर गिरकर दीर्घ पानी चक्र पूर्ण होता है ।


Essay # 5.

जलीय चक्र की अन्त:स्थलीय अवस्था (Endothelial Stage of the Water Cycle):

जलीय चक्र की अन्त:स्थलीय अवस्था उस समय शुरू होती है जब जल रिसता हुआ जमीन के अन्दर पहुंचता है । वर्षा जल का लगभग 25 से 50 प्रतिशत भाग ही नीचे पहुँच पाता है । इस पानी का एक बड़ा हिस्सा वाष्पीकृत हो जाती है व शेष हिस्से धरातल के नीचे चला जाता है ।

अन्तर्भौम पानी द्वारा तैयार किये गये प्रवाह मार्गों में संबंधित क्षेत्र की भू-गर्भिक संरचना के आधार पर बदलाव होते हैं । जैसे कुछ शैल जलभरे होते हैं, जबकि कुछ शैल मित-जल भरे होते हैं । भूमि के अंदर पानी का प्रवाह मृदा की संरचना ओर संगठन से भी प्रभावित होता है । सतह के नीचे जलीय चक्र की स्थिति इसी प्रकार सम्पन्न होती है ।


Essay # 6.

जलीय चक्र की समस्याएं (Problems of Water Cycle):

जल चक्र की प्रक्रियाएं वस्तुत: विभिन्न भौगोलिक प्रक्रियाओं से भी प्रभावित होती है ।

इन्हें नीचे स्पष्ट किया जा रहा है:

1. बढ़ते औद्योगीकरण के वजह से वायुमण्डल में धूलिकणों की मात्रा में बदलाव आ रहा है, क्योंकि कारखानों में विसृजित ये कण वर्षा की बूँदों के निर्माण हेतु आर्द्रताग्राही नाभिक का कार्य करते हैं । इस तरह वायुमण्डल में ठोस कण प्रदूषण प्रभाव बादलों के निर्माण, वर्षा की मात्रा एवं प्रतिरूप प्रभावित होते हैं ।

2. मनुष्य की आर्थिक गतिविधियों जिस तरह बढ़ती जा रही हैं । उसी तरह उसकी प्रौद्योगिकी में तीव्रता आती जा रही है । इससे स्पष्ट है कि मनुष्य ने पानी चक्र को काफी प्रभावित किया है । मनुष्य ने कृत्रिम तौर पर वायुमण्डलीय संघटन में बदलाव किया है ।

मौसम सुधार कार्यक्रम, अन्त:स्पंदन में ओजोन परत का ह्रास, वायुमण्डलीय जलवाष्प की मात्रा में बदलाव आदि द्वारा वायुमण्डलीय संचार प्रतिरूप में बदलाव की आशंका व्यक्त की गई है ।

इस बदलाव के परिणामस्वरूप स्थल एवं महासागरों से जलवाष्प के गमन व स्थानान्तरण में बदलाव हो सकता है व इस बदलाव का प्रत्यक्ष प्रभाव वर्षा की मात्रा पर पड़ता है । मात्रा एवं प्रतिरूप प्रभावित होते हैं ।

3. मनुष्य ने वन विनाश द्वारा प्रकृति के पारिस्थितिकीय संतुलन को विघटित करके जल-चक्र को प्रभावित किया है ।

4. मेघ बीजन की क्रिया भी जलीय चक्र को प्रभावित करती है ।

5. पानी के अन्त:संचरण में बदलाव का भी जल-चक्र पर प्रभाव पड़ता है । वन विनाश से कमी आती है, जबकि सिंचाई वृक्षारोपण बाँध निर्माण पानी भण्डारों के निर्माण से वृद्धि होती है तथा वाष्पीकरण में भी वृद्धि होती है । मनुष्य ने जलीय चक्र के भू-सतह पर वाहित पानी को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है ।

6. नगरीयकरण के कई पर्यावरणीय प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं, जैसे- वायु प्रदूषण, नगरीय फैलाव हेतु वन विनाश आदि । इनके वजह से जल-चक्र विक्षिप्त होता है ।

7. पृथ्वी तल पर उत्पन्न हो रहे अनेक तरह के प्रदूषण भी जलीय-चक्र को बाधित कर रहे हैं । आर्थिक दौड़ में शामिल मानव ने वैज्ञानिक तरीके से खनन कार्य करके प्रकृति को असन्तुलित किया है, जिससे भी जल-चक्र में बाधा आई है ।


Essay # 7.

प्रकृति में जलीय चक्र की उपयोगिता (Balance and Utility of Water Cycle in Nature):

जल चक्र के विभिन्न क्रमों में साम्यता न होने से इसके संतुलन की समस्या बढ़ सकती है । पानी के वाष्प में परिवर्तित होकर वायुमण्डल में एकत्रित होना काफी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । इस पर मौसम बदलाव निर्भर करता है । पृथ्वी पर वर्षा की क्रियाशीलता पानी चक्र द्वारा ही पूर्ण होती है ।

पृथ्वी पर विभिन्न जैव-भू-रसायन चक्रों द्वारा ही पूर्ण होती है । पृथ्वी पर विभिन्न जैव-भू-रसायन चक्रों के अंतर्गत अवसादों तथा रासायनिक तत्वों के संचरण में वनस्पति प्रभावी माध्यम होती है । इस तरह जीव-मण्डल में ये जैव-भू-रासायनिक चक्र के पानी के संचरण द्वारा ही संभव होते हैं ।

जलीय चक्र में संतुलन:

वस्तुत: पृथ्वी पर घटित हो रहे जल चक्र के परिणामस्वरूप पर्यावरणीय तंत्र भी प्रभावित होता है । स्पष्ट है पृथ्वी पर इसके बाहर से नमी नहीं मिलती व पानी चक्र में सहभागी पानी की मात्रा स्थिर रहती है इसमें कमी या बढ़ोत्तरी नहीं होती है ।

इसका संतुलन वाष्पीकरण व घर्षण से बना रहता है हालाँकि इसमें प्रादेशिक स्तर पर मौसमी विसरण आता रहता है पर विश्व स्तर पर इसकी मात्रा में बदलाव नहीं होता है । जल संतुलन में एक स्थान से दूसरे स्थान पर गतिक बदलाव मिलता है ।

यथा- वर्षा के जल का वाष्पीकरण महासागरों के जल की अपेक्षा अधिक होता है । पर स्थल भागों (कुछ शुष्क क्षेत्रों व मरुस्थलों के अतिरिक्त) में यह स्थिति प्रतिकूल है । कुल मिलाकर विश्वव्यापी वाष्पीकरण वर्षा को संतुलित करता है ।

अगर वाष्पीकरण कम होता है तो वायुमण्डल में आर्द्रता की मात्रा में समय के साथ कमी या बढ़ोत्तरी हो जायेगी । भूमि पर नदियों का प्रवाह वर्षा एवं वाष्पीकरण को संतुलित करता है ।

इस आधार पर पानी संतुलन का सामान्य समीकरण इस प्रकार है:

वर्षा = वाष्पीकरण + / – प्रवाह

जल एवं स्थल दोनों से संसार स्तर पर पानी का संतुलन पाया जाता है हालाँकि इसके स्थानिक प्रतिरूप में भिन्नता मिलती है जो मुख्यत: जलवायु में विभिन्नता से प्रभावित होती है ।

उदाहरण के लिए ऊष्मा एवं शुष्क ऑस्टेलिया में जहाँ वर्षण वाष्पीकरण पर बेहद कम भारी रहता है जबकि उष्ण कटिबन्धीय दक्षिणी अमेरिका में वाष्पीकरण उच्च रहने पर भी उच्च प्रवाह रहता है क्योंकि वर्षा प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है ।

महासागर संसार पानी चक्र में सहभागी पानी का अधिकांश हिस्सा स्थित है । सबसे ज्यादा वर्षा प्रशान्त महासागर में होती है । अत: वैश्विक जल संतुलन का अर्थ है निश्चित मात्रा में जल चक्रण की व्यवस्था का बना रहना ।


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