जल प्रदूषण पर निबंध | Essay on Water Pollution in Hindi.
जल प्रदूषण पर निबंध | Essay on Water Pollution
Essay # 1.
जल प्रदूषण का परिचय (Introduction to Water Pollution):
जल प्रदूषण मुख्य रूप से झीलों, नदियों ओर भू-जल के पानी के प्रदूषित होने के कारण होता है । यह प्रदूषण समस्त प्राणियों के लिये एक जटिल समस्या है । जल को प्रदूषित करने में औद्योगीकरण की अहम भूमिका रही है ।
जल प्रदूषण विश्व संदर्भ में एक बड़ी समस्या है, परामर्श दिया गया है कि यह दुनिया भर की प्रमुख मृत्यु और बीमारियों का कारण है और इसके कारण प्रतिदिन 14000 से अधिक लोगों की मृत्यु होती है ।
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हालांकि प्राकृतिक फेनोमेना जैसे कि ज्वालामुखी, शैवाल फूल, तुफान और भूकंप से जल की गुणवत्ता में भारी बदलाव आ जाते हैं, जल तभी प्रदूषित होता है जब अन्थ्रोपोगेनिक संदूषण अपंग हो जाते हैं और वह मानव के इस्तेमाल (जैसे पीने के पानी) के लिये उपयोगी नहीं रहता या उसमें ऐसा बदलाव होता है कि उसमें अपने जैविक समुदायों को समर्थन देने की क्षमता नहीं रहती ।
जल प्रदूषण के कई कारण और अभिलक्षण हैं जल प्रदूषण के मूल कारण अक्सर उनके प्राथमिक स्रोत से आधारित हैं स्थल-स्रोत प्रदूषण यह आशय देता है कि संदूषक जलामार्ग के माध्यम से एक असतत बिंदु स्रोत में प्रवेश करते हैं, इस श्रेणी में शामिल हैं अपशिष्ट उपचार संयंत्र, फैक्टरी से ओउत्फल्स स्राव भूमिगत टैंक, आदि ।
दूसरी प्राथमिक श्रेणी जो, गैर सूत्री स्रोत प्रदूषण को, दूषण से आशय यह देता है कि, जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, की यह एक असतत स्रोत से आरंभ नहीं होता । गैर बिंदु स्रोत प्रदूषण एक छोटी मात्रा में संदूषक के प्रभाव से एकत्र हुए एक बड़े क्षेत्र से होता है ।
गैर बिंदु प्रदूषण स्रोत के उदाहरण यह हैं की पोषक अपवाह तूफान जल प्रवाह से ऊपर एक पत्र से कृषि क्षेत्र में आ जाते हैं या धातुओं और हाइड्रोकार्बन एक उच्च अभेद्य क्षेत्र के साथ एक प्राथमिक कानून का ध्यान जल प्रदूषण को रोकने के लिये पिछले कई सालों से बिंदु क्षेत्र में है ।
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बिंदु रूप प्रभावी ढंग से नियंत्रित किये गए है, अधिक ध्यान गैर बिंदु योगदान स्रोत पर दिया गया है, विशेष रूप से नये शहर और विकास को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है ।
प्रमुख कारण जो जल को प्रदूषित करता है वो हैं रासायनिकों, रोगजनक और शारीरिक या संवेदी परिवर्तन हालाँकि कई रसायन और तत्व जो कि स्वाभाविक रूप (लोहा, मैंगनीज, आदि) से होते हैं, एकाग्रता की कुंजी का पता लगाने के लिये पानी के प्राकृतिक घटक ओर संदूषकों देखा जाता है कई रासायनिक पदार्थवैशाली है ।
पथोगेंस मानव या जानवरों में जलजनित बीमारियाँ पैदा कर सकते हैं पानी के भौतिक रसायन विज्ञान बदलाव में शामिल अम्लता, विद्युत चालकता, तापमान और एउत्रोफिकाशन हैं । पोषिक तत्व जो पहले दुर्लभ थे वही तत्व आज कल उत्रोफिकाशन, फर्टिलाइजेशन द्वारा सतह के पानी को पोषक तत्व देते हैं ।
जल प्रदूषण विश्व संदर्भ में एक बड़ी समस्या है । सुझाव दिया गया है कि यह दुनिया भर की प्रमुख मृत्यु और बीमारियों का कारण है और यह रोज 14000 से अधिक लोगों की मृत्यु का कारण बनता है ।
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Essay # 2.
जल प्रदूषण के लिए जिम्मेदार कारक (Factors Responsible for Water Pollution):
सामान्यत: जल को प्रदूषित करने में निम्नलिखित प्रदूषकों की भूमिका होती है:
1. खदानों के अपशिष्ट ।
2. मल जल का प्रवहन ।
3. औद्योगिक इकाइयों से निष्कासित अपशिष्ट जिनमें जहरीले रसायन, नाइट्रेट, फॉस्फोरस, खनिज तथा रेडियोधर्मी पदार्थ शामिल हैं ।
4. ठोस वस्तुएं जैसे परित्यक्त वाहन, कूड़ा आदि । आप सड़क पर जो इस्तेमाल की हुई चीजें डालते हैं, वे भी जल को प्रदूषित करती हैं ।
5. ताप बिजली घरों, धातु उद्योगों, आण्विक ऊर्जा तथा पेट्रोलियम उद्योग के अपशिष्ट ।
6. कृषि में काम आने वाले उर्वरक, कीट नाशक, डी.डी.टी. आदि । डी.डी.टी. पक्षियों के अण्डों, पशुओं और मनुष्य के शरीर में, माँ के दूध में प्रवेश कर हानि पहुंचाता है ।
इन पदार्थों के जल में घुलने के कारण विभिन्न प्रकार की संक्रियाएं होती हैं । उदाहरण के लिए ऑक्सीजन जल का एक प्रमुख तत्व है । जब जल प्रदूषित होता है तो ऑक्सीजन का अपचय होता है, धातुओं पर जंग लगता है और रसायन अपने तत्वों को पानी में समाहित करने लगते हैं ।
कई अपशिष्ट रोगों के कीटाणुओं को पनपाते हैं और कई रेडियो सक्रिय तत्वों के कारण प्रभाव डालते हैं । इससे मनुष्य और अन्य जीवधारी जहरीले तत्वों से ग्रस्त होते हैं । कई बीमारियां फैलाते हैं और कई वनस्पतियों में एकत्र होकर उन्हें पनपने में बाधा पहुंचाते हैं ।
औद्योगिक इकाइयां जिस गर्म व प्रदूषित जल का नदियों में अपवर्जन करती है उससे वनस्पतियां सूख जाती है । गन्दी नालियों और उद्योगों से निकलने वाले रसायनों से भी पानी में ऑक्सीजन में और भी बाधा आती । लोहा, शीशा, मरकरी, जिंक, तांबा, निकेल आदि के अपशिष्ट भी पानी में विषैलापन पैदा करते हैं ।
किसान लोग जिन नाइट्रोजन और फॉस्फोरस युक्त खादों को प्रयोग करते हैं उनका बहुत-सा प्रतिशत जल में पहुंच जाता है । ये तत्व जल के द्वारा मनुष्य में कई बीमारियां पैदा करते हैं । पानी के प्रदूषण से ही कई बीमारियां पैदा होती हैं जैसे हैजा, टायफाइड, पेचिस आदि ।
बच्चों के पेट में कीड़े पहुंचाने का कार्य भी यही पानी करता है । कूड़ा भी जल से मिलकर समस्या पैदा करता है । कूड़े को फेंकने के लिए नियत स्थान खोजना भी एक विशेष समस्या है । अमेरिका में 1970 से ही सारे गड्ढे कूड़े से भरे जा चुके हैं ।
1960 से लेकर कूड़े में 80% की वृद्धि हुई है और कूड़ेदान पर्यावरण के लिए खतरा माने जाने लगे हैं । हमारे देश में यह का जब गड्ढों में पहुंचता है तो जल के योग से सड़ांध, बीमारी और नदियों में प्रदूषण पैदा करता है ।
जल को विषैले संक्रामक तत्वों, उर्वरकों, तेल, कारखानों, बिजली और अणु संयन्त्रों के गर्म पानी, कीटनाशकों, रेडियोधर्मी तत्वों कूड़ा-कचरा, गन्दे नालों, मल आदि से बचाना होगा । तभी भूमि ओर जल की रक्षा हो सकेगी और मानव की भी ।
बढ़ती जनसंख्या जल समस्या का प्रमुख कारण है । यद्यपि हमारे देश में जल की अथाह राशि है, परन्तु प्रदूषण के करण इसे पूरी तरह उपयोग करना सम्भव नहीं हो पा रहा है । आज एक व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग एक सौ पचास लीटर पानी की आवश्यकता होती है ।
बड़े शहरों में तो इसकी मांग और भी ज्यादा है । फौलाद, कागज, सिन्थेटिक, फाइबर आदि से सम्बन्धित कारखानों में पानी की जरूरत बहुत ज्यादा होती है । इसी तरह खेती की सिंचाई के लिए पानी जरूरी होती है ।
पानी की आवश्यकता इसलिए भी अधिक है कि विद्युत निर्माण बिना इसके संभव नहीं है । जब नदी-नालों का पानी सारी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाता तो भूमिगत जलों का उपयोग आवश्यक हो जाता है ।
पानी का बहुविध उपयोग जिस प्रकार की गन्दगियां पैदा करता है उससे मनुष्य ने अपने लिए एक खतरा पैदा कर दिया है । जनसंख्या वृद्धि, यातायात, औद्योगिक आदि के कारण नदियों, झीलों और समुद्र में प्रदूषण की मात्रा निरन्तर बढ़ती जा रही है ।
झीलों का सूखना या कुंओं के जल में रासायनिक परिवर्तन पर्यावरणीय असंतुलन का परिणाम है । वस्तुतः यातायात, पेट्रोलियम के लिए ड्रिलिंग औद्योगिक रसायनों और अपशिष्ट पदार्थों और तटीय नगरों की गन्दगी के कारण बहुत से जल प्रदूषण की स्थिति चरम सीमा पर पहुंच जाती है ।
उस पानी में हैजा के कीटाणु पाए गए हैं और उनमें स्नान करने में त्वचा रोग होने का डर बना रहता है । हर वर्ष करोड़ों टन तेल समुद्र के द्वारा यातायात होता है । लगभग 1 प्रतिशत तेल अर्थात् लगभग 1 करोड़ टन तेल समुद्र को भेंट हो जाता है ।
यही नहीं, स्थिति तब और भी भयंकर हो जाती है जब टैंकर या कुंओं में विस्फोट हो जाता है । समुद्र में तेल के जहाजों के डूबने के समाचार आये दिन मिलते रहते हैं । इसमें तेल की सतह सैकड़ों किलोमीटर तक फैल जाती है और समुद्र को कार्बन-डाई-ऑक्साइड सोखने से वंचित करती है ।
1 लीटर पानी में 0.1 मिली लीटर तेल कुछ किस्म की मछलियों को मारने के लिए काफी होता है । इस प्रकार के प्रदूषण का समुद्र के जीवों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है । अत: इस समय सबसे बड़ी समस्या जल के शुद्धीकरण की है ।
पर इस शुद्धीकरण के बावजूद भी पांच से बीस प्रतिशत प्रदूषण के बने रहने की फिर भी सम्भावना रहती है । अत: आने वाले समय में यदि प्रदूषण को नियंत्रित न किया गया तो हैजा, पीलिया, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोथ जैसी बीमारियां फैलेगी ।
भारत में 75 प्रतिशत रोग प्रदूषित जल के कारण भी होता हैं । कहा जाता है कि विकासशील देशों में पांच लाख व्यक्ति कीटनाशकों से प्रभावित होते हैं । इसी प्रकार दूषित जल के कारण विशेषतया जीवनाशी पदार्थों के अपशिष्टों के कारण मछलियां और पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचता है ।
इससे मनुष्य तो प्रभावित होता ही है किन्तु पेड़-पौधों की कई जातियां भी नष्ट हो जाती हैं । विगत वर्षों में हुए सर्वेक्षणों से पता चला कि जल प्रदूषण के कारण कई प्रजाति विलुप्त प्राय हैं ।
जब स्वच्छ जल के स्रोतों में ऐसे विलयित या निलंबित बाह्य पदार्थ मिल जाते हैं तो उसके गुणों में परिवर्तन लाकर उसे इस्तेमाल करने वालों या उससे लाभान्वित होने वालों के लिए हानिकर बना देते हैं तो वह ‘जल प्रदूषण’ कहलाता है । ऐसा जल प्रदूषित जल कहलाता है ।
निरंतर बहनेवाली नदियों में शहरी कूड़ा-करकट या मल-जल का लगातार मिलते रहना, जलाशयों झीलों आदि में आस-पास से गंदगी का लगातार मिलते जाना, भौम-जल में बाह्य वस्तुओं का एकत्र होना, समुद्र में नदियों द्वारा लाई गई गंदगी या समुद्र में चलनेवाले टैंकरों से तेल रिसना या फिर समुद्र-तट पर स्थित विविध उद्योगों से निकले व्यर्थ पदार्थों (अपशिष्टों) का निमज्जन करने से बहते या स्थिर जल के प्राकृतिक संतुलन में गड़बड़ी का आ जाना, असंतुलन उत्पन्न होना अथवा पारिस्थितिकी तंत्र का बिगड़ जाना ही जल प्रदूषण है ।
अर्थात् “जल में अधिक पदार्थ (या उष्मा) का मिलाया जाना जो मनुष्यों, पशुओं तथा जलीय जीवों के लिए हानिकर हो ।” जल प्रदूषण है । “वह जल दूषित है जो वर्तमान या भविष्य में हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप सर्वोंच्च उपयोगी के लिए पर्याप्त गुणवत्ता न रह जाने से अनुपयुक्त हो जाए ।”
Essay # 3.
जल में फ्लोराइड तथा नाइट्रेट (Fluoride and Nitrate in Water):
फ्लोराइड तथा नाइट्रेट स्वास्थ्य के लिए विशेष हानिकारक है । राष्ट्रीय पेयजल मिशन ने भी इस विषय को गंभीरता से लिया है । भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के अंतर्गत एक फ्लोरोसिस नियंत्रण प्रकोष्ठ भी इस समस्या के समाधान हेतु कार्यरत है ।
जल में फ्लोराइड:
फ्लोरीन अत्यंत क्रियाशील होता है । हेलोजन समूह का प्रथम सदस्य होने के कारण यह फ्लोराइड के रूप में जल में पाया जाता है । पृथ्वी की परत में बहुतायत से पाए जानेवाले तत्वों में इसका स्थान 17वाँ है और यह क्लोरीन से अधिक मात्रा में (0.032 प्रतिशत) उपलब्ध हैं ।
अपने विशेष गुणों के कारण इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है । यह अत्यंत क्रियाशील ऋणायन (F–) है जो अस्थियों में सीधे प्रवेश करके हड्डियों और दाँतों की क्रियाओं और विकास को प्रभावित करता है ।
फ्लोरीन अत्यधिक क्रियाशीलता के कारण कुछ औद्योगिक विधियों में गैसीय अवस्था में तत्व के रूप में पाये जाने के अतिरिक्त, सभी जगह प्रकृति में फ्लोराइड के रूप में बहुतायत से पाया जाता है । प्रकृति में यह विभिन्न मात्राओं में वायु, जल, मिट्टी, सब्जियों, समुद्री, मनुष्य और पशुओं के तंतुओं में पाया जाता है ।
प्रकृति में प्रमुखत: यह तीन अयस्कों के रूप में पाया जाता है- फ्लोरास्पार CaF2 (चूने व बालू की चट्टानों में), क्रायोलाईट Na3AIF6 (ग्रेनाइट चट्टानों में), फ्लोरएपाटाइट 3Ca3 (PO4)2 Ca (FCL)2 के रूप में पाया जाता है ।
ये फ्लोराइड के अयस्क जल में प्राय: अघुलनशील हैं, परंतु कुछ भू-गर्भीय परिस्थितियों में जल में घुलनशील हैं । समुद्री जल में भी इसकी पर्याप्त मात्रा (0.8-1.4 पी.पी.एम.) पाई गई है जो जलीय जीवों के लिए आवश्यक है ।
स्वास्थ्य संघटनों द्वारा उचित मात्रा में फ्लोराइड ग्रहण करना मनुष्य के दाँतों के लिए लाभदायक बताया गया है, परंतु अत्यधिक मात्रा में इसका सेवन फ्लोरोसिस या फ्लोराइड टाक्सीकोसिस रोगों का कारण है । स्वस्थ दाँतों के इनैमिल के निर्माण के लिए फ्लोराइड की 1 पी.पी.एम. तक की मात्रा एक आवश्यक पदार्थ के रूप में अनुमोदित की गई है ।
भारतीय जल में फ्लोराइड की मात्रा:
फ्लोराइड के प्रभाव के कारण दांतों में विभिन्न प्रकार की बीमारियां होती हैं । सन् 1933 में भारतवर्ष के मद्रास नगर में सर्वप्रथम इस रोग के लक्षण मनुष्य के दाँतों के पाए गए थे । इससे मिलते-जुलते लक्षण पुरानी हैदराबाद स्टेट के पशुओं में वर्ष 1934 में भी बताए गए थे ।
शार्ट (1937) ने सर्वप्रथम दाँतों व हाड्डीयों की बीमारियों के लक्षणों को फ्लोरोसिस रोग से पीड़ितों की सूचनाएँ मिलीं । सर्वेक्षण की दिशा में जब सतही अर्थात भू-स्तरीय जल का सर्वेक्षण किया गया तो पता चला कि दक्षिण भारत के गोदावरी और ताम्रपर्णी नदियों की तली में 3 पी.पी.एम. तक फ्लोराइड पाया गया ।
देश के 2.5 करोड लोग 13 प्रांतों/केन्द्र शासित प्रदेशों में इस रोग से पीड़ित पाए गए हैं । ये प्रदेश हैं- दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु ।
अकेले राजस्थान में लगभग 35 लाख लोग (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान (1982) के सर्वेक्षण के अनुसार) इस रोग के कारण विकलांग पाए गए हैं । दशक के आरंभ में राजस्थान के विभिन्न जनपदों के लगभग 6,000 गाँवों में अत्यधिक फ्लोराइड युक्त जल के सेवन से दाँतों और हड्डियों की फ्लोरोसिस से अनेक लोग पीड़ित हैं ।
रक्षा प्रयोगशाला, जोधपुर ने पिछले 25 वर्षों में राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्रों के जल का विश्लेषण किया है और जल गुणवत्ता जाँच पर आधारित मानचित्र बनाए हैं । पेयजल के अतिरिक्त फ्लोराइड युक्त जल में उगाए गए खाद्य पदार्थों के माध्यम से भी फ्लोराइड शरीर में प्रवेश करता है ।
आंध्र प्रदेश के नालगोंड़ा और प्रशासित जिलों में तथा पश्चिमी राजस्थान के मरुक्षेत्रों में पैदा किए जानेवाले अनेक अनाजों, दालों तथा अन्य खाद्य पदार्थों में फ्लोराइड की मात्रा 80 पी.पी.एम. तक पाई गई है । चाय की पत्तियों में भी फ्लोराइड की मात्रा 80-170 पी.पी.एम. तक ज्ञात की गई है ।
परन्तु सभी चाय की पत्तियों में फ्लोराइड की यह मात्रा नहीं थी । शरीर से मल-मूत्र, पसीना और अन्य शारीरिक द्रव्यों के माध्यम से फ्लोराइड का निष्कासन होता है । औसतन अधिक फ्लोराइड क्षेत्र में रहनेवाले लोगों के शरीर से मुख्यतया मूत्र के साथ 5 पी.पी.एम. तक फ्लोराइड प्रतिदिन निष्कासित होता है ।
रक्षा प्रयोगशाला, जोधपुर द्वारा थार मरुस्थल में रहनेवाले निवासियों के विस्तृत अध्ययन से मूत्र में फ्लोराइड की मात्रा लगभग. 92 पी.पी.एम. तक पाई गई है । आहार के आधार पर मनुष्य के मल में कुल गृहीत फ्लोराइड की मात्रा का 10-13 प्रतिशत मल के साथ और 50 प्रतिशत पसीने के रूप में उष्ण वातावरण में निष्कासित हो सकता है ।
जल में नाइट्रेट की उपस्थिति:
जल में नाइट्रेट की उपस्थिति का कारण है पृथ्वी के भौम जलीय व जैव मण्डलीय नाइट्रोजन चक्र की सक्रियता । भौम जल में नाइट्रोजन यौगिक मुख्यत: नाइट्रेट, नाइट्राइट ओर अमोनिया के रूप में मिलते हैं । जल के विश्लेषण में इनका आकलन जटिल आयन के रूप में या नाइट्रोजन अणु के रूप में किया जाता है ।
1 पी.पी.एम. नाइट्रोजन 4.5 पी.पी.एम. नाइट्रेट के तुल्य होता है । भूमि में नाइट्रोजन अनेक स्रोतों से प्रवेश करती है । कुछ पौधे जैसे अल्फा-अल्फा और दलहनी पौधे वायुमंडल से सीधे नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करते हैं और तब वह इन पौधों के माध्यम से मिट्टी में प्रवेश करती है ।
यह नाइट्रोजन पौधों द्वारा ग्रहण कर ली जाती है, परंतु बची हुई नाइट्रोजन जल में घुलकर मिट्टी द्वारा अवशोषित होकर अंतत: भौम जल में मिल जाती है । मृदा नाइट्रोजन के अन्य स्रोतों में सड़े-गले पौधे, पशु-अवशेष और नाइट्रेटयुक्त उर्वरक सम्मिलित हैं ।
इसके साथ-ही-साथ भौम जल के प्रदूषण का कारण मल-जल संग्रह क्षेत्रों से जल का रिसता हुआ जमीन के नीचे पहुँचना है । कुछ उद्योगों में प्रवाहित जल में उपलब्ध नाइट्रोजन युक्त रसायन भी भौम जल के प्रदूषण के कारण है । प्राय: प्राकृतिक भीम जल में नाइट्रेट की मात्रा 0.1 से 10 पी.पी.एम. तक पाई गई है ।
नाइट्रेट की उपस्थिति की सीमा को यदि देखा जाये तो राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश के अनेक नगरों में नाइट्रेट की मात्रा निर्धारित सीमा से अधिक सूचित की गई है ।
राजस्थान, गुजरात ओर आंध्र प्रदेश के अनेक भौम जल-स्रोतों में इसकी मात्रा सैकड़ों पी.पी.एम. तक सूचित की गई है । भीम जल स्रोतों में नाइट्रेट का अधिक होना स्वास्थ्य के लिए विशेष हानिकारक है ।
पेयजल में नाइट्रेट की मात्रा 45 पी.पी.एम. से अधिक वांछनीय नहीं है, क्योंकि इससे छोटे-छोटे बच्चों में मेटहीमोग्लोबैनीमिया या साइनोसिस या बच्चोंवाला नीला रोग हो जाता है । इससे बच्चों की त्वचा हल्के नीले रंग की हो जाती है ।
नाइट्रेट सेंकडरी ऐमीन से क्रिया करके नाइट्रोसामीन नामक विषैले यौगिक बनाते हैं जो संभवतया कैंसरजनी हैं । दुधारू पशुओं में दूध की मात्रा कम होना तथा गर्भपात की स्थिति नाइट्रेट के दुष्प्रभाव का परिणाम है ।
वस्तुत: नाइट्रेट स्वयं में इतना अधिक हानिकारक नहीं है परंतु जब यह जल या भोजन के द्वारा शरीर में प्रवेश करता है तो मुख और आँतों में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा शरीर में प्रवेश करता है तो मुख और आँतों में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा नाइट्राइट में परिवर्तित कर दिया जाता है ।
नाइट्राइट एक प्रबल ऑक्सीकारक है जो हीर्मोग्लोबिन में उपलब्ध लौह को फेरस से फेरिक में बदल देता है जिसके फलस्वरूप हीमोग्लोबिन अपनी ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता खो देता है । यद्यपि पशुओं में कैंसर पैदा करनेवाले 100 नाइट्रोसामीन यौगिक पाए गए हैं |
विश्व स्वास्थ्य संघटन के अनुसार नाइट्रेट की अधिकतम मात्रा 45 पी.पी.एम. तक है, जो 10 पी.पी.एम. नाइट्रोजन के तुल्य है । जल में 20 पी.पी.एम. नाइट्रोजन या 90 पी.पी.एम. नाइट्रेट की मात्रा बच्चों के लिए हानिकारक मानी गई है ।
यद्यपि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान मात्रा 100 पी.पी.एम. तक निश्चित की है । जल में 20 पी.पी.एम. नाइट्रोजन या 90 पी.पी.एम. नाइट्रेट की मात्रा बच्चों के लिए हानिकारक मानी गई है ।
यद्यपि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् तथा अन्य संघटनों ने वयस्कों के लिए पेयजल में इसकी अधिकतम मात्रा 100 पी.पी.एम. तक निश्चित की है । जल से नाइट्रेट की मात्रा उबालकर दूर नहीं की जा सकती है । जल का निर्लवणीकरण अथवा आसवन प्रक्रिया नाइट्रेट को दूर करने का सरल उपाय है ।
एक प्रमुख बात ध्यान देने योग्य यह है कि भौम जल में अत्यधिक नाइट्रेट की मात्रा मल-जल प्रदूषण का द्योतक है जिसमें नाइट्रेट के अतिरिक्त फ्लोराइड भी अधिक मात्रा में होता है । मल-जल प्रदूषण भौम जल में नाइट्रेट वृद्धि का प्रमुख कारण है ।
Essay # 4.
जल प्रदूषण के कुप्रभाव (Effects of Water Pollution):
जल प्रदूषण से जीव-जन्तु तथा वनस्पतियों पर निम्नवत छ: प्रभाव पड़ते हैं:
(1) गाद भरना:
घरेलू तथा औद्योगिक अपशिष्ट को बिना उपचार के ही नदियों में प्रवाहित करने से गाद भरण को बढ़ावा मिलता है । किन्तु मुख्यत: भूमि के अपरदन से जो गाद तथा मृत्तिका बहकर जलस्रोतों में मिलती है उससे बाँधों का पटाव होने लगता है जिसके कारण कभी-कभी नदियों में बाढ़ भी आ जाती है ।
(2) थलीय जीवों के जीवन पर प्रभाव:
स्थल या मृदा प्रदूषण से मनुष्यों को तरह-तरह के कष्टों का सामना करना पड़ता है । कीटनाशियों, डिटर्जेंटों एवं उर्वरकों का पर्यावरण पर पड़ने वाला प्रभाव काफी विषाक्त होता है ।
(3) मनोरंजन स्थानों की क्षति:
जल प्रदूषण वृद्धि के कारण कभी-कभी नदियों व अन्य स्रोतों के पास के पर्यटन स्थलों तथा मनोरंजक स्थलों को बंद करना पड़ता है । समुद्र में तेल एवं ठोस अपशिष्ट तैरने पर भी समुद्र किनारे मनोरंजन कार्यों के लिए बंद कर दिए जाते हैं । पारद प्रदूषण या PCB प्रदूषण होने पर मछली मारने की मनाही कर दी जाती है ।
(4) जल-जीवों के जीवन पर प्रभाव:
जल प्रदूषण से मछलियाँ विशेष रूप से प्रभावित होती हैं । जापान की मिनिमाता खाड़ी की दुर्घटना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है ।
(5) भौम जल:
प्रदूषण से शहरी जल आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित होती है ।
(6) मानव तथा पशु स्वास्थ्य पर पड़नेवाले प्रभाव:
इसके अंतर्गत जलवाहित रोग तथा भारी धातुओं जैसे- नाइट्रेट, फ्लोराइड आदि से होनेवाली बीमारियाँ मुख्य हैं ।
इस प्रकार से यह स्पष्ट होता है कि जल प्रयोग में असावधानी से विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ हो सकती हैं । विशेषतया, पीने, स्नान करने तथा भोजन बनाने के लिए प्रदूषित जल का इस्तेमाल नहीं किया जाए ।
उद्योगों में भी प्रदूषित जल उपयोगी नहीं होगा । कृषि में सिंचाई करने के लिए अत्यधिक प्रदूषित जल व्यर्थ सिद्ध होगा । पेयजल के रूप में प्रदूषित जल बहुत बड़ी जनसंख्या को प्रभावित किया है ।
जलाशयों, नदियों, झीलों तथा सागरों में रहनेवाले जलचर जल में उपस्थित प्रदूषकों को अपने शरीर में संचित करके भोजन-श्रृंखला में उनकी सांद्रता बढ़ाकर मानव स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं । मछली इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है ।
चाहे कार्बनिक यौगिक हो या अकार्बनिक यौगिक, जल में अधिक मात्रा में रहने पर वे विषाक्तता उत्पन्न करते हैं । यह विषाक्तता प्राय: कैंसर जैसे भीषण रोग अथवा विरूपण जैसी शारीरिक अक्षमता को जन्म देती है । अनेक तत्त्व या यौगिक कैंसरजनी हैं ।
इनमें आर्सेनिक, क्रोमियम, लेड, कैडनियम तथा निकेल धातुएँ उल्लेखनीय हैं । इसी तरह ऐल्ड्रिन, क्लोरोफार्म, डी.डी.टी., पी.सी.बी. आदि कार्बनिक यौगिक भी कैंसरजनी हैं । ये सारी धातुएँ एवं यौगिक औद्योगिक प्रदूषण की देन है ।
औद्योगिक क्षेत्रों में इसीलिए विशेष सतर्कता की आवश्यकता है । जलचरों के लिए कैडमियम, क्रोमियम, ऐल्ड्रिन, बेंजीन तथा फीनाल घातक है । पालतू पशुओं तथा पौधों के लिए सीमा तथा आर्सेनिक हानिकर है । ऐसा माना गया है कि डी.डी.टी. के दुष्प्रभाव से मुर्गियों के अंडे पतले पड़ जाते हैं ।
Essay # 5.
जलीय तंत्र के वर्ग (Classes of Water System):
जलीय तंत्र के दो वर्ग हैं:
(i) अल्पपोषी या मितपोषी तथा
(ii) सुपोषी ।
ये वर्गीकरण पोषक तत्वों पर आधारित हैं जिन जलाशयों में पोषक, विशेषतया नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस कम मात्रा में होते हैं वे अल्पपोषी कहलाते हैं । इनमें प्रकाश संश्लेषण द्वारा कार्बनिक पदार्थ का उत्पादन कम हो जाता है ।
इसके विपरीत सुपोषी जलाशय है जिनमें पोषक तत्वों की बहुलता होती है और नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस की उच्च सांद्रता होने से प्लैंकटन की सघनता अधिक होती है । ऐसे जलाशय सामान्यतया गँदले होते हैं ओर झीलें तथा समुद्री तट गहराई तक ऑक्सीजन से विहीन हो सकते हैं ।
सुपोषण से जलीय वनस्पति तथा ‘ऐल्गल ब्लूम’ में वृद्धि हो जाती है । अधिक वृद्धि होने पर मछलियाँ मरने लगती है । सूर्य का प्रकाश जीवन के लिए जल की तरह ही अनिवार्य है यही कारण है कि जब जल स्रोतों के तल पर सूर्य का प्रकाश ऑक्सीजन की कमी के कारण मछलियों का जीवित रहना असम्भव होता है ।
कुछ ‘ऐल्गल ब्लूम’ विषैले पदार्थ उत्पन्न करते हैं जिनसे मछलियाँ, पालतू पशु तथा पक्षी मरने लगते हैं और पानी कम होने लगता है । सुपोषण उच्च जैविक उत्पादकता है जो जलीय तंत्र में नाइट्रेट, फॉस्फेट जैसे पोषकों से वर्धित निवेश से या कार्बनिक पदार्थों की अधिकता के कारण उत्पन्न होती है ।
झीलों के आयतन में कमी का कारण जैविक सक्रियता है । इसी सक्रियता के कारण झीलों में कार्बनिक अवशेष संगृहीत होने लगते हैं । प्राकृतिक सुपोषण एक क्रमिक प्रक्रिया है ओर कार्बनिक पदार्थ से जलाशयों के भर जाने से उत्पन्न होता है जबकि संवर्धनीय सुपोषण मानव हस्तक्षेप के कारण उत्पन्न होता हैं ।
इसमें मल-जल, कृषि तथा उद्योग महत्वपूर्ण योगदान करते हैं, जिनके कारण अधिक पोषक तथा कार्बनिक पदार्थ जलाशयों में मिलते रहते हैं । प्राकृतिक झीलों में प्रतिवर्ष प्रतिवर्ग मीटर से 75-250 ग्राम कार्बन प्राप्त होता है जबकि सुपोषी झीलों में यही मात्रा 75-750 ग्राम तक होती है ।
इस तरह के जलीय तंत्र की पेंदी या तली में ऑक्सीजन की सांद्रता घटकर अत्यंत न्यून हो जाती है । गर्मियों में यह मात्रा और भी घटकर 1 मिग्रा./ली. तक हो जाती है, विलयित ऑक्सीजन की सांद्रता 5 मिग्रा./ली. होनी चाहिए । कश्मीर की डल झील सुपोषण की शिकार बन चुकी है ।
प्राकृतिक सुपोषण की दर में वृद्धि का कारण पोषक, कार्बनिक पदार्थ तथा मानवीय गतिविधियाँ हैं । अत: यदि पोषक पदार्थ तथा कार्बनिक पदार्थ की पूर्ति कम कर दी जाए तो सुपोषण में कमी आएगी । अमेरिका की ग्रेट लेक्स में सुपोषण को कम करने के लिए 1970 ई. में नियम पारित हुआ था ।
आज नदियों द्वारा समुद्रों में ले जाए गए कार्बनिक पदार्थ की मात्रा मनुष्य के विकास के पूर्व की मात्रा से दोगुनी है और नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस की भी मात्रा दोगुनी से अधिक है । विभिन्न कारणों से दुर्गंध का कारण जल में अपशिष्ट पदार्थों का मिश्रण है ।