महिला स्वास्थ्य पर निबंध | Essay on Women Health in Hindi!

कुमार (2010) ने अपने एक लेख ”भारत में महिलाओं का स्वास्थ्य स्तर राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण- (2005-08) से प्रमाण एवं भावी दृष्टिकोण” जो कि सामाजिक विज्ञान में अनुसंधान प्रणाली खण्ड-6 संख्या-2 अगस्त (2010) प्रकाशित हुआ था जिसमें पाँच मुख्य तथ्यों की शिनाख्त की गयी थी ।

ये तथ्य हैं – प्रजनन स्वास्थ्य, महिलाओं के प्रति हिंसा, पोषण सम्बन्धी स्तर, लडकियों और लडकों के बीच असमान व्यवहार तथा संस्कृति, राज्यों, क्षेत्रों, जाति और धर्म के स्तर पर एच.आई.वी./एड्‌स की व्यापक रूप से उपस्थिति ।

उक्त अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष नीचे दिये गये हैं:

ADVERTISEMENTS:

1. महिला स्वास्थ्य का जरूरी हिस्सा प्रजनन समस्यायें:

भारतीय महिलाओं की स्वास्थ्य सम्बन्धी बहुत सी समस्यायें उच्च स्तर के प्रजनन से जुडी या उससे ज्यादा गंभीर हुयी समस्यायें हैं । समग्र रूप से देखें तो प्रजनन भारत में घट रहा है जैसा कि आकलन किया गया है कि वर्ष 2005-06 तक कुल प्रजनन दर घट कर 27 रह गई है । फिर भी, प्रजनन स्तर, में राज्य, शिक्षा, धर्म, जाति और आवास स्थान के अनुसार बहुत अधिक अनार पाया जाता है ।

भारत के अधिकतम जनसंख्या वाले प्रान्तों अर्थात् उत्तर प्रदेश और बिहार में कुल प्रजनन दर प्रति महिला 4 बच्चों से अधिक है । इसके विपरीत, केरल जैसे प्रान्त में, जहाँ अपेक्षाकृत उच्च स्तर की महिला शिक्षा और स्वायत्तता है कुल प्रजनन दर दो से नीचे है ।

चूंकि शिशु मृत्यु दर बहुत ऊंची है और लडके की चाहत भी प्रबल रहती है । अतः महिलायें बहुत से बच्चों को जन्म दे देती हैं, विशेषकर इस प्रयास में कि एक या दो लडके हो जायें जो जीवित रहते हुये बालिग हो जायें । पोषण स्तर एक ऐसा तथ्य है, जिससे गर्भधारण का नतीजा बहुत अधिक प्रभावित हो सकता है ।

ADVERTISEMENTS:

इससे समय पूर्व जन्म हो सकता है और बच्चों का वजन भी कम हो सकता है । कुपोषण के चलते ऐसी माताओं के स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम की संभावनाये भी बढ जाती हैं । (जे.जी. भाई एवं राव, 1995) अनचाहे गर्भधारण जो कि असुरक्षित गर्भपात के जरिये समाप्त कर दिये जाते हैं ।

उनका महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य के सुधार पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव पडता है । प्रजनन को रोकने के लिये एक रास्ता गर्भनिरोधकों का प्रयोग है । यद्यपि परिवार नियोजन का ज्ञान भारत में करीब-करीब बहुत व्यापक हो गया है, फिर भी मौजूदा समय में 15 से 49 वर्ष की आयु वाली विवाहित महिलाओं में से सिर्फ 49 प्रतिशत महिलायें ही आधुनिक गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल करती है ।

महिला बन्ध्यीकरण गर्भनिरोध का सबसे मुख्य तरीका है । विवाहित महिलाओं में से 2 तिहाई से अधिक महिलायें जो गर्भ निरोधकों का प्रयोग कर रही थी उनकी नसबंदी कर दी गयी थी । निवास का स्थान, शिक्षा और धर्म प्रजनन और गर्भनिरोधकों के प्रयोग बहुत घनिष्ठ रूप से जुडे हैं । आधी से अधिक विवाहित महिलायें जा कक्षा 10 तक पढी थी अथवा इससे ज्यादा, वे गर्भनिरोधकों का प्रयोग कर रही थी, जबकि निरक्षर महिलाओं में से केवल एक तिहाई महिलायें ही इसका प्रयोग कर रही थीं ।

ये अचम्भा नहीं है कि इन दो समूहों की कुल प्रजनन दरें बहुत अधिक अलग-अलग है । निरक्षर महिलाओं की प्रजनन दर चार बच्चे हैं, जबकि हाईस्कूल या इससे अधिक शिक्षा प्राप्त महिलाओं की प्रजनन दर 2.2 बच्चे हैं । धार्मिक समूहों में भी ये दरें अलग पायी जाती है ।

ADVERTISEMENTS:

मिसाल के तौर पर मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर सबसे अधिक होती है वे गर्भनिराधकों का इस्तेमाल भी सबसे कम करती है । इस बात के होते हुये भी बहुत सी महिलायें अधिक से अधिक गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल कर रही थीं और इस प्रकार अपनी प्रजनन क्षमता को सीमित कर रही थीं, फिर भी गर्भ निरोधकों की भारत में जितनी आवश्यकता है उनकी पूर्ति नहीं हो रही थी ।

करीब 20 प्रतिशत विवाहित महिलायें अगले बच्चे के जन्म को टालना चाहती हैं अथवा बच्चे नहीं चाहतीं । युवा महिलाओं में गर्भनिरोधक की आवश्यकता की पूर्ति न होने का उद्देश्य जन्म में देर करना था, न कि उन पर रोक लगाना । इसका अर्थ ये है कि महिला गर्भनिरोध तरीकों की हिमायत बडे जोर-शोर से भारतीय परिवार नियोजन कार्यक्रम द्वारा की जाती है, उन्हें तेजी से अपनाया जाना चाहिये ।

ये ध्यान देने की बात है किए एक लाख से अधिक भारतीय महिलायें प्रति वर्ष गर्भाधान की समस्याओं के चलते मर जाती हैं । इसका सबसे बडा कारण बहुत अधिक थकावट 48 प्रतिशत और पैरों, शरीर और चेहरे की सूजन 25 प्रतिशत है । 10 प्रतिशत मातायें कन्वलजन से पीडित थी जो बुखार नहीं था तथा 9 प्रतिशत रतौंधी ग्रस्त थीं । केवल 4 प्रतिशत को वैजाइनल ब्लीडिंग होती थीं ।

ये समस्यायें ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक थीं । इसके विपरीत पैरों, शरीर अथवा चेहरे में सूजन की समस्या शहरी क्षेत्रों में अधिक पायी जाती है । माताओं की मृत्यु और उनकी रोगग्रस्त स्थिति ऐसी दो बडी समस्यायें है, जो प्रजनन के उच्च स्तरों से सीधी जुडी हुयी हैं ।

भारत में माताओं की मृत्यु का अनुपात बहुत ऊँचा है अर्थात् 1 लाख जनन पर लगभग 4 सौ मौतें (आई.सी.एम.आर., जुलाई 2003) । यह अनुपात संयुक्त राज्य अमरीका के अनुपात का 56 गुना है । माँ की मृत्यु दर में एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच बहुत अधिक अतर है ।

गुजरात में जहाँ यह अनुपात सबसे निम्न (135) है, वहीं राजस्थान और उत्तर प्रदेश में क्रमशः 677 एवं 600 से ज्यादा है । माँ की मृत्यु-दर में जो यह अतर दिखाई पडता है, उसका बहुत बडा कारण महिलाओं का सामाजिक-आर्थिक स्तर और स्वास्थ्य रक्षा सेवाओं का महिलाओं को मुहैया ल होना है ।

माँ की मृत्यु की ये उच्च दरें निश्चित रूप से बहुत ही दुखदायी हैं, क्योंकि इनमें से बहुत-सी माता को बचाया जा सकता था, बशर्ते महिलाओं को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध होतीं । एक अन्य दुखदायी तथ्य भी ध्यान खींचने वाला है ।

वह है करीब 58 प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव के बाद समुचित देखभाल मिलती है । प्रसव के बाद 48 घंटे के दौरान बहुत बडी संख्या में माताओं और नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है एक अनुमान के अनुसार, भारत में 58 प्रतिशत महिलाओं को प्रसूति के बाद स्वास्थ्य सम्बन्धी समुचित देखभाल उपलब्ध नहीं होती ।

केवल 27 प्रतिशत महिलाओं को ही बच्चे के जन्म के पश्चात् प्रथम चार घंटों के दौरान स्वास्थ्य परीक्षण की सुविधा मिलती थी और केवल 37 प्रतिशत महिलाओं का ही प्रसूति के महत्वपूर्ण प्रथम दो दिन के दौरान स्वास्थ्य परीक्षण किया जाता था यदि माँ की अच्छी शिक्षा-दीक्षा होती है और परिवार का आर्थिक स्तर ठीक होता है, तो प्रसव के बाद स्वास्थ्य की देखभाल समुचित रूप से होती है ।

जहाँ शहरी इलाकों की महिलाओं की प्रसव उपरान्त देखभाल अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से होती है, वहीं ग्रामीण महिलाएँ इससे वंचित रहती है । अगर धार्मिक दृष्टि से देखें तो मुस्लिम महिलाओं की देखभाल प्रसव के बाद आमतौर पर नहीं हो पाती ।

किसी निजी स्वास्थ्य सुविधा केन्द्र में प्रसूति होने पर, बच्चे के जन्म के बाद स्वास्थ्य की जाँच पडताल की जाती है (85 प्रतिशत) तथा जन्म के 4 घंटे से कम समय के भीतर जाँच होती है (62 प्रतिशत) । इसके विपरीत, जब प्रसूति घर में ही अथवा माँ-बाप के घर में होता है, तो बच्चे के जन्म के बाद स्वास्थ्य का परीक्षण आमतौर पर होता ही नहीं । ऐसी महिलाओं के मामले में यह 15 प्रतिशत तक ही सीमित रहता है ।

भारत में विभिन्न प्रान्तों में प्रजनन स्तरों में काफी अतर दिखाई पडता है । कुल प्रजनन दरें 18 (गोवा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु) से 4 (बिहार) के बीच हैं । 29 प्रान्तों में से 18 प्रान्तों की प्रजनन-दरें राष्ट्रीय प्रजनन दर अर्थात् 2.68 से कम है ।

प्रजनन-दरें में जो यह विषमता दिखाई पडती है, उसका मुख्य कारण यह है कि देश के आधे हिस्से अर्थात् उत्तर में, विशेषकर ज्यादा आबादी वाले प्रान्तों में यह दर काफी ऊँची है । बिहार (कुल प्रजनन दर-4), उत्तर प्रदेश (38), राजस्थान (3.2) और मध्य प्रदेश (3.1) जैसे प्रान्त इसके उदाहरण है ।

पूर्वी क्षेत्र के झारखंड तथा पूर्वोतर क्षेत्र के अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैण्ड में भी उच्च प्रजनन दरें हैं तथा ये 3 और उससे अधिक है । पश्चिम एवं दक्षिण के क्षेत्रों में प्रजनन दर कम है । इसका अपवाद केवल एक प्रान्त गुजरात है, जहाँ कुल प्रजनन दर 2.4 है, अन्यथा अन्य जगह 2.1 या इससे नीचे है ।

पाँच माताओं की मौतों में से एक की मौत को निश्चित रूप से टाला जा सकता था, बशर्ते इलाज की समुचित सुविधा मिलती । रक्तअल्पता (खून की कमी) एक अन्य कारण है, जिसे आयरन की टैबलेट के जरिए आसानी से और बिना ज्यादा खर्च किए दूर किया जा सकता है । यह कारण माँ के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है और कई बार मौत भी हो जाती है ।

अध्ययनों से यह पता चला है कि भारत में 50 से 90 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ खून की कमी से पीडित रहती हैं । भारत में 20 प्रतिशत माताओं की मौत खून की गम्भीर कमी से हो जाती है (विश्व बैंक, 1996) । बहुत अधिक रक्तअल्पता की स्थिति में प्रकृति के दौरान हैमरेज से मौत भी हो सकती है ।

2. कुपोषण स्वास्थ्य के लिए घातक:

बहुत से अध्ययन इस बात को जाहिर करते है कि कुपोषण भारतीय महिलाओं के लिए कुपोषण स्वास्थ्य चिता का एक अहम कारण है (चटर्जी 1990, देसाई, एम. 1994, विश्व बैंक, 1996) । इससे माँ, और बच्चा दोनों के जीवन को खतरा रहता है ।

ऐसा माना जाता है कि महिलाओं में व्याप्त कुपोषण के नकारात्मक प्रभाव उस समय और बढ जाते हैं, जब बहुत अधिक काम करना पडता हो, बच्चों को जन्म देना और उनका पालन करने का दायित्व हो अथवा महिलाओं के लिए अतिरिक्त पोषण आवश्यक हो । ऐसी स्थिति में बीमारी तथा समुचित स्वास्थ्य सेवा न मिलने पर मौत की संभावना बढ जाती है ।

यद्यपि भारत में कुपोषण आबादी के हर हिस्से में पाया जाता है परन्तु महिलाओं में यह खास तौर पर मिलता है । उनमें यह बाल्यावस्था में ही पैठ बना लेता है और जीवन-पर्यन्त बना रहता है । (चटर्जी, 1990, देसाई, 1994) । परिवार में अंत में खाने वाली महिलाएँ और लडकियों होती हैं और यदि खाना न बचा तो वे भूखी ही रह जाती हैं । (होरोविट्‌ज एवं किश्वर, 1985) ।

निम्न जातियों और आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों में महिलाएँ एवं बच्चे इस दृष्टि से सर्वाधिक उपेक्षित रहते हैं । विश्व में भारतीय बच्चे सर्वाधिक कुपोषण के शिकार रहते हैं 48 प्रतिशत लडके और लडकियाँ जो पाँच वर्ष से कम आयु के होते हैं, कुपोषण के प्रायः शिकार होते हैं ।

साथ ही, 48.1 प्रतिशत लडके और लडकियों का उनकी उम्र के अनुपात में विकास भी नहीं होता । अन्य अध्ययन यह दर्शाते हैं कि कुपोषण के चलते बहुत सी महिलाओं का पूर्ण शारीरिक विकास नहीं हो पाता (विश्व बैंक, 1996) ।

समुचित विकास न होने के कारण ऐसी महिलाओं की प्रसूति में भी कई बाधाएँ पैदा होती हैं । अध्ययनों एवं सर्वेक्षणों से यह भी पता चला है कि बच्चों के कुपोषण का एक बडा कारण उनकी माता का समुचित रूप से शिक्षित न होना अथवा निरक्षर होना है ।

3. लडकियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरे:

यह ध्यान देने वाला तथ्य है कि भारतीय महिलाओं के खराब स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि लडकों एवं पुरुषों की तुलना में लडकियों और महिलाओं के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है (दास गुप्ता, 1994 देसाई, 1994) दरअसल, इसका सबसे दर्दनाक उदाहरण यह है कि बहुत सी बच्चियाँ गायब हो जाती हैं ।

महिलाएँ भूख, गरीबी, अभाव, यौन-उत्पीडन और बीमारी का प्रायः शिकार बनी रहती है । इसके चलते लाखों लडकियाँ और महिलाएँ असामयिक मौत का शिकार हो जाती हैं । हाल के अनुमान में ऐसी मौतों की संख्या 35 मिलियन (विश्व बैंक, 1996) दर्शाते हैं । दूसरे शब्दों में, 35 मिलियन लडकियाँ एवं महिलाएँ हमारी आबादी का हिस्सा होती, परन्तु वे नहीं हैं । महिलाओं की यह मृत्यु-दर पुरुषों की तुलना में बहुत ज्यादा है, विशेषकर 30 वर्ष की आयु तक के समूह में ।

4. भारत में एच.आई.वी./एड्‌स की महामारी और तत्सम्बन्धी स्वास्थ्य के खतरे:

जैसा कि बहुत से अध्ययनों से पता चला है कि पिछले कुछ वर्षों में एच.आई.वी./एड्‌स ने भारत में महामारी का रूप ले लियाँ है । ये महामारी महिलाओं के स्वास्थ्य पर विशेष रूप से अत्यन्त प्राणघातक साबित होती है । एच.आई.वी. सेन्टिनल सर्वीलेंस रिपोर्ट-2005 (नाको-2006) ने यह अनुमान लगाया है कि भारत में वर्ष 2005 में 15 से 49 वर्ष के आयु वर्ग के 5.2 मिलियन व्यक्ति एच.आई.वी. से प्रभावित थे ।

इनमें से, आधे से अधिक लोग (57 प्रतिशत) ग्रामीण क्षेत्रों में थे और 38 प्रतिशत महिलायें थीं । इसी रिपोर्ट ने यह भी अनुमान लगाया है कि भारत में वयस्क एच.आई.वी. की समग्र मौजूदगी 0.91 प्रतिशत थी । एल.आई.वी. मौजूदगी 95 जिलों में 1 प्रतिशत से अधिक थी, जिनमें निम्न एच.आई.वी. मौजूदगी वाले राज्यों के 9 जिले शामिल थे । वे राज्य जिनमें वर्ष 2008 में सबसे अधिक एच.आई.वी. की मौजूदगी रही, वे थे – आन्ध्र प्रदेश (2002 प्रतिशत), नागालैण्ड (1.63 प्रतिशत) और कर्नाटक, महाराष्ट्र और मनीपुर (प्रत्येक में 1.28 प्रतिशत) ।

इस अध्ययन से ये भी पता चलता हे कि भारतीय महिलाओं की स्वास्थ्य सम्बन्धी बहुत सी समस्यायें उच्च स्तर की प्रजनन शक्ति से जुडी हुयी हैं या उसके कारण बढ जाती हैं । प्रजनन शक्ति को घटाना भारत की महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य के लिये बहुत आवश्यक है ।

प्रजनन शक्ति में कमी लाने का एक जरिया ये है कि गर्भ निरोधकों का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाये । यद्यपि भारत में परिवार नियोजन सम्बन्धी ज्ञान बहुत अधिक व्यापक पैमाने पर है, परन्तु केवल 49 प्रतिशत विवाहित महिलायें (15 से 49 के बीच) ही आधुनिक गर्भ निरोधकों का प्रयोग करती है ।

कुपोषण भारतीय महिला के स्वास्थ्य की चिन्ता का एक अन्य कारण है । यद्यपि भारत में कुपोषण की ये समस्या आबादी के सभी हिस्सों में पायी जाती है, परन्तु महिलाओं के अन्दर कुपोषण बचपन में ही पैठ बना लेता है और उनके पूरे जीवनभर बना रहता है जिससे उनका पूर्ण शारीरिक विकास भी नहीं हो पाता ।

एन.एफ.एच.एस. के अनुसार माँ की शिक्षा की भूमिका बच्चों के कुपोषण में बहुत अधिक होती है । इससे उनके तथा उनके बच्चों के जिन्दा रहने की संभावनाये भी कम हो जाती हैं । महिला कुपोषण के नकारात्मक प्रभाव में और अधिक बढोत्तरी हो जाती है जिसके स्पष्ट कारण है – बहुत अधिक कार्य का बोझ, गरीबी, बच्चों को जन्म देना और उनका पालन-पोषण तथा उनकी विशेष पोषण आवश्यकतायें ।

इन सब बातों के चलते बीमारी की संभावना के साथ-साथ मृत्यु की संभावना भी बढ जाती है । ये भी ध्यान देने योग्य है कि भारतीय महिलाओं के खराब स्वास्थ्य का मुख्य कारण ये है कि लडकों और पुरुषों की तुलना में लडकियों और महिलाओं को भेदभाव झेलना पडता है । एच.आई.वी. / एड्‌स की महामारी भारत में निरन्तर बढ रही है । इससे इस बात की संभावना बहुत अधिक बढ जाती है कि महिलाओं का स्वास्थ्य विपरीत रूप से प्रभावित होगा ।

Home››Essay››Women Health››