खाद्य संकट पर निबंध: चुनौतिया और सभावनाएँ! Read this article in Hindi to learn about the challenges and prospects of food crisis.

कृषि तकनीकी व उर्वरकों के विकास के कारण 1960 के दशक से वैश्विक खाद्य उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई है, परन्तु फिर भी आज सम्पूर्ण विश्व में भूखे और कुपोषित व्यक्तियों की संख्या पहले की तुलना में कहीं अधिक हो गयी हैं । यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है ।

विश्व खाद्यान्न कार्यक्रम के अनुसार खाद्यान्नों का बढ़ता हुआ अभाव एक महासंकट का संकेत दे रहा है । विश्व बैंक ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि सम्पूर्ण विश्व में करीब 800 मिलियन लोग भूखमरी से प्रभावित है । अगर हम इस अध्ययन के विवरणों पर नजर डालें तो हमें स्थिति की भयावहता समझ में आयेगी ।

इसके अनुसार विश्व के 36 देश खाद्यान्न संकट से गंभीर रूप से प्रभावित हैं, जिनमें से 21 देश दक्षिण अफ्रीका के हैं । विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के अन्तर्गत खाद्यान्न प्राप्त करने वाले विश्व के 78 देशों के 73 मिलियन लोगों के समक्ष आज इस संकट के कारण एक गंभीर चुनौती खड़ी हो गई है ।

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खाद्य संकट के कारण आज भूख का एक नया चेहरा सामने आया है । पहले भूख व गरीबी ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी समस्या थी आज उसका विस्तार शहरी क्षेत्रों में भी हो रहा है । खाद्य संकट के लिए वैसे तो कई कारण जिम्मेदार है लेकिन तीव्र जनसंख्या वृद्धि ने इस समस्या को और भी भयानक बना दिया है ।

वर्तमान में जनसंख्या वृद्धि दर खाद्य पदार्थ उत्पादन में वृद्धि की दर से कहीं अधिक है । यह वृद्धि अल्पविकसित देशों में और भी अधिक है परिणामस्वरूप इस समस्या का प्रभाव भी उन देशों में अधिक है । विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2030 तक खाद्यान्नों की वैश्विक माँग दुगनी होने की संभावना है ।

इस समस्या से निपटने का सबसे पहला चरण जनसंख्या स्थिरीकरण होना चाहिए । जब हम खाद्य आवश्यकता की बात करते हैं तो हमारा अभिप्राय केवल खाद्यान्न से नहीं होता है । मनुष्य की खाद्य आवश्यकता अन्न फल दूध सब्जियों माँस अण्डे आदि सब मिल कर पूरा करते हैं यदि हम इनका समावेश न करे तो कुपोषण की स्थिति पैदा हो जाती है ।

खाद्यान्नों के परिवहन की समस्या भी कहीं न कहीं खाद्यान्न सकट के लिए जिम्मेदार । यह समस्या विकासशील व अल्पविकसित देशी में अधिक है । कई बार ऐसा सुनने में आता है कि कुछ स्थानों पर तो खाद्य सकट है और कही अत्यधिक उत्पादन व उचित भण्डारण के अभाव में खाद्यान्न नष्ट हो जाते है ।

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कई बार अधिक परिवहन लागत भी इसके लिए जिम्मेदार होती है । विकासशील देशों में जमाखोरी व कालाबाजारी भी एक बड़ी समस्या है । कुछ व्यापारी खाद्य पदार्थों का अवैध भण्डारण करते हैं तथा उन्हें बाजार में तब बेचते है जब उनका मूल्य अत्यधिक बढ जाता है ।

उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उचित भण्डारण न हो पाने के कारण काफी बडी मात्रा में खाद्यात्रों का नाश हो जाता है । इससे खाद्यान्न सकट को और बढ़ावा मिलता है । भूमण्डलीय ताप में वृद्धि होने से भी उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है ।

विशेषकर मानसूनी जलवायु वाले देशों विनाश, सूखा, बाढ़, जलवायु परिवर्तन आदि कारणों से प्रतिवर्ष विश्व के बड़े उर्वर क्षेत्र का ह्रास होता है । जलवायु परिवर्तन के कारण ही वर्ष 2007 में आस्ट्रेलिया में इस शताब्दी का सूखा पड़ा इससे वहाँ गेहूँ उत्पादन में लगभग 60% की गिरावट आई । चीन में पिछले 7 वर्षों में अनाजों के उत्पादन में लगभग 10% की कमी आई है ।

जलवायु संबंधी कारकों के अतिरिक्त सामाजिक-राजनैतिक कारक भी वर्तमान खाद्यान्न जिम्मेदार है । इस तरह की समस्यायें विशेषकर अफ्रीका महाद्वीप में देखी जा रहीं हैं । नाइजीरिया की सरकार ने बियाफन लोगों के साथ तथा तथा इथोपिया की सरकार ने इरीट्रियन लोगों के साथ भेदभाव करके खाद्य संकट उत्पन्न किया, जिससे लगभग 6.5 लाख लोगों की मृत्यु हो गई ।

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विकासशील देशों में भूमि का वितरण बहुत ही असमान है । कृषि भूमि का अधिकांश भाग कुछ प्रतिशत व्यक्तियों के अधिकार में है । इसका सबसे बडा उदाहरण बांग्लादेश है जहाँ लगभग 9 प्रतिशत लोगों के हाथ में देश की कुल कृषि भूमि का लगभग 52 प्रतिशत भाग है । खाद्य संकट के लिए जिम्मेदार कारकों में निर्धनता का भी महत्वपूर्ण स्थान है । वर्तमान भौतिकता वादी परिवेश में खाद्य सामग्री उन्हें सुलभ है, जो उसके लिए भुगतान करने में सक्षम है न कि उन्हें जिनके लिए खाद्यान्न आवश्यक है ।

खाद्यान्न संकट से निपटने का सबसे प्रभावी तरीका है कि उत्पादकता में वृद्धि की जाए । विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार वर्ष 2010 तक विकासशील देशों की उत्पादकता में 55 प्रतिशत वृद्धि होने की संभावना है । फसलों की गहनता में वृद्धि, करके, उन्नतशील बीजों व उर्वरकों के प्रयोग तथा कृषि भूमि में वृद्धि करके इस उत्पादकता को और बढ़ाया जा सकता है ।

इसके साथ-साथ हमें जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए भी प्रयास करना होगा क्योंकि यदि उत्पादकता व जनसंख्या दोनों में वृद्धि होगी तब उत्पादकता की वृद्धि महत्वहीन हो जायेगी । इसके अतिरिक्त हम नये खाद्य संसाधनों की भी खोज करनी होगी । वर्तमान में इसके लिए कई सफल प्रयास हो रहे हैं ।

समुद्री कृषि, उच्च प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थों का विकास आदि इसी दिशा में प्रयास है । वर्तमान खाद्य सकट से निपटने के लिए कई अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास जारी है । संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा अप्रैल 2008 में इस संकट के समाधान के लिए एक कार्यदल की घोषणा की गई ।

खाद्य एवं कृषि संगठन ने जून 2008 में विश्व खाद्यान्न सकट पर एक उच्चस्तरीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया । इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों पर चर्चा की गई । इस सम्मेलन में विश्व के निर्धनतम देशों के कृषकों को बीज प्रदान किये जाने के लिए 1.7 बिलियन डॉलर की योजना बनाई गई ।

भारत के करोड़ों गरीब लोगों को भूख और कुपोषण से बचाने के लिए सब्सिडी युक्त मात्रा में अनाज उपलब्ध कराना देश की अनिवार्य आवश्यकता है । संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (यूएनएफएओ) की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषण से पीडित 23 करोड 30 लाख लोग भारत में हैं । देश में गरीब अनाज की मूल्य वृद्धि के अनुपात में नहीं बढ़ रही है ।

परिणामतः गरीब आदमी की अन्न उपलब्धता में कमी आ रही है और भुखमरी का खतरा बढ़ रहा है । इससे समाज के गरीब और असहाय वर्ग के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से बढ़ने की आवश्यकता है । अनाज की बढती कीमतों से जब मध्यम वर्ग रहा है तब गरीब वर्ग पर महँगाई के बोझ और जीवन की चिंताओं की स्पष्ट कल्पना की जा सकती है ।

सरकार का कहना है कि, देश की 28.5 प्रतिशत जनसंख्या से जुड़े 6.52 करोड़ से नीचे हैं । खाद्य सुरक्षा विधेयक के तहत गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले का खाद्य सुरक्षा का लाभ हर हाल में मिलना चाहिए । साथ ही खाद्य सुरक्षा कानून में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की सूची की समय-समय पर समीक्षा चाहिए, ताकि समय के साथ इसमें सुधार होता रहे ।

गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे परिवारों के अलावा समाज के कमजोर वर्ग और किसी संकट की स्थिति में भारी मुसीबत में पड़ जाने वाले परिवारों को भी खाद्य सुरक्षा में लाभान्वित करने को प्रावधान होने चाहिए ।

सरकार खाद्य सुरक्षा कार्य को कारगर ढंग से लागू करने के लिए जिस सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का सहारा लेगी, उसे दुरुस्त करके भ्रष्टाचार रहित बनाने की बहुत बड़ी चुनौती है । यह वही राशन प्रणाली है, जिसके जरिए वितरित हो रहे अनाज का करीब 50 प्रतिशत तक हिस्सा कई राज्यों में कालाबाजारियों के हाथों में चला जाता है ।

इसके अलावा देश के बड़े हिस्से में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का अस्तित्व ही नहीं है । इसलिए यह स्पष्ट है कि, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को व्यापक, पारदर्शी, मजबूत एवं प्रभावी बनाना जरूरी है । इन सभी रणनीतिक प्रयासों के साथ खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को सफल बनाने के परिप्रेक्ष्य में हमें ब्राजील के भुखमरी और गरीबी हटाओ कार्यक्रम से सबक लेना होगा ।

साल 2003 में जब राष्ट्रपति लूला डी’ सिल्वा ने ब्राजील की सत्ता संभाली थी तब उन्होंने भुखमरी समाप्त करने के कार्यक्रम फोम जीरो यानी ”भुखमरी के अंत” का अभियान की शुरूआत की थी । इसके अंतर्गत 1.25 डॉलर प्रतिदिन में कम में जीवनयापन करने वाले प्रत्येक परिवार को हर महीने 18 डॉलर का अनाज कूपन दिया गया ।

इसी तरह ब्राजील ने कुछ समय पहले बोला फेमिलिया अर्थात् पारिवारिक अनुदान नाम से गरीबी हटाओ कार्यक्रम शुरू किया । इस कार्यक्रम के तहत गरीब परिवारों को सीधे नकदी दी जाती है । विश्व बैंक ने भुखमरी गरीबी हटाने के इन कार्यक्रमों को ब्राजील की मौन क्रांति कहा था, लेकिन इन कार्यक्रमों का महत्व अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है ।

भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखल की वजह से लैटिन अमरीकी देशों के लिए मिसाल बन चुका गरीबी हटाओ कार्यक्रम ऐतिहासिक भ्रष्टाचार में डूबकर अपने उद्देश्य में नाकाम हो रहा है । निश्चिम रूप से देश के गरीबों को भूख की पीड़ा से बचाने के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम की सफलता के लिए हम ब्राजील की लगातार विफल हो रही योजनाओं से सबक ले सकते हैं ।

इस परिप्रेक्ष्य में यदि हम गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले वास्तविक परिवारों को चिह्नित करने में और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को स्वच्छ और कारगर बनाने में सफल रहते हैं, तो खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम देश के गरीबों को मुस्काराहट देने वाला उपयोगी कार्यक्रम सिद्ध हो सकता है ।

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