बचपन की यादें पर निबंध! Here is an essay on ‘Childhood Memories’ in Hindi language.

“ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी से लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी ।”

सुदर्शन फाकीर ने इन पंक्तियों में बचपन की उन सुहावनी यादों को सँजो रखा है, जब वह देश-दुनिया के सारे झंझावातों से परे अपने ही संसार में मग्न रहा करते थे । आज वह कामना करते हैं कि उनके बचपन के सुहाने दिन पुन: लौट आएँ, भले ही इसके लिए उनकी सारी दौलत और ख्याति क्यों न से ली जाए, किन्तु यह कटु सत्य है कि बचपन लौटकर नहीं आता और रह जाती हैं केवल उसकी यादें ।

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इन यादों का भी जीवन की खुशियों से सीधा सम्बन्ध होता है । हम जीवनभर बचपन की यादों को ताजा करके खुश होने का मौका ढूंढते रहते हैं । मुझे भी अपना बचपन बहुत याद आता है ।

मेरा जन्म बिहार के समस्तीपुर जिले के एक छोटे-से गाँव बघड़ा में हुआ था । यह गाँव गंगा नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है । इसकी आबादी लगभग पाँच हजार है । इस गाँव में एक राजकीय प्राथमिक विद्यालय एवं एक राजकीय माध्यमिक विद्यालय है ।

मेरी शिक्षा इन्हीं विद्यालयों में हुई । पड़ोस के गाँवों की तुलना में इन विद्यालयों में पठन-पाठन की अच्छी व्यवस्था थी । यहाँ पढ़ने के दौरान कुछ सहपाठी मेरे घनिष्ठ मित्र बन गए थे । कक्षा में मैं उन मित्रों के साथ बैठता था । आवश्यकता पड़ने पर हम एक-दूसरे की मदद भी करते थे ।

पढ़ाई के बाद खाली समय में मैं अपने मित्रों के साथ खेलना पसन्द करता था । खेल में मुझे शतरंज बहुत प्रिय था । मैं प्रायः रविवार के दिन अपने किसी मित्र के साथ शतरंज की एक बाजी खेल ही लेता था । शतरंज के अतिरिक्त मैदान में खेले जाने वाले खेलों में मुझे कबड्डी खेलना अच्छा लगता था ।

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कबड्डी के अतिरिक्त बचपन में मैं पिट्टो भी खेला करता था । पिट्टो एक प्रकार का खेल है, जिसमें गेंद से मैदान के बीच रखी गई गोटियों को मारना होता है । गोटियों के गिरने के बाद विपक्षी को गेंद से मारकर उसे आउट किया जाता है ।

विपक्षी को लगी गेंदों की संख्या के आधार पर हार-जीत का निर्णय होता था । पिट्टो के अतिरिक्त मैं अपने मित्रों के साथ लुका-छुपी का खेल भी खेलता था । विभिन्न प्रकार के खेल, खेलने के दौरान कई बार मित्रों से मेरी कहा-सुनी भी हो जाती थी ।

तत्पश्चात् वे मुझसे रूठ जाया करते थे, मगर मैं उन्हें मना लेता था । इस प्रकार हमारी मित्रता पुन: कायम हो ही जाती थी । थोड़ा बड़ा होने के बाद मैं अपने मित्रों के साथ क्रिकेट भी खेलने लगा, लेकिन पढ़ाई की व्यस्तता एवं समयाभाव के कारण मैं खेल-कूद पर कम ही समय दे पाता था ।

हाई स्कूल तक पहुँचते-पहुँचते में खेल-कूद को पूर्णतः छोड़ चुका था । हालाँकि आठवीं कक्षा में मैं कुछ दिनों तक अपने विद्यालय में खो-खो भी खेला करता था, किन्तु नौवीं कक्षा के बाद यह खेल भी पढ़ाई की व्यस्तता की भेंट चढ़ गया ।

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मुझे याद है, मैं बचपन में कभी-कभी पवित्र गंगा नदी में स्नान करने के लिए जाता था । तब वहाँ लोगों को तैरते हुए देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता था । मैं भी तैरना सीखना चाहता था ।

एक दिन मेरे एक मित्र न मुझे तैरने के गुण सिखाए । मैंने उन्हें आजमाकर देखा, तो लगा कि मैं भी सरलतापूर्वक तैर सकता हूँ । इसके बाद तो हर रोज तैरने का अभ्यास मेरे लिए आवश्यक हो गया ।

तैरने के अतिरिक्त गंगा नदी जाने का मेरा दूसरा उद्देश्य नदी किनारे की सैर था । नदी किनारे रेत पर सैर करना मुझे अच्छा लगता था । बसन्त ऋतु में नदी तट पर अपने मित्रों के साथ बिताए हुए पल मुझे आज भी याद आते हैं ।

बचपन के दिन बेफिक्री के होते हैं । इस समय प्रायः पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता नहीं होती । मुझे भी केवल अपना गृहकार्य पूरा करने से मतलब रहता था । स्कूल का काम खत्म करने के बाद मुझे पढ़ाई से कोई मतलब नहीं रहना था, किन्तु पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई के प्रति मेरा लगाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा ।

उसके बाद मुझे पाठ्यक्रम की किताबों के अतिरिक्त समाचार-पत्र एवं बाल-पत्रिकाएँ पढ़ना भी अच्छा लगने लगा । बाल-पत्रिकाओं में ‘नन्दन’, ‘नन्हें सम्राट’ एवं ‘पराग’ मुझे प्रिय थीं । पत्रिकाओं के अतिरिक्त मैं मनोरंजन के लिए कॉमिक्स भी पढ़ा करता था ।

‘नागराज’, ‘सुपर कमाण्डो ध्रुव’, ‘भोकाल’, ‘चाचा चौधरी’ इत्यादि मेरे प्रिय कॉमिक्स पात्र थे । मैं पत्रिकाएँ एवं कॉमिक्स अपने मित्रों के साथ बाँटकर पड़ता था । मेरे पास जो पत्रिकाएं एवं कॉमिक्स होती थीं, उन्हें मैं अपने मित्रों को पढ़ने के लिए देता था ।

मेरे मित्र भी मुझे उनके बदले अपनी पत्रिकाएँ एवं कॉमिक्स पढ़ने के लिए दे दिया करते थे । ग्राम्य-जीवन का अपना एक अलग ही आनन्द है । अपने मित्रों के साथ मिलकर खेतों से मटर तोड़कर खाने में जो स्वाद आता था, वह अब तक मटर-पनीर में भी नहीं मिला है ।

मिट्टी-पत्थर के ढेले से तोड़े गए झड़बेरी के बेर में जो स्वाद मैंने बचपन में प्राप्त किया है, वह सेब-सन्तरे में भी दुर्लभ है; बेर और अमरूद की बात तो छोड़ ही दीजिए । गर्मी के दिनों में आम के बाग में सबसे छुप-छुपाकर तोड़े गए खट्टे आमों का स्वाद भी बम्बइया, माल्हह के मीठे आमों से कहीं बेहतर था ।

बरसात के मौसम में सबसे नजरें चुराकर भीगना एवं भीगते हुए कागज की नावों को रास्ते में पानी में बहाने का भी एक अलग ही आनन्द था । सभी मित्र अपनी-अपनी नावों के साथ नावों की दौड़ के लिए तैयार रहते थे ।

इस तरह, बरसात का मजा दोगुना हो जाता था । बरसात के मौसम में प्रायः मेरे गाँव में हर साल बाद आती थी । गाँव के लोग दुआएं करते थे कि इस साल बाढ़ न आए और हम सभी मित्रों की यह कामना होती थी कि बाढ़ आए तो जीने का मजा आ जाए, लेकिन अब सोचता हूँ कि उस समय मैं कितना गलत सोचा करता था ।

हालाँकि उस वक्त बाढ़ का सामना मेरे बालमन की खेल एवं आनन्द की भावनामात्र थी । वास्तव में, बाद अपने साथ विनाश ही लाती है । धीरे-धीरे मैं बड़ा होता गया और बचपन पीछे छूटता गया ।

बचपन के दिन जब बीतने लगे तो दीन-दुनिया की चिन्ता सताने लगी और अच्छे जीवन के लिए संघर्ष में बचपन कहाँ गुम हो गया, पता ही नहीं चला । ‘तू न सही तेरी याद सही’ की तरह बचपन की यादें भी कम खुशी नहीं देती ।

आज भी जब बचपन की याद आती है, तो सोचता हूँ, ‘कोई लौटा दे मेरे बचपन के वे खुशियों मरे दिन’ । कोई मेरे वे खूबसूरत दिन लौटा तो नहीं सकता, किन्तु जिन्दगी की भागदौड़ में भी बचपन को याद कर खुश हो लेने का मौका मैं कभी नहीं छोड़ता ।

बचपन के सम्बन्ध में टॉम स्टॉपर्ड ने बहुत ही अच्छी बात कही है- “यदि तुम अपने बचपन को सँजोकर रख सको, तो तुम कमी बूढ़े नहीं हो सकते ।”

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