भारत में सामाजिक परिवर्तन पर निबंध | Essay on Social Change in India in Hindi language.
कोई भी मानव सदैव एक सा नहीं रहता । सामाजिक परिवर्तन समाज का स्वभाव है । भारतीय समाज भी इसका अपवाद नहीं है । इसलिए ऐतिहासिक सर्वेक्षण में प्रत्येक काल में आर्थिक, राजनीतिक, विचारधारात्मक तथा अन्य परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन देखे जा सकते हैं ।
देश में राज्य सदैव बनते-बिगड़ते रहे कभी छोटे-छोटे राज्य मिलकर बड़े-घड़े राज्य बन गए, तो कभी साम्राज्यों का विघटन होकर छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई । इन दोनों ही प्रकार की प्रवृतियों का सामाजिक संरचना पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ा । बड़े राज्य बनने से सामाजिक एकता बड़ी और छोटे राज्य बनने से विविधता में वृद्धि हुई ।
भारत में सामाजिक दार्शनिक विचारधारा के अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है कि यहाँ पर विचार के क्षेत्र में बराबर परिवर्तन होता है । यह ठीक है कि पश्चिम की तुलना में भारत में विचारों के क्षेत्र में परिवर्तन की गति बहुत मन्द दिखलाई पड़ती है ।
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फिर भी इससे यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि भारत में विचारों के क्षेत्र में परिवर्तन हुआ ही नहीं है । जब कभी सामाजिक-दार्शनिक विचारों में कोई प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गई तो उसकी विरोधी प्रवृति का जन्म हुआ । उदाहरण के लिए जैन, बौद्ध और चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में उत्पन्न हुए ।
इन्होंने धर्म और दर्शन के क्षेत्र में प्राचीन परम्पराओं का विरोध किया । इस विरोध से अनेक सामाजिक परिवर्तन हुए । कालान्तर में ये परिवर्तन देश के लिए हानिकारक सिद्ध हुए; विशेषतया बौद्ध धर्म के प्रचार से राष्ट्र की सुरक्षा-शक्ति बहुत कम हो गई । इसलिए समाज को फिर से शक्तिशाली बनाने के लिए वेदान्त दर्शन का जन्म हुआ ।
शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय दर्शन को एक नये शक्तिशाली रूप में स्थापित किया जिससे बौद्ध दर्शन की जन्मभूमि भारत से बौद्ध दर्शन का प्रभाव लगभग उठ गया । आधुनिक काल में अंग्रेजों की आधीनता में लम्बे काल तक दबे रहने के बाद भारतीय विचारधारा में फिर से क्रान्ति उत्पन्न हुई ।
समकालीन भारत में श्री अरविन्द महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, राधाकृष्णन, विवेकानन्द, रामकृष्ण, दयानन्द इत्यादि विभिन्न समकालीन भारतीय दार्शनिकों ने प्राचीन वेदान्त दर्शन को नवीन युग के अनुसार नए रूप में उपस्थित किया ।
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इसमें दो विचारधाराएँ स्पष्ट दिखलाई पड़ती हैं- एक ओर दयान्नद जैसे दार्शनिकों ने प्राचीन वैदिक दर्शन को फिर से पुनर्जीवित किया और अरविन्द, राधाकृष्णन इत्यादि ने आधुनिक युग की चेतना के साथ उसका समन्वय किया ।
दूसरी ओर एम.एन. राय जैसे समकालीन विचारकों ने साम्यवाद, भौतिकवाद, मार्क्सवाद आदि से प्रभावित होकर नवीन विचार उपस्थित किए । भारतीय दार्शनिक-सामाजिक विचारों की इस सूक्ष्म रेखा से यह स्पष्ट होता है कि देश में विचारों के क्षेत्र में परिवर्तन होता रहा है ।
यद्यपि इसकी गति कभी भी तीव्र नहीं हुई और विचारों के क्षेत्र में कोई भी ऐसी क्रान्ति नहीं हुई जिससे अति प्राचीन विचारों से तारतम्यता टूट जाती । इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि विचारधारा में परिवर्तन बहुत कुछ परम्परा से बंधा रहा है ।
1. सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन:
भारतवर्ष में रूढ़ियों और परम्पराओं के क्षेत्र में बराबर परिवर्तन देखा जा सकता है । परिवार विवाह, जाति की संस्था, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था सभी में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं । संयुक्त परिवार क्रमशः छोटे होते गए हैं और अब केन्द्रक परिवार उनका स्थान लेते जा रहे है स्त्रियों से सम्बन्धित सामाजिक विधान बनने के बाद से विवाह की संस्था में तेजी से परिवर्तन हुआ है ।
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बाल-विवाह की प्रथा लगभग समाज हो गई है, विधवा-पुनर्विवाह होने लगे हैं, सम्पत्ति में स्त्रियों को अधिकार मिल चुका है । अब उन्हें दत्तक पुत्र ग्रहण करने की भी सुविधा है । स्त्रियों में शिक्षा बढ़ने के साथ-साथ वे सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर आ रही हैं ।
नगरीय क्षेत्रों में उनकी गतिशीलता में बहुत परिवर्तन हुआ । घर से बाहर स्त्रियों के धनोपार्जन के हेतु काम करने से स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध विषयक मूल्यों में परिवर्तन दिखलाई पड़ता है । इससे परिवार की संरचना में भी अनार हुआ है और स्त्री-पुरुष की स्थितियों और कार्यों पर प्रभाव पड़ा है ।
2. जाति व्यवस्था में परिवर्तन:
आधुनिक भारत में जाति की संस्था वर्ण व्यवस्था से हजारों साल के विकास का परिणाम है । इस विकास में बराबर परिवर्तन होते रहे हैं । इस परिवर्तन में नई-नई जातियाँ बनती रही हैं और इन जातियों में सामाजिक स्तरीकरण में ऊँचा स्थान प्राप्त करने के लिए बराबर संघर्ष होते रहे हैं ।
इस संघर्ष में अनेक जातियों ने पहले से अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त किया है । इस प्रकार जाति व्यवस्था के अन्तर्गत सामाजिक संस्तरण में विशिष्ट जाति का स्थान बदलता रहा है परन्तु कुल मिलाकर जाति व्यवस्था के लक्षणों में अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है । जातियों की पंचायतों का सामाजिक नियन्त्रण में महत्व पहले से बहुत कम हो गया है क्रमशः इस प्रकार की पंचायतों की संख्या बहुत कम हो गई है ।
राजनीतिक कारणों से एक ओर जातिवाद के फिर से बढ़ने की प्रवृति दिखलाई पड़ती है किन्तु दूसरी ओर शिक्षा के प्रसार, औद्योगीकरण, नगरीयकरण लौकिकीकरण इत्यादि विभिन्न प्रक्रियाओं से जातिवाद कम हो रहा है । भविष्य में जाति व्यवस्था का स्वरूप क्या होगा यह अनिश्चित है । किन्तु स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था कभी भी एक सी नहीं रही होगी । उसमें परिवर्तन होता रहा है ।
3. जजमानी व्यवस्था:
भारतवर्ष में आर्थिक व्यवस्था कभी भी सामाजिक व्यवस्था से पूरी तरह अलग नहीं होती । बहुधा आर्थिक और सामाजिक सम्बन्ध परस्पर घनिष्ट रूप से मिले रहे हैं । उदाहरण के लिए गाँवों में विभिन्न जातियों के सदस्यों के परस्पर सम्बन्ध जजमानी व्यवस्था से नियन्त्रित होते रहे हैं ।
जजमानी व्यवस्था से लोगों के आर्थिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार के सम्बन्ध निर्धारित होते हैं इनमें कुछ जातियाँ अन्य जातियों की जजमान होती हैं । जजमानी सम्बन्ध परम्परागत रूप से चलते हैं किन्तु वे हस्तान्तरित भी किए जा सकते हैं ।
आधुनिक काल में जातियों में परिवर्तन होने के कारण तथा पिछड़े वर्गों में जागृति फैलने से जजमानी सम्बन्ध खत्म होते जा रहे हैं । अब विभिन्न व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध जजमानी प्रथा से नहीं किन्तु उनकी आर्थिक-राजनीतिक स्थिति से निर्धारित होते हैं ।
4. औद्योगिक परिवर्तन:
भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया औद्योगिक और प्रौद्योगिक परिवर्तनों से प्रभावित हुई है । अन्य देशों की तुलना में यहाँ पर सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिक परिवर्तनों से पीछे छूट गए दिखलाई पड़ते हैं । पाश्चात्य देशों के सम्पर्क में आने से भारत में नई-नई प्रविधियाँ, नई-नई मशीनों, यातायात और सन्देशवाहन के साधन इत्यादि प्रौद्योगिकी की विभिन्न वस्तुएँ तेजी से अपनायी जा रही हैं ।
बड़े-बड़े भारतीय नगर प्रौद्योगिक दृष्टि से पश्चिम के नगरों से किसी भी प्रकार से कम नहीं हैं । किन्तु दूसरी ओर सामाजिक सम्बन्ध अभी पश्चिम के सामाजिक सम्बन्धों से बहुत भिन्न हैं । यह ठीक है कि सब-कहीं सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन हुआ है । किन्तु अभी भी यह परिवर्तन पश्चिम देशों से बहुत पीछे है ।
एशिया में जापान का जैसा आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण हुआ है, वैसा भारत का नहीं हुआ । सामाजिक परिवर्तन के प्रौद्योगिक परिवर्तन के पिछड़ जाने का एक महत्वपूर्ण कारण राजनीतिक ही है । आधुनिक काल में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता का युद्ध छेड़ने वाले नेताओं ने स्वदेशी का आन्दोलन उठाया ।
अंग्रेज भारत में पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण बढ़ाना चाहते थे स्वदेशी आन्दोलन ने इस प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न की और सामाजिक संस्थाओं, संरचना, वेशभूषा, तौर-तरीके, रीति-रिवाज आदि सभी में फिर से प्राचीन भारतीय मूल्यों को स्थापित करने की चेष्टा की गई ।
श्री अरविन्द जैसे विचारकों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति के महत्व को फिर से स्पष्ट किया और पश्चिमी आलोचकों को मुंह-तोड़ जवाब दिया । राजनीतिक दृष्टि से स्वदेशी आन्दोलन से राष्ट्रीय चेतना जागृत हुई किन्तु सामाजिक दृष्टि से सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पीछे रह गई । समकालीन भारतीय सामाजिक परिवर्तन में जनतन्त्रीय मूल्यों की ओर सामान्य प्रवृति देखी जा सकती है ।
आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक सभी क्षेत्रों में स्वतन्त्रता और समानता के मूल्य बढ़ते जा रहे हैं । सामाजिक नियन्त्रण ढीला पड़ रहा है लोग अपनी मर्जी से स्वयं सोच-विचार कर काम करना चाहते है । परिवार का अनुशासन बहुत कम हो गया है, नई पीढ़ी के युवक-युवतियाँ अपनी पसन्द के विवाह सम्बन्ध करना और व्यवस्था ग्रहण करना उचित समझते हैं तथा इन्हें बुजुर्गों के द्वारा निर्धारित करना नहीं चाहते ।
5. बुद्धिजीवी वर्ग का महत्व:
भारत में सामाजिक परिवर्तन की रूपरेखा को समझने में बुद्धिजीवी वर्ग के महत्व को ध्यान में रखना चाहिए यह बुद्धिजीवी वर्ग नगरीय औद्योगिक संस्कृति से प्रभावित है । इस पर पश्चिम की वैज्ञानिक विचारधारा का विशेष प्रभाव है । ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में हम पश्चिम के विचारों से परिचित हैं ।
इस प्रकार बुद्धिजीवी वर्ग में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया काम कर रही है किन्तु अभी इस प्रक्रिया का कार्य बहुत अधूरा है और कुछ पहलू में बुद्धिजीवी वर्ग परम्परा के ही अनुसार चलता है । जीवन के अनेक क्षेत्रों में पुराने अन्धविश्वास, रूढ़ियाँ और परम्पराएँ आज भी देखे जा सकते हैं । अनेक वैज्ञानिक संस्थाओं के उद्घाटन पर यज्ञ आदि प्राचीन संस्कार किए जाते हैं ।
इस प्रकार बुद्धिजीवी वर्ग में परम्परा और आधुनिकता दोनों की ही प्रवृति एक साथ देखी जा सकती है । इसका एक बड़ा कारण हिन्दू धर्म की इस विशेषता में है कि उसमें परस्पर विरोधी प्रवृतियाँ एक साथ पलती है । प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म में प्रवृत्ति और निवृति के मूल्य एक साथ पलते रहे हैं । इस स्थिति का जहाँ अपना लाभ है वहाँ वर्तमान काल में यह स्थिति देश की प्रगति में बाधक है और सामाजिक परिवर्तन की गति को अवरुद्ध करती है ।