मेरी अविस्मरणीय यात्रा पर निबंध! Here is an essay on ‘My Unforgettable Journey’ in Hindi language.

“सैर कर दुनिया की गाफिल, जिन्दगानी फिर कहाँ

जिन्दगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ ।”

मैं शुरू से ही घुमक्कड़ प्रवृत्ति का हूँ तथा राहुल सांकृत्यायन की तरह नवाजिन्दा-बाजिन्दा की लिखी उपरोक्त पंक्तियाँ मुझे भी घूमने हेतु प्रोत्साहित करती रही हैं । मुझे अगस्तीन की कही बात बिलकुल सत्य प्रतीत होती है- “संसार एक महान् पुस्तक है । जो घर से बाहर नही निकलते वे व्यक्ति इस पुस्तक का मात्र एक पृष्ठ ही पढ़ पाते हैं ।”

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पिछले पाँच वर्षों में मैंने भारत के लगभग बीस शहरों की यात्रा की है, इनमें दिल्ली, मुम्बई, राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओडिशा, गोवा आदि शामिल हैं । इन शहरों में भुवनेश्वर ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है ।

पिछले वर्ष ही गर्मी की सप्ताहभर की छुट्टी में मैं इस शहर की यात्रा पर था । यह यात्रा मेरे लिए अविस्मरणीय है । मैं दिल्ली से रेल यात्रा का आनन्द उठाते हुए अपने सभी साथियों के साथ सुबह लगभग दस बजे भुवनेश्वर पहुँच गया था । हमने पहले ही होटल बुक करवा लिया था ।

वहाँ पहुँचकर सबसे पहले हम होटल में गए । मैं इस शहर के बारे में पहले ही काफी कुछ सुन चुका था । मेरे सभी दोस्त चाहते थे कि उस दिन आराम किया जाए, लेकिन मैं उनके इस विचार से सहमत नहीं था ।

मेरी व्याकुलता को देखते हुए सबने थोड़ी देर आराम करने के बाद तैयार होकर यात्रा पर निकलने का निर्णय लिया । भुवनेश्वर के बारे में जैसा हमने सुना था, उससे कहीं अधिक दर्शनीय पाया ।

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भुवनेश्वर, भारत के खूबसूरत एवं हरे-भरे प्रदेश ओडिशा की राजधानी है । यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता देखते ही बनती है । ऐतिहासिक ही नहीं धार्मिक दृष्टिकोण से भी यह शहर भारत के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है ।

इसे ‘मन्दिरों का शहर’ भी कहा जाता है । यहाँ प्राचीनकाल के लगभग 600 से अधिक मन्दिर हैं, इसलिए इसे ‘पूर्व का काशी’ भी कहा जाता है । तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने यहीं पर कलिंग युद्ध के बाद धम्म की दीक्षा ली थी ।

धम्म की दीक्षा लेने के बाद अशोक ने यहाँ पर बौद्ध स्तूप का निर्माण कराया था, इसलिए यह बौद्ध धर्मावलम्बियों का भी एक बड़ा तीर्थस्थल है । कहा जाता है कि प्राचीनकाल में भुवनेश्वर में 7,000 से अधिक मन्दिर थे, इनमें से अब केवल 600 मन्दिर ही शेष बचे हैं ।

हम जिस होटल में ठहरे थे, उसके निकट ही राजा-रानी मन्दिर है, इसलिए सबसे पहले हम उसी के दर्शनों के लिए पहुँचे । इस मन्दिर की स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी । इस मन्दिर में शिव एवं पार्वती की भव्य मूर्तियाँ हैं ।

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इस मन्दिर की दीवारों पर सुन्दर कलाकृतियाँ बनी हुई हैं । इस मन्दिर से लगभग एक किलोमीटर दूर मुक्तेश्वर मन्दिर स्थित है । इसे ‘मन्दिर समूह’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ पर एक साथ कई मन्दिर हैं ।

इन मन्दिरों में से दो मन्दिर अति महत्वपूर्ण हैं- परमेश्वर मन्दिर एवं मुक्तेश्वर मन्दिर । इन दोनों मन्दिरों की स्थापना 650 ई. के आस-पास हुई थी । इन दोनों मन्दिरों कीं दीवारों पर की गई नक्काशी देखते ही बनती है ।

मुक्तेश्वर मन्दिर की दीवारों पर पंचतन्त्र की कहानियों को मूर्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । राजा-रानी मन्दिर एवं मुक्तेश्वर मन्दिर की सैर करते-करते हम थक गए थे । वैसे भी हम दोपहर के बाद सैर करने निकले थे और अब रात होने को थी ।

इसलिए हम लोग आराम करने के लिए अपने होटल लौट आए । अगली सुबह हम लोग जल्दी तैयार होकर लिंगराज मन्दिर समूह देखने गए । इस मन्दिर के आस-पास सैकड़ों छोटे-छोटे मन्दिर बने हुए हैं, इसलिए इसे ‘लिंगराज मन्दिर समूह’ कहा जाता है ।

इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में किया गया था । 185 फीट लम्बा यह मन्दिर भारत की प्राचीन शिल्पकला का अप्रतिम उदाहरण है । मन्दिरों की दीवारों पर निर्मित मूर्तियाँ शिल्पकारों की कुशलता की परिचायक हैं ।

भुवनेश्वर की यात्रा इतिहास की यात्रा के समान है । इस शहर की यात्रा करते हुए ऐसा लगता है मानो हम उस काल में चले गए हों, जब इस शहर का निर्माण किया जा रहा था ।

शहर के मध्य स्थित भुवनेश्वर संग्रहालय में प्राचीन मूर्तियों एवं हस्तलिखित ताड़पत्रों का अनूठा संग्रह इस आभास को और भी अधिक बल प्रदान करता है । भुवनेश्वर के आस-पास भी ऐसे अनेक अप्रतिम स्थल हैं, जो ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व रखते हैं और जिनकी सैर के बिना इस शहर की यात्रा अधूरी ही रह जाती है ।

ऐसा ही एक स्थान है- धौली । यहाँ दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित एक बौद्ध-स्तूप है, जिसका जीर्णोद्धार हाल ही में हुआ है । इस स्तूप के पास ही सम्राट अशोक निर्मित एक स्तम्भ भी है, जिसमें उनके जीवन एवं बौद्ध-दर्शन का वर्णन किया गया है ।

इसके अतिरिक्त, भगवान बुद्ध की मूर्ति तथा उनके जीवन से सम्बन्धित विभिन्न घटनाओं से सम्बद्ध मूर्तियाँ भी देखने लायक हैं । धौली के बौद्ध-स्तूप के दर्शन के बाद हम लोग भुवनेश्वर शहर से लगभग 6 किमी दूर स्थित उदयगिरि एवं खण्डगिरि की गुफाओं को देखने गए ।

इन गुफाओं को पहाड़ियों को काटकर बनाया गया है । इन गुफाओं में की गई अधिकांश चित्रकारी नष्ट हो चुकी है, किन्तु यहाँ निर्मित मूर्तियाँ अभी भी अपने प्रारम्भिक स्वरूप में ही विद्यमान हैं ।

सैर के बाद हम लोगों ने ओडिशा के स्थानीय भोजन का आनन्द उठाया । पखाल भात, छतु तरकारी, महूराली-चडचडी एवं चिंगुडि ओडिशा की कुछ लोकप्रिय डिश हैं । पखाल भात एक दिन पहले बने चावल को आलू के साथ तलकर बनाया जाता है ।

छतु तरकारी एक तीखा भोजन है, जो मशरूम से बनता है । ओडिशा के लोगों को भी बंगालियों की तरह मछली खाने का बहुत शौक है । महूराली-चड़चड़ी छोटी मछली से बनी एक डिश है । चिल्का झील में पाई जाने वाली झींगा मछली से चिंगुडि नामक डिश बनाई जाती है ।

भुवनेश्वर की यात्रा को अविस्मरणीय बनाने के लिए हमने जमकर फोटोग्राफी की थी, किन्तु फोटो के साथ-साथ हम यहाँ की कुछ प्रसिद्ध वस्तुएँ भी ले जाना चाहते थे । यहाँ पत्थर से निर्मित बड़ी खूबसूरत वस्तुएँ, जैसे- मूर्तियाँ, बर्तन, खिलौने इत्यादि मिलती हैं ।

यहाँ की ताड़ के पत्तों पर की गई चित्रकारी भी लोगों को खूब पसन्द आती है, जिसे ‘पत्ता चित्रकारी’ कहते हैं । हम सबने कई प्रकार की वस्तुएँ खरीदीं । ये वस्तुएं हमें हमेशा भुवनेश्वर की प्राचीन कला की याद दिलाती हैं ।

भुवनेश्वर की यात्रा मेरे लिए ही नहीं मेरे सभी साथियों के लिए भी एक अविस्मरणीय यात्रा बन गई, वस्तुतः किसी भी व्यक्ति की यात्रा का उद्देश्य केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि मानसिक शान्ति प्राप्त करना भी होता है । सचमुच भुवनेश्वर के वातावरण में अजीब-सी पवित्रता घुली हुई है ।

इस यात्रा से हमारी मित्र-मण्डली को जिस मानसिक शान्ति का अनुभव हुआ, उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता । इस अविस्मरणीय यात्रा से मैं भी डॉ. जॉनसन के इस कथन से पूर्णतः सहमत हो गया कि- “यात्रा कल्पना को वास्तविकता में व्यवस्थित कर देती है ।”

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