भावात्मक एकता! Read this article in Hindi to learn about:- 1. भावात्मक एकता का परिचय 2. विविधता में एकता 3. प्रयास 4. सुझाव.
भावात्मक एकता का परिचय:
किसी भी राष्ट्र की एकता इस बात पर निर्भर है कि राष्ट्र के सभी सदस्य भावात्मक रूप से अपने को एक ही समुदाय का सदस्य अनुभव करते है । राष्ट्रीय एकता केवल एक निश्चित भौगोलिक सीमाओं में रहने मात्र से नहीं होती, उसके लिये भावात्मक एकता आवश्यक है ।
भावात्मक एकता, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, भावों की एकता है । इसके कारण किसी भी प्रकार के बाह्य भेदभाव होते हुये भी लोग अपने को एक दूसरे से सम्बन्धित अनुभव करते हैं । परिवार के सदस्यों को संगठित रखने का आधार यह भावात्मक एकता ही है ।
विद्यालयों में भी सामुदायिक कार्यक्रमों से भावात्मक एकता निर्माण की जाती है । भावात्मक एकता बढ़ने से सामूहिक भावना बढ़ती है और विघटनकारी शक्तियों का प्रभाव कम होता है । भारत एक विशाल देश है जहाँ पर रहन-सहन, भाषा, तौर-तरीके, वेशभूषा, धर्म और संस्कृति आदि अनेक बातों में देश के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में भारी अन्तर देखा जा सकता है ।
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इस प्रकार जब कोई व्यक्ति देश में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहुंचता है तो वहाँ के बहुत से लोगों को वह विदेशी सा मालूम पड़ता है । इससे क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति बड़ी है जिसके कारण लोग दूसरे क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाकर भी अपने क्षेत्र को लाभ पहुंचाना चाहते हैं ।
भाषा के प्रसंग को लेकर क्षेत्रवादी प्रवृति ने भयंकर रूप धारण कर लिया है । क्षेत्रवाद के अतिरिक्त देश में पाई जाने वाली भाषात्मक विविधता के कारण अनेक स्थानों पर भाषावाद दिखलाई पड़ता है जिससे कुछ लोग अपनी ही भाषा का विकास करना चाहते हैं और अन्य भाषाओं की ओर कोई ध्यान नहीं देते ।
अतिरिक्त हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही समाजों में जातिवाद के कारण सामाजिक विघटन फैला हुआ है । अस्पृश्यता की समस्या भी जातिवाद से ही उत्पन्न होती है । धार्मिक सम्प्रदायों को लेकर विभिन्न धर्मानुयायियों में समय-समय पर संघर्ष और रक्तपात होता रहता है । साम्प्रदायिकता की भावना के कारण एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से घृणा करते हैं ।
संक्षेप में, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और सम्प्रदायवाद आदि अनेक प्रकार की विघटनकारी भावनाओं के कारण समाज अनेक समूह में बंट गया है । भावात्मक एकता उत्पन्न किये बिना इनकी समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता और इन समस्याओं के बने रहते देश में जनतन्त्र की स्थापना कोरा स्वप्न ही है ।
विविधता में एकता:
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यूं तो भारतवर्ष में इतनी अधिक विविधता पाई जाती है कि यह देश, देश न रहकर छोटा-मोटा उपमहाद्वीप बन जाता है । किन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि यहाँ एकता स्थापित नहीं हो सकती । भारत में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण की जनता में रंग-रूप, आकार प्रकार आदि प्रजातीय लक्षणों की भारी विविधता दिखलाई पड़ती है । पंजाब से गंगा की घाटी और आसाम तक डील डौल बराबर छोटा होता चला गया है ।
यहां सभी वर्ग के लोग दिखलाई पड़ते हैं । उत्तरी भारत में रंग गहरा गेहुआ, सांवला, पीला, लाल तथा इनके मिश्रण से बना हुआ पाया जाता है । अण्डमान के निवासियों का रंग घोर काला, दक्षिण के द्रविड़ों का दमकता हुआ काला और काश्मीरियों का रक्ताभ गोरा होता है ।
भारतीय संविधान में हिन्दी के अतिरिक्त उर्दू बंगाली, आसामी, उड़िया, पंजाबी, गुजराती, मराठी और सिन्धी आदि आर्य भाषाओं को भी मान्यता प्रदान की गयी है । इनके अतिरिक्त चार द्रविड़ भाषाओं को भी मान्यता प्रदान की गयी है । ये हैं- तेलगू, कन्नड़, तमिल और मलयालम ।
दरद भाषा परिवार की काश्मीरी भाषा को भी मान्यता दी गयी है । इनके अतिरिक्त प्राचीन आर्य- भाषा संस्कृत को विशेष महत्व दिया गया है । भाषात्मक विविधता के अतिरिक्त देश में सवा दो करोड़ जनतन्त्रीय व्यक्तियों में वेशभूषा, धर्म, संस्कृति आदि का व्यापक भेद दिखलाई पड़ता है ।
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जनजातियों के उत्तरी पूर्वी वर्ग, केन्द्रीय वर्ग और दक्षिणी वर्ग में इतना अधिक अन्तर देखा जाता है कि निवास पद्धति, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के आधार पर भारतीय जनजातियों में अलग-अलग सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्र देखे जा सकते हैं ।
पूर्व से पश्चिम और पश्चिम से पूर्व में चले आईये तो आपको थोड़ी-थोड़ी दूर पर रूप रंग, वेशभूषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीके, खान-पान, आदि संस्कृति के विभिन्न अंगों में बराबर भेद दिखलाई पड़ेगा किन्तु क्षेत्र, प्रजाति भाषा, जनजाति तथा संस्कृति के विभिन्न अंगों की विविधता से भारत की एकता किसी भी प्रकार कम नहीं होती क्योंकि हिमालय से हिन्द महासागर और पूर्व में बर्मा की पहाड़ियों से लेकर पश्चिम में पाकिस्तान तक इस देश के लोगों में एक आंतरिक एकता पाई जाती है ।
यह आंतरिक एकता ही भावात्मक एकता का आधार है । कहना न होगा कि अन्य बातों में देश में चाहे कितनी भी विविधता क्यों न दिखलाई पड़े, भावात्मक एकता बनी रहने से इस विविधता से समृद्धि ही बढ़ती है, भेदभाव नहीं बढ़ता । इसी आन्तरिक एकता के लिये सर हर्बर्ट रिजले ने लिखा था- “भौतिक और सामाजिक प्रकार, भाषा प्रथा और धर्म की अत्यधिक विविधता जो कि भारत में आने वाले किसी भी प्रेक्षक को दिखलाई पड़ती है, के मूल में हिमालय से कुमारी अन्तरिप तक जीवन की कुछ न कुछ आंतरिक समानता फिर भी देखी जा सकती है ।”
यही आंतरिक एकता ही भारतीय संस्कृति का मूलाधार है । भारत के ऋषि देश के विशाल आकार और विविधता के बावजूद भी उसकी आंतरिक एकता से पूर्णतया परिचित थे । इसलिये अति प्राचीनकाल से ही भारत को एक ईकाई माना जाता रहा है और विविध धर्मों, भाषाओं आदि के रहते हुये भी देश के विभिन्न भागों में रहने वाले भारतीय एक ही राष्ट्र माने जाते रहे हैं ।
वस्तुतः भारतवर्ष नाम ही देश की मौलिक एकता का प्रतीक है । यह नाम केवल भौगोलिक सीमाओं को ही लेकर नहीं रखा गया बल्कि ये चक्रवर्ती के आदर्श से भी सम्बन्धित रहा है । मध्यकालीन भारत में शासकों ने सदैव देश को ईकाई माना है । आज भी बंकिम के बन्दे मातरम से भारत की एकता की ध्वनि निकलती है । देश को भारत माता मानने के मूल में भी विभिन्न क्षेत्रों की अवयवीय एकता की भावना छिपी है ।
भावात्मक एकता बढ़ाने के प्रयास:
देश की इस आंतरिक एकता को लेकर ही सन् 1961 में भारतीय केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा डॉ॰ सम्पूर्णानन्द की अध्यक्षता में संगठित भावात्मक एकता समिति ने देश में भावात्मक एकता बढ़ाने का बीड़ा उठाया । भावात्मक एकता बढ़ाने का यह आयोजन पीछे बतलाई हुई भिन्नता में आंतरिक एकता के ठोस आधार पर टिका हुआ है ।
आवश्यकता केवल इस बात की है कि विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा नयी पीढ़ी को इस दिशा में शिक्षित किया जाए । भारतीय एकता समिति के उद्घाटन समारोह में शिक्षा के महत्व को स्पष्ट करते हुए तत्कालीन शिक्षा मंत्री कालू लाल श्रीमाली ने कहा था कि यदि हम भारत के नागरिकों में राष्ट्रीय चेतना का विकास करना चाहते हैं तो हमें इस उद्देश्य को पूरा करने की दृष्टि से अपनी शिक्षा प्रणाली का नियोजन करना होगा ।
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो देश के नागरिकों में भारतीय राष्ट्र के महत्वपूर्ण अंग होने की भावना विकसित करें । शिक्षा के द्वारा नई पीढ़ी के बालक-बालिका को यह आभास करा दिया जाना है कि बाह्म अन्तर के होते हुए भी भारत के सभी नागरिक आंतरिक भावात्मक दृष्टि से एक हैं ।
उपरोक्त उद्देश्य को लेकर भावात्मक एकता समिति ने शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में निम्नलिखित सुझाव उपस्थित किये:
(क) पाठ्यक्रम का पुनर्संगठन:
विद्यालयों तथा कालिजों के पाठ्यक्रम को राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुरूप पुनर्संगठित करने के लिये भावात्मक एकता समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिये:
(1) प्राथमिक स्तर पर कहानियों, कविताओं, राष्ट्रीय गीतों आदि पर बल दिया जाना चाहिए ।
(2) माध्यमिक स्तर पर दूसरे विषयों के अतिरिक्त पाठ्यक्रम में भाषा और साहित्य का अध्ययन, सामाजिक अध्ययन, नैतिक तथा धार्मिक निर्देशन और पाठ्यक्रमेतर कार्यक्रमों को स्थान दिया जाना चाहिए ।
(3) विश्वविद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रम में विभिन्न सामाजिक विज्ञानों, भाषाओं, साहित्यों, संस्कृतियों और कलाओं को स्थान दिया जाना चाहिए । शिक्षकों और शिक्षार्थियों को देश में विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करने की सुविधायें दी जानी चाहियें ।
(ख) पाठ्यक्रमेतर क्रियाओं को प्रोत्साहन:
किताबी शिक्षा के साथ-साथ शिक्षार्थियों को ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेने का अवसर दिया जाना चाहिए जिनका भावात्मक एकता की दृष्टि से महत्व हो और जो सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हों । इस प्रकार के कार्यक्रमों से हम भावना, एकता की भावना और सहिष्णुता का विकास होगा । इस प्रकार के कार्यक्रमों का एक उदाहरण अर्न्तविश्वविद्यालय सांस्कृतिक कार्यक्रम है जिनमें देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आये हुये शिक्षार्थियों और शिक्षकों को परस्पर मेलजोल का अवसर मिलता है ।
(ग) पाठ्य पुस्तकों में संशोधन:
भावात्मक एकता विकास के लिये पाठ्य पुस्तकों, विशेषतया इतिहास की पुस्तकों में राष्ट्रीय भावना को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से आवश्यक संशोधन किये जाने चाहिएँ जिससे सम्प्रदायवादी प्रवृत्ति न बड़े और इस भावना को प्रोत्साहन मिले कि सम्पूर्ण देश एक है ।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इस संशोधन के लिये घटनाओं की तो; मरोड़ नहीं होनी चाहिए क्योंकि वास्तव में देश की राष्ट्रीय एकता एक सत्य है और केवल उसे अभिव्यक्ति करने की आवश्यकता है ।
(घ) भाषा और लिपि सम्बन्धी सुधार:
इनके विषय में भावात्मक एकता समिति ने निम्नलिखित सुझाव उपस्थित किये हैं:
(1) हिन्दी के ज्ञान की वृद्धि के लिये कुछ क्षेत्रों में रोमन लिपि के प्रयोग की अनुमति दी जानी चाहिए ।
(2) समस्त देश में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
(3) अहिन्दी क्षेत्रों में देवनागरी लिपि सीखने का प्रबन्ध किया जाना चाहिए ।
(4) हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें क्षेत्रीय लिपि में भी प्रस्तुत की जानी चाहिएं और क्षेत्रीय भाषाओं में हिन्दी के शब्द कोष बनाये जाने चाहिएँ ।
(5) विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी व अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिससे एकता बड़े और क्षेत्रगत पृथकता को प्रोत्साहन न मिले ।
(6) भाषा नीति के निर्धारण में अल्प संख्यकों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए ।
उपरोक्त विशिष्ट सुझावों के अतिरिक्त भावात्मक एकता समिति ने कुछ अन्य सुझाव भी प्रस्तुत किये हैं जैसे-विद्यालयों में दैनिक कार्यक्रम, सामूहिक प्रार्थना के बाद प्रारम्भ किया जाये और उपस्थिति पुकार के उपरान्त प्रधानाध्यापक अथवा किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति के द्वारा दस मिनट की ऐसी वार्ता प्रस्तुत की जाए जो भावात्मक एकता बढ़ाने में सहायक हो ।
वर्ष में एक बार एक विशिष्ट सभा करके समस्त विद्यार्थियों द्वारा भावात्मक एकता बढ़ाने के लिये शपथ लेने का भी महत्वपूर्ण प्रभाव हो सकता है । इसके अतिरिक्त शिक्षा के द्वारा उन समस्त क्रियाओं और विषयों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये जिनसे विभिन्न प्रकार का भेदभाव दूर होता हो और यह भावना विकसित हो कि देश के सभी साधन सभी नागरिकों के लिये है । दूसरी ओर ऐसे तत्वों को नष्ट करने के लिये भी कदम उठाये जाने चाहिएँ जो इस उद्देश्य को प्राप्त करने के मार्ग में बाधक हों ।
भावात्मक एकता बढ़ाने के सुझाव:
भावात्मक एकता समिति के उपरोक्त सुझावों के अतिरिक्त देश में शिक्षा के द्वारा भावात्मक एकता उत्पन्न करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाने का सुझाव दिया जा सकता है:
(1) अखिल भारतीय भाषा का विकास:
भारत में भावात्मक एकता स्थापित करने के लिये सबसे पहले यह आवश्यक है कि देश में एक अखिल भारतीय भाषा का विकास किया जाये । हिन्दी भाषा ही इस पद के योग्य है । अस्तु, प्रत्येक राज्य में प्रत्येक नागरिक को हिन्दी भाषा जानना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिये । हिन्दी साहित्य के विकास को सब प्रकार से सरकारी सहायता मिलनी चाहिये ।
राष्ट्रीय भाषा के विकास से क्षेत्रगत भाषाओं को कोई धक्का नहीं लगेगा, उनका विकास अलग होना चाहिये किन्तु विभिन्न राज्यों में परस्पर पत्र व्यवहार तथा राज्यों के केन्द्र से पत्र व्यवहार में अखिल भारतीय भाषा का ही प्रयोग होना चाहिये । अखिल भारतीय सेवाओं में आने वाले छात्रों को हिन्दी भाषा का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये भले ही वे अपने राज्य की भाषा के माध्यम से परीक्षा दें ।
(2) अखिल भारतीय शिक्षा नीति:
राष्ट्रीय एकता का सबसे अधिक प्रभावशाली उपाय उपयुक्त शिक्षा है । इस सम्बन्ध में एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा योजना बनाई जानी चाहिये । जिसमें देश भर में बाल बालिकाओं को राष्ट्र के महापुरुषों कवियों, नेताओं धार्मिक व्यक्तियों आदि के विचारों को जानने का अवसर मिले ।
केन्द्रीय सरकार की ओर से ही पाठ्यपुस्तकों की व्यवस्था होनी चाहिये ताकि नयी पीढ़ी में राष्ट्रीय भावनाओं का विकास हो । सम्पूर्ण देश में अध्यापकों के वेतनमान, उनके कार्य करने की परिस्थितियाँ और उनकी नियुक्ति के नियम एक से होने चाहियें सम्पूर्ण देश में प्राथमिक, माध्यमिक और विश्वविद्यालय स्तर पर एक से पाठ्यक्रम होने चाहियें और सब कहीं एन. सी. सी., स्काऊटिंग, गर्ल गाइड जैसी अखिल भारतीय संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये ।
विश्वविद्यालय शिक्षा का माध्यम सब कहीं राष्ट्र भाषा ही होनी चाहिये भले ही राज्य की भाषाओं में परीक्षा देने की छूट दी जाय । इस प्रकार एक अखिल भारतीय शिक्षा योजना को लागू करने से राष्ट्रीय एकता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है ।
(3) राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के कार्यक्रम:
राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के आयोजन किये जा सकते है । उदाहरण के लिये चलचित्रों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता की भावनायें फैलायी जा सकती हैं । रेडियो और टेलीविजन भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं ।
राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के लिये देश के विभिन्न क्षेत्रों में अखिल भारतीय प्रतियोगिताओं और सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिये जिससे देश के विभिन्न क्षेत्रों मैं रहने वाले व्यक्तियों को परस्पर मिलने-जुलने, विचार-विमर्श करने और एक दूसरे को समझने का अवसर मिले । सम्पूर्ण देश में आवागमन की सुविधायें दी जानी चाहियें और भ्रमण अभियानों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये ।
पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों में किसानों, विद्यार्थियों और पार्लियामैंट के सदस्यों की स्पेशल ट्रेनों ने सम्पूर्ण देश का दौरा किया जिससे उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना बड़ी । इसी प्रकार के और भी अनेक कार्यक्रम अपनाये जा सकते हैं ।
(4) अन्तर्सांस्कृतिक भावना का विकास:
राष्ट्रीय एकता बढ़ाने के उपरोक्त कार्यक्रमों से अन्तर्सांस्कृतिक भावना का विकास होगा । अन्तर्सांस्कृतिक भावना बढ़ाने के लिये इस दिशा में अवबोध आवश्यक है । इससे लोगों में अन्य संस्कृतियों के प्रति सहिष्णुता की भावना बढ़ेगी जिससे एकता की भावना को प्रोत्साहन मिलेगा ।
(5) शिक्षकों द्वारा प्रयास:
भावात्मक एकता बढ़ाने के कार्यक्रमों की सफलता शिक्षकों पर निर्भर है । जब तक वे इस दिशा में कदम नहीं उठते और स्वयं संकीर्णता से ऊपर उठकर ऊंचे आदर्श उपस्थित नहीं करते तब तक शिक्षार्थियों में भावात्मक एकता उत्पन्न करने की आशा नहीं की जा सकती ।
अस्तु सबसे पहले शिक्षकों में राष्ट्रीय भावना उत्पन्न की जानी चाहिए । इसके लिये देश के विभिन्न भागों के शिक्षकों को परस्पर मिलने-जुलने के अवसर बढ़ाये जाने चाहिएँ । यह कार्य अखिल भारतीय शिक्षक संगठन के द्वारा किया जा सकता है ।
यूं भी देश में सब कहीं शिक्षकों की समस्यायें एक सी ही हैं और अखिल भारतीय मेल-मिलाप बढ़ाने से जहां उन्हें अपनी समस्याओं पर मिल जुलकर विचार करने का अवसर मिलेगा, वहाँ उनमें राष्ट्रीयता की भावना भी उत्पन्न होगी ।
किन्तु यह ध्यान रखना पड़ेगा कि एक वर्ग के रूप में शिक्षक संगठन को लेकर वर्गवादी भावना न बढ़ने लगे । शिक्षकों में राष्ट्रीय भावना बडाने के लिये सरकार की ओर से समय-समय पर ऐसे भाषणों, साहित्य आदि का आयोजन किया जा सकता है जिनसे इस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता मिले ।
(6) सरकार द्वारा प्रयास:
किन्तु जब तक उपरोक्त कार्यों को सरकार द्वारा सहयोग नहीं मिलेगा तब तक केवल शिक्षा के माध्यम से भावात्मक एकता स्थापित नहीं की जा सकती क्योंकि देश में अनेक समितियाँ इस उद्देश्य के विरुद्ध काम कर रही हैं ।
जब तक सरकार द्वारा भाषावाद, क्षेत्रवाद, प्रान्तीयवाद और सम्प्रदायवाद जैसे विघटनकारी तत्वों को फैलाने वाले लोगों की रोकथाम नहीं की जाएगी तब तक शिक्षा द्वारा किया हुआ प्रयास पूरा लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकेगा । इस दिशा में विघटनकारी राजनैतिक दलों पर रोकथाम सबसे अधिक आवश्यक है ।
सब कहीं भाषावाद, सम्प्रदायवाद, प्रान्तीयवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, प्रजातिवाद, अस्पृश्यता आदि के विरुद्ध कठोर कानून बनाये जाने चाहिएँ और उतनी ही कठोरता से इन कानूनों को लागू किया जाना चाहिए । भावात्मक एकता बढ़ाने की दिशा में विभिन्न उपायों के उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इसके लिये विधायक और निषेधात्मक दोनों ही ओर से प्रयास करना पड़ेगा ।
विधायक दृष्टि से जहाँ उपरोक्त उपाय अपनाये जायेंगे वहाँ निषेधात्मक पक्ष में भावात्मक एकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना भी उतना ही अधिक आवश्यक है । इसके लिये शिक्षकों, शासकों तथा संरक्षकों सब को मिल जुलकर प्रयास करना पड़ेगा ।