Read this article in Hindi to learn about the six main causes of food contamination.

भोजन-संदूषण कितना भयावह है और इससे उत्पन्न बीमारी क्या-क्या हो सकती हैं । यहाँ पर आपको यह बतलाना भी बहुत आवश्यक है कि वे कौन-कौन-से कारक हैं जिनके कारण संदूषणता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।

किसी भी खाद्य-पदार्थ में संदूषण पैदा करने वाले निम्न कारण हो सकते हैं:

1. समय या अवधि (Time):

चूंकि बैक्टीरिया जीवित जीवाणु है, अत: उसकी संख्या में बढ़ोतरी के लिए समय की आवश्यकता है । जैसे-जैसे समय (अवधि) बीतती जाती है बैक्टीरिया की संख्या भी बढ़ती जाती है ।

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ऐसा देखा गया है कि घरों या कैंटीन में जब पका हुआ खाद्य-पदार्थ बच जाता है तो वह बासी भोजन कहलाता है और इस भोजन के खाने के उपरांत पेट में दर्द, मितली या उल्टी अथवा दस्त हो जाते हैं । बासी भोजन का स्वाद भी बदल जाता है और रंग भी । अत: ऐसे भोजन को न खाना ही श्रेयस्कर होगा ।

परीक्षणों से पता चला है कि:

2. तापमान (Temperature):

भोज्य संदूषण में तापमान बहुत उत्तरदायी है । सामान्य शारीरिक तापमान पर जीवाणु अत्यधिक बढ़ते हैं । वास्तव में सभी रोगजनक जीवाणु शारीरिक तापमान (98.6° फा. या 37° सें.) पर सर्वाधिक बढ़ोतरी करते हैं । यद्यपि इनमें से अधिकतर 20° सें (67° फा.) तथा 43° सें. (109° फा.) के मध्य बहुजनन हो जाएँगे ।

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अत्यधिक शीतलता के कारण बैक्टीरिया नष्ट नहीं होते बल्कि इनकी बढ़ोतरी रुक जाती है और यही कारण है कि प्रभाव्य आहार को निम्न तापमान पर संग्रह किया जाता है । प्रशीतन न केवल आहार खराब होने से रोकता है बल्कि हानिकारक बैक्टीरिया के प्रोद्‌भवन से भी बचाता है ।

40° सें. (104° फा.) से ऊपर बैक्टीरिया की बढ़ोतरी बहुत तेजी के साथ कम होती जाती है ओर यहाँ तक कि 45° सें. (113° फा.) पर बिलकुल रुक जाती है । बीजाणुरहित बैक्टीरिया 60° सें. (140° फा.) तापमान पर नष्ट जात हैं किंतु इनको नष्ट करने के लिए समय अधिक चाहिए और यह समय विभिन्न जातियों के लिए भिन्न-भिन्न है ।

उदाहरणार्थ, दूध को पीने योग्य और बैक्टीरियामुक्त बनाने के लिए 62.8° सें. (145° फा.) तापमान पर आधा घंटा तक गरम करते रहना चाहिए । निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि आहार को संदूषण से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी भंडारण के समय ऐसे तापक्रम पर रखा जाए जिसमें बैक्टीरिया की बढ़ोतरी की संभावनाएँ न हों ।

अत: यदि आहार को 10° सें. से कम और 65° सें. से अधिक तापमान पर संग्रह किया जाए तो हानिकारक जीवाणुओं के प्रोद्‌भवन द्वारा उत्पन्न खतरे से बचाया जा सकता है । साधारणतया घरों में या होटलों में आहार को ठंडा रखने के लिए रेफ्रिजरेटर का उपयोग किया जाता है ।

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यहाँ पर यह बतलाना मैं अनिवार्य समझता हूँ कि रेफ्रिजरेटर का प्रयोग वस्तु को ठंडी बनाए रखने के लिए है न कि गर्म वस्तु को ठंडा करने के लिए । अत: गर्म भोजन कभी भी रेफ्रिजरेटर में नहीं रखना चाहिए । भोजन उसमें तभी रखा जाए जब वह साधारण तापमान पा आ जाए ।

3. आर्द्रता (Moisture):

यह दखा गया है कि जलमंडल के जल का एक छोटा अंश वायुमंडल में उपस्थित होता है । वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा स्थान एवं समय के अनुसार बदलती रहती है । वायुमंडल का निर्माण करने वाली गैसों में जलवाष्प की मात्रा का अनुपात सबसे अनिश्चित होता है ।

इसकी मात्रा वायुमंडल की ऊँचाई के साथ तेजी से घटती है । वर्षा ऋतु में जलवाष्प वायुमंडल में सर्वाधिक पाई जाती है । जलवाष्प की माप आर्द्रता से होती है । बैक्टीरिया की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि किसी भी आहार में कम से कम दम प्रतिशत की नमी (आर्द्रता) होनी चाहिए ।

यही कारण है कि निर्जलीकृत आहार, जब तक उसमें पानी न मिलाया जाए, सुरक्षित है और सूखे हुए अंडा चूर्ण तथा कस्टर्ड पाउडर में तो यह मुख्य रूप से है । वर्षा ऋतु में नमी के कारण खाद्य-पदार्थों में फफूँदी आदि का प्रभाव पाया गया है ।

फफूँदी आहारीय पदार्थों में रूई की भाँति बढ़ती है । अधिक बढ़ने पर काले, हरे, नीले आदि रंगों की दिखाई देने लगती है । फफूँदी अँधेरे, नमी तथा गर्मी वाले स्थान पर पैदा होती है और आहारीय पदार्थों में विष फैलाकर उन्हें संदूषित करती है ।

4. रेडियोएक्टिव पदार्थ (Radioactive Elements):

रेडियोएक्टिव प्रपात के कारण आहार और जल-संदूषित होकर उपयोग में लाने योग्य नहीं रहते । यदि खाद्य-पदार्थ सीलबंद या डिब्बाबंद हैं तो कुछ कम हानिकारक होते हैं, किंतु यदि रख-रखाव वाले पात्र टूटे हुए हैं तो विस्फोट के समय उत्सर्जित रेडियोएक्टिव धूलि उन खाद्य-पदार्थों को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती ।

इसके लिए सुरक्षित उपाय यह है कि पहले खाद्य-पदार्थों को कागज में लपेटा जाए और तत्पश्चात टिन के डिब्बों में सील का दिया जाए । ऐसी स्थिति में यदि न्यूक्लियर विस्फोट हो भी जाए तो आहार रेडियोएक्टिव धूलि के संपर्क में आने से बच सकता है ।

ऐसे समय डिब्बे को किसी डिटरजेंट घोल से धोना चाहिए और यदि परिस्थितिवश यह संदेह हो जाए कि धूलि का प्रभाव अंदर डिब्बे में पहुंच गया है तो जिस कागज में आहार लिपटा हो उस कागज को फेंक देना चाहिए । छिलके वाले खाद्य पदार्थों को पूर्णतया डिटरजेंट घोल से धोना चाहिए ताकि उसकी ऊपर से संदूषणता हो जाए और गूदा खाया जा सके ।

इस प्रक्रिया के पश्चात् वह जल जिससे आहार धोया गया है, रबड़ दस्ताने, फटे हुए कपड़े जिनके द्वारा आहार साफ किया गया है तथा अन्य ऐसी वस्तुएं भूमि में गहराई पर दाब दी जाएं अथवा लवण-जल में अधिक अवधि तक पड़ा रहने दें ताकि रेडियोएक्टिव धूलि का प्रभाव समाप्त हो जाए ।

5. विषैले पौधे (Poisonous Plants):

भोज्य-संदूषण पैदा करने के लिए विषैले पौधे भी कम प्रभावकारी नहीं हैं । ऐसे अनेक पौधे हैं, जिनमें विषैला तत्व मौजूद होता है और इनकी विषाक्तता आहार में ली गई मात्रा पर निर्भर करती है । अधिकतर इन जड़ी-बूटियों या पौधों की विषाक्तता उन किशोरों को अधिक प्रभावित करती है जो अज्ञानतावश बेर के समान सरसफल अथवा उसकी पत्तियों का भक्षण कर लेते हैं ।

इन जड़ी-बूटियों या पौधों के उदाहरण हैं- धतूरा, स्ट्रेमोनियम (एक प्रकार धतूरा सदृश बीज), बीज कुचला तथा एट्रोपीन आदि । इनके द्वारा संदूषित आहार खाने से तंत्रिका तंत्र में ऐंठन और विशेषकर कंपकंपी, संस्तंभी अधरांगघात तथा अपसंवेदन पैदा हो जाते हैं ।

चरागाहों-जहाँ पर्याप्त विषैले पौधे होते हैं-में गाएँ, भैसें, बकरियों आदि के सफेद सर्परी खाने के कारण दूध में विषाक्तता आ जाती है और इन मवेशियों के दूध सेवन करने से उल्टियाँ, शरीर में कमजोरी एवं उदासीनता का अनुभव होता है । फावा पुष्पित पौधों द्वारा उत्पन्न फेविज्म के कारण उल्टियाँ, चक्कर, उदासीनता एवं कामला सहित भयंकर रक्त संलायी रक्ताल्पता हो जाती है ।

अनाजों के साथ अर्गट का भी जब आटा पीसने की चक्की में चूर्ण हो जाता है तो इस संदूषित आटे की रोटी खाने से शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और परिणामस्वरूप अचेतनता के साथ-साथ रुधिर परिसंचरण तंत्र तथा केंद्रीय तंत्रिका तंत्र भी प्रभावित हो जाता है ।

इस प्रकार पेशियों में ऐंठन एवं सिकुड़न आरंभ होने लगता है । किन्हीं-किन्हीं स्थलों पर कुकुरमुत्ता या खुंभी भी भोजन को संदूषित कर देती है और छह घंटों से सोलह घंटों तक इसके प्रभाव, यथा- पेट में दर्द, अत्यधिक मितली, उल्टियाँ एवं दस्त दिखाई देने लगते हैं ।

6. भोजन एलर्जी (Food Allergy):

इन सभी के अतिरिक्त एक ऐसा भी कारण है जो अप्रत्यक्ष रूप में आपके शरीर के अंदर क्रिया कर स्वास्थ्य पर प्रभाव डालता है । इस स्थिति में संदूषणता का आहार पर बाहरी कोई चिह्न दिखाई नहीं देता बल्कि आहार विशेष खाने के पश्चात् व्यक्ति विशेष को प्रभावित करता है ।

यथा लेखक ने अनुभव किया कि यदि तली हुई हरी मिर्च खाई जाए तो फलतः अतिसार तथा कलेजे में जलन होने लगती है । इसका आशय यह नहीं कि ये मिर्चें सभी का हानि पहुंचाएं बल्कि लेखक के लिए तली हुई मिर्च एलर्जी है और रोग का मुख्य कारण है ।

इसी प्रकार विभिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न आहारों में एलर्जी का अनुभव कर रोगी हो जाते है । भोज्य एलर्जी की घटनाएं आयु पर निर्भर करती हैं । यद्यपि एलर्जी शिशुओं और किशोरों में अविलंब दिखाई देती है, किंतु नैदानिक दृष्टिकोण से वृद्धों में शिशुओं की अपेक्षा एलर्जी अधिक दिखाई देती है ।

एलर्जी अधिकतर ठंडे और गरम तासीर के पदार्थों का साथ सेवन करने से पैदा हो जाती है । अत: भोजन में ठंडे और गरम तासीर के पदार्थों का एक साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह विरुद्ध-आहार कहलाता है ।

कुछ आहार पदार्थों का एक साथ सेवन करने से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जैसे दूध और मछली का एक साथ सेवन, दूध के साथ खट्टे पदार्थों का सेवन, मूली के साथ दूध, शहद और घी, खीर के साथ छाछ (लस्सी) का सेवन आदि ।

ऐसी दशा में कब्ज पैदा करने वाले आहार सेवन नहीं करने चाहिए । उड़द, बैंगन, फूलगोभी, खट्टा मठा (लस्सी), टमाटर, नीबू इमली, धूप में अधिक घूमना, गुड़ तथा लहसुन आदि गरम पदार्थ का सेवन वर्ज्य है । यदि आहार विशेष को स्वादिष्ट जानकर भरपेट खा लिया जाए तो एलर्जी हो जाती है ।

एलर्जी के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले रोग हैं- नासाशोथ, श्वसनिका दमा, ऐंजियोन्यूरोटिक शोथ, त्वकशोथ, कंडु, सिरदर्द, लैबिरिंथ शोथ, नेत्रश्लेष्मला शोथ, मितली, उल्टियाँ, अतिसार, जठरनिर्गमाकर्ष, उदर-शूल, संस्तंभ कब्ज, श्लेष्म-बृहदांत्र शोथ, तथा गुदा के चारों ओर छाजन और कभी-कभी साधारणतया दैहिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप चक्कर आना, कँपकँपी और मृत्यु तक हो जाती है ।