Read this article in Hindi to learn about:- 1. वायुमण्डल का अर्थ (Meaning of Atmosphere) 2. वायुमण्डल की संरचना (Components of Atmosphere) 3. वायुमण्डल एवं वायुदाब (Atmospheric Pressure) 4. वायुमण्डल का त्रिकोशिकीय- देशान्तरीय संचार (Tri-Cellular Meridian Circulation of the Atmosphere).

वायुमण्डल का अर्थ (Meaning of Atmosphere):

पृथ्वी के चारों और गैसीय आवरण को वायुमण्डल कहते हैं । वायु मण्डल की मोटाई लगभग 480 किलोमीटर (300 मील) मानी जाती है । पृथ्वी के वायुमण्डल में पाई जाने वाली गैसें पृथ्वी के अन्दर से निकली हैं ।

इन्हीं गैसों के सहारे धरती पर जीवन सम्भव हुआ है । वायुमण्डल में बहुत-सी गैसों का मिश्रण है । ये सभी गैसें एक-दूसरे में इस प्रकार मिश्रित हैं कि वायुमण्डल एक ही गैस का बना हुआ प्रतीत होता है ।

हमारे वायुमण्डल का आधुनिक स्वरूप पूर्व कैम्बरियन युग में (Pre Cambrian Period) विकसित हुआ था । इस प्रकार आज के वायुमण्डल की उत्पत्ति लगभग 60 करोड़ वर्ष पुरानी मानी जाती है । आज का वायुमण्डल एक क्रमिक विकास से गुजर कर बना है । इसमें बहुत-सी गैसें ज्वालामुखियों, गर्म पानी के स्रोतों, जीवमण्डल तथा मानव प्रक्रियाओं के कारण मिश्रित हुई हैं ।

वायुमण्डल की संरचना (Components of Atmosphere):

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वायु मण्डल की मुख्य गैसों तथा उनका अनुपात (Fig. 3.1) में दिखाया गया है । वायु की एक शुष्क राशि में 78.084 प्रतिशत नाइट्रोजन (N2), 20.946 प्रतिशत ऑक्सीजन (O2), 0.934 प्रतिशत अग्नि (A), 0.03 प्रतिशत कार्बन-डाईऑक्साइड (CO2) तथा अन्य गैसों में नियोन (Neon), हीलियम, मिथेन, हाइड्रोजन तथा जलवाष्प सम्मलित हैं ।

संरचना के आधार पर वायुमण्डल को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

A. सममण्डल (Homosphere)

B. विषममण्डल (Heterosphere)

A. सममण्डल (Homosphere):

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सममण्डल की ऊँचाई सागर स्तर से 80 किलोमीटर (50 मील) मानी जाती है । यद्यपि गैसों की सघनता ऊंचाई की ओर जाते हुये कम होती जाती है फिर भी विभिन्न गैसों के मिश्रण में समानता पाई जाती है । केवल ओजोन गैस ही एक अपवाद है, जो समतापमण्डल (Stratosphere) में 19 से 50 किलोमीटर के बीच सीमित है । दूसरे वाष्प की मात्रा सममण्डल के निचले भाग में तुलनात्मक रूप से अधिक होती है ।

सममण्डल को निम्न तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:

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(1) क्षोभमण्डल (Troposphere)

(2) समतापमण्डल (Stratosphere)

(3) मध्यमण्डल (Mesosphere)

(1) क्षोभमण्डल (Troposphere):

सागर स्तर (पृथ्वी के धरातल) से लेकर क्षोभसीमा (Tropopause) तक क्षोभमण्डल है । क्षोभमण्डल की ऊपरी सीमा -57°C तापमान भी मानी जाती है । विषुवत रेखा पर क्षोभमण्डल की ऊंचाई 19 किलोमीटर तथा ध्रुव पर 8 किलोमीटर है जबकि 45° पर इसकी ऊँचाई 13 किलोमीटर है ।

वायुमण्डल की कुल वायु राशि (Mass) का 90 प्रतिशत भाग क्षोभमण्डल में पाया जाता है । अधिकतर वाष्प तथा प्रदूषण भी क्षोभमण्डल में पाया जाता है । इस मण्डल की ऊँचाई में ऋतु एवं धरातलीय तापमान के साथ परिवर्तन होता रहता है ।

पवन का चलना बादल वर्षा हिमपात आदि इस मण्डल तक सीमित है । इस मण्डल में तापमान का ह्रास 6.4°C प्रति 1000 मीटर की दर से होता है । इस मण्डल में तापमान के इस हास को नॉमर्ल लेप्स रेट (Normal Lapse Rate) सिखाए कहते हैं ।

2. समतापमण्डल (Stratosphere):

वायुमण्डल की दूसरी परत को समतापमण्डल कहते हैं । यह मण्डल, क्षोभमण्डल के ऊपर फैला है । समतापमण्डल के निचले भाग का तापमान -57°C तथा 50 किलोमीटर की ऊँचाई पर तापमान शास्त्र: रहता है ।

इस मण्डल में ओजोन गैस पाई जाती है जो सूर्य से आने वाली हानिकारक अल्ट्रा वॉयलट किरणों (Ultra-Violet Rays) को सोख लेती हैं । इस प्रकार धरातल के जीवों पर खराब प्रभाव नहीं पड़ता इसकी ऊपरी सीमा को समताप सीमा कहते हैं।

3. मध्यमण्डल (Mesosphere):

इस मण्डल का विस्तार 50 किलोमीटर की ऊँचाई से लेकर 80 किलोमीटर की ऊंचाई तक हैं । इसकी ऊपरी सीमा को मध्य सीमा (Mesopause) कहते हैं । वायुमण्डल का यह सबसे ठंडा मण्डल है, जिसका औसत तापमान – 90°C रहता है, यद्यपि इस तापमान में + 20°C से 30°C का अन्तर हो सकता है ।

B. विषममण्डल (Heterosphere):

वायुमण्डल के इस भाग में गैसों का पूर्ण मिश्रण नहीं है । इसकी ऊँचाई 80 किलोमीटर तक मानी जाती है । वायु मण्डल में सौर कांस्टेण्ट (Solar Constant) इसी ऊँचाई पर मापा जाता है । इस ऊँचाई (480 किलोमीटर) के ऊपर वायुमण्डल में लगभग (Cacuum) की परिस्थति पाई जाती है जिसको बाह्य-अंतरिक्ष (Outer Space) कहा जाता है । इस हाइड्रोजन तथा हीलियम (Helium) जैसी हल्की गैसें पाई जाती हैं । इस मण्डल को तापमण्डल (Thermosphere) तथा आयोनोसफियर (Ionosphere) भी कहते हैं ।

1. तापमण्डल (Thermosphere):

80 किलोमीटर से लेकर 480 किलोमीटर की ऊँचाई तक तापमण्डल फैला हुआ है । इस मण्डल में तापमान अधिक रहता है परन्तु गैसों का घनत्व बहुत कम है । इस की गैसों के कणों (Molecules) का तापमान 1200°C तक हो सकता है ।

इतना अधिक तापमान होने के बावजूद भी यह मण्डल गर्म नहीं है क्योंकि इस मण्डल में गैस के (Molecules) की सघनता बहुत ही कम है । पृथ्वी के धरातल के निकट गैसों के (Molecules) की सघनता बहुत अधिक होती है  ।

2. आयनमण्डल (Ionosphere):

यह मण्डल, तापमण्डल (Thermosphere) का ही एक भाग है । इस मण्डल में ऐसे परमाणु (Atoms) पाये जाते हैं, जो सूर्य की किरणों से सक्रिय हो जाते हैं । इसके सक्रिय परमाणुओं को आयन कहते हैं । इस मण्डल में अलट्रो तथा सक्रिय परमाणुओं का प्रवाह होता रहता है । तापमण्डल के ऊपर स्वचालित ऑक्सीजन पाई जाती है  ।

सौर ऊष्मांक (Solar Constant):

पृथ्वी द्वारा अवशोषित (Intercepted) सौर विकरण को सूर्यताप (Insolation) कहा जाता हैं । सौर ताप की जो मात्रा वायुमण्डल की बाह्य सीमा (480 किलोमीटर) पर पहुँचती है, वह सौर ऊष्मांक (Solar Constant), कहलाती है । सौर उष्मांक का औसत मूल्य 1.968 कैलोरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति मिनट होता है ।

एक किलोरी ऊष्मा एक ग्राम जल को 15°C पर तापमान को एक डिग्री तापमान में वृद्धि होती है । सौर ऊष्मांक वायुमण्डल से गुजरता है तो कुछ ऊष्मा का ह्रास हो जाता है । जिन प्रक्रियाओं से ऊष्मा का ह्रास होता है उनमें परावर्तन (Reflection), छि. तराना (Scattering), शोषण (Absorption) तथा विकिरण (Reflection) मुख्य हैं ।

1. परावर्तन (Reflection):

पृथ्वी के धरातल एवं वायुमण्डल से बहुत-सी ऊष्मा परावर्तन (Reflection) के कारण कमजोर पड़ जाती है । परावर्तन को एलबिडो (Albedo) भी कहते हैं । एलबिडो को प्रतिशत में दर्शाया जाता है । बादलों का एलबिडो 40 से 90 प्रतिशत होता है ।

2. अवशोषण (Absorption):

इस प्रक्रिया के द्वारा सौर प्रकाश, ऊष्मा में बदल जाता हैं । उदाहरण के लिये जब सूर्य का प्रकाश किसी दीवार पर पड़ता है तो दीवार गर्म हो जाती है इसी प्रक्रिया से प्रकाश की ऊष्मा में बदल देती है ।

3. छितराना (Scattering):

वायुमण्डल में भरी गैस के कणों से टकरा कर छितरा जाती है जिस से कुछ ऊष्मा का ह्रास हो जाता है ।

4. विकरण (Radiation):

सूर्य से आने वाली प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर पहुँच कर विकरण के द्वारा वायुमण्डल की नीचे की परत को गर्म करते हैं । इस प्रक्रिया द्वारा धरातल से ऊपर की ओर जाते हुये तापमान का हास होता जाता है ।

भोर की लाली तथा संध्या लाली (Dawn and Twilight):

सूर्य का प्रकाश भोर के समय विकिरण के कारण पूर्व की दिशा में आकाश लाल रंग का दिखाई देता है । यह भोर अथवा सुबह की लाली कहलाती है । इसी प्रकार शाम के समय पश्चिम की दिशा में आकाश का लाल रंग दिखाई देता है, जिसको संध्या लाली कहते है । विषुवत रेखा से ध्रुव की ओर जाते हुये संध्या लाली तथा भोर की लाली का समय बढ़ता जाता है ।

विषुवत रेखा पर सूर्य की किरणें प्राय: लम्बवत पड़ती हैं । विषुवत रेखीय प्रदेश में संध्या लाली का समय 30 मिनट से लेकर 45 मिनट होता है जबकि 40 डिग्री तथा 60 डिग्री पर संध्या लाली का समय क्रमश: एक तथा दो घंटे होता है । ध्रुवीय क्षेत्रों में सात हफ्ते संध्या का धुंधलका और सात हफ्ते भोर की लाली रहती है । इन क्षेत्रों में शीत ऋतु में हाई महीने की रात तथा ग्रीष्म काल में ढाई महीने का दिन होता है ।

वायुमण्डल एवं वायुदाब (Atmospheric Pressure):

वायुमण्डल एक गैसों का आवरण है जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुये है । सभी गैसों में वजन होता है । इस कारण धरातल पर वायु अपने भार द्वारा दबाव डालती है । धरातल पर या सागर तल पर क्षेत्रफल की समस्त परतों के पड़ने वाले दाब को ही वायु दाब कहा जाता है ।

सागर तल पर वायुदाब सबसे अधिक होता है । सागर स्तर पर एक वर्ग इंच क्षेत्र पर 14.7 पौंड (1 किलोग्राम प्रतिवर्ग सेंटीमीटर) का दाब होता है । सागर स्तर पर मानक वायु दाब 1013.25 मिलिवार होता है । सागर स्तर से ऊपर जाते हुये

वायु दाब में तेजी से कमी होती जाती है । पाँच किलोमीटर की ऊँचाई पर वायु दाब घट कर 50 प्रतिशत रह जाता है ।

वायु दाब का ढलान (Pressure Gradient):

वायुमण्डल में वायु दाब सब स्थानों पर समान नहीं रहता। इसलिये अधिक वायु दाब की ओर ढलान उत्पन्न हो जाता है । वायु दाब के ढलान के कारण ही पवन चलती है (Fig. 3.10) यदि वायु दाब रेखायें पास पास हों तो तीव्र ढ़लान होता है और यदि समभार रेखायें दूर-दूर हों तो वायु दाब का ढलान मन्द होता है ।

वायुमण्डल का त्रिकोशिकीय- देशान्तरीय संचार (Tri-Cellular Meridian Circulation of the Atmosphere):

वायुमण्डल में वायु गर्म होकर विषुवत रेखा से ध्रुव की ओर प्रवाहित नहीं होती, वह तीन कोशिकीय रूप (Tri-Cellular) में लम्बवत रूप धारण करती है । इस प्रकार गर्म वायु विषुवत रेखा से ऊपर उठती है तथा ऊपरी हवायें धरातल की ओर प्रवाहित करती हैं ।

इस प्रकार वायु मण्डल में तीन कोशिकायें पाई जाती हैं:

(i) उष्णकटिबंधीय,

(ii) मध्य अक्षांशीय,

(iii) ध्रुवीय ।

त्रिकोशिकीय वायु संचार की संकल्पना सबसे पहले जॉर्ज हैडले ने 1735 में प्रस्तुत की थी । उनके अनुसार विषुवत रेखा से वायु गर्म होकर ऊपर जाती है और ध्रुवों पर नीचे उतरती है और ध्रुव से ठंडी पवन विषुवत रेखा की और प्रवाहित होती है ।

पामेन (Palman) ने 1951 में हैडले की अवध में संशोधन किया । पामेन के अनुसार- वायुमण्डल में लम्बवत रूप से पवन तीन कोशिकाओं के रूप में प्रवाहित होती है जिसको त्रिकोशिकीय प्रवाह कहते हैं ।

1. उष्ण अथवा हेडले कोशिका (Tropical or Handley Cell):

दोनों गोलार्द्धों में विषुवत रेखा एवं 30° के मध्य अथवा हैडले सैल स्थित है । विषुवत रेखा से पवन गर्म होकर ऊपर उठती है जो 30° उत्तर तथा 30° दक्षिण में नीचे की ओर उतरती है, इस प्रकार एक लम्बवत चक्र बनता है, जिसको हैडले कोशिका कहते हैं ।

2. फेरेल कोशिका (Ferrel Cell):

दोनों गोलार्द्धों में लगभग 60° पर कम वायु दाब की पेटी विकसित होती है । इन अक्षांशों में पवन ऊपर की ओर उठती है और इस प्रकार रिक्त स्थान पर पवन उपोषण उच्च वायु से आने लगती है जिस से एक दूसरी चक्र कोशिका विकसित हो जाती है, जिसको फेरेल कोशिका कहते हैं  ।

3. ध्रुवीय कोशिका (Polar Cell):

ध्रुवीय उच्च दाब की पेटी से पवन 60° अक्षांश की ओर प्रवाहित होती है और 60° अक्षांश पर गर्म होकर ध्रुव पर उतरती है । इस प्रकार एक ध्रुवीय कोशिका विकसित होती है ।

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