वायुमंडल का आतपन और तापमान | Read this article in Hindi to learn about:- 1. Introduction to Insolation and Temperature 2. Causes of Asymmetry in Temperature 3. Cooling and Heating of the Atmosphere 4. Daily Temperature Difference 5. Yearly Temperature Difference 6. Latitudinal Distribution of Temperature 7. Horizontal or Latitudinal Heat Balance 8. Inversion or Reverse of Temperature and Other Details.
Contents:
- सूर्यातप तथा तापमान का आसय (Introduction to Insolation and Temperature)
- तापमान में विषमता के कारण (Causes of Asymmetry in Temperature)
- वायुमण्डल का शीतलन और उष्मन (Cooling and Heating of the Atmosphere)
- दैनिक तापान्तर (Daily Temperature Difference)
- वार्षिक तापान्तर (Yearly Temperature Difference)
- तापमान का अक्षांशीय वितरण (Latitudinal Distribution of Temperature)
- क्षैतिज या अक्षांशीय ऊष्मा संतुलन (Horizontal or Latitudinal Heat Balance)
- तापमान का व्युत्क्रमण या प्रतिलोमन (Inversion or Reverse of Temperature)
- तापमान विसंगति (Temperature Anomaly)
- रुद्धोष्म अथवा एडियाबेटिक ताप परिवर्तन (Adiabatic Temperature Changes)
- शुष्क रुद्धोष्म ताप परिवर्तन (Dry Adiabatic Temperature Change)
- आर्द्र रुद्धोष्म ताप परिवर्तन (Humid Adiabatic Temperature Change)
- ऊष्मा द्वीप (Heat Island)
1. सूर्यातप तथा तापमान का आसय (Introduction to Insolation and Temperature):
सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है एवं उसकी पृथ्वी से औसत दूरी 15 करोड़ किमी. है । सूर्य की किरणें इस दूरी को 3 लाख किमी. प्रति सेकंड (1,86,000 मील प्रति सेकंड) की दर से पूरा करती है । सूर्य के क्रोड में हाइड्रोजन के परमाणु निरंतर नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion) के द्वारा हीलियम के परमाणु में बदलते रहते हैं, जिससे अपार ऊर्जा मुक्त होती है ।
सूर्य की बाहरी सतह (फोटोस्फेयर) पर 6000०C तापमान होता है । सूर्य लगातार अंतरिक्ष में अपनी ऊष्मा का विकिरण करता रहता है, जिसे सौर विकिरण कहते हैं । ये विकिरण लघु तरंगों के रूप में पृथ्वी तक पहुँचती है । पृथ्वी सौर विकिरण का मात्र दो अरबवाँ हिस्सा (0.005%) ही रोक पाती है ।
ADVERTISEMENTS:
पृथ्वी पर पहुँचने वाली सौर विकिरण को सूर्यातप (Solar Insolation) कहते हैं । पृथ्वी का धरातल इस विकिरित ऊर्जा को दो कैलोरी प्रति वर्ग सेमी. प्रति मिनट या दो लैंजली (2 Cal/cm2/min.) की दर से प्राप्त करता है । इसे सौर-स्थिरांक (Solar Constant) भी कहते हैं ।
वायुमंडल के बाह्य संस्तर तक पहुँचनेवाली कुल सौर विकिरण का मात्र 51% ही पृथ्वी के धरातल तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पहुँच पाता है । यही विकिरण हमारी पृथ्वी पर औसत 15०C तापमान बनाए रखती है एवं हमारे जीवमंडल के विकास का आधार तैयार करती है ।
पृथ्वी पर सूर्यातप की मात्रा और प्रति इकाई क्षेत्रफल पर उसकी प्राप्ति मुख्यतः तीन कारकों द्वारा निर्धारित होती है:
1. धरातल पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों का झुकाव
ADVERTISEMENTS:
2. दिन की लंबाई अथवा धूप की अवधि
3. वायुमंडल की पारगम्यता ।
साधारण नियम के अनुसार जब पृथ्वी सूर्य से न्यूनतम दूरी पर होती है, उस समय अधिकतम ताप तथा अधिकतम दूरी होने पर न्यूनतम ताप मिलना चाहिए । परन्तु उ. गोलार्द्ध में वास्तविकता इसके ठीक विपरीत होती है ।
वास्तव में दिन की अवधि तथा सूर्य की किरणों के तिरछेपन के प्रभाव के आगे यह उपादान नगण्य हो जाता है । सौर कलंकों की संख्या के अधिक होने पर सूर्यातप की मात्रा भी अधिक हो जाती है । प्रकाश की किरणें जब वायुमंडल से होकर गुजरती है तो उसका प्रकीर्णन, परावर्तन तथा अवशोषण होता रहता है ।
ADVERTISEMENTS:
आकाश का नीला रंग एवं सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सूर्य की लालिमा प्रकीर्णन के कारण ही होती है । अवशोषण की क्रिया मुख्य रूप से जलवाष्प तथा ओजोन गैसों द्वारा होती हैं । ओजोन गैस की परत सूर्य के पराबैंगनी किरणों को अवशोषित कर लेती है ।
2. तापमान में विषमता के कारण (Causes of Asymmetry in Temperature):
पृथ्वी पर तापमान के वितरण में काफी विषमता है । उदाहरण के लिए लीबिया का ‘अल-अजीजिया’ विश्व का सबसे गर्म प्रदेश है जहाँ पर अधिकतम तापमान 58०C मिलता है तो सबसे अधिक ठंड अंटार्कटिका के ‘वोस्टाक’ (Vostak) में पड़ती है जहाँ तापमान -87.5०C तक गिर जाता है ।
अधिकतम औसत वार्षिक तापमान इथियोपिया के ‘डलोफ’ (35०C) में है जबकि न्यूनतम वार्षिक तापमान अंटार्कटिका के ‘पोल ऑफ कोल्ड’ (-58०C) में मिलता है ।
तापमान में विषमता के निम्न कारण हैं:
1. अक्षांशीय वितरण (Latitudinal Distribution):
उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में सूर्यातप की वार्षिक मात्रा सबसे अधिक होती है एवं ध्रुवों की ओर क्रमशः इसकी मात्रा में कमी आती है । 45० अक्षांशों पर यह मात्रा विषुवत रेखा की तुलना में 75% रह जाती है; आर्कटिक और अंटार्कटिक रेखाओं पर यह 50% और ध्रुवों पर 40% होती है ।
2. ऊँचाई (Height):
ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में गिरावट आती है । क्षोभमंडल में प्रति 165 मी. की ऊँचाई पर 1०C तापमान घटता है । प्रति किमी. की ऊँचाई पर औसतन 6.5०C की गिरावट आती है ।
उदाहरण के लिए, किलिमंजारो पर्वत विषुवत रेखा पर है परन्तु अधिक ऊँचाई पर स्थित होने के कारण यह हिमाच्छादित प्रदेश है । इसी प्रकार गुआंगझाऊ (चीन) व कोलकाता दोनों एक ही अक्षांश पर है, परन्तु दोनों के तापमान में ऊँचाई की भिन्नता के कारण काफी अंतर है ।
3. स्थल व जल का प्रभाव (Effect of Land and Water):
स्थल की एक इकाई मात्रा की तुलना में जल की एक इकाई का तापमान बढ़ाने के लिए ढाई गुणा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है । जल देर से गर्म होता है एवं देर से ठंडा होता है जबकि स्थल पर यह प्रक्रिया तेज होती है । इसलिए महासागरों की अपेक्षा स्थलखंडों पर तापांतर अधिक होता है ।
4. समुद्री धाराएँ (Ocean Stream):
इन धाराओं का निकटवर्ती स्थलीय भागों के तापमान पर प्रभाव पड़ता है । गर्म धाराएँ समुद्र तटीय भागों के तापमान को बढ़ा देती हैं जबकि ठंडी धाराओं के प्रभाव के फलस्वरूप तापमान में गिरावट आती है ।
उदाहरण के लिए गर्म समुद्री धारा गल्फस्ट्रीम का विस्तार उत्तरी अटलांटिक प्रवाह समस्त पश्चिमी यूरोपीय भाग को शीतकाल में भी अपेक्षित तापमान प्रदान करता है जिससे उनके बंदरगाह सालों भर खुले रहते हैं तथा मौसम सुहावना हो जाता है । इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर बहने वाली ठंडी बेंगुएला धारा तटीय भाग के तापमान में कमी लाती है ।
5. प्रचलित वायु (Prevailing Wind):
ठंडी पवनें तापमान में तीव्र गिरावट लाती हैं, जबकि गर्म पवनें तापमान में वृद्धि करती हैं । उदाहरणतः मिस्ट्रल पवन फ्रांस के तापमान को हिमांक तक गिरा देती है जबकि शिनूक पवन यू.एस.ए. के तापमान को बढ़ाती है, जिससे बर्फ पिघल जाती है ।
3. वायुमण्डल का शीतलन और उष्मन (Cooling and Heating of the Atmosphere):
सूर्य से ताप पृथ्वी तक आता है और पार्थिव ऊर्जा (Terrestrial Energy) में बदल जाता है, फिर यही पार्थिव ऊर्जा वायुमण्डल के ताप का निर्धारण करती है । जब यह पार्थिव ऊर्जा ज्यादा होती है, तो वायुमण्डल गर्म हो जाता है और इसके कम होने पर वायुमंडल ठंडा हो जाता है ।
वायुमण्डल के तापमान परिवर्तन अथवा उसके शीतल और गर्म होने की प्रक्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों का योग होता है:
1. सूर्यातप (Insolation)
2. संचालन (Conduction)
3. विकिरण (Radiation)
4. संवहन (Convection)
1. सूर्यातप या सूर्य से प्राप्त प्रत्यक्ष ताप (Insolation):
सूर्य से वायुमंडल को प्रत्यक्ष ताप बहुत कम मिल पाता है इसलिए वायुमण्डल के ताप परिवर्तन में इसका महत्व बहुत कम होता है ।
2. संचालन (Conduction):
जिस प्रकार लोहे की छड़ को एक छोर से गर्म किया जाता है, तो धीरे-धीरे दूसरा छोर भी गर्म हो जाता है, लेकिन यह दूसरा छोर अपेक्षाकृत कम गर्म हो पाता है । ठीक यही प्रक्रिया वायुमण्डल में होती है । दिन में जैसे-जैसे पृथ्वी का धरातल सूर्यातप से गर्म होता जाता है, वैसे-वैसे धरातल के सम्पर्क में अपने वाला वायुमण्डल भी गर्म होता रहता है ।
जब धरातल का ताप घटने लगता है तो धरातलीय वायुमण्डल का ताप भी घटने लगता है । इसी क्रिया को संचालन कहते हैं, इसमें एक अणु स्पर्श द्वारा दूसरे अणु को गर्म कर देता है ।
3. विकिरण (Radiation):
गर्म पानी या दूध को थोड़ी देर के लिए खुला रख दिया जाए, तो उसमें से तरंगें निकलती हैं और कुछ देर बाद वह ठंडा हो जाता है, यही क्रिया विकिरण कहलाती है ।
गर्म पृथ्वी से ताप विकिरण द्वारा वायुमण्डल में चला जाता है । वायुमंडल में यदि बादल, धूलकण आदि होते हैं तो यह ताप निचली सतह में ही रह जाता है, अन्यथा यह धरातल से बहुत ऊँचा चला जाता है ।
गर्म मरुस्थलों में आकाश स्वच्छ रहता है, इसलिए विकिरण से प्राप्त ताप बहुत ऊपर चला जाता है और रातें ठंडी प्रतीत होती हैं जबकि अन्य क्षेत्रों में बादल आदि रहते हैं जिससे ताप निचली सतह में ही रहता है और गर्मी का अनुभव होता है ।
4. संवहन (Convection):
जब संचालन और विकिरण क्रिया द्वारा किसी स्थान की वायु गर्म हो जाती है, तो वह हल्की होकर ऊपर उठती है और खाली जगह को भरने के लिए आस-पास से भारी एवं ठंडी हवा नीचे आ जाती है । ठंडी और गर्म हवा के इस प्रकार ऊपर नीचे होने की क्रिया को ही संवहन कहते हैं । इस प्रक्रिया के द्वारा वायुमण्डलीय तापमान में परिवर्तन होता रहता है ।
4. दैनिक तापान्तर (Daily Temperature Difference):
दिन के उच्चतम एवं रात्रि के न्यूनतम तापमान के अन्तर को दैनिक तापान्तर कहते हैं । उदाहरण के लिए, दिन का उच्चतम तापमान 36०C है, और रात का न्यूनतम 30०C तो तापान्तर (36०-30०=6०C) हुआ ।
सूर्योदय के साथ तापमान बढ़ने लगता है और सूर्यास्त के साथ घटने लगता है । दोपहर में 12 बजे सूर्य की किरणें सीधी चमकती है, इसलिए इसी समय सर्वाधिक गर्मी पड़ना चाहिए, लेकिन उच्चतम तापमान 2 से 4 बजे तक रहता है । इसका कारण यह है कि धरातल पर जाने वाले सौर ताप को पार्थिव ऊर्जा (Terrestrial Energy) में बदलने में समय लगता है ।
दूसरे शब्दों में 12 बजे अधिकतम सूर्यातप (Insolation) प्राप्त होता है, लेकिन उसके विकिरण में 2-4 घंटे लग जाते हैं, जिसके बाद ही उच्चतम ताप अंकित होता है । भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सूर्य की किरणें सालों भर सीधी पड़ती है, इसलिए दैनिक तापांतर अधिक होता है । जैसे-जैसे ध्रुवों की ओर जाते हैं, सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने लगती हैं । इससे दैनिक तापांतर भी घटता जाता है ।
दैनिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
1. समुद्र के किनारे के भागों पर दैनिक तापान्तर कम होता है ।
2. समुद्र से जैसे-जैसे दूर जाते हैं, तापान्तर बढ़ता जाता है ।
3. मैदानी भागों की अपेक्षा पहाड़ी भागों में तापान्तर अधिक होता है ।
4. गर्म एवं शुष्क मरुस्थलों एवं बर्फ से ढके क्षेत्रों में तापान्तर अधिक होता है ।
5. यदि आकाश में बादल हों तो भी तापान्तर कम होता है ।
5. वार्षिक तापान्तर (Yearly Temperature Difference):
एक वर्ष के अधिकतम और न्यूनतम ताप के अन्तर को वार्षिक तापान्तर कहते हैं । उदाहरण के लिए कर्क रेखा पर जनवरी में न्यूनतम तापमान और मई-जून में अधिकतम तापमान होता है । जनवरी और मई के अधिकतम ताप के अंतर को वार्षिक तापान्तर कहेंगे ।
पृथ्वी अपने अक्ष पर 231/2० सूर्य की ओर झुकी है । झुके होने के कारण सूर्य 6 माह उत्तरी भाग में (उत्तरायण) और 6 माह दक्षिणी भाग (दक्षिणायण) में सीधा चमकता है, इसलिए ऋतु परिवर्तन होता है । कर्क रेखा पर जून में सीधी किरणें पड़ती हैं और दिसम्बर में मकर रेखा पर सीधी किरणें पड़ती है ।
इससे जून में कर्क रेखा पर ग्रीष्म ऋतु (Summer) और दिसम्बर-जनवरी में शीत ऋतु (Winter) होती है । इसके विपरीत मकर रेखा पर दिसम्बर-जनवरी में ग्रीष्म ऋतु और जून में शीत ऋतु होती है । इन गर्म महीनों के उच्चतम ताप और ठंडे महीनों के निम्नतम ताप का अन्तर वार्षिक तापान्तर कहलाता है ।
वार्षिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
a. भूमध्य रेखीय क्षेत्रों में साल भर तापमान एक सा रहता है, इससे वार्षिक तापान्तर बहुत कम होता है ।
b. समुद्र तटीय क्षेत्रों में साल भर एक समान ताप रहने के कारण तापांतर कम रहता है ।
c. उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल भाग की अधिकता के कारण वार्षिक तापांतर अधिक है जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में जलीय भाग की अधिकता के कारण वार्षिक तापान्तर कहते हैं ।
6. तापमान का अक्षांशीय वितरण (Latitudinal Distribution of Temperature):
पृथ्वी पर तापमान के अक्षांशीय वितरण को समताप रेखाओं (Isotherms) द्वारा दर्शाया जाता है । यह वह कल्पित रेखा है, जो इमान तापमान वाले स्थानों को मिलाती है । समताप रेखाओं की परस्पर दूरी ताप प्रवणता (Temperature Gradient) को बताती है, जिसका अर्थ है तापांतर दर की तीव्रता ।
समीप स्थित समताप रेखाएँ तापांतर की ऊँची दर को बताता है और यदि समताप रेखाएँ दूर-दूर हो तो यह तापांतर की धीमी दर को दर्शाता है । उत्तरी गोलार्द्ध में स्थलखंडों के विस्तार के कारण समताप रेखाएँ अनियमित और पास-पास होती हैं । दक्षिणी गोलार्द्ध में समताप रेखाएँ अपेक्षाकृत अधिक नियमित और दूर-दूर होती हैं ।
ऊष्मा बजट:
सूर्यातप और पार्थिव विकिरण में संतुलन के कारण पृथ्वी पर औसत तापमान एक समान रहता है । इस संतुलन को ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट कहते हैं । ऊष्मा की कुल 100 इकाइयों में 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुँचने के पहले ही अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं ।
इनमें से 6 इकाइयाँ वायुमंडल की ऊपरी परत से परावर्तन व प्रकीर्णन द्वारा, 27 इकाइयाँ बादलों के ऊपरी छोर से तथा 2 इकाइयाँ मुख्यतः पृथ्वी के हिमाच्छादित क्षेत्रों द्वारा परावर्तित होकर लौट जाती हैं ।
सौर विकिरण के इस परावर्तित भाग को ‘पृथ्वी का एल्बिडो’ कहते हैं । शेष 65 इकाइयाँ अवशोषित होती है । उसमें 14 इकाई वायुमंडल में तथा 51 इकाई पृथ्वी के धरातल द्वारा अवशोषित की जाती है ।
पृथ्वी द्वारा अवशोषित 51 इकाइयाँ पुनः पार्थिव या भौमिक विकिरण (Terrestrial Radiation) द्वारा लौटा दी जाती है । इनमें से 17 इकाइयाँ सीधे अंतरिक्ष में लौट जाती है जबकि 34 इकाइयाँ वायुमंडल में प्रत्यक्ष पार्थिव विकिरण, तापीय संवहन व ऊष्मा विक्षोभ, वाष्पीकरण व संघनन की गुप्त ऊष्मा के द्वारा अवशोषित कर ली जाती है ।
अंततः वायुमंडल भी सौर विकिरण से प्राप्त 14 इकाइयों व पार्थिव विकिरण से प्राप्त 34 इकाइयों अर्थात् कुल 48 इकाइयों से अंतरिक्ष में वापस कर देता है । अतः पृथ्वी के धरातल व वायुमंडल से लौटने वाली विकिरण की इकाइयाँ क्रमशः 17 और 48 यानि कुल 65 हैं ।
इस प्रकार सूर्य से प्राप्त होने वाली 65 इकाइयों का संतुलन हो जाता है । इसे ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट या ऊष्मा संतुलन कहते हैं ।
ऊष्मा बजट विसंगति:
पृथ्वी के द्वारा लघु तरंग सौर्य विकिरण के रूप में प्राप्त ऊर्जा और दीर्घ तरंग विकिरण के रूप में निष्काषित ऊर्जा के बजट का सम्बंध ऊष्मा बजट से है । ऊष्मा बजट के संकल्पना के अनुसार पृथ्वी जिस अनुपात में सौर्य ऊर्जा को अवशोषित करती है । उसी अनुपात में बाह्य अन्तरिक्ष में निष्काषित कर देती हैं, जिससे पृथ्वी का औसत तापमान स्थिर रहता है ।
यदि पृथ्वी के द्वारा 100u सौर ऊर्जा की प्राप्ति लघु तरंग विकिरण के रूप में होती है तो वायुमंडल के द्वारा 31u तो पृथ्वी की सतह के द्वारा 4u का परावर्तन लघुतरंग सौर्य विकिरण के रूप में होता है, जिससे पृथ्वी के तापमान में कोई परिवर्तन नहीं होता है ।
शेष अवशोषित 65u विकिरण में से 18u का वायुमंडल के द्वारा और 47u का पृथ्वी की सतह के द्वारा अवशोषण के बाद ऊष्मा बजट में परिवर्तन होता है, जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है । यही ऊष्मा बजट विसंगति कहलाती है । ऊष्मा बजट विसंगति, भूमंडलीय ऊष्मन का एक महत्वपूर्ण कारक है ।
7. क्षैतिज या अक्षांशीय ऊष्मा संतुलन (Horizontal or Latitudinal Heat Balance):
पृथ्वी पर सौर विकिरण द्वारा ऊष्मा की प्राप्त मात्रा व पार्थिव विकिरण द्वारा ऊष्मा की क्षय की गई मात्रा हर जगह समान नहीं होती । इसमें अक्षांशीय भिन्नता मिलती है । सामान्यतः 37 1/2०N – 37 1/2०S का क्षेत्र तापाधिक्य का क्षेत्र होता है, अर्थात् यहाँ जितना सौर विकिरण प्राप्त होता है, उससे कम मात्रा में ऊष्मा का ह्रास पार्थिव विकिरण द्वारा होता है ।
इसके विपरीत 37 1/2० – 66 1/2०N-S अक्षांशों के क्षेत्रों में सौर विकिरण की जितनी प्राप्ति होती । उससे अधिक मात्रा का पार्थिव विकिरण द्वारा ऊष्मा ह्रास होता है जिससे यह ताप न्यूनता का क्षेत्र बन जाता है ।
यदि यही प्रक्रिया चलती रहती तो ये क्षेत्र क्रमशः अधिक गर्म व अधिक ठंडे होते चले जाते, परंतु ऐसा नहीं होता है, वस्तुतः सनातनी पवनें व महासागरीय धाराएँ विशाल ऊष्मा ईंजन का कार्य करती हैं, जो तापाधिक्य के क्षेत्र से तापन्यूनता के क्षेत्र में ऊष्मा का स्थानांतरण करते रहते हैं । इस प्रकार अक्षांशीय ऊष्मा संतुलन बना रहता है ।
8. तापमान का व्युत्क्रमण या प्रतिलोमन (Inversion or Reverse of Temperature):
सामान्य रूप से ऊँचाई बढ़ने पर तापमान में गिरावट आती है । जब तापमान के ऊर्ध्वाधर वितरण का यह कम उलट जाता है तो इसे तापमान का व्युत्क्रमण या प्रतिलोमन कहते हैं । जाड़े की लम्बी रातों में तीव्र पार्थिव विकिरण से धरातल के निकट की वायु थोड़े ऊपरी भाग की वायु की तुलना में ठंडी हो जाती है ।
तापमान प्रतिलोमन की यह दशा स्वच्छ आकाश, शुष्क हवा व मंद समीर की स्थिति में अधिक प्रभावी हो जाती है । यह घने कुहरे के लिए उत्तरदायी हो जाती है । तापमान के व्युत्क्रमण से उत्पन्न होने वाला कुहरा यातायात व्यवस्था में प्रायः बाधा उत्पन्न करता है । यही कारण है कि जाड़ों में परिवहन में कुहरे के कारण दुर्घटना होने की अधिक आशंका रहती है एवं यातायात में विलंब होता है ।
अंतरपर्वतीय घाटियों में तीव्र पार्थिव विकिरण के कारण प्रायः ऐसा होता है । जाड़े की रात्रि में पर्वतीय ढलानों के ऊपरी भाग पार्थिव विकिरण के कारण तेजी से ठंडे हो जाते हैं एवं उसके संपर्क में आने वाली वायु भी ठंडी हो जाता है । इसके विपरीत घाटी की तली में विकिरण से अपेक्षाकृत कम ऊष्मा ह्रास होता है ।
इस कारण यहाँ तापमान अपेक्षाकृत उच्च रहता है एवं संपर्क क्षेत्र की वायु भी थोड़ी गर्म रह जाती है । पर्वतीय ढलान की ठंडी व भारी वायु गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से नीचे की ओर खिसककर घाटियों में भर जाती है । इन पर्वतीय हवाओं को केटाबेटिक पवन (Katabatic Wind) कहा जाता है । ये केटाबेटिक हवाएँ घाटी की तली के तापमान को नीचा कर देती है ।
इसके विपरीत घाटी की तली की गर्म वायु हल्की होकर ऊपर उठती है तथा यह एनाबेटिक पवन (Anabatic Wind) कहलाती हैं । इस प्रकार ऊपरी भाग में गर्म एवं निचले भाग में ठंडी वायु होने के कारण तापीय विलोमता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिससे घाटी में कुहरा छाया रहता है एवं पाला पड़ने की आशंका भी रहती है ।
तापमान के व्युत्क्रमण के कारण ही अंतरपर्वतीय घाटियों में बस्तियाँ व खेत ढालों के ऊपरी भागों पर होते हैं । उदाहरण के लिए जापान के सुवा बेसिन में शहतूत की बागवानी तथा भारत में सेब की बागवानी पर्वतीय ढालों के निचले भाग में नहीं की जाती ।
हिमालय क्षेत्र में पर्यटकों के लिए विश्रामस्थल और होटल, ढालों के ऊपरी भागों पर ही स्थित हैं । कभी-कभी तापमान प्रतिलोमन से उत्पन्न होने वाला कुहरा लाभदायक भी होता है । उदाहरणतः ब्राजील व यमन की पहाड़ियों में कुहरे के कारण कहवे की फसल का सूर्य की तीखी किरणों से बचाव हो पाता है ।
9. तापमान विसंगति (Temperature Anomaly):
किसी अक्षांश के औसत तापमान एवं उसी अक्षांश पर अवस्थित किसी स्थान के औसत तापमान के अंतर को तापमान विसंगति कहा जाता है । जब किसी स्थान का औसत तापमान उस अक्षांश के औसत तापमान से कम होता है तो तापमान विसंगति ऋणात्मक होती है ।
इसके विपरीत जब किसी स्थान का तापमान उस अक्षांश के औसत तापमान से अधिक रहता है तो तापमान विसंगति धनात्मक होती है ।
गर्मियों में महाद्वीपीय भागों में धनात्मक व महासागरीय भागों में ऋणात्मक तापमान विसंगति देखी जाती है । इसका मुख्य कारण स्थल भाग का अपेक्षाकृत अधिक गर्म होना है । उत्तरी गोलार्द्ध में जुलाई में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जनवरी में ऐसी स्थिति देखी जाती है ।
जाड़ों में महासागरीय भागों में धनात्मक व महाद्वीपीय भागों में ऋणात्मक विसंगति पायी जाती है । ऐसा उत्तरी गोलार्द्ध में जनवरी में तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जुलाई में देखा जाता है । उत्तरी गोलार्द्ध में महाद्वीपों के विस्तार के कारण तापमान की अधिकतम विसंगति पायी जाती है, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में यह न्यूनतम रहता है ।
10. रुद्धोष्म अथवा एडियाबेटिक ताप परिवर्तन (Adiabatic Temperature Changes):
जब कोई वस्तु न तो बाहरी माध्यम को ऊष्मा दे और न ही उससे ऊष्मा ले परंतु उसका ताप बदल जाए तो इसे रुद्धोष्म ताप परिवर्तन कहते हैं । जब कोई वायु गर्म होकर ऊपर उठती है तो दबाव में कमी होने के कारण उसके आयतन में व उसके प्रति इकाई ऊष्मा में कमी आती है एवं इस प्रकार आरोही वायु क्रमशः फैलती है एवं ठंडी होती जाती है । यह दर 1०C प्रति 100 मीटर होती है ।
इस ताप ह्रास दर को रुद्धोष्म ताप ह्रास दर कहते हैं । इसी प्रकार जब कोई वायु नीचे उतरती है तो उसके आयतन में कमी आने से उसके प्रति इकाई ऊष्मा में वृद्धि होती है, जिसे रुद्धोष्म ताप परिवर्तन कहते हैं ।
रुद्धोष्म ताप परिवर्तन का एकमात्र कारण वायु दाब में वृद्धि है । इसमें आरोही या अवरोही वायु के तापमान के परिवर्तन के बावजूद उसकी ऊष्मा की कुल मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता ।
11. शुष्क रुद्धोष्म ताप परिवर्तन (Dry Adiabatic Temperature Change):
किसी शुष्क वायुराशि के ऊपर उठने अथवा नीचे उतरने पर उसके तापमान में एक निश्चित दर से परिवर्तन होता है । इसे ही शुष्क रुद्धोष्म परिवर्तन कहा जाता है । शुष्क रुद्धोष्म ताप परिवर्तन की दर 10०C/1000 मी. या 5.5०F/1000 फीट होती है ।
यह वायु के सामान्य ताप पतन दर 6.5०C/1000 मी. से भिन्न है, क्योंकि वायु की सामान्य पतन दर वायुमंडल की विभिन्न ऊँचाइयों पर तापमान का सामान्य अंतर है ।
12. आर्द्र रुद्धोष्म ताप परिवर्तन (Humid Adiabatic Temperature Change):
वायुमंडल में ऊपर उठते समय संतृप्त वायुराशि (Saturated Air Mass) जिस दर से ठंडी होती है, उसे आर्द्र रुद्धोष्म ताप ह्रास दर कहा जाता है । जब कोई आर्द्र वायुराशि ऊपर उठती है, तो उसमें संघनन क्रिया तब तक प्रारंभ नहीं होती जब तक कि वह संतृप्त न हो जाए अर्थात् उसकी सापेक्षिक आर्द्रता शत-प्रतिशत न हो जाए ।
संतृप्तावस्था के पूर्व वायुराशि शुष्क रुद्धोष्म ताप ह्रास दर से ठंडी होती है, परंतु जैसे ही संघनन की क्रिया प्रारंभ होती है, उसकी ताप ह्रास दर में कमी आ जाती है । ताप ह्रास दर में इस कमी का कारण संघनन की गुप्त ऊष्मा है ।
संतृप्त वायु राशि के नवीन ताप ह्रास दर को आर्द्र रुद्धोष्म ताप ह्रास दर या मंदित रुद्धोष्म ताप ह्रास दर कहा जाता है । आर्द्र रुद्धोष्म ताप परिवर्तन की दर 6०C/1000 मी. या 3०F/1000 फीट होती है ।
13. ऊष्मा द्वीप (Heat Island):
औद्योगिक नगरों व महानगरों का तापमान आस-पास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है । यहाँ पक्के मकानों, सड़कों आदि निर्मित क्षेत्रों की अधिकता एवं वनस्पतियों के अभाव के कारण पार्थिव विकिरण ज्यादा होता है जो नगरीय वायुमंडल की ग्रीनहाउस गैसों द्वारा अवशोषित कर ली जाती है । इनसे नगर का तापमान बढ़ जाता है तथा इन अपेक्षाकृत उच्च तापवाले नगरों को ही ऊष्मा द्वीप कहा जाता है ।
नगरीय जलवायु की समस्या के समाधान के लिए ‘द इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर अरबन क्लाइमेट’ का सातवॉ सम्मेलन 2009 में याकोहामा (जापान) में सम्पन्न हुआ जिसका मुख्य उद्देश्य नगरीय समस्याओं को दूर कर आने वाले दिनों में शहरी जीवन को और अधिक धारणीय एवं मानवानुकूल बनाना है ।