पृथ्वी की सतह के नीचे बल | Forces Below Earth’s Surface.
पृथ्वी की सतह पर दो प्रकार के बल कार्य करते हैं- अंतर्जात और बहिर्जात । अंतर्जात बल (पटलविरूपणी बल, ज्वालामुखी क्रिया, भूकम्प आदि) भूतल पर विषमताओं का सृजन करते हैं । बहिर्जात बल (बहता जल, सागरीय तरंग, हिमानी, भूमिगत जल, पवन आदि) समतल स्थापक बल होते हैं ।
पृथ्वी के ऊपर स्थित क्षेत्रों (पर्वत, पठार, मैदान) से गहराई में स्थित क्षेत्रों (झील, समुद्र) में भौतिक अथवा यांत्रिक स्थिरता की दशा को ही ‘संतुलन की दशा’ या ‘समस्थैतिकी’ कहते हैं । इस सम्बंध में एयरी व प्राट ने संकल्पना दी है । एयरी के अनुसार विभिन्न ऊँचाई वाले समान घनत्व के स्तम्भ असमान गहराई में प्रवेश कर संतुलन की दशा को प्राप्त करते हैं ।
जबकि, प्राट के अनुसार ऊँचे स्तम्भों का घनत्व कम व छोटे स्तम्भों का घनत्व अधिक होने के कारण संतुलन की दशा बनी रहती है । ‘संतुलन’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अमेरिकी भूगर्भवेत्ता ‘डटन’ ने 1889 में किया था । डटन के अनुसार ऊँचे उठे भागों का घनत्व कम होगा तथा नीचे धँसे भागों का घनत्व अधिक होगा, तभी सबका भार एक क्षतिपूर्ति रेखा या समतोलतल के सहारे बराबर होगा ।
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अंतर्जात बलों को कार्य की तीव्रता के आधार पर दीर्घकालिक व आकस्मिक दो प्रकारों में बाँटा गया है । दीर्घकालिक संचलन को पटलविरूपणी बल (Diastrophic Forces) भी कहा जाता है । इसके अंतर्गत लंबवत् (Vertical) एवं क्षैतिज (Horizontal) संचलन आते हैं ।
इन्हें क्रमशः महाद्वीप निर्माणकारी (Epeirogenic Movement) तथा पर्वत निर्माणकारी (Orogenic Movement) कहा जाता है । लंबवत् संचलन भी दो प्रकार के हो सकते हैं- उपरिमुखी (Upward) व अधोमुखी (Downward) ।
उत्थित पुलिन, उत्थित स्थलखंड (भारत में कच्छ की खाड़ी के निकट लगभग 24 किमी. लंबी भूमि कई किलोमीटर ऊपर उठ गई है, जिसे अल्लाह का बाँध कहते हैं) आदि उपरिमुखी संचलन के एवं इंग्लैंड व स्कॉटलैंड में समुद्र तल से सैकड़ों मीटर नीचे कोयले की खुदाई, मुम्बई के प्रिंस डॉक यार्ड क्षेत्र के जलमग्न वन आदि अधोमुखी संचलन के उदाहरण हैं ।
क्षैतिज संचलन में दो प्रकार के बल कार्य करते हैं- संपीडन बल (Forces of Compression) व तनाव बल (Forces of Tension) । संपीडन बल से चट्टानों की परतें मुड़ जाती हैं । ऊपर उठे भाग को अपनति (Anticline) और धँसे हुए भाग को अभिनति (Syncline) कहते हैं ।
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संपीडन बल की भिन्नता के कारण वलन (Folding) के प्रकारों में भी अंतर मिलता है :
1. सममित वलन (Symmetrical Fold):
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल समान होती है । इसे सरल मोड़ (Simple Fold) भी कहते हैं । जब दबाव शक्ति की तीव्रता कम एवं दोनों दिशाओं में एक समान हो, तो इस प्रकार के वलन का निर्माण होता है । जैसे- स्विट्जरलैण्ड का जूरा पर्वत ।
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2. असममित वलन (Asymmetrical Fold):
इसमें वलन की दोनों भुजाओं की लम्बाई व ढाल असमान होती है । कम झुकाव वाली भुजा अपेक्षाकृत लंबी एवं अधिक झुकाव वाली भुजा छोटी होती है । जैसे- ब्रिटेन का दक्षिण पेनाइन पर्वत ।
3. एकदिग्नत वलन (Monoclonal Fold):
इसमें वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी एवं दूसरी क्षैतिज तल के लम्बवत् होती है । जैसे- आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज ।
4. अधिवलन (Over Fold):
इसमें वलन की एक भुजा बिल्कुल खड़ी न रहकर कुछ आगे की ओर निकली हुई रहती है एवं तीव्र ढाल (Steep Slope) बनाती है । जबकि दूसरी भुजा, जो अपेक्षाकृत लंबी-होती है, कम झुकी होने के कारण धीमी ढाल बनाती है । इसका निर्माण तब होता है, जब दबाव शक्ति एक दिशा में अधिक तीव्र होती है । उदाहरण- कश्मीर हिमालय की पीर पंजाल श्रेणी ।
5. समनतवलन (Isoclinal Fold):
समनत वलन में वलन की दोनों भुजाएँ एक-दूसरे के समानांतर लेकिन क्षैतिज दिशा में नहीं होती हैं । इस वलन में आगे का भाग लटकता हुआ प्रतीत होता है । ऐसे वलन में संपीडन की तीव्रता स्पष्ट दिखाई पड़ती है, उदाहरण- पाकिस्तान का काल चित्ता ।
6. परिवलन (Recumbent):
इसमें वलन की दोनों भुजाएँ एक-दूसरे के समानांतर और क्षैतिज दिशा में होती हैं । इसे दोहरा मोड़ (Double Fold) भी कहा जाता है, जैसे- ब्रिटेन का कैरिक कैसल पर्वत ।
7. अधिक्षिप्त या प्रतिवलन (Overthrust or Overturned Fold):
जब अत्यधिक संपीडन बल के कारण परिवलित वलन की एक भुजा टूट कर दूर विस्थापित हो जाती है, तब उस विस्थापित भुजा को ग्रीवा खण्ड (Nappe) कहते हैं । जिस तल पर भुजा का विस्थापन होता है, उसे व्युत्क्रम भ्रंश तल (Reverse Fault Plane) कहते हैं ।
वहीं जब परिवलित वलन में अत्यधिक संपीडन के कारण वलन के नीचे की भुजा, ऊपरी भुजा (Upper Fold) के ऊपर विस्थापित हो जाती है तब उसे प्रतिवलित वलन कहते हैं ।
पंखाकार वलन (Fan Fold):
विभिन्न स्थानों पर संपीडन की भिन्नता के कारण कभी-कभी एक वृहत अपनति में कई छोटी-छोटी अपनतियाँ व अभिनतियाँ मिलती हैं । ऐसी आकृति को समपनति (Anticlinorium) कहते हैं ।
इसी तरह जब असामान्य संपीडन के कारण एक वृहत् अभिनति के अंतर्गत कई छोटी-छोटी अपनतियाँ व अभिनतियाँ बन जाती है तो उस वृहत् अभिनति को समभिनति (Synclinorium) कहा जाता है । इन दोनों स्थलाकृतियों को पंखाकार वलन भी कहते हैं ।
भ्रंशन (Fault):
इसके अंतर्गत दरारें (Cracks) विभंग (Fracture) व भ्रंशन (Faulting) को शामिल किया जाता है । भ्रंशन की उत्पत्ति क्षैतिज संचलन के दोनों बलों (संपीडन व तनाव बल) से होती है परन्तु तनाव बल का स्थान अधिक महत्वपूर्ण हैं । अधिकतर भ्रंश इसी के कारण उत्पन्न हुए हैं । सामान्य भ्रंश (Normal Fault) का निर्माण तनाव बल के कारण होता है ।
इसमें दरार के दोनों ओर के भूखंड एक दूसरे के विपरीत दिशा में खिसकते हैं तथा एक खंड नीचे की ओर गिर जाता है । सामान्य भ्रंश से भू-पटल में प्रसार होता है । उत्क्रम भ्रंश (Reverse Fault) संपीडन के कारण निर्मित होते हैं । इस भ्रंश में दबाव के कारण दरार के दोनों ओर के भू-खंड एक दूसरे की ओर खिसकते हैं तथा एक दूसरे के ऊपर आरूढ़ हो जाते हैं ।
इसमें सतह का फैलाव पहले की तुलना में घट जाता है । इसे आरूढ़ भ्रंश (Thrust Fault) भी कहा जाता है । उपर्युक्त दोनों भ्रंशों के द्वारा कगारों (Escarpments) का निर्माण होता है, जिसके सहारे लटकती घाटी एवं जलप्रपातों का भी विकास होता है । उदाहरण के लिए पश्चिमी घाट कगार, विंध्यन कगार क्षेत्र में ऐसा देखा जा सकता है ।
जब किसी क्षेत्र में एक-दूसरे के समानांतर अनेक भ्रंश होते हैं एवं सभी भ्रंश तलों की ढाल एक ही दिशा में होती है, तो इसे सोपानी भ्रंश (Step Fault) कहा जाता है । यूरोप की राइन घाटी सोपानी भ्रंशों पर ही स्थित है । जब स्थल पर दो विपरीत दिशाओं से दबाव पड़ता है तो दोनों ओर के भू-खंड भ्रंश तल के सहारे धँसने या ऊपर उठने के स्थान पर आगे-पीछे खिसके हुए होते हैं ।
इस प्रकार के भ्रंश को ट्रांसकरेन्ट भ्रंश (Transcurrent or Strike-Slip Fault) कहा जाता है । कैलिफोर्निया के सान एंड्रियास भ्रंश का निर्माण इसी प्रकार हुआ है । हिमालय के गढ़वाल व उत्तरकाशी क्षेत्र में भी ऐसे भ्रंश देखने को मिलते हैं । भ्रंशों के निर्माण के कारण कई स्थलाकृतियाँ निर्मित होती हैं । जैसे- भ्रंश कगार, भ्रंश घाटी, रैम्प घाटी, भ्रंशोत्थ पर्वत व हार्स्ट पर्वत ।
भ्रंश घाटी (Rift Valley) का विकास तब होता है, जब दो भ्रंश रेखाओं के बीच की चट्टानी स्तंभ नीचे की ओर धँस जाती है । जब तनाव जनित बल के कारण दो भू-खंडों का विपरीत दिशा में खिसकाव होता है, तब इनका निर्माण होता है । भ्रंश घाटियाँ लम्बी, सँकरी व गहरी होती है ।
इन्हें जर्मन भाषा में ‘ग्राबेन’ (Graben) कहा जाता है । जॉर्डन की प्रसिद्ध भ्रंश घाटी में ही मृत सागर स्थित है, जो समुद्र तल से भी अधिक नीचा है । अफ्रीका में न्यासा, रूडोल्फ, टांगानिका, अल्बर्ट व एडवर्ड झीलें भू-भ्रंश घाटी में ही स्थित हैं ।
संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलिफोर्निया क्षेत्र में स्थित मृत घाटी (Death Valley) भी भू-भ्रंश घाटी है । यह समुद्र तल से भी नीची हैं । स्कॉटलैंड की मध्यवर्ती घाटी, दक्षिण आस्ट्रेलिया की स्पेन्सर खाड़ी, भारत की नर्मदा, ताप्ती एवं ऊपरी दामोदर नदी घाटियाँ भी भ्रंश घाटियों के प्रमुख उदाहरण हैं ।
रैम्प घाटी (Ramp Valley) का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि दो भ्रंश रेखाओं के बीच का स्तंभ यथास्थिति में ही रहे परंतु संपीडनात्मक बल के कारण किनारे के दोनों स्तंभ ऊपर उठ जाएँ । असम की ब्रह्मपुत्र घाटी रैम्प घाटी का प्रमुख उदाहरण है ।
जब दो भ्रंशों के बीच का स्तंभ यथावत रहे एवं किनारे के स्तंभ नीचे धँस जाए तो ब्लॉक पर्वत (Block Mountain) का निर्माण होता है । भारत का सतपुड़ा पर्वत, जर्मनी का ब्लैक फॉरेस्ट व वॉस्जेज पर्वत, संयुक्त राज्य अमेरिका का वासाच रेंज व सिएर्रा नेवादा तथा पाकिस्तान का साल्ट रेंज ब्लॉक पर्वतों के प्रमुख उदाहरण हैं । सियरा नेवादा विश्व का सबसे विस्तृत ब्लॉक पर्वत है ।
जब दो भ्रंशों के किनारों के स्तंभ यथावत रहे एवं बीच का स्तंभ ऊपर उठ जाए तो हॉर्स्ट पर्वत (Horst Mountain) का निर्माण होता है । जर्मनी का हॉर्ज पर्वत इस प्रकार के पर्वत का प्रमुख उदाहरण है । वस्तुतः भ्रंश घाटी व रैम्प घाटी एवं ब्लॉक पर्वत व हॉर्स्ट पर्वत प्रायः एक से प्रतीत होते हैं । परंतु ये भूसंचलन की दृष्टि से अलग-अलग परिस्थितियों के परिणाम हैं ।