महासागर नीचे राहत के गुण | Attributes of Ocean Bottom Relief in Hindi!
महासागर नितल (Ocean Bottom Relief) में स्थल से भी अधिक उच्चावच (Relief) सम्बंधी विविधता है । ध्वनि गंभीरता मापी यंत्र (SONAR) की मदद से समुद्री गहराइयों का परोक्ष रूप से मापन कर इसका मानचित्रण संभव हुआ है । उच्चामिति वक्र (Hypsometric Curve) के विकास की दिशा में सर्वप्रथम प्रयास ‘कोसीना’ ने किया था ।
सामान्यतः महासागरीय नितल को चार मुख्य वर्गों में विभक्त किया जा सकता है । महाद्वीपीय निमग्न तट, महाद्वीपीय ढाल, महाद्वीपीय उत्थान एवं महासागरीय गहरे नितल मैदान । इनके अलावा अन्य प्रमुख जलमग्न लक्षण है- कटक, पहाड़ी, समुद्री पर्वत, गुयॉट (समतल शीर्ष वाले समुद्री पर्वत) खाइयाँ, कैनियन, गर्त, विभंग क्षेत्र ।
अनेकों द्वीप, प्रवाल वलय, प्रवाल भित्ति, जलमग्न ज्वालामुखी पर्वत इत्यादि जलमग्न लक्षणों की विविधता को और बढ़ाते हैं । विवर्तनिक, ज्वालामुखी अपरदनकारी और निक्षेपणकारी प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप ये तमाम विविधताएँ उत्पन्न हुई है । अधिक गहराई वाले भागों में विवर्तनिक व ज्वालामुखी प्रक्रियाएँ अधिक महत्वपूर्ण हैं ।
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महाद्वापीय निमग्न तट (Continental Shelf):
तट के समीपवर्ती उथले भाग को महाद्वीपीय निमग्न तट कहा जाता है । इसमें मुख्यतः स्थलीय निक्षेप जमा होते हैं । इसका ढाल 1० से 3० तक व गहराई 150 से 200 मी. तक होती है । इसकी औसत चौड़ाई 70 किमी. है परन्तु यह भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग चौड़ाई रखता है ।
उदाहरण के लिए, भारत के पूर्वी तट पर इसकी चौड़ाई 50 किमी. है, जो पश्चिमी तट की चौड़ाई का एक-तिहाई ही है । सामान्यतः पर्वतीय कटकों से युक्त तटवर्ती क्षेत्र अथवा सागरीय गर्तों के निकट इनकी चौड़ाई कम मिलती है । महाद्वीपीय निमग्न तट के उथले सागर मत्स्य ग्रहण के प्रमुख क्षेत्र हैं ।
डॉगर बैंक, जॉर्जेज बैंक आदि प्रमुख मत्स्य क्षेत्र इसी के अंतर्गत आते हैं । संसार का एक-चौथाई पेट्रोलियम व गैस यहीं से प्राप्त होता है । बालू व बजरी के भी ये विशाल भंडार है । सागरीय भाग के कुल 7.5% क्षेत्रफल पर यह विस्तृत है ।
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महाद्वीपीय ढाल (Continental Slop):
महाद्वीपीय ढाल वास्तव में महाद्वीपों की जलमग्न अंतिम सीमा है । इसका ढाल खड़ा है (औसतन 2० से 5० तक) जो महाद्वीपीय निमग्नतट और महासागरीय मैदान को जोड़ता है ।
महाद्वीपीय ढाल की गहराई 200 से 2,000 मी. तक होती है परन्तु कई बार यह 3,600 मी. से भी अधिक गहराई तक चली जाती है । समस्त सागरीय क्षेत्रफल के 8.5% भाग पर यह विस्तृत है । इन पर सागरीय निक्षेपों का अभाव मिलता है ।
महाद्वीपीय उत्थान (Continental Rise):
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जहाँ महाद्वीपीय ढाल का अन्त होता है, वहीं मंद ढाल वाले उत्थान की शुरुआत होती है । इनका ढाल 0.5० से 1.0० तक होता है व सामान्य उच्चावच काफी कम होता है । गहराई बढ़ने के साथ यह लगभग समतल होकर महासागर नितल मैदान में विलीन हो जाता है ।
महासागरीय नितल मैदान (Abyssal Plain):
महाद्वीपीय उत्थान के बाद मैदान सरीखा महासागरीय गहरे तल को नितल मैदान कहते हैं । इसकी गहराई 3,000 से 6,000 मी. तक होती है । ये महासागरीय क्षेत्र में लगभग 40% क्षेत्रों में विस्तृत हैं । प्रशांत महासागरीय क्षेत्र की तुलना में अटलांटिक महासागर में इसका विस्तार कम है, जिसका प्रमुख कारण अटलांटिक महासागर में महाद्वीपीय निमग्न तट का अधिक विस्तृत होना है ।
ये मैदान लगभग समतल हैं एवं इनकी ढाल प्रवणता 1:100 से भी कम है । इन पर स्थलजनित अवसाद व समुद्री जीवों के अस्थि-पंजर दोनों मिलते हैं । सामान्यतः नितल मैदान उन क्षेत्रों में अधिक पाए जाते हैं, जहाँ स्थलजनित अवसादों की आपूर्ति अधिक होती है । इन समुद्री मैदानों में कटक, ज्वालामुखी पर्वत, गाईऑट, गर्त, खाई, विभंग क्षेत्र जैसी विशेषताएँ भी मिलती हैं ।
जलमग्न कटक (Oceanic Ridges):
महासागरीय नितल पर कुछ सौ किमी. चौड़ी तथा सैकड़ों या हजारों किमी. लंबी पर्वत श्रेणियाँ होती है तथा ये पृथ्वी पर सबसे लंबे पर्वत-तंत्र का निर्माण करते हैं । जलमग्न पर्वत तंत्रों की कुल लंबाई 75,000 किमी. से भी अधिक है जो महासागरों के मध्य भाग में सबसे अधिक पाए जाते हैं । ये कटक मंद ढाल वाले पठार तीव्र ढाल वाले पर्वत दोनों रूपों में मिलते हैं ।
कहीं-कहीं ये समुद्री जलस्तर से ऊपर उठकर द्वीप बन जाते हैं, जैसे-एजोर्स द्वीप । इन विश्वव्यापी महासागरीय कटकों की व्याख्या प्लेट विवर्तनिकी सिद्धान्त द्वारा की जा सकती है । दो प्लेटों के अपसरण (Divergence) के कारण एस्थेनोस्फेयर से मैग्मा निकलने में इन समुद्री कटकों का निर्माण हुआ है ।
अटलांटिक व हिन्द महासागर में इन कटकों का अधिक विस्तार मिलता है । इन कटकों की लंबाई कई बार काफी अधिक होती है तथा इससे लंबी पर्वत शृंखलाओं का निर्माण होता है । उदाहरणतः मध्य भटलांटिक कटक की लंबाई लगभग 14,000 किमी. है ।
नितल पहाड़ियाँ (Abyssal Hills):
न्हासागरीय नितल पर हजारों एकाकी नितल पहाड़ियाँ, समुद्री पर्वत व गुयॉट हैं । वह जलमग्न पर्वत जिसका शिखर नितल से 1,000 मी. से अधिक ऊपर हो, समुद्री पर्वत कहा जाता है । सपाट शीर्ष वाले पर्वतों को गुयॉट कहते हैं ।
ये सभी आकृतियाँ ज्वालामुखी या प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न होती है तथा इनका संबंध प्लेट विवर्तनिकी से है । प्रशांत महासागर में समुद्रा पर्वत और गुयॉट अधिक पाए जाते हैं । यहाँ इनकी संख्या लगभग 10,000 है ।
जलमग्न खाइयाँ तथा गर्त (Submarine Trenches & Deeps):
ये गर्त महासागरों के सबसे गहरे भाग होते हैं । सामान्यतः ये 5,500 मी. से भी अधिक गहरे हैं और महासागरों के नितल के छोर पर स्थित होते हैं । इनकी उत्पत्ति भी विवर्तनिक है एवं ये प्रायः वलित पर्वतों या द्वीपीय शृंखलाओं के समानान्तर विनाशात्मक प्लेट किनारों पर मिलते हैं । ये प्रशांत महासागर में सबसे अधिक पाए जाते हैं ।
प्रशांत महासागर के पूर्वी व पश्चिमी छोरों पर खाइयों की एक लगभग शृंखला सी पाई जाती है । इनमें अल्युशियन ट्रेंच, क्युराइल ट्रेंच, जापान ट्रेंच, मिंडनाओ ट्रेंच, मैरियाना ट्रेंच पश्चिमी छोर पर एवं अटाकामा व टोंगा ट्रेंच पूर्वी छोर पर स्थित है ।
सबसे गहरा गर्त मैरियाना ट्रेंच है, जिसकी गहराई 11,034 मी. है । यह फिलीपींस में स्थित है । दक्षिणी पश्चिमी आस्ट्रेलिया के निकट डायमेंटीना व इंडोनेशिया के जावा द्वीप के निकट सुंडा गर्त हिन्द महासागर में स्थित गर्त है ।
जलमग्न कैनियन (Submarine Canyons):
महासागरीय नितल पर स्थित गहरे गॉर्ज को जलमग्न कैनियन कहते हैं । ये मुख्यतः महाद्वीपीय निमग्न तट, ढाल एवं उत्थान तक ही सीमित है । अंतः सागरीय कैनियन प्रायः तट के लम्बवत तथा बड़ी-बड़ी नदियों के मुहाने के सामने पाए जाते हैं । ये कंदराएँ नदी द्वारा निर्मित युवावस्था की घाटियों के समान होती है तथा इनकी गहराई अधिक होती है ।
जो कंदराएँ नदियों के मुहाने पर स्थित होती है, वे अधिक लम्बी होती है परन्तु उनका ढाल अपेक्षाकृत कम होता है; जैसे-कांगो कैनियन, हडसन कैनियन । अलास्का के पश्चिम में बेरिंग सागर में संसार के सबसे लम्बे कैनियन पाए जाते है, ये हैं- बेरिंग, प्रिबिलॉफ, जेमचुग । यहाँ सागरीय कैनियनों की गहराई 1,000 मीटर से 3,000 मीटर तक भी मिलती है ।
हिन्द महासागर में गंगा और खिन्धु के मुहाने के पास भी कंदराएँ मिलती है । यहाँ की सागरीय कंदराओं का निर्माण सेनोजोइक व क्वार्टनरी युग मे हुआ है । भू-संचलन के कारण क्वार्टरनरी युग की नदियों की घाटी के अवतलन तथा जलमग्न होने के कारण या प्लीस्टोसीन हिम युग में अपरदित घाटियों के निर्गमन व निमज्जन के फलस्वरूप निर्माण हुआ माना जाता है ।
तट, शोल, भिति (Coast, Shoal, Reefs):
ये क्रमशः अपरदन, निक्षेपण और जैविक प्रक्रियाओं से निर्मित होती है । ‘तट’ समतल शीर्ष वाले उत्थान होते हैं और महाद्वीपों के किनारे स्थित होते हैं । ये प्रमुख मत्स्यन क्षेत्र हैं, उदाहरणतः ग्रैंड बैंक, डॉगर बैंक । ‘शोल’ जलमग्न उत्थान का विलग भाग है । यहाँ जल की गहराई छिछली होती है, इसीलिए ये नौसंचालन के लिए खतरनाक होते हैं ।
‘भित्ति’ का निर्माण जैविक निक्षेपों से जुड़ा हुआ है । प्रवाल भित्तियाँ मुख्यतः प्रशांत महासागर की विशेषता है । आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड के समीप संसार की सबसे बड़ी प्रवाल भित्ति पाई जाती है । यह ‘ग्रेट बरियर रीफ’ के नाम से प्रसिद्ध है । अधिकतर भित्तियाँ नौसंचालन के लिए खतरनाक है, क्योंकि ये समुद्री जलस्तर तक या उसके ऊपर भी उठ जाती है ।
प्रशान्त महासागर का महासागरीय तल उच्चावच (Pacific Ocean Floor Mark):
इसकी आकृति त्रिभुजाकार है । यह अन्य सभी महासागरो से अधिक गहरा है । अधिकांश भागों की गहराई लगभग 7,300 मी. तक है । इसके चारों ओर की सीमाओं पर अनेक तटीय सागर और खाड़ियाँ हैं । इस विशाल महासागर में 20,000 से भी अधिक द्वीप है, परंतु इनका क्षेत्रफल काफी कम है । ये मुख्य स्थलखंड से पृथक हुए भाग हैं ।
महासागरों के मध्य स्थित द्वीप प्रवाल तथा ज्वालामुखी प्रक्रियाओं से निर्मित है । प्रशांत महासागर का उत्तरी आग सबसे गहरा है । इस भाग में बहुत अधिक संख्या में खाइयाँ व द्वीप मौजूद हैं, जिनकी उत्पति का संबंध प्लेट टेक्टॉनिक्स से है । अल्युशियन, क्युराइल, जापान, बेनिन, मेरियाना कुछ महत्वपूर्ण गर्तों हैं जिनकी गहराई 7,000 मी. से 10,000 मी. तक है ।
अधिकांश गर्त द्वीपीय क्षेत्रों के समीप मिलते हैं । मध्य भाग में अधिक संख्या में समुद्री पर्वत, गाइऑट आदि मिलते हैं । प्रशांत के दक्षिण पश्चिम में विभिन्न प्रकार के द्वीप, तटीय सागर, महाद्वीपीय मग्नतट तथा जलमग्न गर्त है । दक्षिण-पूर्व प्रशांत में चौड़े जलमग्न कटक तथा पठार है । अटाकामा एवं टोंगा खाई भी यहीं हैं, जिसकी गहराई क्रमशः 8,000 मी. व 9,000 मी. है ।
अटलांटिक महासागर का तल उच्चावच (Atlantic Ocean Floor Mark):
इसकी आकृति अंग्रेजी के एस (S) अक्षर से मिलता है । इसके चारों ओर विभिन्न चौड़ाइयों वाली महाद्वीपीय मग्नतट स्थित है । अफ्रीका के तट के समीप इसकी चौड़ाई 80 से 160 कि.मी. तक है किन्तु उत्तर-पूर्व अमेरिका और उत्तर-पश्चिमी यूरोप के तटों के समीप इसकी चौड़ाई 250 से 400 किमी. तक है ।
अटलांटिक महासागर के दोनों किनारों पर विशेषकर उत्तरी भाग मे अनेक तटीय सागर है जो मग्न तटों पर स्थित है उदाहरणतः हडसन की खाड़ी, बाल्टिक सागर, उत्तरी सागर आदि ।
अटलांटिक महासागर का मुख्य आकर्षक लक्षण मध्य अटलांटिक कटक है । यह एस (S) अक्षर की आकृति बनाते हुए उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है तथा अटलांटिक को अपने दोनों ओर दो गहरे बेसिनों में बाँटता है । यह कटक 14,000 किमी. लंबा तथा लगभग 4,000 मी. ऊँचा है । इसकी उत्पत्ति का संबंध भी प्लेट टेक्टोनिक्स की रचनात्मक प्रक्रिया से जोड़ा जाता है ।
कटक के दोनों ओर की ढालें बहुत ही मंद है । यद्यपि यह जलमग्न कटक है परन्तु इसकी अनेक चोटियाँ महासागरीय जल-स्तर से ऊपर निकली हुई है । वास्तव में ये चोटियाँ ही मध्य अटलांटिक के द्वीप है । एजोर्स का पाइको द्वीप तथा केप वर्डे द्वीप इसके उदाहरण हैं ।
इसके अलावा बरमुडा जैसे कुछ प्रवाल द्वीप तथा असेंसन, त्रिस्ता-दि-कुन्हा, सेंट हेलेना और गुआ सरीखे अनेक ज्वालामुखी द्वीप भी है । गर्त और द्रोणियाँ जो कि विनाशात्मक प्लेट होने के कारण प्रशांत महासागर की प्रमुख विशेषताएँ हैं, अटलांटिक महासागर में बहुत त्रक्म पाई जाती हैं । यहाँ उत्तरी केमन तथा पोर्टोरिको नामक दो द्रोणियाँ एवं रोमांश और दक्षिणी सैंडविच नामक दो गर्तें हैं ।
हिन्द महासागर का तल-उच्चावच (Indian Ocean Floor Mark):
इसे अर्द्धमहासागर भी कहा जाता है । इसका उत्तरी किनारा बहुत ही कटा-फटा है । औसत गहराई अपेक्षाकृत कम लगभग 4,000 मी. है । नितल पर असमानताएँ भी कम है ।
गर्त सामान्यतः नहीं मिलते, सुंडा गर्त व डायमेंटिना गर्त इसके अपवाद हैं । जावा द्वीप के दक्षिण व उसके समानांतर स्थित सुंडा गर्त है । डायमेंटिना गर्त दक्षिणी-पूर्वी आस्ट्रेलियन बेसिन में स्थित है तथा यह सुंडा गर्त से भी गहरा है ।
हिन्द महासागर के नितल पर अनेक चौड़े जलमग्न कटक है । अटलांटिक महासागर की तरह इसमें भी कन्याकुमारी से लेकर अंटार्कटिका तक लगातार एक जलमग्न कटक है तथा हिन्द महासागर को अपने दोनों ओर लगभग दो बराबर बेसिनों में विभक्त करता है । यह अटलांटिक कटक से चौड़ा है परन्तु समुद्री जलस्तर के उतने निकट तक नहीं पहुँचता ।
हाल ही में एक नए कटक कार्ल्सबर्ग कटक का पता चला है, जो अरब सागर को लगभग दो बराबर भागों में बाँटता है । विभिन्न कटक हिन्द महासागर को अनेक बेसिनों में बाँटते हैं । हिन्द महासागर में स्थित अधिकांश द्वीप महाद्वीपीय खंडों से टूटकर अलग हुए भाग हैं, उदाहरणतः अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, श्रीलंका, मेडागास्कर व जंजीबार आदि ।
भारत के दक्षिण पश्चिम तट के समीप लक्षद्वीप व मालदीव प्रवाल द्वीपों के उदाहरण हैं । मॉरीशस व रीयूनियन द्वीप ज्वालामुखी प्रक्रिया के उदाहरण हैं । हिन्द महासागर के पूर्वी भाग में अपेक्षाकृत काफी कम द्वीप हैं ।