महासागर लवणता: अर्थ और वितरण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. Meaning of Ocean Salinity 2. Factors Controlling Salinity 3. Distribution.
सागरीय लवणता का अर्थ (Meaning of Ocean Salinity):
सागरीय जल के भार एवं उसमें घुले हुए पदार्थों के भार के अनुपात को सागरीय लवणता कहते हैं । सागरीय लवणता को प्रति हजार ग्राम जल में उपस्थित लवण की मात्रा (%०) के रूप में दर्शाया जाता है, जैसे 30%० का अर्थ है 30 ग्राम प्रति हजार ग्राम । समान लवणता वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को समलवण रेखा (Isohaline) कहते हैं ।
लवणता या खारापन को लवणता मापी (Salino Nactor) यंत्र द्वारा मापा जाता है । सागरीय लवणता का प्रभाव लहर, धाराओं, तापमान, मछलियों, सागरीय जीवों, प्लैंक्टन सभी पर पड़ता है । अधिक लवणयुक्त सागर देर से जमता है । लवणता के अधिक होने पर वाष्पीकरण न्यून होता है तथा जल का घनत्व बढ़ता जाता है ।
1884 ई. में चैलेंजर-अन्वेषण के समय डिटमार ने सागर में 47 प्रकार के लवणों का पता लगाया, जिनमें 7 प्रकार के लवण सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं ।
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विभिन्न सागरों में लवणता की मात्रा 33%० से 37%० के बीच रहती है । महासागरों की औसत लवणता 35%० है । परन्तु प्रत्येक महासागर, झील आदि में लवणता की मात्रा अलग-अलग पायी जाती है । नदियाँ लवणता को सागर तक पहुँचाने वाले कारकों में सर्वप्रमुख है ।
परन्तु नदियों द्वारा लाए गए लवणों में कैल्शियम की मात्रा 6% होती है जबकि सागरीय लवणों में सोडियम क्लोराइड लगभग 78% होता है । नदियों के लवण में सोडियम क्लोराइड मात्र 2% होता है । वस्तुतः नदियों द्वारा लाए गए कैल्शियम की अधिकांश मात्रा का सागरीय जीव तथा वनस्पतियाँ प्रयोग कर लेती हैं ।
लवणता के नियंत्रक कारक (Factors Controlling Ocean Salinity):
लवणता की मात्रा को नियंत्रित करने वाले कारकों में वाष्पीकरण, वर्षा, नदी के जल का आगमन, पवन, सागरीय धाराएँ तथा लहरें आदि प्रमुख हैं । सामान्य रूप से वर्षा के कारण लवणता घटती है जबकि वाष्पीकरण के फलस्वरूप सागरीय लवणता में वृद्धि होती है ।
बड़ी नदियों के जल के महासागरों में आने पर तटीय जल की लवणता में कमी होती है । सागरीय हिम के पिघलने पर लवणता में कमी आती है । उच्च वायुदाब एवं प्रतिचक्रवातीय दशाओं के कारण लवणता में वृद्धि होती है । जबकि, प्रचलित हवाओं एवं महासागरीय धाराओं के कारण सागरीय लवणता में क्षेत्रीय भिन्नता आती है ।
लवणता का वितरण (Distribution of Ocean Salinity):
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भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर सामान्य रूप में लवणता की मात्रा में कमी आती है । भूमध्यरेखा पर उच्चतम लवणता नहीं मिलती क्योंकि यद्यपि यहाँ उच्च वाष्पीकरण होता है परन्तु यहाँ होने वाली वर्षा यहाँ की लवणता को कम कर देती है । उच्चतम लवणता उत्तरी गोलार्द्ध में 20०-40० अक्षांशों व दक्षिण गोलार्द्ध में 10०-30० अक्षांशों के मध्य पायी जाती है ।
लवणता के लंबवत् वितरण में भी भिन्नता देखी जाती है । उच्च अक्षांशों में गहराई के साथ लवणता बढ़ता है, मध्य अक्षांशों में 200 फैदम (1 फैदम = 6 फीट) तक लवणता बढ़ती है, फिर घटने लगती है । भूमध्यरेखा पर गहराई के साथ लवणता बढ़ती जाती है पुनः अधिक गहराई में जाने पर घटने लगती है ।
अंतर्देशीय सागरों तथा झीलों में लवणता (Salinity in Inland Sea and Lakes):
कैस्पियन सागर के उत्तरी भाग में लवणता 14%० पायी जाती हैं क्योंकि वोल्गा, यूराल आदि नदियों द्वारा स्वच्छ जल की आपूर्ति होती रहती है । द. भाग में काराबुगास की खाड़ी में लवणता 170%० पाई जाती है । संयुक्त राज्य अमेरिका की वृहद् खारी झील (Great Salt Lake) में लवणता 22%० जॉर्डन के मृत सागर (Dead Sea) में 238%० तथा टर्की के वॉन झील में 33%० है ।
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महासागरीय निक्षेप (Ocean Deposit):
महासागरीय नितल पर अवसादों के जमाव को महासागरीय निक्षेप कहते हैं । मर्रे ओर रेनार्ड ने इसके विषय में विशेष जानकारी दी है ।
ये अवसाद मुख्यतः चार स्रोतों से प्राप्त होते हैं:
1. स्थलीय या भूमिज (Terrestrial or Terraneous):
ये स्थलीय भाग के अपरदन व अपक्षयण से प्राप्त पदार्थ हैं । सागर की ओर इनके कणों का आकार घटता चला जाता है । इन्हें बजरी, रेत व पंक तीन प्रकारों में विभक्त करते हैं । पंक (Mud) भी रंग के अनुसार नीले, लाल व हरे रंग के होते हैं । इनमें चूने की मात्रा अधिक (Calcarious) होती है ।
रंगों के आधार पर यह वर्गीकरण जॉन मर्रे द्वारा किया गया है । नीले पंक में लौह सल्फाइड एवं लौह-ऑक्साइड (Fe3O4), लाल पंक में लौह-ऑक्साइड (Fe2O3) तथा हरा पंक में लौह-सिलिकेट (ग्लूकोनाइट) की अधिकता होती है । यह खनिज ही इनके रंगों के निर्धारक हैं ।
2. ज्वालामुखी पदार्थ (Volcanic Substance):
ज्वालामुखी उद्भेदन के फलस्वरूप निकले ये भूरे या काले पदार्थ हैं ।
3. जैविक पदार्थ (Organic Substance):
इसे कार्बनिक पदार्थ भी कहा जाता है । इसमें सागरीय जीवों के अस्थिपंजर व वनस्पतियों के अवशेष आते हैं ।
इनके दो वर्ग हैं:
a. नैरेटिक या तट तलवासी जीवों के अवशेष जिसमें चूना की प्रधानता होती है ।
b. पेलाजिक या अगाध सागरस्थ पदार्थ । इन्हें सिंधुपंक या ऊज (Ooze) कहा जाता है । ये 1000 फैदम या अधिक गहराई पर मिलते हैं ।
चूना व सिलिका की मात्रा के आधार पर इन्हें दो उप-प्रकारों में विभक्त करते हैं:
i. चूना प्रधान ऊज (Calcareous Ooze):
a. टेरापोड ऊज
b. ग्लोबेजेरिना ऊज
ii. सिलिका प्रधान ऊज (Siliceous Ooze):
a. रेडियोलेरियन ऊज
b. डायटम ऊज
ये सभी नाम उन जीवों व वनस्पतियों के है जिनके अवशेष से ये निर्मित है ।
4. अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Material):
पेलाजिक निक्षेपों में लाल मृत्तिका सबसे महत्वपूर्ण है । इसमें अल्युमिनियम के सिलिकट एवं लोहे के आक्साइड सर्वाधिक मात्रा में होते हैं । प्रायः सभी सागरों के गहनतम भागों में लाल मृत्तिका पाई जाती है । यह महासागरों के लगभग 38% भाग में फैली है । प्रशांत महासागर के आधे से अधिक नितल को यह ढँके हुए है ।
प्रवाल भित्तियाँ (Coral Reefs):
ये अत्यधिक जैव-विविधतापूर्ण अंतः सागरीय स्थलाकृतियाँ हैं जिनका निर्माण मूंगा या कोरल पॉलिप (Coral Polyps) नामक समुद्री जीवों के अस्थिपंजरों से हुआ है । ये चूना प्रधान चट्टानें है ।
प्रवाल-भित्तियों का निर्माण उष्णकटिबंधीय सागरों (25०N – 25०S) में किसी द्वीप या तट के सहारे 200 से 300 फीट की गहराई में स्थित अंतःसागरीय चबूतरों पर होती है जहाँ सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में पहुँचता है ।
इनके विकास के लिए 20०-25०C औसत तापमान चाहिए । अधिक लवणता व पूर्ण स्वच्छ जल दोनों ही इनके विकास के लिए नुकसानदेह है । प्रवाल के समुचित विकास के लिए औसत सागरीय लवणता 25%० से 30%० होनी चाहिए । सागरीय तंरगें व धाराएँ प्रवालों के विकास के लिए लाभदायक है ।
प्रवाल भित्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं:
i. तटीय प्रवाल भित्ति (Fringing Reef):
यह तट के साथ-साथ बनी प्रवाल भित्तियाँ हैं । उदाहरण के लिए भारत में मन्नार की खाड़ी, यू.एस.ए. में दक्षिणी फ्लोरिडा आदि ।
ii. अवरोधक प्रवाल भित्ति या प्रवाल रोधिका (Barrier Reef):
ये तट से कुछ दूर पर पायी जाने वाली प्रवाल भित्तियाँ हैं । बीच के भागों में इनमें लैगून झील मिलती है । आस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्वी तट के समीप स्थित ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ संसार की सबसे लम्बी प्रवाल रोधिका है । यह 1,200 मील की लम्बाई में फैला हुआ है ।
iii. प्रवाल वलय या एटॉल (Coral Ring or Atoll):
यह किसी द्वीप या तट को प्रवाल भित्तियों द्वारा चारों ओर से घेरे हुए होता है । जैसे- फिजी एटॉल, फुनाफुटी एटॉल आदि ।
प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत:
i. डार्विन का अवतलन सिद्धांत (Subsidence Theory)
ii. मरे का स्थिर स्थल सिद्धांत (Stable Land Theory)
iii. डेली का हिमानी नियंत्रण सिद्धांत (Glacial Control Theory)
iv. डेविस ने अपनी पुस्तक The Coral Reef Problem में प्रवाल भित्तियों से सम्बंधित 12 सिद्धांतों का विवेचन कर डार्विन के सिद्धांत को सर्वाधिक उपयुक्त बतलाया, परंतु उसे डेली के सिद्धांत के साथ मिला कर देखने का समर्थन किया ।
प्रवाल विरंजन (Coral Bleaching):
प्रवाल जीवों का जुक्सैनथैले नामक सूक्ष्मदर्शी शैवालों से सहजीवी संबंध होता है । ये शैवाल प्रकाश संश्लेषण की क्रिया करते है तथा इनसे प्राप्त पोषक पदार्थों से प्रवालों के विकास में मदद मिलती है ।
परंतु जब तापमान वृद्धि, एलनीनो परिघटना अवसाद व गाद जमा होने, समुद्री प्रदूषण व प्रवालों में संक्रामक रोग होने से जुक्सैनथैले शैवाल समाप्त होने लगते हैं या उनमें प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित होने लगती है तो शैवाल का रंग श्वेत हो जाता है जिसे प्रवाल विरंजन कहते है । यह अंततः प्रवाल विनाश की दशा का निर्माण करते है ।
प्रवाल विरंजन की घटना का अल्फ्रेड मेयर द्वारा 1919 में ही अवलोकन कर लिया गया था, परन्तु इस प्रक्रिया तथा घटना के प्रति विश्व के विज्ञानियों का ध्यान 1998 में आकर्षित हुआ जबकि केन्या तट के पास तथा हिन्दमहासागर के द्वीपों (यथा-अण्डमान-मालदीव लक्षद्वीप आदि) के 70% से अधिक प्रवालों की मौत हो गई ।
1997-98 में आया एलनिनो परिघटना के कारण पूरे विश्व मे प्रवाल विरंजन की अभूतपूर्व घटनाएँ हुई, जिनमें प्रवाल भारी मात्रा में नष्ट हो गए । इसे प्रवाल विनाश (कोरल कैटास्ट्रॉफे) की संज्ञा दी गई । भूमण्डलीय ताप वृद्धि को प्रवाल विंरजन का प्रमुख कारण चिह्नित किया गया है ।
समुद्री सतह के तापमान बढ़ने, सौर विकिरण, गाद जमा होने, प्रवालों में ब्लैक बैंड रोग व कोरल प्लेग, जेनोबाइटिक्स उपवायव (सब एरियल), अकार्बनिक पोषक तत्वों, मीठे जल के सम्पर्क के कारण जल की सान्द्रता कम होने, एपिजूटिक्स सहित प्रवाल पर्यावरण में मानव जनित और प्राकृतिक परिवर्तनों के कारण प्रवाल भित्ति का विरंजन होता है । प्रवाल विनाश को रोकने के लिए तापमान वृद्धि व समुद्री प्रदूषण पर नियंत्रण अत्यधिक जरूरी है ।