Read this article in Hindi to learn about the system of administration of India under Mughal empire during medieval period.

गुजरात-विजय के बाद के दशकों में अकबर को साम्राज्य की प्रशासनिक समस्याओं पर ध्यान देने का समय मिला । शेरशाह ने प्रशासन की जो व्यवस्था तैयार की थी वह इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद छिन्न-भिन्न हो चुकी थी । इसलिए अकबर को यह काम नए सिरे से करना पड़ा ।

मालगुजारी प्रशासन की व्यवस्था अकबर के सामने मौजूद सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं में एक थी । शेरशाह ने ऐसी एक व्यवस्था बनाई थी जिसमें कृषि-क्षेत्र की पैमाइश की जाती थी और फसल-दर (रेट) तय की जाती थी, जिसके आधार पर एक किसान को भूमि की उत्पादकता के आधार पर फसलवार मालगुजारी देनी पड़ती थी ।

इस सूची को हर साल एक केंद्रीय मूल्य-सूची में परिवर्तित किया जाता था । अकबर ने शेरशाह वाली व्यवस्था को अपनाया । पर जल्द ही पता चला कि केंद्रीय मूल्य-सूची के निर्धारण में अकसर अच्छी-खासी देरी होती थी और किसानों को भी इससे कष्ट पहुँचता था क्योंकि निर्धारित मूल्य सामान्यत: राजधानी में प्रचलित मूल्य होते थे और देहातों वाले मूल्यों से अधिक होते थे । इसलिए किसानों को अपनी उपज का अधिक बड़ा भाग देना पड़ता था ।

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अकबर ने पहले वार्षिक आकलन की व्यवस्था अपनाई । कानूनगो लोगों को, जो पुश्तैनी भूस्वामी और स्थानीय दशाओं से सुपरिचित स्थानीय स्तर के अधिकारी होते थे वास्तविक उपज काश्त की हालत स्थानीय मूल्यों आदि की सूचना देने का आदेश दिया गया । लेकिन बहुत-से कानूनगो बेईमान थे और वे वास्तविक उपज को छिपाते थे ।

वार्षिक आकलन के कारण किसानों को बहुत मुश्किलें उठानी पड़ती थीं और राज्य को भी । गुजरात से वापसी (1573) के बाद अकबर ने मालगुजारी व्यवस्था पर स्वयं ध्यान दिया । पूरे उत्तर भारत में करोड़ो कहलाने वाले अधिकारी नियुक्त किए गए ।

वे एक करोड़ दाम (ढाई लाख रुपए) की वसूली के लिए जिम्मेदार बनाए गए और वे कानूनगो लोगों के आंकड़ों और तथ्यों की जाँच भी करते थे । वास्तविक उपज स्थानीय मूल्यों उत्पादकता आदि के बारे में उनकी सूचनाओं के आधार पर अकबर ने दहसाला नामक एक नई व्यवस्था का गठन किया ।

इस व्यवस्था में पिछले दस दह साल में विभिन्न फसलों की औसत उपज और उनके औसत मूल्यों का हिसाब लगाया गया । औसत उपज का एक तिहाई भाग राज्य का हिस्सा तय किया गया लेकिन राज्य की माँग नकद के रूप में पेश की जाती थी । इस पिछले दस वर्षो के औसत मूल्यों की एक सूची के आधार पर उपज में राज्य के हिस्से को नकद में तब्दील करके किया गया । लेकिन औसत मूल्यों के आधार पर राज्य के हिस्से को रुपये प्रति बीघा में व्यक्त किया गया ।

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बाद में एक और सुधार किया गया । न सिर्फ स्थानीय मूल्यों का हिसाब रखा जाने लगा बल्कि एक जैसी उत्पादकता वाले परगनों को मालगुजारी के अलग-अलग हलकों में समूहबद्ध कर दिया गया । इस तरह किसानों से अब स्थानीय उत्पादकता और स्थानीय मूल्यों के आधार पर मालगुजारी देने की अपेक्षा की जाने लगी ।

इस व्यवस्था के अनेक लाभ थे । बाँस के डंडों में लोहे के छज्जे लगाकर किसानों की बोई गई जमीन का क्षेत्रफल जैसे ही माप लिया जाता था किसानों को और राज्य को पता चल जाता था कि देय मालगुजारी कितनी है । सूखा बाढ़ आदि के कारण फसल बरबाद होने पर किसान को मालगुजारी में रियायत दी जाती थी ।

पैमाइश की इस प्रणाली और उस पर आधारित आकलन को जब्ती प्रणाली कहते हैं । अकबर ने इस व्यवस्था को लाहौर से लेकर इलाहाबाद तक के क्षेत्र में तथा मालवा और गुजरात में लागू किया । दहसाला प्रणाली इसी जब्ती प्रणाली का और भी सुधरा रूप था ।

अकबर ने आकलन की दूसरी अनेक विधियों को भी अपनाया । सबसे आम और संभवत सबसे पुरानी व्यवस्था को बँटाई या गल्ला-बख्शी कहते थे । इस व्यवस्था में फसल को किसान और राज्य के बीच एक निश्चित अनुपात में बाँटा जाता था । फसल का बँटवारा भूसी अलग करने के बाद या काटकर गट्‌ठर बनाए जाने के बाद या उसके खेत में खड़ी रहते ही हो जाता था । इस व्यवस्था को बहुत न्यायोचित माना जाता था पर इसमें फसल के पकते समय या कटाई के समय ईमानदार कारिंदों की एक फौज की आवश्यकता होती थी ।

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किसानों को जब्ती और बटाई में चयन की अनुमति थी पर कुछ शर्तो के साथ । मसलन यह चयन तभी संभव था जब फसल तबाह हो गई हो । बँटाई व्यवस्था में किसान को नकद या उपज के रूप में भुगतान की स्वतंत्रता थी हालांकि राज्य नकदी को वरीयता देता था । कपास, नील, तिलहन, गन्ना आदि फसलों के मामले में राज्य हमेशा नकद भुगतान की माँग करता था । इसीलिए इन्हें नकदी फसल कहा जाता था ।

अकबर के समय में व्यापक रूप से प्रचलित एक तीसरी व्यवस्था नसक की थी । लगता है इसमें किसान अतीत में जो राशि दे रहा था, उसी के आधार पर उसके लिए देय राशि का एक कामचलाऊ हिसाब लगाया जाता था । इसलिए कुछ आधुनिक इतिहासकारों का विचार है कि यह आकलन की एक भिन्न विधि न होकर किसान के पिछले देय राशि की गणना करने की एक व्यवस्था मात्र थी ।

दूसरों का मत है कि यह फसलों के निरीक्षण और पिछले अनुभव दोनों के आधार पर कामचलाऊ हिसाब लगाने तथा उस आधार पर पूरे गाँव की मालगुजारी तय करने की व्यवस्था थी । इसे कनकूत अर्थात आकलन भी कहा जाता है ।

कुछ क्षेत्रों में आकलन की अन्य स्थानीय विधियों भी जारी रहीं । उदाहरण के लिए कश्मीर में पैदावार का अनुमान गधा पर लदाई के आधार पर किया जाता था । मालगुजारी तय करते समय कृषि की निरंतरता का ध्यान रखा जाता था । लगभग हर साल जुताई की जाने वाली जमीन को पोलज कहते थे ।

जब इस पर खेती नहीं होती थी तो यह परती कहलाती थी । परती जमीन पर जब खेती होती थी तो पूरी (पोलज वाली) मालगुजारी देनी पड़ती थी । दो या तीन साल से परती पड़ी जमीन चाचड़ तथा उससे अधिक समय वाली जमीन बंजर कहलाती थी । उनका आकलन रियायती दरों पर किया जाता था तथा मालगुजारी की माँग धीरे-धीरे बढ़ती जाती थी, जब तक कि पाँचवें या आठवें वर्ष में वह पोलज वाली पूरी दर तक न पहुंच जाए ।

इस तरह अछूती और बिना जुताई वाली बंजर जमीन को जुताई में लाने में राज्य सहायता देता था । जमीनों को आगे अच्छी, मझोली और खराब में बाँटा गया था । औसत उपज का एक-तिहाई भाग राज्य की माँग होता था । पर जमीन की उत्पादकता के हिसाब से यह कम या ज्यादा हो सकता था । इस प्रकार राजस्थान के रेतीले स्थलों पर या सिंध में मालगुजारी एक-चौथाई होती थी । कश्मीर के केसर वाले क्षेत्र में पैदावार की आधी की माँग थी ।

कृषि के सुधार और प्रसार में अकबर की गहरी दिलचस्पी थी । उसने आमिलों को किसानों के साथ पिता समान व्यवहार करने का आदेश दिया था । वह जरूरत के समय किसानों को बीज, औजार, मवेशी आदि के लिए तकावी (कर्ज) के रूप में धन देता था और आसान किस्तों में वापस लेता था । उसका काम किसानों को अधिक से अधिक भूमि जोतने और उम्दा किस्म की फसल बोने के लिए प्रेरित करना था ।

क्षेत्र के जमींदारों को भी इस कार्य में सहयोग देने के लिए कहा गया । जमींदार को फसल में एक हिस्सा पाने का पुश्तैनी अधिकार था । किसानों को भी अपनी जमीन जोतने-बोने का पुश्तैनी अधिकार था और जब तक वे मालगुजारी देते रहते तब तक उन्हें जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था ।

दहसाला कोई दस वर्षीय बंदोबस्त नहीं था । न ही यह एक स्थायी बंदोबस्त था । राज्य को इसमें संशोधन करने का अधिकार था । लेकिन कुछ परिवर्तनों के साथ अकबर का बंदोबस्त सत्रहवीं सदी के अंत तक मुगल साम्राज्य की मालगुजारी व्यवस्था का आधार बना रहा ।

जब्ती व्यवस्था को राजा टोडरमल से जोड़ा जाता है और कभी-कभी इसे टोडरमल का बंदोबस्त भी कहा जाता है । टोडरमल एक प्रतिभाशाली राजस्व प्रशासक था जो पहले शेरशाह की सेवा में था । किंतु वह उन प्रतिभाशाली राजस्व अधिकारियों के दल में मात्र एक था जो अकबर के काल में सामने आए । दहसाला व्यवस्था इन सभी लोगों के मिले-जुले परिश्रम का परिणाम थी ।

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