Read this essay in Hindi to learn about the reasons which forced Akbar to interfere in Deccan during his rule.
बहमनी साम्राज्य के विघटन के बाद तीन नए शक्तिशाली राज्य रंगमंच पर उभरे, अर्थात अहमदनगर बीजापुर और गोलकुंडा और उन्होंने मिलकर 1565 में तलीकोट के पास बन्नीहट्टी की लड़ाई में विजयनगर को कुचल डाला । इस विजय के बाद दकनी राज्य अपने पुराने रंगढंग में आ गए ।
अहमदनगर और बीजापुर दोनों ने शोलापुर पर दावा किया जो एक समृद्ध और उपजाऊ क्षेत्र था । दोनों के बीच यह मुद्दा न तो युद्धों से सुलझा और न विवाह संबंधों से । दोनों राज्यों की महत्वाकांक्षा बीदर को जीतने की थी । अहमदनगर उत्तर में बरार को भी हथियाना चाहता था । वास्तव में, पुराने बहमनी सुल्तानों के उत्तराधिकारियों के रूप में दकन में अहमदनगर के निजामशाह ने वर्चस्ववादी न सही श्रेष्ठ स्थिति का दावा अवश्य किया ।
उनके भूभाग संबंधी दावों का बीजापुर ने ही नहीं गुजरात के शासकों ने भी विरोध किया जो बरार के अलावा समृद्ध कोंकण क्षेत्र पर आँखें गड़ाए हुए थे । गुजरात के शासकों ने अहमदनगर के खिलाफ बरार की सक्रिय सहायता की और अहमदनगर से एक लड़ाई तक लड़ी ताकि दकन में मौजूद शक्ति संतुलन में गड़बड़ न हो । नलदुर्ग पर अधिकार के लिए बीजापुर और गोलकुंडा में टकराव हुआ ।
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1572 में मुगलों द्वारा गुजरात की विजय ने एक नई स्थिति पैदा कर दी । गुजरात की विजय मुगलों द्वारा दकन की विजय की भूमिका भी हो सकती थी । पर अकबर कहीं और व्यस्त था और उस समय दकन के मामलों में हस्तक्षेप करना नहीं चाहता था । बरार पर कब्जे के लिए अहमदनगर ने इस स्थिति का लाभ उठाया ।
वास्तव में, अहमदनगर और बीजापुर ने एक समझौता किया था जिसके अनुसार बीजापुर विजयनगर की कीमत पर दक्षिण में अपने क्षेत्र को बढ़ाने के लिए स्वतंत्र था जबकि अहमदनगर ने बरार को रौंद डाला । गोलकुंडा भी विजयनगर की कीमत पर अपने क्षेत्रों का प्रसार करना चाहता था । विजयनगर तब छोटे-छोटे नायकों के बीच बँट चुका था ।
इस तरह सभी दकनी राज्य प्रसारवादी थे । दकन के मामलों में मराठों की बढ़ती अहमियत इस स्थिति की एक और विशेषता थी । जैसा कि बताया गया बहमनी सल्तनत में मराठा दस्तों को हमेशा ढीले-ढाले सहायक दस्तों के अर्थात बारगीरों के रूप में नौकरी दी जाती थी (प्राय: ये बर्गी कहलाते थे) |
स्थानीय स्तर पर मालगुजारी के मामले दकनी ब्राह्मणों के हाथों में थे । बहमनी सुल्तानों की सेवा में जो मराठा परिवार ऊपर उठे तथा मनसब और जागीरें प्राप्त कीं उनमें मोटे निंबलकर घाटगे आदि प्रमुख थे । उनमें से अधिकांश शक्तिशाली जमींदार अर्थात दकन की भाषा में देशमुख थे ।
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लेकिन राजपूतों के विपरीत उनमें से कोई भी स्वतंत्र शासक न था न ही कोई बड़े राज्य का शासक था । दूसरे वे वंशों के प्रमुख न थे कि उनकी सहायता और समर्थन पर वे निर्भर रह सकते हों । इसीलिए अनेक मराठा सरदार दुस्साहसी सैनिक की तरह व्यवहार करते थे जो बहती हवा के अनुसार अपनी वफादारी बदलने के लिए तैयार रहते थे ।
फिर भी मराठे पश्चिमी दकन में भूस्वामी अभिजात वर्ग की रीढ़ की हड्डी थे और उनकी स्थिति उत्तर भारत के बड़े-बड़े भागों में राजपूतों की स्थिति से मिलती-जुलती थी । सोलहवीं सदी के मध्य तक दकनी राज्यों के शासक मराठों को अपनी ओर लाने की एक सुनिश्चित नीति अपनाने लगे थे । दकन के तीनों अग्रणी राज्यों में मराठा सरदारों को सेवा और पद प्रदान किए गए ।
बीजापुर का इब्राहीम आदिलशाह जो 1595 में गद्दी पर बैठा इस नीति का अग्रणी पैरोकार था । कहते हैं कि उसने अपनी सेना में 30,000 मराठा सहायक सैनिक (बर्मी) भरती किए थे और राजस्व व्यवस्था में मराठों पर बहुत अनुग्रह दिखाता था । माना जाता है कि सभी स्तरों पर राजस्व के दस्तावेजों में मराठी को उसी ने शामिल किया था ।
पुराने परिवारों पर अधिक अनुग्रह दिखाने के अलावा उसकी नीति के कारण बीजापुर में कुछ दूसरे परिवार भी ऊपर उठे जैसे भोंसले जिनका पारिवारिक नाम घोड़पड़े डफले (अर्थात चह्वान) आदि था ।
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कूटनीतिक वार्ताओं के लिए भी महाराष्ट्री ब्राह्मणों का नियमित उपयोग होने लगा । उदाहरण के लिए, अहमदनगर के शासकों ने पेशवा का पद कनकोजी नरसी नामक एक ब्राह्मण को दिया । अहमदनगर और गोलकुंडा राज्यों में भी मराठों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
इस तरह दकनी शासकों ने सैनिक रुझान वाले वर्गों तथा स्थानीय भूस्वामी वर्ग को अपने साथ जोड़ने की नीति का आरंभ किया-अकबर के काल में मुगलों ने इस नीति को जब क्रियान्वित किया था उससे भी पहले ।
दक्षिण की ओर मुगलों की अग्रगति | Progress of Mughal towards South:
उत्तर भारत में साम्राज्य के मजबूत होने के बाद तार्किक रूप से यही आशा की जा सकती थी कि मुगल अब दक्षिण की ओर बढ़ेंगे । वैसे तो विंध्य पर्वतमाला उत्तर और दक्षिण भारत को विभाजित करती थी पर यह कोई ऐसी बाधा नहीं थी जो पार न की जा सके ।
यात्री, सौदागर, तीर्थयात्री और घुमक्कड़ संत हमेशा उत्तर और दक्षिण भारत आते-जाते रहते थे और इस तरह देश में सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देते थे, हालांकि दोनों की अपनी-अपनी सुस्पष्ट सांस्कृतिक विशेषताएँ थीं ।
तुगलकों द्वारा दकन की विजय तथा उत्तर-दक्षिण के बीच संचार में सुधार के कारण दोनों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध मजबूत हुए । दिल्ली सल्तनत के पतन के बाद अनेक सूफ़ी संत और रोजगार के इच्छुक व्यक्ति बहमनी सुलानों के दरबार में आ गए । राजनीतिक दृष्टि से भी उत्तर और दक्षिण भारत अलग-अलग नहीं थे ।
पश्चिम में गुजरात और मालवा तथा पूरब में उड़ीसा के शासक बराबर दक्षिण भारत की राजनीति में दखल देते रहे । इसलिए 1560 के दशक में और 1570 के बाद के वर्षों में मालवा और गुजरात विजय के बाद मुगल दकन की राजनीति से अपने आपको शायद ही अलग रख सकते थे ।
1576 में एक मुगल सेना ने खानदेश पर हमला किया और वहाँ के शासक को अधीनता मानने पर मजबूर कर दिया । लेकिन जरूरी कारणों से अकबर को कहीं और जाना पड़ा । 1586 और 1598 के बीच 12 वर्षो तक उत्तर-पश्चिम की स्थिति पर नजर रखते हुए अकबर लाहौर में रहा । इस बीच दकन के हालात बिगड़ते चले गए ।
दकन राजनीति का उबलता लावा था । विभिन्न दकनी राज्यों के बीच आए दिन युद्ध होते रहते थे । किसी शासक के मरने पर अमीरों के गुटों में अकसर लड़ाइयाँ होने लगती थीं और हर गुट अपने चुने व्यक्ति को तख्त पर बैठाने का प्रयास करता था ।
इसमें दकनियों और नवांगतुकों (आफाकियों या गरीबों) की दुश्मनी खुला रंग दिखाती थी । दकनियों में भी हब्शियों (अबीसीनिया या अफ्रीका वालों) और अफगानों के अलग- अलग समूह थे । क्षेत्र की जनता के जीवन और उसकी संस्कृति से इन समूहों और गुटों का कुछ भी लेना-देना नहीं था ।
दकनी राज्यों की सेनाओं और राजनीतिक व्यवस्थाओं में मराठों के अवशोषण की प्रक्रिया शुरू तो पहले हो चुकी थी पर बहुत आगे नहीं बड़ी थी । इसलिए शासकों और अमीरों को जनता की वफादारी प्राप्त नहीं थी । पथिक टकरावों और विवादों से स्थिति और बिगड़ी ।
सदी के आरंभिक भाग में सफवी नामक एक नए राजवंश के अंदर शिया मत ईरान का राजधर्म बना । शिया मत लंबे समय से एक उत्पीड़ित पंथ था और उत्साह के आरंभिक दौर में इस नए पंथ के समर्थकों ने अपने भूतपूर्व विरोधियों का बढ़-चढ़ कर उत्पीड़न किया ।
परिणामस्वरूप, अनेक अग्रणी परिवारों कं सदस्य भागकर भारत आ गए और अकबर के दरबार में शरण माँगी जो शियाओं और सुन्नियों में कोई अंतर नहीं करता था । कुछ दकनी राज्यों ने, मुख्यत: गोलकुंडा ने, भी शिया इस्लाम को राजधर्म बनाया । बीजापुर और अहमदनगर दरबारों में भी शिया दल मजबूत था और समय-समय पर अपनी बात मनवा लेता था । इसके कारण पंथिक टकराव और तीखे हुए ।
दकन में महदवी विचारों का भी व्यापक प्रसार हुआ । मुस्लिम मानते थे कि हर युग में पैगंबर के वंश का एक सदस्य आगे आएगा धर्म को बल प्रदान करेगा और न्याय को विजय दिलाएगा । ऐसे व्यक्ति को महदी कहा जाता था ।
हालांकि विभिन्न कालों में विभिन्न देशों मे अनेक महदी सामने आ चुके हैं, पर इस्लाम की पहली सहस्त्राब्दी जब सोलहवीं सदी के अंतिम भाग में पूरी होने वाली थी तो पूरे इस्लामी जगत में आशाएँ बलवती हो उठीं । भारत में एक सैयद मुहम्मद ने जिसका जन्म पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में जौनपुर में हुआ था अपने आपको महदी घोषित कर दिया ।
सैयद मुहम्मद ने पूरे भारत और इस्लामी जगत की व्यापक यात्रा की और लोगों में भारी उत्साह जगाया । उसने देश के विभिन्न भागों में अपने दायरे (हलके) बनाए । इनमें दकन भी शामिल था जहाँ उसके विचारों को उपजाऊ जमीन मिली । रूढ़िवादी तत्व महदवी विचारों के उतने ही विरोधी थे जितने शिया मत के हालांकि इन दोनों मतों के बीच कोई मधुर रिश्ता नहीं था ।
अकबर ने अपनी सुलहकुल की धारणा इसी संदर्भ में सामने रखी । उसे डर था कि दकनी राज्यों में चल रहे तीखे पंथिक संघर्ष मुगल साम्राज्य को भी प्रभावित करेंगे । अकबर पुर्तगालियों की बढ़ती ताकत से भी आशंकित था । पुर्तगाली मक्का की हज-यात्रा में हस्तक्षेप कर रहे थे और शाही घराने की स्त्रियों तक को नहीं बखाते थे ।
वे अपने क्षेत्रों में लोगों को ईसाई बनाने पर तुले हुए थे जो अकबर को पसंद नहीं था । वे देश की मुख्यभूमि पर भी अपना अधिकार बढ़ाने की लगातार कोशिश कर रहे थे तथा उन्होंने सूरत पर हाथ डालने तक की भी कोशिश की थी जो मुगल कमानदार के समय पर आ जाने से बच गया ।
लगता है, अकबर का ख्याल यह था कि मुगलों की निगरानी में दकनी राज्यों के समन्वय और उनके संसाधनों के एकजुट उपयोग से पुर्तगाली खतरा समाज न भी हो तो उस पर अंकुश लगेगा । यही कुछ कारण थे जिन्होंने अकबर को दकनी मामलों में हाथ डालने के लिए मजबूर किया ।