Read this essay in Hindi to learn about the two main approaches used for the study of human development
1. प्रतिखण्डात्मक उपागम या अनुप्रस्थ उपागम (Cross Sectional Approach-CSA):
प्रतिखण्डात्मक उपागम का स्वरूप क्षैतिज होता है । R.A. के अनुसार, “प्रतिखण्डात्मक शोध में किसी समय बिन्दु पर अलग-अलग उम्र के बच्चों की इसलिए तुलना की जाती है, जिससे यह पता चल जाये कि क्या ये किसी प्रकार से एक दूसरे से अलग होते हैं ?”
(Cross Section Research: Children of different ages are compared at a certain point of time, to see if they differ in certain ways.)
हेरी तथा लैम्ब (1993) के अनुसार, ” एक चर में विभिन्नता के विस्तार की जाँच करने हेतु एक ही समय में बहुत से अलग केसों का प्रतिचयन किया जाता है ।”
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(A range of variation in a given variable is examined by sampling several different cases at the same time.)
उपर्युक्त परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट होता है, कि CSA में बहुत सी अवस्था के शिशुओं का मापन किया जाता है । CSA के अन्तर्गत सबसे पहले हम किसी समस्या को प्रस्तावित करते हैं, फिर उपर्युका परिकल्पना की रचना करते हैं । इस परिकल्पना के प्रशिक्षण हेतु विकल्प का चुनाव करते हैं, यहाँ 34 आभिकल्प का चयन किया गया है ।
अब आवश्यकता के अनुसार भिन्न-भिन्न अवस्था वाले शिशुओं को उचित प्रतिदर्श की सहायता से उपर्यक्त संख्या में चुन लेते हैं । अब हमारे पास परस्पर अलग अवस्था वाले समूह आ जाते हैं । तत्पश्चात् इन भिन्न-भिन्न अवस्थाओं वाले समूहों का मापन किया जाता है । प्राप्त कड़ी पर उपरोक्त सांख्यिकीय अभिक्रिया इस्तेमाल करके निष्कर्ष प्राप्त किये जाते हैं ।
इसे एक-दूसरे उदाहरण के माध्यम से भी समझा जा सकता है । अगर शिशु की भाषा के विकास का अध्ययन करना है, तो सबसे पहले अलग-अलग आयु स्तर के बालकों का चुनाव करना पड़ता है । हम 1,2,3,4 तथा 5 वर्षीय बालकों को चुन लेते हैं ।
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हर समूह के अन्तर्गत यादृच्छिक तरीके से सौ-सौ बालकों को रखा जाता है । इस प्रकार हमारे पास कुल 500 बालक 5 समूहों के अन्तर्गत आ जाते हैं । इन बच्चों पर भाषा ज्ञान परीक्षण प्रशासित किया जाता है ।
आंकड़े जमा करने के पश्चात् इनका विश्लेषण किया जाता है, तथा यह ज्ञात किया जाता है, कि अलग-अलग आयु स्तर पर भाषा का कितना-कितना विकास होता है ? अत: भिन्न-भिन्न स्तरों से सम्बन्धित मानक तैयार हो जाते हैं ।
CSA में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं:
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(1) बहुत से शोधकर्त्ता अलग-अलग आयु के लिए मानकों को विकसित करने हेतु CSA का उपयोग करते हैं ।
(2) इस उपागम में समय व धन दोनों की बचत होती है । इसमें अनुसंधानकर्त्ता कम समय में कम व्यय से बहुत सी महत्वपूर्ण सूचनाएँ इकट्ठी कर सकता है ।
(3) इस उपागम के उपागम हेतु सिर्फ एकल शोधकर्त्ता ही पर्याप्त होता है । अत: इसमें अनेक शोधकर्त्ताओं की आवश्यकता से छुटकारा मिल जाता है ।
(4) CSA को भिन्न-भिन्न समूहो के परस्पर सार्थक अन्तरों को जानने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है ।
(5) इस उपागम में कार्यरत अनुसनगनकर्त्ता को अपने निष्कर्षों को जानने के लिए वर्षों तक इन्तजार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । वह अपनी इच्छानुसार जब चाहे अध्ययन कर सकता है ।
(6) CSA की सहायता से भिन्न-भिन्न आयु के स्तरों पर प्रारूपी विशेषताओं की एक तस्वीर प्राप्त की जा सकती है ।
CSA की सीमाएँ – इस उपागम की कुछ सीमाएँ निम्नलिखित हैं:
(a) जन्म का भिन्न समय:
परस्पर अलग आयु वाले लोगों के समूहों में अन्तर न सिर्फ उम्र से सम्बन्धित विकास के कारण होता है, अपितु इस अन्तर का कारण यह है कि इन प्राणियों का जन्म परस्पर अलग वक्त में हुआ था तथा ये अलग-अलग जीवन अनुभवों या सांस्कृतिक दशाओं से प्रभावित होते हैं ।
ऐसे अन्तर छोटे बालकों में बहुत कम हो सकते हैं । किन्तु ये ज्यादा उम्र वाले तथा ज्यादा उस अन्तर वाले लोगों में तुलनात्मक अधिक होते हैं । उदाहरणार्थ – 15,30,45,60 वर्षीय लोगों में जीवन के अनुभव बहुत भिन्न हो सकते हैं । सिर्फ आयु के बजाए ऐसे अन्तर समूहों में भजता हेतु उत्तरदायी हो सकते हैं ।
(b) अनुमानात्मक निरूपण:
CSA प्राय: विकासात्मक प्रक्रम का सिर्फ अनुमानात्मक रूप प्रदर्शित करता है ।
(c) नकारात्मक पहलू:
आयु समूह से आयी विभिन्नताओं पर ध्यान न देना भी इसका एक नकारात्मक पहलू है ।
(d) अपूर्ण सूचनाएँ:
CSA द्वारा मिली हुई सूचनाएं पूरी नहीं होती । इस उपागम में विकास के क्रियातन्त्रों की सक्रियाओं का पूर्णज्ञान नहीं हो पाता ।
2. लम्बवत् उपागम अथवा अनुदैर्ध्य उपागम (Longitudinal Approach-LA):
इस उपागम का स्वरूप लम्बवत् या अनुदैर्ध्य होता है । इसका मुख्य उद्देश्य गहन अ हमयन होते हैं । हेरी तथा लैम्ब (1993) के शब्दों में, ” यह अध्ययन की एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें समय की अवधि में उन्हीं के उन्हीं प्राणियों का पुनरावृत्त मापन किया जाता है । लम्बवत् शोध में विशिष्ट प्रतिदर्श में समय के अनुकूल परिवर्तन का मापन किया जाता है ।”
हरलॉक (1978) के शब्दों में, ”बाल विकास का अध्ययन करने वाले लम्बवत् उपागम का निर्माण बचपन व किशोरावस्था पर अलग-अलग अन्तरालों पर उन्हीं के उन्हीं बच्चों के पुन: परीक्षण से होता है ।”
उपर्युका परिभाषाओं से ज्ञात होता है, कि इस उपागम में निश्चित इकाइयों का अध्ययन बार-बार लम्बी अवधि तक किया जाता है । सर्वप्रथम एक ही उस के शिशुओं का चयन किया जाता है । इस समूह के शिशुओं का हर दो साल के बाद प्रेक्षण व मापन किया जाता है ।
इस प्रकार आयु बढ़ने के साथ-साथ उनकी शारीरिक व मानसिक योग्यताओं के विकास क्रम का प्रेक्षण तथा मापन किया जाता है । इस प्रकार उपागम के माध्यम से शारीरिक वजन, ऊँचाई, भाषा, विकास आदि का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है । लम्बवत् उपागम के उपयोग से अनेक वास्तविक सूचनाएँ ज्ञात की जा सकती हैं ।
इसमें निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं:
(1) इसकी सहायता से प्रत्येक इकाई का अध्ययन किया जा सकता है । शोधकर्त्ता आवश्यकता के अनुकूल किसी भी इकाई सम्बन्धी सूचना को पा सकता है । अत: इस उपागम से समूह स्तर के साथ-साथ वैयक्तिक स्तर पर भी अध्ययन सम्भव हो सकता है ।
(2) इस उपागम से अध्ययन करते हुए हमें सिर्फ अनुमानात्मक ज्ञान ही नहीं प्राप्त होता, अपितु इसके साथ हमें यथार्थ का भी ज्ञान मिलता है ।
(3) इसके सुधरे हुए उपागम में कोहॉर्ट प्रभावों को भी स्थान दिया गया है, क्योंकि इसमें शोधकर्त्ता को व्यवहार तथा व्यक्तित्व पर सामाजिक सांस्कृतिक तथा दूसरे वातावरण जन्य परिवर्तनों के प्रभाव को अध्ययन करने का अवसर मिल जाता है ।
(4) इसमें शोधकर्त्ता को परिपक्वता तथा अनुभवात्मक प्रक्रमों के मध्य सम्बन्धों के विश्लेषण का अवसर मिल जाता है ।
(5) इसकी सहायता से वृद्धि में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है ।
(6) अक्सर शो धकर्त्ता बालकों के एक समूह का कई वर्षो तक भिन्न-भिन्न अन्तरालों पर अध्ययन करता है । इस प्रकार इसमें प्रतिदर्श त्रुटियों का परिहार हो जाता है ।
(7) इस उपागम में शोधकर्ता को किसी जटिलता का सामना नहीं करना पडता । इसमें प्रक्रिया बहुत सरल तथा स्वाभाविक अनुभव होती है ।
(8) जब शोधकर्त्ता अध्ययन इकाइयों का भिन्न-भिन्न अन्तरालों पर बारम्बार अध्ययन करता है, तो वह इनके बहुत पास आ जाता है, जिसके कारण वह बहुत-सी ऐसी गुप्त सूचनाओं को पाने में कामयाबी हासिल कर लेता है, जिन्हें वह अन्यथा प्राप्त नहीं कर सकता है ।
(9) जननिक विज्ञान, निदानात्मक मनोविज्ञान इत्यादि के अध्ययनों में यह एक अपरिहार्य उपागम है ।
(10) इसकी सहायता से गहन अध्ययन सम्भव हो पाते हैं ।
LA की सीमाएँ – इस उपागम की कुछ सीमाएँ निम्नलिखित हैं:
(1) यह लम्बी अवधि तक चलने वाला अध्ययन है । इसलिए इसमें धन तथा समय अधिक लगता है, जो इस पद्धति को महँगा बना देता है ।
(2) इसकी एक कमी है, कि इसमें लम्बी अवधि तक अध्ययन में वे समस्त बच्चे प्रयोज्य नहीं रह पाते, जिन्हें लेकर अध्ययन शुरू किया गया था ।
(3) जिन बच्चों पर भिन्न-भिन्न अन्तरालों पर बार-बार प्रशिक्षण प्रशासित किये जाते हैं, वे उन कामों से परिचित हो जाते हैं, जो बारम्बार करने पड़ते हैं । इस प्रकार के आवर्तक अनुभवों से वे प्रभावित हो सकते हैं, जिससे शोधकर्त्ता को अर्थापन में परेशानियों का सामना करना पडता है ।
(4) जब शोधकर्त्ता इससे लम्बी अवधि तक अध्ययन करते रहते हैं, तो कभी-कभी उन्हें ऐसा भय होने लगता है, कि कभी वे परिणाम मूल परिकल्पना की पुष्टि न कर पायें । ये भय उनमें अरुचि पैदा करने लगता है ।
(5) लम्बवत् उपागम की सहायता से जो अकिंड़े प्राप्त होते हैं, वे अधिक विस्तृत होते हैं, उन पर सांख्यिकीय अभिक्रिया करना बड़ा मुश्किल होता है ।
(6) लम्बवत् अध्ययन लम्बी अवधि तक चलते हैं । परिणामों को प्राप्त करने के लिए शोधकर्त्ता को लम्बे समय तक इन्तजार करना होता है, जो अत्यन्त अरुचिकर होती है ।
(7) जब शोधकर्त्ता भिन्न-भिन्न अन्तरालों पर प्रयोज्यों का गहन अध्ययन करता है, तो कई बार रिक्त स्थानों को भरने के लिए उसे अनुदर्शन प्रतिवेदनाओं का प्रयोग करना होता है ।
(8) कई मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लम्बवत् अध्ययन लम्बी अवधि तक चलते हैं । जब कभी क्षेत्र की रुचियाँ बदल जाती हैं, तो इस उपागम में जिस प्रकार के आकड़े लेने होते हैं, वे भी बदल जाते हैं ।
(9) कभी-कभी मापने के यन्त्र पुराने लगते हैं, जिनका उपयोग अध्ययन के प्रारम्भिक क्षणों में किया गया होता है ।
(10) कभी-कभी लम्बवत् अध्ययन इतनी लम्बी अवधि तक चलते हैं, कि ये शोधकर्त्ता की सक्रिय आयु को भी पार कर जाते हैं । एक शोधकर्त्ता के बाद नये शोधकर्ता उस चल रहे काम को अपने हाथ में लेता है । इस अवस्था में व्यक्तिगत भिन्नता के कारण निष्कर्ष प्रभावित होते हैं ।