Read this article in Hindi to learn about the rule of Aurangzeb in the Deccan states during medieval period in India.

दकनी राज्यों के साथ औरंगजेब के संबधों में तीन चरण दिखाए जा सकते हैं । पहला चरण 1668 तक चला, जब मुख्य प्रयास बीजापुर से उन क्षेत्रों को वापस लेने का था जो थे तो अहमदनगर राज्य के पर 1636 की संधि के अनुसार जिनका समर्पण बीजापुर को कर दिया गया था ।

दूसरा चरण 1684 तक चला जब दकन में मुख्य खतरा मराठों को समझा जाता था तथा शिवाजी और बाद में उनके बेटे संभाजी के खिलाफ मुगलों से हाथ मिलाने के लिए बीजापुर और गोलकुंडा पर दबाव डालने का प्रयास किया गया । मुगल दकनी राज्यों के इलाकों को हड़पते भी रहते थे और साथ ही उन्हें पूरी तरह अपने वर्चस्व और नियंत्रण में लाने का प्रयास भी करते रहते थे ।

अंतिम चरण तब आरंभ हुआ, जब औरंगजेब मराठों के खिलाफ बीजापुर और गोलकुंडा का सहयोग पाने के प्रति निराश हो गया और उसने तय किया कि मराठों को नष्ट करने के लिए पहले बीजापुर और गोलकुंडा को जीतना आवश्यक है ।

ADVERTISEMENTS:

1636 की संधि के अनुसार शाहजहाँ ने बीजापुर और गोलकुंडा को मराठों से समर्थन वापस लेने के लिए रिश्वत के तौर पर अहमदनगर राज्य का एक-तिहाई क्षेत्र बीजापुर को दे दिया था और वादा किया था कि मुगल बीजापुर और गोलकुंडा को ‘कभी नहीं जीतेंगे’ | पर इस संधि को स्वयं शाहजहाँ ने त्याग दिया था ।

1657-58 में बीजापुर और गोलकुंडा को नष्ट करने की धमकी दी गई । गोलकुंडा को भारी हर्जाना देना पड़ा तथा बीजापुर को 1636 में जो निजामशाही इलाके दिए गए थे उन्हें छोड़ने पर राजी होना पड़ा । इसका ‘औचित्य’ यह था कि इन दोनों राज्यों ने कर्नाटक में लंबे-चौड़े इलाके जीते थे और चूंकि वे मुगलों के अधीन थे इसलिए उनको मुगलों को ‘हर्जाना’ देना चाहिए था ।

यह भी कि मुगलों ने कृपापूर्वक जो तटस्थता दिखाई थी, उसी के कारण उन्होंने विजय प्राप्त की थी । वास्तव में दकन में मुगल सेनाओं के रखरखाव की लागत बहुत अधिक थी और मुगलों के नियंत्रण वाले क्षेत्रों की आय उसे पूरा करने के लिए अपर्याप्त थी । एक लंबे समय तक मालवा और गुजरात के खजानों से अनुदान देकर यह लागत पूरी की जाती रही ।

दकन में सीमित रूप से आगे बढ़ने की नीति फिर से शुरू की गई । लेकिन इससे उत्पन्न दूरगामी परिणामों को न तो शाहजहाँ ने ठीक से समझा न औरगंजेब ने । इसके कारण मुगलों के साथ की गई संधियों और वादों पर से हमेशा-हमेशा के लिए भरोसा उठ गया और मराठों के खिलाफ ‘दिलों का मेल’ असंभव हो गया यद्यपि औरंगजेब ने चौथाई सदी तक पूरे धैर्य के साथ ऐसी नीति का अनुसरण किया मगर उसे कोई खास सफलता नहीं मिली ।

पहला चरण (1658-68):

ADVERTISEMENTS:

सत्तारोहण के बाद औरंगजेब की दकन में दो समस्याएँ थीं: शिवाजी की बढ़ती शक्ति से उपजी समस्या, तथा बीजापुर को इस पर राजी करने की समस्या कि वह 1636 की संधि से मिले क्षेत्रों को छोड़ दे । 1657 में कल्याणी और बीदर वापस मिल गए । 1660 में रिश्वत देकर परेंदा वापस लिया गया । बाकी रह गया शोलापुर ।

सत्तारोहण के बाद औरंगजेब ने जयसिंह को शिवाजी व आदिलशाह दोनों को सजा देने को कहा । यह बात मुगल सेना की श्रेष्ठता में औरंगजेब का विश्वास और शत्रुओं को कम करके आँकने की उसकी आदत को दर्शाती है । लेकिन जयसिंह एक चतुर राजनीतिज्ञ थे । उन्होंने औरंगजेब से कहा, ‘इन दोनों भूखा पर एक साथ हमला करना अक्लमंदी नहीं होगी ।’

फिर भी जयसिंह ऐसे अकेले मुगल राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने इस काल में दकन में बेरोक आगे बढ़ने की नीति की पैरवी की । जयसिंह का मत था कि दकन में आगे बढ़ने की नीति अपनाए बिना मराठा समस्या हल नहीं की जा सकती; औरंगजेब इसी निष्कर्ष पर बीस साल बाद पहुँचा ।

बीजापुर पर आक्रमण की योजना बनाते समय जयसिंह ने औरंगजेब को लिखा था, ‘बीजापुर की विजय पूरे दकन और कर्नाटक पर विजय की पूर्वपीठिका है ।’ पर औरंगजेब इस दिलेर नीति से हिचकिचाता था । हम इसके कारणों का अनुमान ही लगा सकते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

ईरान के शाह ने उत्तर-पश्चिम में एक खतरनाक रुख अपना लिया था दकन-विजय का अभियान लंबा और कष्टमय होता तथा इसके लिए स्वयं बादशाह की मौजूदगी जरूरी होती क्योंकि जैसा कि शाहजहाँ के अनुभव से स्पष्ट था बड़ी-बड़ी सेनाओं को किसी अमीर या महत्वाकांक्षी शाहजादे के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता था । इसके अलावा जब तक शाहजहाँ जीवित था औरंगजेब किसी दूर की मुहिम पर नहीं जाना चाहता था ।

सीमित संसाधनों के कारण जयसिंह की बीजापुर मुहिम (1665) की असफलता लाजिमी थी । इस मुहिम ने मुगलों के खिलाफ दकनी राज्यों के संयुक्त मोर्चे को नवजीवन दिया, क्योंकि बीजापुर की सहायता के लिए कुतबशाह ने एक बड़ी सेना भेजी । दकनवालों ने छापामार रणनीति अपनाई ।

उन्होंने जयसिंह को बीजापुर की ओर बढ़ने दिया पर देहातों को तबाह करते रहे ताकि मुगलों को कोई रसद न मिले । जयसिंह ने देखा कि उनके पास नगरों पर आक्रमण करने का कोई साधन नहीं था क्योंकि वे बड़ी तोपें तो लाए ही नहीं थे और उनके बिना नगरों की घेराबंदी असंभव थी ।

पीछे हटना महँगा साबित हुआ और इस मुहिम से जयसिंह को न धन-दौलत मिली न कोई नया इलाका मिला । निराशा और औरंगजेब की निंदा जयसिंह की जल्द ही मृत्यु (1667) का कारण बन गई । अगले साल (1668) मुगलों ने रिश्वत देकर शोलापुर का समर्पण कराया । इस तरह पहला चरण पूरा हुआ ।

दूसरा चरण (1668-84):

1668 और 1676 के बीच मुगल दकन में अपना वक्त ही काटते रहे । गोलकुंडा में अदन्ना और अखन्ना की शक्ति का उदय इस काल का एक नया तत्त्व था । गोलकुंडा पर ये दोनों प्रतिभाशाली भाई ही एक तरह से 1672 से लेकर 1687 में गोलकुंडा के विनाश तक राज्य करते रहे ।

उन्होंने गोलकुंडा बीजापुर और शिवाजी के बीच एक त्रिपक्षीय गठबंधन बनाने का प्रयास करने की नीति अपनाई । बीजापुर दरबार में गुटों के टकरावों के कारण तथा शिवाजी की अतिशय महत्वाकांक्षा के कारण समय-समय पर इस नीति में विप्न पड़ता रहा । एक सुसंगत नीति अपनाने के बारे में बीजापुर के गुटों पर भरोसा नहीं किया जा सकता था ।

उन्होंने अपने तात्कालिक हितों के अनुसार मुगल-समर्थक या मुगल-विरोधी रुख अपनाए । शिवाजी ने कभी बीजापुर को लूटा और कभी मुगलों के विरोध में उसकी सहायता की । औरंगजेब को बढ़ती मराठा शक्ति को लेकर गहरी चिंता थी, फिर भी लगता है वह दकन में मुगलों के प्रसार को सीमित रखना चाहता था ।

इसलिए बीजापुर में ऐसे किसी दल को सत्ता में लाने और उसको समर्थन देने के बार-बार प्रयास किए गए जो शिवाजी के खिलाफ मुगलों से सहयोग करता और गोलकुंडा द्वारा संचालित न होता । इस नीति के अनुसार मुगलों ने अनेक बार सैनिक हस्तक्षेप किए जिनके ब्यौरों में जाना एक ही बात को दुहराना होगा ।

मुगलों के कूटनीतिक और सैनिक प्रयासों का एकमात्र परिणाम उनके खिलाफ तीन दकनी शक्तियों के संयुक्त मोर्चे का पुनर्जन्म रहा । 1679-80 में बीजापुर पर कब्जे के लिए मुगल सूबेदार दिलेर खान का आखिरी हताशा भरा प्रयास भी असफल हो गया था ।

इसका बड़ा कारण यह था कि दकनी राज्यों की संयुक्त शक्ति से टकराने के लिए आवश्यक साधन किसी भी मुगल सूबेदार के पास नहीं थे । स्थिति में एक नया तत्त्व कर्नाटक के पियादा सिपाहियों का आना था, जो लगता है कि बंदूकची थे ।

बराड़ के सरदार प्रेम नायक ने ऐसे 30,000 सैनिक भेजे थे, जो 1679-80 में मुगलों की घेराबंदी के दौरान बीजापुर को टिकने की शक्ति देनेवाला प्रमुख तत्त्व था । बीजापुर को राहत देने के लिए शिवाजी ने भी एक बड़ी सेना भेजी और तमाम दिशाओं में मुगल इलाकों पर धावे किए । इस तरह दिलेर खान मुगल क्षेत्रों को मराठों के हमलों के लिए मुक्त छोड़ने के अलावा कुछ हासिल नहीं कर सका । इसी कारण से औरंगजेब ने उसे वापस बुला लिया ।

तीसरा चरण (1684-87):

इस तरह 1678-80 के अभियान में मुगलों को कुछ खास लाभ नहीं मिला । औरंगजेब 1681 में जब अपने विद्रोही बेटे शाहजादा अकबर का पीछा करते हुए दकन में पहुँचा तो मराठों से बीजापुर और गोलकुंडा का संबंध-विच्छेद कराने के नए प्रयासों के साथ-साथ उसने शिवाजी के बेटे और उत्तराधिकारी संभाजी के खिलाफ अपनी शक्तियाँ केंद्रित कीं ।

उसके प्रयासों का पहले के प्रयासों से कोई भिन्न परिणाम नहीं निकला । मराठे मुगलों के खिलाफ अकेली ढाल थे और दकनी राज्य इस ढाल को फेंकने के लिए तैयार नहीं थे । औरगंजेब ने अब आर-पार करने का फैसला किया ।

उसने आदिल शाह से कहा कि अधीनस्थ के रूप में वह शाही सेना को रसद दे, अपने इलाकों से मुगल फौजों को गुजरने की खुली छूट दे और मराठा-विरोधी युद्ध के लिए 5000 या 6000 घुड़सवारों का दस्ता भेजे । उसने यह भी माँग की कि अग्रणी मुगल विरोधी बीजापुरी अमीर शारजा खान को निकाला जाए ।

दो टूक संबंध-विच्छेद अब अपरिहार्य हो गया । आदिल शाह ने गोलकुंडा और संभाजी दोनों से सहायता की गुहार की और सहायता उसे तत्काल मिली । किंतु दकनी राज्यों की संयुक्त शक्ति भी मुगल सेना की पूरी शक्ति के आगे ठहर न सकी विशेषकर इसलिए कि स्वयं बादशाह उसका नेतृत्व कर रहा था ।

लेकिन बीजापुर के पतन (1686) में घेराबंदी के पूरे 18 माह लग गए । और अंतिम चरणों में औरंगजेब स्वयं वहाँ मौजूद रहा । इससे बीजापुर के खिलाफ जयसिंह और दिलेर खान की पहले वाली असफलताओं (1685 तथा 1679-80) का पर्याप्त औचित्य सिद्ध होता है ।

बीजापुर के पतन के बाद गोलकुंडा के खिलाफ मुहिम अपरिहार्य थी । कुतबशाह के गुनाह इतने थे कि माफ नहीं किए जा सकते थे । उसने मदन्ना और अखन्ना जैसे काफिरों को सर्वोच्च शक्ति दे रखी थी तथा विभिन्न अवसरों पर शिवाजी की मदद की थी । औरंगजेब की चेतावनी के बावजूद बीजापुर की मदद के लिए 40,000 सैनिक भेजना उसका अंतिम ‘विश्वासघात’ था ।

इससे पहले 1685 में कठोर प्रतिरोध के बावजूद मुगलों ने गोलकुंडा पर कब्जा किया था । भारी हर्जाना देने कुछ क्षेत्रों को सौंपने और मदन्ना और अखन्ना को बाहर निकालने की शर्त पर बादशाह कुतबशाह को क्षमा करने पर तैयार हो गया था । कुतबशाह भी इन माँगों पर मान गया था ।

मदन्ना और अखन्ना को (1686 में) सड़कों पर घसीटकर मार डाला गया था । पर यह अपराध भी कुतबशाह को बचा नहीं सका । घेराबंदी 1687 के आरंभ में शुरू हुई तथा 6 माह से अधिक की मुहिम के बाद गद्‌दारी और रिश्वतखोरी के कारण किले का पतन हो गया । औरंगजेब की विजय तो हुई पर जल्द ही उसे पता चल गया कि बीजापुर और गोलकुंडा का विनाश तो उसकी कठिनाइयों का आरंभ था । औरंगजेब के जीवन का अंतिम और सबसे कठिन चरण अब आरंभ हुआ ।

औरंगजेब मराठे और दकन: अंतिम चरण (1687-1707):

बीजापुर और गोलकुंडा के पतन के बाद औरंगजेब मराठों के खिलाफ अपनी पूरी शक्ति अब केंद्रित कर सकता था । 1689 में मुगल सेना ने संगमेश्वर के पास संभाजी के गुप्त शरणस्थल को अचानक जा घेरा । संभाजी को पकड़कर उसे औरंगजेब के सामने पेश किया गया तथा विद्रोही व काफिर कहकर मृत्युदंड दे दिया गया ।

यह निस्संदेह औरंगजेब की एक और बड़ी राजनीतिक भूल थी । मराठों से समझौता करके वह बीजापुर और गोलकुंडा की विजय को पक्की कर सकता था । संभाजी को मृत्युदंड देकर उसने इसका अवसर ही नहीं गँवाया बल्कि मराठों को और भड़का दिया । साथ ही किसी एक केंद्रबिंदु के अभाव में मराठा सरदार मुगल क्षेत्रों की लूटपाट के लिए स्वतंत्र हो गए ।

वे मुगल सेना के सामने आने पर गायब हो जाते थे और फिर एक दूसरी जगह जमा हो जाते थे । मराठा राज्य को नष्ट करने की बजाय औरंगजेब ने दकन में मराठों के विरोध को सर्वव्यापी बना दिया । संभाजी के छोटे भाई राजाराम को राजा बनाया गया, पर मुगलों ने जब उसकी राजधानी पर हमला किया तो उसे भागना पड़ा । राजाराम ने पूर्वी तट पर जिंजी में शरण ली और मुगलों के खिलाफ वहाँ से लड़ाई जारी रखी । इस तरह मराठों का प्रतिरोध पश्चिमी से पूर्वी तट तक फैल गया ।

लेकिन अपने सभी शत्रुओं पर विजय पाकर औरंगजेब फिलहाल अपनी शक्ति की चरम सीमा पर था । कुछ अमीरों का विचार था कि मराठों के खिलाफ कार्रवाईयों का जिम्मा दूसरों को देकर औरगजेब को उत्तर भारत लौट जाना चाहिए । उससे पहले एक विचार यह था और लगता है इसे युवराज शाह आलम का समर्थन प्राप्त था कि कर्नाटक पर शासन करने का भार बीजापुर और गोलकुंडा के अधीन शासकों को दे देना चाहिए ।

औरंगजेब ने ये सभी सुझाव रद्‌द कर दिए और दकनी शासकों से वार्ता का दुस्साहस करने के कारण शाह आलम को गिरफ्तार कर लिया । 1690 तक मराठा शक्ति चकनाचूर की जा चुकी है, यह भरोसा लेकर औरंगजेब ने कर्नाटक के समृद्ध और लंबे-चौड़े इलाके को साम्राज्य में मिलाने पर ध्यान केंद्रित किया ।

लेकिन औरंगजेब ने इतना तामझाम फैला लिया था कि उसे सँभाल नहीं सकता था । उसका अत्यधिक विस्तारित संचार-तंत्र मराठा हमलों का आसान निशाना बन गया । इस तरह वह एक ठोस प्रशासन प्रदान नहीं कर सका विशेषकर बीजापुर के लिए जो मराठा गतिविधियों का केंद्र था ।

1690 और 1703 के बीच के काल में औरंगजेब मराठों से वार्ता करने से सख्त इनकार करता रहा । जिंजी में राजाराम को घेरा गया, पर घेराबंदी बहुत लंबी खिंच गई । 1698 में जिंजी का पतन हुआ, पर राजाराम निकल भागा । मराठों का प्रतिरोध बढ़ता गया और मुगलों को अनेक भारी धक्के लगे । मराठों ने उनके अनेक किलों को फिर से हथिया लिया और राजाराम सतारा लौटने में सफल रहा ।

हिम्मत हारे बिना औरंगजेब ने सभी मराठा किलों को फिर से वापस लाने का अभियान चलाया । 1700 से 1705 के बीच साढ़े पाँच वर्षा तक औरंगजेब निढाल और बीमार बदन लिए एक के बाद दूसरे किले की घेराबंदी करता रहा । बाड़ी रोगों और घुमक्कड़ मराठा दस्तों ने मुगल सेना को भारी हानियाँ पहुँचाई ।

अमीरों और सेना में निराशा और असंतोष लगातार बढ़ता गया और उनका मनोबल टूटता गया । अनेक जागीरदारों ने मराठों से गुप्त समझौते किए और इस पर सहमत हो गार । मराठे अगर उनकी जागीरों को न छेडें तो वे उन्हें चौथ देंगे ।

अंतत: औरंगजेब ने 1703 में मराठों से वार्ता शरू की । वह संभाजी के बेटे साहू को छोड़ने पर तैयार था जिसे उसकी माँ के साथ सतारा में पकड़ा गया था और जो औरंगजेब का कैदी था । साहू के साथ अच्छा व्यवहार हुआ भा । उसे राजा की उपाधि और 7000/7000 का मनसब दिया गया था ।

बालिग होने के बाद उसने सम्मानित परिवारों की दो मराठा लड़कियों से विवाह किया । साहू को औरंगजेब शिवाजी का स्वराज्य और दकन में सरदेशमुखी की वसूली का अधिकार देने और इस तरह उसकी विशेष स्थिति को मान्यता देने को तैयार था । वास्तव में, 70 से अधिक मराठा सरदार साहू की अगवानी के लिए जमा भी हुए । लेकिन मराठों के इरादों के प्रति निश्चित न होकर औरंगजेब ने आखिरी पलों में इन व्यवस्थाओं को रद्‌द कर दिया ।

1706 तक औरंगजेब को सभी मराठा किलों पर कब्जे के प्रयासों की व्यर्थता का विश्वास हो चुका था । वह धीरे-धीरे पीछे हटता हुआ औरंगाबाद आया जबकि जोश में भरी मराठा सेना आसपास मँडराती रही और पीछे छूटे दस्तों पर हमला करती रही ।

इस तरह औरंगजेब ने 1707 में आखिरी साँस ली तो उसने अपने पीछे एक ऐसा साम्राज्य छोड़ा, जो समस्याग्रस्त था और जिसमें साम्राज्य की विभिन्न आंतरिक समस्याएँ बढती जा रही थीं ।

Home››Hindi››