The below mentioned article provides a biography of Balban (1246-87) who was a ruler of Delhi sultanate during medieval period in India.
रजिया की मृत्यु (1240) और नायब के रूप में बलबन के शक्तिमान बनने के बीच का काल अमीरों और बादशाह के बीच निरंतर संघर्ष का काल था । अमीर स्वीकार करते थे कि इल्तुतमिश का कोई वंशज ही दिल्ली के तख्त पर बैठ सकता ने पर वे यह भी चाहते थे कि सारी शक्ति और अधिकार उनके हाथों में रहे ।
राजतंत्र और तुर्क सरदारों का संघर्ष तब तक जारी रहा, जब तक उलूग खान नाम के एक तुर्क सरदार ने जिसे इतिहास उसकी बाद की उपाधि बलबन के नाम से जानता है, धीरे-धीरे करके सारी सत्ता अपने हाथों मे नहीं ले ली । वही अंतत 1265 में तख्त पर बैठा ।
उससे पहले के काल में बलबन इल्तुतमिश के छोटे बेटे नासिरुद्दीन महमूद का नायब रह चुका था जिसे उसने 1246 में गद्दी पाने में मदद दी थी । नौजवान सुल्तान से अपनी एक बेटी ब्याहकर बलबन ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली । बलबन की बढ़ती शक्ति ने अनेक तुर्क सरदारों को नाराज कर दिया जिन्हें आशा थी कि शासन के मामलों में उनकी पहले वाली शक्ति और प्रभाव जारी रहेंगे क्योंकि नासिरुद्दीन महमूद अभी कमउम्र और अनुभवहीन था ।
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इसलिए उन्होंने एक षड्यंत्र रचा (1253) और बलबन को उसके पद से हटवा दिया । बलबन की जगह ईमादुद्दीन रेहान को लाया गया जो एक भारतीय मुसलमान था । हालांकि तुर्क सरदार चाहते थे कि सारी शक्ति और सारी सत्ता तुर्क सरदारों के ही हाथों में रहे पर फिर भी वे रेहान की नियुक्ति पर राजी हो गए क्योंकि उनमें आपस में इस बारे में कोई सहमति नहीं थी कि उनमें से कौन बलबन की जगह लेगा ।
बलबन हट जाने के लिए तैयार तो हो गया पर वह सावधानी से अपना एक दल बनाता रहा । अपनी बरखास्तगी के डेढ़ साल के अंदर वह अपने कुछ विरोधियों को अपनी ओर लाने में सफल रहा । बलबन ने अब सैन्य शक्ति-परीक्षण की तैयारियाँ की । लगता है उसने मंगोलों से भी कुछ संपर्क बनाए थे जिन्होंने पंजाब के एक बड़े भाग को रौंद रखा था ।
बलबन के दल की अधिक शक्ति के आगे झुककर सुल्तान महमूद ने रेहान को अपदस्थ कर दिया । कुछ समय बाद रेहान हारा और मारा गया । बलबन ने गलत-सही उपायों से बहुत-से दूसरे विरोधियों से भी मुक्ति पाई । फिर तो वह इतना आगे बढ़ा कि उसने शाही छत्र धारण कर लिया । लेकिन संभवत तुर्क सरदारों की भावनाओं का ध्यान रखकर वह स्वयं गद्दी पर नहीं बैठा ।
1265 में सुल्तान महमूद की मृत्यु हुई । कुछ इतिहासकारों का विचार है कि बलबन ने नौजवान सुलतान को जहर दे दिया था और उसके बेटों का भी सफाया कर दिया था ताकि उसके लिए तख्त का रास्ता साफ हो । बलबन के तरीके अकसर निर्मम और अवांछनीय होते थे । पर इसमें संदेह नहीं कि उसके सत्तारोहण के साथ एक शक्तिशाली, केंद्रीकृत शासन का युग आरंभ हुआ ।
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बलबन ने राजतंत्र की प्रतिष्ठा और शक्ति को बराबर बढ़ाने का प्रयास किया क्योंकि उसे विश्वास था कि सामने मौजूदा अंदरूनी और बाहरी खतरों से निबटने का अकेला यही रास्ता था । यह वह युग था जब सत्ता और शक्ति को राजकीय वर्ग में जन्मे व्यक्तियों का विशेषाधिकार माना जाता था या उनका जो किसी प्राचीन कुल के होने का दावा कर सकें ।
इसलिए बलबन ने सत्ता पर अपने दावे को मजबूत करने के लिए यह ऐलान किया कि वह दंतकथाओं के मशहूर ईरानी बादशाह अफ्रासियाब का वंशज था । कुलीनों का खून होने का दावा साबित करने के लिए बलबन ने अपने को तुर्क कुलीनों के रक्षक के रूप में पेश किया । उसने महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर उन लोगों को बिठाने से भी इनकार कर दिया जो किसी कुलीन वंश के नहीं थे । इसका मतलब शक्ति और सत्ता के सभी ऊँचे पदों से भारतीय मुसलमानों का लगभग पूरा सफाया होना था ।
इतिहासकार बरनी के अनुसार उसने एक महत्त्वपूर्ण व्यापारी को बस इसलिए मिलने का समय नहीं दिया कि उसका जन्म उच्च कुल में नहीं हुआ था । बरनी ने, जो स्वयं भी तुर्क कुलीनों का कट्टर समर्थक था, बलबन के मुँह से ये शब्द कहलवाए हैं: ‘जब भी मैं किसी नीच कुल में जन्मे हेय व्यक्ति को देखता हूँ, मेरी आँखें जलने लगती हैं और गुस्से में (उसे मारने के लिए) हाथ तलवार पर जा पड़ता है ।’ हमें नहीं पता कि क्या बलबन ने सचमुच ये शब्द कहे थे पर ये शब्द नीचे कुल में जन्मे लोगों के प्रति तुर्क कुलीनों का रवैया स्पष्ट करते हैं ।
तुर्क कुलीनों के पक्ष में कार्य करने का दावा करके भी बलबन किसी के साथ सत्ता में भागीदारी करने के लिए तैयार नहीं था, अपने परिवार के सदस्यों तक के साथ नहीं । बलबन चहलगानी अर्थात तुर्क दास कुलीनों की ताकत को हमेशा के लिए तोड़ने तथा राजतंत्र की शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए कमर बाँधे हुए था ।
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इस उद्देश्य से वह अपने चचेरे भाई शेर खान को भी जहर देने से नहीं हिचका । साथ ही जनता का विश्वास जीतने के लिए वह घोर निष्पक्षता के साथ न्याय किया करता था । देश का बड़े से बड़ा व्यक्ति भी यदि अपनी सत्ता का दुरुपयोग करता तो उसे बख्शा नहीं जाता था ।
उदाहरण के लिए, बदायूँ के सूबेदार के पिता को तथा अवध के सूबेदार के पिता को भी अपने निजी दासों के साथ कुर व्यवहार करने पर मिसाली सजाएँ दी गई । पूरी जानकारी से लैस रहने के लिए बलबन ने हर विभाग में जासूस नियुक्त किए । उसने एक शक्तिशाली केंद्रीकृत सेना का गठन भी किया ।
इसके दो मकसद थे: आंतरिक गड़बड़ियों से निबटना तथा मंगोलों को पीछे हटाना जो पंजाब में पैर जमाकर दिल्ली सल्तनत के लिए गंभीर खतरा बन चुके थे । इस उद्देश्य से उसने सैन्य विभाग (दीवाने-ए-अर्ज) का पुनर्गठन किया और उन सैनिकों और घुड़सवारों को पेंशन देकर विदा कर दिया जो अब सेवा के योग्य न थे ।
उनमें से अनेक घुड़सवार तुर्क थे जो इल्तुतमिश के समय में भारत आए थे, इसलिए उन्होंने इस फैसले के खिलाफ शोर मचाया और बलबन को कुछ हद तक नरम होना पड़ा । दिल्ली के आसपास और दोआब में कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ चुकी थी । गंगा-यमुना दोआब और अवध में सड़कों पर डाकू और लुटेरे घूमा करते थे, यहाँ तक कि पूर्वी क्षेत्रों से संपर्क रखना मुश्किल हो गया था ।
इस क्षेत्र में कुछ राजपूत जमींदारों ने किले बना लिए थे और सरकार की अवज्ञा करने लगे थे । दिल्ली के निकट रहने वाले मेवातियों की हिम्मत इतनी बढ़ चुकी थी कि वे शहर (दिल्ली) की सीमा तक लोगों को लूटने लगे थे । इन तत्त्वों से निबटने के लिए बलबन ने ‘रक्त और तलवार’ की नीति अपनाई ।
लुटेरों को निर्ममतापूर्वक पकड़-पकड़कर मारा गया, दिल्ली के इर्द-गिर्द के जंगल काट डाले गए और वहाँ अनेक फ़ौजी थाने कायम किए गए । दोआब और कटिहार (आज का रूहेलखंड) में बलबन ने जंगलों की सफाई का आदेश दिया, बागी गाँव नष्ट कर दिए गए तथा स्त्री-पुरुष और बच्चे गुलाम बना लिए गए ।
सड़कों की सुरक्षा के लिए तथा जब कभी राजपूत जमींदार सरकार के खिलाफ कुछ गड़बड़ करें, उनसे निबटने के लिए वहाँ अफगान सैनिकों की बस्तियाँ बसाई गई । बलबन ने इन्हीं निर्मम उपायों से स्थिति को नियंत्रित किया । जनता पर सरकार की शक्ति की छाप छोड़ने और रोब डालने के लिए बलबन एक शानदार दरबार लगाता रहा । जब भी वह कहीं बाहर जाता नंगी तलवारें लिए अंगरक्षकों के एक बड़े दल से घिरा हुआ चलता ।
उसने दरबार में हँसी-मजाक बंद करा दिया और शराब पीना तक छोड़ दिया ताकि कोई भी उसे अगंभीर मुद्रा में न देखे । अमीर उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे इस पर जोर देने के लिए उसने सिद्धा (झुककर सिर जमीन तक ले जाना) और पायबोस (बादशाह के पाँव चूमना) की रस्म को जरूरी बना दिया ।
ये और ऐसी ही दूसरी रस्मों को जिनको उसने अपनाया ईरानी मूल की थीं और उन्हें गैर-इस्लामी माना जाता था । लेकिन उस समय कोई अधिक आपत्ति नहीं की जा सकी, क्योंकि मंगोलो की मार के चलते मध्य और पश्चिमी एशिया के अधिकांश मुस्लिम राज्य मिट चुके थे तथा बलबन और उसकी दिल्ली सल्लनत ‘इस्लाम’ के लगभग अकेले रक्षक दिखाई देते थे ।
हालांकि बलबन के पास एक मजबूत सेना थी पर उसने बंगाल की मुहिम छोड़ किसी लंबी मुहिम का नेतृत्व नहीं किया और न दिल्ली पर मंगोल हमले के डर से साम्राज्य का प्रसार किया । पर शिकार की लंबी-चौड़ी मुहिमों की व्यवस्था करके वह अपनी सेना को अभ्यास कराता रहता था ।
बलबन की मृत्यु 1268 में हुई । वह निस्संदेह दिल्ली सल्तनत और विशेषकर उसके शासन के स्वरूप एवं संस्थाओं के प्रमुख निर्माताओं में से एक था । शाहीतंत्र की शक्ति को दिखाकर बलबन ने दिल्ली सल्तनत को मजबूत बनाया । लेकिन मंगोलों की घुसपैठ से पूरी तरह उत्तर भारत की रक्षा वह भी नहीं कर सका ।
इसके अलावा शक्ति और सत्ता के पदों से गैर-तुर्को को अधिकतर बाहर रखकर और एक बहुत छोटे-से समूह को अपनै शासन का आधार बनाकर उसने बहुत-से तत्त्वों को नाराज कर दिया । इससे उसकी मृत्यु के बाद नई गड़बड़ियाँ और परेशानियाँ पैदा हुइ ।
बलबन का मूल्यांकन:
बलबन के राज्यकाल को मजबूत शासन का काल माना जाता है जब तुर्क दास कुलीनों अर्थात चहलगानी की कमर तोड़ दी गई तथा सुल्तान की शक्ति और सत्ता को स्थायित्व मिला । सिंधु-गंगा के दोआब में, जो सल्तनत का केंद्र भाग था, विद्रोही और उच्छृंखल तत्त्वों को सख्ती से कुचला गया तथा व्यापारी, माल और सौदागारों की आवाजाही के लिए सड़क उनसे मुक्त करा ली गई ।
बलबन ने प्रशासन की मौजूदा शासन प्रणाली को पुनर्गठित करने का कोई सुव्यवस्थित प्रयास किया हो खासकर प्रांतीय या स्थानीय स्तर पर, इसका कोई प्रमाण नही है । ये क्षेत्र इक्तादारों के नियंत्रण में ही रहे । लेकिन बरीदों अर्थात जाओ की सहायता से उसने उन पर राजनीतिक और वित्तीय नियंत्रण बढ़ाने की कोशिश अवश्य की ।
इस बात की भी कोशिश की गई कि प्रशासन और सेना का खर्च निबटाने के बाद इक्तादार अतिरिक्त राजस्व केंद्र को भेजें । बलबन ने इस धन का उपयोग भारी तड़क- भड़क वाला दरबार लगाने और बड़ी केंद्रीय सेना बनाने के लिए किया ।
बलबन ने प्रभुसत्ता का एक सिद्धांत पेश किया जो ईरानी विचारों पर आधारित था । यह अधिराजी के भारतीय सिद्धांत से भी मेल खाता था । पर इसकी सहायता से वह कोई मजबूत राजवंश स्थापित नहीं कर सका और न ही शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी कुलीनों को सत्ता पर एक करने से रोक सका ।
बलबन ने उच्च पदों पर तुक, के एकाधिकार को जारी रखने और उसे मजबूत बनाने की कोशिश की । इसमें उसे मध्य एशिया से, वहाँ मंगोलों के हमलों के बाद, आने वाले शासकों और उनके नातेदारों, यशस्वी लोगों और विद्वानों से सहायता मिली । लेकिन उसके नस्ली और कबीलाई विशेषाधिकारों को बढ़ाव देने तथा तुर्क कुलीनों के प्रभुत्व को जारी रखने के प्रयास स्वाभाविक तौर पर असफल हो गए ।
फिर भी, बलबन की असफलताओं से अधिक महत्वपूर्ण उसकी उपलब्धियाँ हैं । उसने ऐसी नीति तैयार की जो मंगोल हमलों को झेलने में समर्थ रही । जब नस्लवाद और कबीलावाद की संकीर्ण सीमाएँ टूटीं तथा प्रशासन में विभिन्न वर्गो के लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाने की नीति अपनाई गई तथा सक्षम और योग्य व्यक्तियों को आगे आने का अवसर दिया गया, उस वक्त भी बलबन की राजतंत्र को मजबूत करने की नीति काम आई । यही बाद में सल्तनत के विस्तार की भूमिका थी ।