The below mentioned article provides a biography of Mahmud Gawan in Hindi language.

बहमनी साम्राज्य के हाथ में वारंगल के आने से दक्षिण भारत में शक्ति-संतुलन बदल गया । बहमनी साम्राज्य का क्रमश प्रसार हुआ तथा महमूद गाँवा के प्रधानमंत्रित्व में वह शक्ति और क्षेत्रीय विस्तार की ऊँचाइयों तक पहुँच गया । महमूद गाँवा का आरंभिक जीवन अज्ञात है । वह जन्म से ईरानी और आरंभ में एक व्यापारी था ।

उसका सुल्तान से परिचय हुआ और जल्द ही वह उसका प्रिय पात्र बन गया । उसे मलिक-उल-तुज्जार की उपाधि दी गई । जल्द ही वह पेशवा (प्रधानमंत्री) बन गया । राज्य के मामलों पर लगभग 20 वर्षों तक महमूद गाँवा छाया रहा । उसने पूरब में और अधिक कब्जा करके बहमनी साम्राज्य का विस्तार किया ।

विजयनगर के क्षेत्र में दूर काँची तक किए गए एक हमले ने बहमनी हथियारों की शक्ति को दर्शाया । लेकिन दाभोल और गोवा समेत पश्चिमी समुद्रतटों को रौंद देना महमूद गाँवा का प्रमुख सैन्य योगदान था । इन बंदरगाहों के हाथ से निकल जाने से विजयनगर को भारी धक्का लगा । गोवा और दाभोल पर बहमनी राज्य के नियंत्रण के कारण ईरान, ईराक आदि के साथ उसका विदेश व्यापार और बढ़ा । आंतरिक व्यापार और विनिर्माण में भी वृद्धि हुई ।

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महमूद गाँवा ने साम्राज्य की उत्तरी सीमाओं को भी स्थिर करने की कोशिश की । अहमदशाह प्रथम के समय से ही मालवा, जिस पर खलजी शासकों का राज्य था, गोंडवाना, बरार और कोंकण पर अधिकार पाने के लिए लड़ रहा था । इस संघर्ष में बहमनी सुल्तानों ने गुजरात के शासकों से सहायता माँगी थी जो उन्हें मिली भी थी ।

काफी कुछ टकराव के बाद तय हुआ कि गोंडवाना में स्थित खेड़ला मालवा को और बरार बहमनी सुल्तान को मिलेगा । लेकिन मालवा के शासक हमेशा बरार को हथियाने की ताक में लगे रहते थे । बरार को लेकर महमूद गाँवा को मालवा के महमूद खलजी के खिलाफ अनेक तीखी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी । गुजरात के शासक से मिली सक्रिय सहायता के बल पर वह विजयी रहा ।

इस तरह दक्षिण में संघर्ष के ढर्रे में धार्मिक आधार पर विभाजन की कोई जगह नहीं थी-राजनीतिक एवं रणनीतिक स्वार्थ तथा व्यापार और वाणिज्य पर नियंत्रण संघर्ष के अधिक महत्वपूर्ण कारण होते थे । दूसरे उत्तर भारत और दक्षिण भारत में विभिन्न राज्यों के आपसी संघर्ष एक दूसरे से पूरी तरह अलग रहकर कभी नहीं लड़े गए ।

पश्चिम में मालवा और गुजरात दकन के मामलों में खिंच गए पूरब में उड़ीसा, बंगाल के साथ संघर्षरत था तथा व्यापारिक दृष्टि से समृद्ध कोरोमंडल तट पर भी लालच की दृष्टि डाल रहा था ।

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1450 के बाद उड़ीसा के शासकों ने दक्षिण भारत में दूर तक धावे बोले उनकी सेनाएँ मदुरै तक जा पहुँची तथा उड़ीसा की सीमा कृष्णा नदी तक चली गई । उनकी गतिविधियों ने विजयनगर साम्राज्य को और कमजोर कर डाला जो देवराय द्वितीय की मृत्यु के बाद अंदरूनी टकराव के दौर से गुजर रहा था ।

महमूद गाँवा ने बहुत-से अतिरिक सुधार किए । उसने साम्राज्य को आठ प्रांतों तरफों में बाँटा । हर तरफ का शासन एक तरफदार चलाता था । हर अमीर के वेतन और दायित्व तय किए गए । 500 घोड़ों का एक दस्ता रखने के लिए एक अमीर को एक लाख हूण प्रतिवर्ष का वेतन मिलता था ।

वेतन नकद या जागीर के रूप में दिया जा सकता था । जिनको जागीर के रूप में वेतन दिया जाता था उन्हें मालगुजारी की वसूली के लिए भत्ते भी दिए जाते थे । हर प्रांत तरफ में सुल्तान के खर्च के लिए भूभाग खालिसा अलग रखा गया था । भूमि को मापने (पैमाइश) के तथा हर किसान के लिए राज्य को देय राशि तय करने का प्रयत्न किया गया ।

महमूद गाँवा कला का महान संरक्षक था । उसने राजधानी बीदर में एक शानदार मदरसा बनवाया । रंगीन खपरैलों से सुसज्जित यह इमारत तीन मंजिल ऊँची थी तथा इसमें एक हजार अध्यापक और छात्र रह सकते थे । उनको मुफ्त भोजन ओर वस्त्र दिया जाता था । इस काल के सबसे प्रसिद्ध कुछ विद्वान ईरान और ईराक से इस मदरसे में महमूद गाँवा की प्रेरणा से आए थे ।

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अमीरों (कुलीनों) का आपसी टकराव बहमनी साम्राज्य के सामने मौजूद सबसे दुरुह समस्याओं में से एक था । ये अमीर पुराने और नये में या दकनी और विदेशी आफाकी या गरीब) में विभाजित थे । एक नवांगतुक के रूप में महमूद गाँवा को दकनियों का भरोसा जीतने के लिए लोहे के चने चबाने पड़े ।

हालांकि उसने मेल-मिलाप की व्यापक नीति अपनाई पर दरबार में गुटों की लड़ाई बंद नहीं हुई । उसके विरोधी नौजवान सुल्तान के कान भरने में कामयाब रहे और उसने 1482 में गाँवा को मरवा डाला । उस समय महमूद गाँवा 70 साल का था ।

गुटों का टकराव अब और भी तीखा हो गया । विभिन्न तरफदार स्वतंत्र हो गए । जल्द ही बहमनी साम्राज्य पाँच राज्यों में बँट गया गोलकुंडा बीजापुर अहमदनगर बरार और बीदर । इनमें से अहमदनगर बीजापुर और गोलकुंडा के राज्यों ने सत्रहवीं सदी में मुगल साम्राज्य में शामिल किए जाने तक दकन की राजनीति में अग्रणी भूमिका निभाई ।

बहमनी साम्राज्य ने उत्तर और दक्षिण के बीच एक सांस्कृतिक सेतु का काम किया । इस तरह विकसित होने वाली संस्कृति की अपनी विशेषताएँ थीं जो उत्तर भारतीय संस्कृति से अलग थीं । उत्तराधिकारी राज्यों ने इन सांस्कृतिक परंपराओं को जारी रखा और उन्होंने इस काल में मुगल संस्कृति के विकास को भी प्रभावित किया ।

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