The below mentioned article provides a biography of Raziya Sultana (1236-39) a queen of Delhi Sultanate during the medieval period in India.
इल्तुतमिश अपने अंतिम वर्ष में उत्तराधिकार की समस्या से चिंतित था । वह अपने जीवित बेटों में से किसी को भी गद्दी वे योग्य नहीं समझता था । कुछ समकालीन इतिहासकारों के अनुसार इस विषय पर चिंतापूर्वक सोचने के बाद उसने आखिर अपनी बेटी रज़िया को तख्त का उत्तराधिकारी बनाने का फैसला किया ।
उसने अमीरों (कुलीनों) और धर्मशास्त्रियों (उलमा) को भी इस नामजदगी पर सहमत करा लिया । वैसे तो प्राचीन ईरान और मिस्र दोनों में स्त्रियाँ रानियों के रूप में शासन कर चुकी थीं और राजकुमारों के अवयस्क रहने पर उनकी संरक्षिकाओं के रूप में काम भी कर चुकी थीं, पर बेटों पर एक स्त्री को वरीयता देना एक नया कदम था ।
कुछ आधुनिक लेखकों का मत है कि यह रजिया और उसके समर्थकों की गढ़ी हुई कहानी है । इसकी पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि इल्तुतमिश के वजीर निजाम-उल-मुल्क ने रजिया के दावे का समर्थन नहीं किया था । अपना दावा मनवाने के लिए रजिया को अपने भाइयों से टकराना पड़ा और शक्तिशाली तुर्क अमीरों से भी और वह कुल तीन साल शासन कर सकी । पर संक्षिप्त होते हुए भी उसके शासन की अनेक दिलचस्प विशेषताएँ थीं ।
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यह राजतंत्र और उन तुर्क सरदारों के बीच एक सत्ता-संघर्ष का आरंभ था जिनको कभी-कभी ‘चालीसा’ (चहलगानी) भी कहा जाता है । इल्तुतमिश ने इन तुर्क सरदारों को बहुत सम्मान दिया था । उसकी मृत्यु के बाद ताकत के नशे में चूर ये दंभी सरदार किसी ऐसे पुतले को गद्दी पर बिठाना चाहते थे जिसे वे नचा सकें ।
जल्द ही उन्हें पता चल गया कि स्त्री होकर भी रजिया उनके इशारों पर चलने के लिए तैयार न थी । उसने स्त्री-वेश त्यागकर मुँह पर बुर्का डाले बिना दरबार लगाना आरंभ कर दिया । वह शिकार भी करती थी तथा युद्ध में सेना का नेतृत्व भी ।
वजीर निजाम-उल-मुल्क जुनैदी ने उसके सत्तारोहण का विरोध किया था और उसके खिलाफ अमीरों की एक बगावत को शह और मदद भी दे रहा था । वह हारा और भागने पर मजबूर हो गया । राजपूतों को काबू में लाने के लिए रजिया ने रणथंभौर के खिलाफ एक मुहिम भेजी, और अपने पूरे राज्य में सफलता के साथ कानून-व्यवस्था की स्थापना की ।
लेकिन अपने वफादार अमीरों का एक दल खड़ा करने और एक गैर-तुर्क को ऊँचे पद पर लाने के प्रयासों के कारण उसका विरोध होने लगा । तुर्क अमीरों ने उस पर स्त्री सुलभ विनम्रता छोड़ देने तथा याकूत खान नाम के एक अबीसीनियाई हब्शी अमीर से कुछ अधिक ही लगाव रखने का आरोप लगाया । याकूत खान को शाही अस्तबल का अधीक्षक नियुक्त किया गया था जिसका मतलब शासक से निकट होना था ।
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लेकिन समकालीन लेखकों ने रजिया को उससे निजी अंतरंगता का दोष नहीं दिया है: यह आरोप गलत है कि वह रजिया को घोड़े पर बिठाता था क्योंकि रजिया घोड़े पर बैठकर नहीं, हाथी पर बैठकर जनता के सामने जाती थी ।
लाहौर और सरहिंद में विद्रोह उठ खडे हुए । रजिया ने लाहौर के खिलाफ एक अभियान का स्वयं नेतृत्व किया तथा सूबेदार को झुकने पर मजबूर कर दिया । सरहिंद जाते हुए एक अंदरूनो बगावत फूट पड़ी जिसमें याकूत खान मारा गया और रजिया कैद कर ली गई । लेकिन रजिया ने उसे कैद करने वाले अल्तूनिया को लुभा लिया तथा उससे शादी करके दिल्ली को पाने की नए सिरे से कोशिश की ।
रजिया बहादुरी से लड़ी पर हार गई और जब भाग रही थी तो एक जंगल में डाकुओं के हाथों मारी गई । रजिया के दुखद अंत से चहलगानी तुर्क अमीरों की बढ़ती शक्ति साबित हो गई । समकालीन इतिहासकार मिन्हाज सिराज ने रजिया की अत्यधिक प्रशंसा की है ।
वह कहता है कि रजिया में सुल्तान होने के सभी गुण मौजूद थे, वह ‘विवेकमय लोकोपकारी, अपने राज्य की हितैषी न्याय करने वाली, प्रजापालक और महान योद्धा थी ।’ पर वह आगे कहता है: ‘ये गुण उसके किस काम आए जब वह एक स्त्री के रूप में पैदा हुई ।’ मिन्हाज के लिए ऐसा कहना ही उपयुक्त रहा होगा, बजाए तुर्क अमीरों को दोष देने के जो, उसके तथा उसके उत्तराधिकारियों के भी विनाश के प्रमुख कारण थे ।