Read this article in Hindi to learn about the condition of people in India during eighth to twelfth century (Medieval Period).

इस काल में वस्त्र सोने-चाँदी के कामों, धातुकर्म आदि भारतीय दस्तकारियों के ऊँचे स्तर में कोई गिरावट नहीं आई । भारतीय कृषि भी फलती-फूलती रही । मिट्‌टी की उर्वरता और भारतीय किसान की कुशलता की पुष्टि अनेक अरब यात्रियों ने की है ।

इस काल की सभी साहित्यिक रचनाएँ बतलाती हैं कि मंत्री, अधिकारी और सामंत शानो-शौकत के साथ रहते थे और दिखावापसंद शे । वे सुंदर मकान बनवाने में, जो कभी-कभी पाँच मंजिल ऊँचे होते थे राजाओं की नकल करते थे । वे आयातित ऊनी कपड़ों चीनी रेशम जैसे कीमती विदेशी वस्त्रों तथा शरीर को सजाने के लिए सोने-चाँदी के कीमती जेवरों का उपयोग करते थे ।

उनके घरों मे स्त्रियों की बड़ी संख्या होती थी और उनकी देखभाल के लिए सेवकों और सेविकाओं की भरमार होती थी । कभी वे बाहर जाते तो सेवकों की एक बड़ी संख्या उनके साथ चलती थी । वे महासामंताधिपति जैसी भारी-भरकम उपाधियाँ धारण करते थे तथा उनके अपने विशिष्टतासूचक प्रतीक होते थे, जैसे ध्वज, सुसज्जित छत्र और मक्खियाँ भगाने के लिए चँवर ।

ADVERTISEMENTS:

बड़े व्यापारी भी राजा के तौर-तरीकों की नकल करते थे और उनका जीवन कभी-कभी राजसी ही होता था । चालुक्य साम्राज्य के एक करोड़पति (कोटीश्वर) के बारे में मालूम होता है कि उसके मकान पर बड़े-बड़े ध्वज लहराते थे जिनसे जुड़ी घंटियाँ बजती रहती थीं और उसके पास बड़ी तादाद मैं हाथी-घोड़े थे ।

मुख्य इमारत तक जाने के लिए स्फटिक की सीढ़ियाँ थीं, तथा स्फटिक के फर्श और दीवारों वाला एक मंदिर था जिसकी दीवारें धार्मिक चित्रों से सुसज्जित थीं तथा अंदर स्फटिक की एक मूर्ति थी । कहते हैं कि गुजरात के मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल इस काल के सबसे धनी व्यापारी थे ।

तो भी उपरोक्त बातों से हम यह नहीं मान सकते कि चारों ओर सुख-समृद्धि थी । खाने-पीने को वस्तुएँ तो सस्ती थीं पर नगरों में फिर भी बहुत-से निर्धन व्यक्ति थे जो भरपेट भोजन नहीं पाते थे ।

कश्मीर में बारहवीं सदी में लिखी गई राजतरंगिणी का लेखक कहता है कि दरबारी जहाँ तला हुआ मांस खाते थे तथा फूलों से सुगंधित ठंडी शराब पीते थे, वहीं साधारण जनता को चावल और उत्पल-शाक (खट्‌टे स्वाद वाली एक जंगली वनस्पति) पर संतोष करना पड़ता था । निर्धन स्त्री-पुरुषों के कठोर जीवन की अनेक कहानियाँ मिलती हैं ।

ADVERTISEMENTS:

इनमें से कुछ ने तो विवश होकर डाकू और बटमार का जीवन अपना लिया था । लेकिन ज्यादातर लोग गाँवों में रहते थे जिनके जीवन के बारे में हमें साहित्य-रचनाओ भूमिदान पत्रों अभिलेखों आदि से सूचनाएँ प्राप्त होती हैं ।

धर्मशास्त्रों के टीकाकार बतलाते हैं कि किसानों से मालगुजारी के रूप में पहले की ही तरह उपज का छठा भाग माँगा जाता था । मगर कुछ भूमिदान पत्रों से इसके अतिरिक्त कई अन्य शुल्क का भी चलता है, जैसे चराई कर, तालाब कर आदि । किसानों को ये कर मालगुजरी के अलावा देने पड़ते थे । साथ ही कुछ भूमिदान पत्रों में दान पानेवालो को किसानों से निर्धारित या अनिर्धारित, सही या गलत कर लगाने का अधिकार दिया गया है ।

किसानों को बेगार (विष्टि भी देनी पड़ती थी । मध्य भारत और उड़ीसा जैससे कुछ क्षेत्रों में हम देखते हैं कि कुछ गाँव दान पानेवाले ब्राह्मणों और अन्य व्यक्तियों को दस्तकारों, चरवाहों और किसानों समेत दे दिए गए थे जो मध्यकालीन यूरोप के सर्फों की तरह जमीन से बँधे होते थे ।

हमें साहित्यिक कृतियों से पता चलता है कि कुछ सरदार जब भी अवसर पाते, पैसा वसूल किया करते थे । एक राजपूत सरदार के बारे में कहा गया है कि वह गौरेयों, मुर्दा चिड़ियों, सूअर की लेंड और मुर्दा के कफ़न से भी पैसा बनाया करता था । एक अन्य लेखक एक ऐसे गाँव के बारे में बतलाता है जो एक सांमत की कारगुजारियों के कारण उजड़ गया था ।

ADVERTISEMENTS:

फिर इसमें बार-बार पड़नेवाले अकालों और होते रहने वाले युद्धों को भी जोड़ दें तो आम लोगों के व्यथित जीवन की तस्वीर पूरी हो जाती है । युद्धों में जलाशयों का विनाश गाँवों का जलाया जाना ताकत के बल पर मवेशियों या अन्नभंडारों में जमा अन्न का हथियाया जाना और नगरों का विध्वंस आम बातें थीं-इतनी आम कि इस काल के लेखकों ने इन कामों को वैध माना है । इस तरह सामंती अथवा प्यूडल कहे जाने वाले समाज के विकास ने साधारण जनना पर बहुत सारा बोझ लाद दिया था ।

Home››Hindi››