Read this article in Hindi to learn about the development of cultural consciousness in India during British rule.
उन्नीसवीं शताब्दी में धार्मिक एवं समाज सुधार आंदोलनों का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान हैं । अनेक कारणों से भारत में धर्म एवं समाज में परिवर्तन प्रारंभ हुआ इसे पुनर्जागरण के नाम से जाना जाता है ।
भारत के सामाजिक जीवन में अनेक कुरीतियाँ आ गई थी जैसे: छुआछूत, सती प्रथा, दलितों की दुर्दशा, बलि प्रथा, मद्यपान आदि जिनके कारण भारतीय समाज पतन के द्वार पर खड़ा था । ऐसी स्थिति में प्रबुद्ध भारतीयों ने इसमें सुधार लाने के लिए आंदोलन प्रारंभ किए ।
राजा राममोहन राय एवं ब्रह्म समाज:
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राजा राममोहन राय भारतीय राष्ट्रीयता के अग्रदूत कहे जाते हैं । उन्हें भारत के सुधार आन्दोलनों का जनक भी कहा जाता है । 19वीं शताब्दी के सुधार आन्दोलनों में उनके विचारों का व्यापक प्रभाव था । 20 अगस्त 1828 ई॰ को राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की ।
इसके सदस्य शनिवार को सायंकाल एकत्र होकर उपनिषदों का वाचन करते थे । उन्होंने विभिन्न धर्मों के साहित्य को पढ़कर निष्कर्ष निकाला कि सभी धर्मों में एकेश्वरवादी अंश समान हैं । वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे ।
उन्होंने बांगला, हिंदी, संस्कृत, फारसी तथा अंग्रेजी में अनेक ग्रंथों की रचना की और बांगला और फारसी में दो समाचार पत्र प्रारंभ किए । उन्होंने सती प्रथा का कड़ा विरोध किया । वे विधवा विवाह तथा सभी के लिए शिक्षा के घोर समर्थक थे । वे जाति प्रथा के कडे विरोधी थे ।
वे संपूर्ण मानव जाति के लिए स्वतंत्रता चाहते थे । वे एक महान शिक्षा शास्त्री थे । शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने पश्चिमी शिक्षा का समर्थन किया । उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप विलियम बैंटिक ने 1829 में सती प्रथा पर रोक लगा दी तथा कानून बनाकर सती प्रथा को अपराध घोषित किया । 1833 ई॰ में उनका देहावसान हो गया ।
स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज:
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1875 ई॰ में दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की । स्वामी दयानन्द ने बताया कि मनुष्य को ईश्वर द्वारा प्रदत्त सारा ज्ञान वेदों में विद्यमान है, अत: अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाना चाहिए । इनका प्रमुख ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ है । आर्य समाज का भारतीय सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक व शैक्षणिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है । 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया ।
महादेव गोविंद रानाडे एवं प्रार्थना समाज:
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ब्रह्म समाज से प्रभावित होकर सन् 1867 ई॰ में बंबई में महादेव गोविंद रानाडे ने ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना की । इस समाज के कार्यक्रमों में रामकृष्ण गोपाल भंडारकर एवं डॉ. आत्माराम पाडुरंग जैसे नेताओं का सक्रिय योगदान रहा ।
1. प्रार्थना समाज ने स्त्रियों के उद्धार के लिए कार्य किया एवं विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया ।
2. रानाडे ने समाज की जाग्रति में शिक्षा को प्रमुख बताते हुए स्त्री शिक्षा पर बल दिया ।
3. जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता का विरोध किया एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किये ।
4. निम्न जातियों की कन्याओं के लिए स्कूल खोला ।
5. सन् 1884 ई॰ में उन्होंने ‘डेक्कन एजुकेशन सोसायटी’ की स्थापना की । जिसके माध्यम से एक विद्यालय खोला जो कालांतर में पूना के प्रसिद्ध ‘फर्ग्यूसन कॉलेज’ के नाम से जाना जाता है ।
6. सन् 1905 ई॰ से गोपालकृष्ण गोखले ने भी ‘प्रार्थना समाज’ का समर्थन किया ।
ज्योतिबाफुले एवं सत्यशोधक समाज:
बंगाल एवं बंबई में चलाये जा रहे सुधार आंदोलनों से प्रभावित होकर ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र में ‘सत्यशोधक’ समाज की स्थापना की एवं इसके माध्यम से उन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए एक स्कूल खोला ।
i. छुआछूत का विरोध करते हुए जन-आंदोलन चलाया जिसमें समाज को वह दलितों की समस्याओं से अवगत कराने में सफल भी रहे ।
ii. विधवा-पुनर्विवाह का समर्थन करते हुए उन्होंने इस कार्य में व्यक्तिगत रूप से सहयोग किया ।
iii. उनके प्रयासों से ही कालांतर में जगन्नाथ सेठ और भाऊदाजी जैसे समाज सुधारकों का भी उन्हें सक्रिय सहयोग मिला ।
स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण मिशन:
उन्नीसवीं सदी के प्रमुख समाज सुधारकों में रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा है । रामकृष्ण परमहंस का जन्म सन् 1836 ई॰ में बंगाल के हुगली जिले में हुआ । वे बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे तथा उन्होंने सभी धर्मों की पवित्रता को स्वीकार किया ।
i. भारतीय संस्कृति को महान बताते हुए उन्होंने मूर्ति-पूजा को सही बताया ।
ii. स्वामी रामकृष्ण परमहंस से उस समय के सभी सुधारक प्रभावित थे ।
iii. उनके उपदेशों व शिक्षाओं को जन-सामान्य तक पहुंचाने का कार्य उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद ने किया ।
स्वामी विवेकानंद का जन्म सन् 1862 ई॰ में बंगाल के एक सभ्रान्त परिवार में हुआ था, उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था । ज्ञान की खोज में ही वे रामकृष्ण परमहंस से मिले और उनसे प्रभावित होकर सन् 1897 ई॰ में उन्होंने ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की ।
i. इस मिशन का प्रमुख उद्देश्य भारतीय राष्ट्रवाद को आध्यात्म की अच्छाईयों से जोड़कर समाज सेवा करना था ।
ii. मिशन ने बाढ़, अकाल, प्राकृतिक विपदाओं एवं महामारियों के समय समाज में अनेक राहत कार्य किये एवं अनेक शिक्षण संस्थाएं भी खोलने का काम किया ।
iii. रामकृष्ण मिशन ने सभी धर्मों व पूजा पद्धतियों को आदर भाव से देखा तथा सभी की आस्थाओं का सम्मान किया ।
iv. स्वामी विवेकानंद ने भारतीयों को जाग्रत करने के लिये गरीबी दूर करने के प्रयासों पर बल दिया ।
v. उन्होंने भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वोत्तम संस्कृति बताते हुए विदेशों में भी इसका प्रचार-प्रसार किया ।
थियोसोफिकल सोसायटी एवं श्रीमती ऐनीबेसेंट:
थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना मैडम ब्लावाट्सकी और कर्नल अल्काट ने अमेरिका में की थी । इसका मुख्य कार्यालय मद्रास (चेन्नई) के निकट अडयार में बनाया गया । 1889 में श्रीमती ऐनीबेसेन्ट इसकी सदस्य बनीं और 1893 में भारत आने के बाद इसका कार्य करने लगीं । 1907 में वे इस सोसायटी की अध्यक्ष बनीं ।
i. उन्होंने भारतीय वेद, पुराण एवं दर्शन, साहित्य आदि का गहन अध्ययन किया और भारतीयों को उनकी संस्कृति की महानता को समझाते हुए पुन: जाग्रत करने का प्रयास किया ।
ii. उन्होंने भगवत गीता व अन्य धर्मग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा भारतीय संस्कृति की गौरव गाथाओं पर अनेक लेख लिखे ।
iii. थियोसोफिकल सोसायटी ने हिंदू धार्मिक पद्धतियों पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित कर भारत में बौद्धिक जागरण का कार्य किया ।
iv. सन् 1898 ई॰ में थियोसोफिकल सोसायटी ने बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की ।
v. स्त्री शिक्षा को अनिवार्य बताते हुए विधवा एवं परित्यक्ताओं की स्थिति में सुधार हेतु इन्होंने अनेक प्रयास किये तथा बाल-विवाह एवं जाति प्रथा का विरोध किया ।
इन समाज सुधारकों के अतिरिक्त ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, देवेन्द्रनाथ टैगोर, नारायण गुरू आदि भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों में सक्रिय सहयोगी रहे हैं ।
मुस्लिम समाज एवं सुधार आंदोलन:
मुस्लिम समाज में भी अनेक कुरीतियाँ विद्यमान थीं । इन कुरीतियों को दूर करने एवं समाज में जाग्रति लाने के लिए अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा विद्वानों ने प्रयास किए ।
i. नवाब अब्दुल लतीफ ने सन् 1863 ई॰ में कलकत्ता में मुस्लिम साहित्य सभा (मोहम्मद लिटरेरी सोसायटी) की स्थापना की । इसके माध्यम से उन्होंने मुसलमानों को शिक्षित करने हेतु प्रचार-प्रसार किया एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया ।
ii. इसी क्रम में एक प्रमुख नाम सर सैयद अहमद खाँ का है जिन्होंने मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा के अध्ययन पर बल दिया तथा बहुपत्नी प्रथा एवं भाग्यवादिता को दूर करने का प्रयास किया ।
iii. सर सैयद अहमद खाँ को कट्टरपंथी मुसलमानों के विरोध का सामना करना पड़ा किंतु उन्होंने अंग्रेजों और मुसलमानों को निकट लाने के लिए हर संभव प्रयास किये ।
iv. सन् 1864 ई॰ में उन्होंने एक अनुवाद समिति (जिसे विज्ञान समिति भी कहा गया) की स्थापना की जो विज्ञान तथा अन्य विषयों की अंग्रेजी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद करने का कार्य करती थीं ।
v. सन् 1877 ई॰ में उन्होंने अलीगढ़ में ‘मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज’ की स्थापना की, जहाँ अंग्रेजी माध्यम से कला एवं विज्ञान विषयों को पढ़ाया जाता था ।
vi. अंग्रेजों ने इस कॉलेज के विकास में सहयोग दिया तथा यहाँ कई शिक्षक इंग्लैण्ड से पढ़ाने के लिए भी आये ।
vii. कालांतर में यह कॉलेज ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ बन गया । इस पूरे घटनाक्रम को ‘अलीगढ-आंदोलन’ के नाम से भी जाना जाता है ।
viii. पूरे देश के अधिकांश मुसलमानों ने इस कॉलेज को भरपूर सहयोग दिया ।
ix. सर सैयद अहमद खाँ ने हिंदु-मुस्लिम एकता का समर्थन किया, किंतु कालांतर में वे पूर्णत: अंग्रेजों के प्रभाव में आ गये थे ।
x. उन्होंने दास प्रथा को इस्लाम के विरूद्ध बताया तथा कुरान के अध्ययन पर जोर दिया ।
xi. अपने विचारों को उन्होंने ‘तहजीब उल अखलाक’ नामक पत्रिका का प्रकाशन कर समाज के सामने प्रस्तुत किया ।
पारसी एवं सिक्सों के सुधार आंदोलन:
सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का यह प्रयास हिंदू-मुसलमानों के साथ-साथ अन्य समाजों में भी सक्रिय रूप से किया जा रहा था । सन् 1851 ई॰ में पारसियों ने एक धार्मिक सुधार संघ की स्थापना की जिसका उद्देश्य पारसियों की सामाजिक स्थिति का पुनरूद्धार कर पारसी धर्म की प्राचीन पवित्रता पुन: स्थापित करना था ।
i. इस संस्था के प्रमुख नेताओं में दादाभाई नौरोजी एवं नौरोजी फरदूनजी थे, जिन्होंने मिलकर ‘रास्त-गोफ्तार’ नामक पत्रिका निकाली । दोनों ही नेताओं ने शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया एवं कन्या शिक्षा पर अधिक बल दिया ।
पाश्चात्य शिक्षा व सुधार आंदोलनों से प्रभावित होकर सिक्सों ने भी अपने संप्रदायों व समाज में सुधार लाने का प्रयास किया ।
i. सिक्सों के गुरूद्वारे पुरोहितों व महंतों के कब्जों में हो गये थे, जिन्हें वे अपनी निजी संपत्ति समझने लगे थे ।
ii. इसलिए महंतों से गुरूद्वारे को मुक्त कराने के लिए शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी और अकाली दल ने मिलकर आंदोलन चलाया और गुरूद्वारों का नियंत्रण सिक्स समाज को सौंपने की माँग की ।
iii. शांतिपूर्ण ढंग से चलाये गये इस आंदोलन में जन समुदाय ने भी सहयोग किया ।
iv. सभी के संयुक्त प्रयासों से सन् 1925 ई॰ में एक कानून बना जिसके अनुसार गुरूद्वारों के संचालन का भार ‘शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक समिति’ को सौंप दिया गया ।
भारतीय समाज पर इन आंदोलनों के प्रभाव:
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जो धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन चलाये गये, उनके प्रभाव से भारतीय समाज के शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिले ।
i. आधुनिक शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन एवं साहित्य के अध्ययन में लोगों की रूचि में वृद्धि हुई ।
ii. देश में स्कूलों एवं कॉलेजों की संख्या में वृद्धि हुई ।
iii. महिलाओं की स्थिति में भी कुछ सुधार हुआ । सती प्रथा, बाल विवाह तथा पर्दा प्रथा में कमी आई एवं उनकी शिक्षा का विकास हुआ ।
iv. सभी सुधारकों द्वारा वेदों के पुन: अध्ययन, एवं संस्कृति के गौरव गान से, भारतीयों में स्वतंत्रता व राष्ट्रीयता की भावना को और मजबूती प्रदान की ।
v. इन सुधार आंदोलनों से पूरे देश में एक नई जाग्रति फैली तथा सांस्कृतिक चेतना का विकास हुआ ।
शिक्षा, साहित्य एवं कला तथा विज्ञान का विकास:
सभी समाज सुधारकों ने शिक्षा के विकास पर बल दिया तथा व्यक्तिगत प्रयास भी किए, जिससे इस सदी में स्कूलों व कॉलेजों की संख्या में वृद्धि हुई:
i. धनाभाव के कारण प्राथमिक शिक्षा को पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिल सका, जिससे बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत के अधिकांश गाँवों में प्राथमिक स्कूल नहीं थे, परिणामस्वरूप देश के अधिकांश बच्चे शिक्षा से वंचित रहे ।
ii. शिक्षा केंद्रों एवं नीतियों पर ब्रिटिश प्रभाव को कम करने के लिए भारतीय सुधारकों ने ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद’ की स्थापना की ।
iii. वाराणसी एवं अहमदाबाद में विद्यापीठों की एवं अलीगढ़ में ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ की स्थापना की गई ।
iv. पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस में ‘हिन्दू विश्वविद्यालय’ तथा रविन्द्रनाथ ठाकुर ने शांति निकेतन में ‘विश्व-भारती’ की स्थापना की ।
संस्कृति:
सभी सुधार आंदोलनों के माध्यम से सुधारकों ने भारतीय संस्कृति के महत्व की व्याख्या की तथा वेदों के ज्ञान को अनिवार्य बताया परिणामस्वरूप भारतीयों के हृदय में अपनी संस्कृति के प्रति नव-चेतना का विकास हुआ । इस सदी में वेद पुराण, भगवद्गीता एवं अनेक संस्कृत ग्रंथों का विभिल भाषाओं में अनुवाद किया गया जिससे आम जनता को भी शिक्षा संस्कृति एवं धर्म की जानकारी हो सके ।
साहित्य एवं कला:
उन्नीसवीं सदी के भारत में अनेक भाषाओं के साहित्य का विकास हुआ ।
i. जहाँ पहले अधिकांश साहित्य धार्मिक विषयों से प्रेरित थे, वहीं इस समय में पद्य के साथ ही गद्य को भी स्थान मिला ।
ii. उपन्यास, लघुकथा, नाटक तथा निबंध जैसी नई शैलियों का भी विकास हुआ ।
iii. साहित्य की इन शैलियों एवं काव्य में मुख्यत: मानवतावादी विषय ही होते थे, जिनका संबंध साधारण लोगों के जीवन संघर्ष एवं उनकी समस्याओं से ही संबंधित होता था ।
iv. इस समय लिखी गई रचनाओं व साहित्य ने देश प्रेम एवं राष्ट्रीयता की भावना को सशक्त करने का काम भी किया ।
v. क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित साहित्य ने सुधारवादी विचारों का प्रचार-प्रसार किया एवं अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाई ।
vi. तेलगु के गुरजादा अप्पा राव, मराठी के हरिनारायण आपटे, मलयालम के कुमारन आसन, उडिया के फकीर मोहन सेनापति, तमिल के सुब्रहमण्यम भारती, असमिया के नेमचंद्र बरूआ, कन्नड के के. वेंकटप्पा गौडा पुट्टप्पा एवं उर्दू के मुहम्मद इकबाल आदि का इस समय सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना की जाग्रति में प्रमुख योगदान रहा ।
कला के क्षेत्र में भी इस शताब्दी में बहुत उन्नति हुई । रवीन्द्रनाथ ठाकुर एवं अन्य कलाकारों ने भारत की शास्त्रीय परंपरा की चित्रकला की जिस शैली का विकास किया वह बंगाल शैली के नाम से जानी गई ।
i. भारतीय महाकाव्यों तथा आख्यानों के आधार पर राजा रवि वर्मा ने अनेक चित्र बनाये तथा नंदलाल बसु ने प्राचीन कथाओं के दृश्यों के साथ-साथ कारीगरों और शिल्पियों के दैनिक जीवन से संबंधित चित्रों को भी बनाया ।
विज्ञान का विकास:
अनेक सुधारकों ने विज्ञान के विकास से ही देश की प्रगति को बताया, इसलिए उन्होंने विज्ञान के अध्ययन पर जोर दिया एवं अनेक वैज्ञानिक संस्थाएं स्थापित कीं ।
i. चिकित्सा विज्ञान के पहले भारतीय विद्यार्थी, महेन्द्रनाथ सरकार थे, जिन्होंने सन् 1876 ई॰ में ‘इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साइंस’ नामक संस्था की स्थापना की जो विज्ञान का प्रचार-प्रसार करने वाली पहली प्रमुख संस्था थी ।
ii. बीसवीं सदी के तीसरे दशक में ‘इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन’ की स्थापना हुई जिसके माध्यम से देश के विभिन्न वैज्ञानिक एक-दूसरे के संपर्क में आये ।
iii. भौतिकी के क्षेत्र में चंद्रशेखर वेंकटरमन, सांख्यिकी के क्षेत्र में प्रफुल्लचंद महलनोविस तथा गणित के क्षेत्र में श्रीनिवास रामानुजम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
iv. अंग्रेजी शासनकाल के प्रमुख भारतीय वैज्ञानिकों में मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया (1861- 1962) ने इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया । बाँध निर्माण, जल विद्युत का विकास, रेशम उद्योग आदि के विकास में इनका सक्रिय योगदान था ।
v. प्रफुल्लचंद्र राय, जगदीशचंद्र बसु, सत्येन्द्रनाथ बसु, मेघनाथ शाह, डी॰एन॰ वाडिया एवं बीरबल साहनी आदि वैज्ञानिकों का योगदान भी महत्वपूर्ण रहा ।
प्रेस का विकास:
किसी भी सुधार आंदोलनों के विचार को जन सामान्य तक पहुंचाने का सही कार्य प्रेस के माध्यम से ही किया जाता है । प्रारंभ में प्रेस समाचार-पत्र एवं पत्र-पत्रिकाओं पर केवल अंग्रेजों का ही वर्चस्व था किंतु उन्नीसवीं सदी में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों तथा राष्ट्रभावना को प्रबल करने के विचार से सुधारकों ने अनेक निजी समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया ।
जिन समाचार-पत्रों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का विकास करने का प्रयास किया जा रहा था उनके संपादकों को अंग्रेज जेल में डाल देते थे किंतु फिर भी इस समय के अनेक समाचार-पत्रों ने भारतीयों की माँगों शिकायतों व उनकी दुर्दशा का खुलकर चित्रण किया तथा स्वतंत्रता की भावना को और अधिक सशक्त किया ।
प्रमुख समाचार पत्र व पत्रिकाएं थे:
(1) ‘द-हिन्दू’
(2) ‘द इंडियन मिरर’,
(3) ‘अमृत बाजार पत्रिका’,
(4) ‘केसरी’,
(5) ‘मराठा’,
(6) ‘स्वदेशमित्र’,
(7) ‘प्रभाकर’,
(8) ‘इंदु प्रकाश’ आदि ।
उन्नीसवीं शताब्दी में हुए धार्मिक व सामाजिक सुधार आंदोलनों के सकारात्मक परिणामों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलनों को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।