Read this essay in Hindi to learn about the aspects of culture and society during eighth to twelfth century (Medieval Period) in India.

इस काल में भारतीय समाज में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन आए । इनमें से एक था उस वर्ग के लोगों की शक्ति की वृद्धि जिनका समकालीन लेखकों ने सामंत, राणक, राउत (राजपूत) आदि विभिन्न नामों से बुलाया है । उनके मूल बहुत भिन्न-भिन्न थे । कुछ तो सरकारी अधिकारी थे जिनको नकद वेतन नहीं दिया जाता था बल्कि राजस्वदायी गाँवों के रूप में भुगतान किया जाता था ।

कुछ पराजित राजा भौर उनके समर्थक थे जो सीमित क्षेत्रों के राजस्व का उपभोग करते थे । इनके चलावा स्थानीय पुश्तैनी सरदार या दुस्साहसी सैनिक थे जिन्होंने सशस्त्र समर्थकों की सहायता से अपने प्रभावक्षेत्र बना लिए थे । कुछ कबीलों या कुलों के मुखिया भी थे जिनकी अच्छी खासी हैसियत थी ।

इस तरह इस वर्ग के लोगों में एक सोपान पाया जाता था । लेकिन परिस्थितियों के अनुसार उनकी वास्तविक स्थिति बदलती रहती थी । उनमें से कुछ तो गाँवों के सरदार होते थे कुछ का अनेक गाँवों पर और कुछ का तो पूर क्षेत्र पर वर्चस्व होता था । वे बराबर एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते रहते थे तथा अपने अधिकार-क्षेत्रों और विशेषाधिकारों को बढ़ाने का प्रयास करते रहते थे ।

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एक राजा अपने अधिकारियों और समर्थकों को जो राजस्वदायी भूमि (जिसे भोग कहते थे) दना था, वह सिद्धांतत: अस्थायी होती थी और राजा जब चाहे, उसे वापस ले सकता है । पर व्यवहार मे कभी कभार ही ऐसा होता था सीधे-सीधे बगावत या निष्ठाभंग होन पर । प्रचलित विचारों के अनुसार एक पराजित राजा को भी उसकी भूमि से वंचित करना पाप था ।

फलस्वरूप इस काल के रजवाड़ों में ऐसे बड़े-बड़े क्षेत्र थे जिन पर पराजित और अधीन राजाओं का वर्चस्व था जो बराबर अपनी स्वतंत्रता को बहाल करने की ताक में रहते थे । इन राजाओं के क्षेत्र में भी विभिन्न अधिकारी अपने गाँवों को पुश्तैनी जागीरें समझते थे । आगे चलकर विभिन्न सरकारी पदों तक को पुश्तैनी माना जाने लगा ।

बंगाल में किस तरह एक ही खानदान के सदस्य चार पीढ़ियों तक महामंत्री के पद पर कायम रहे । इसी तरह अधिकांश पदों को कुछ परिवारों का एकाधिकार माना जाने लगा । धीरे-धीरे पुश्तैनी सरदार शासन के अनेक कार्यो को अपने हाथों में लेने लगे ।

वे मालगुजारी का आकलन और संग्रह ही नहीं करते थे बल्कि अधिकाधिक प्रशासनिक शक्तियाँ भी हथियाते जा रहे थे जैसे अपनी ओर से दंड देने या जुर्माना वसूल करने का अधिकार जिनका पहलै आम तौर पर राजा का विशेषाधिकार माना जाता था । उन्होंने राजा से अनुमति लिए बिना ही अपने अनुयायियों को अपनी भूमि में से भूमि दान देने का अधिकार प्राप्त कर लिया था । इस तरह ऐसे लोगों की संख्या बड़ी जो स्वयं भूमि को जोते-बोए बिना उससे रोजी पाते थे ।

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इस प्रकार के समाज को कुछ इतिहासकारों ने ‘फ्यूडल’ (सामंती) कहा है, हालांकि यूरोपीय फ्यूडलिज्म की वेसेलेज सर्फडम और मेनर जैसी विशेषताएं भारत में नहीं थीं । ये इतिहासकार इस साझी विशेषता पर जोर देते हैं कि समाज पर ऐसे लोगों का एक वर्ग हावी था जिनकी आय किसानों के पैदा किए हुए जायद (सरप्लस) पर आधारित थी और जो स्वयं जमीन पर काम नहीं करते थे ।

फिर प्रमुख उत्पादक अर्थात किसान की स्थिति भी निर्भरता वाली थी । बहुत-से अन्य इतिहासकार इस प्रकार के समाज को ‘मध्यकालीन समाज’ कहना बेहतर मानते है । वे यह मानते हैं कि फ्यूड़लिज्म ‘मध्यकालीन’ यूरोपीय समाज की खास विशेषता थी ।

इस विवाद में और उलझे बिना हम बस यह कहेंगे कि आठवीं सदी के बाद भारत में एक नए प्रकार का समाज पैदा हुआ जिसमें स्थानीयता और उपक्षेत्रीयता पर जोर था । इस काल और इसके बाद के काल के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकासक्रमों को समझने के लिए यह बात जान लेना महत्वपूर्ण है ।

वस्त्र, भोजन, मनोरंजन:

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इस काल में पुरुषों और स्त्रियों के परिधानों की शैली में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं आया । देश के अधिकांश भागों में धोती और साड़ी पुरुषों और स्त्रियों के सामान्य परिधान बने रहे । उत्तर भारत में पुरुष सदरी पहनते थे और स्त्रियाँ चोली पहनती थीं । मूर्तियों से पता चलता है कि उत्तर भारत में उच्च वर्गों के पुरुष लंबे कोट पाजामे और जूते पहनते थे ।

राजतरंगिणी के अनुसार हर्ष ने कश्मीर में राजाओं की शान के योग्य एक परिधान चलाया । इसमें लंबा कोट शामिल था और ऐसा उल्लेख मिलता है कि एक भूतपूर्व आमात्य (महामंत्री) को छोटा कोट पहनने के कारण राजा के क्रोध का पात्र बनना पड़ा । जाड़ों में ऊनी कंबलों का प्रयोग किया जाता था । सबसे अधिक प्रयुक्त सामग्री तो कपास ही था, पर उच्च वर्ग रेशम के कपड़े और बारीक मलमल का प्रयोग भी करते थे ।

अरब यात्री स्त्री-पुरुष दोनों के गहने पहनने के शौक की पुष्टि करते हैं । स्त्री-पुरुष दोनों सोने के कंगन और कुंडल पहनते थे जिनमें कभी-कभी तो कीमती रत्न जड़े होते थे । चीनी लेखक चाऊ-जू कुआ का कहना है कि गुजरात में स्त्री-पुरुष दोनों ही दोहरे कुंडल पहनते थे ।

वे चुस्त कपड़े पहनते थे जिसका एक सिरा उनके माथे को ढँक लेता था । वे लाल रंग के जूते भी पहनते थे । एक और प्रसिद्ध यात्री मार्को पोलो कहता है कि मलाबार में स्त्री-पुरुष बस कमर पर लुंगी बाँधते थे और राजा भी इसका अपवाद नहीं था । उसके अनुसार दर्जी का व्यवसाय तो अज्ञात ही था ।

क्विलान में भी स्त्रियों और पुरुषों का परिधान कटि-वस्त्र ही था । लेकिन दक्षिण भारतीय राजा कपड़े भले ही कम पहनते हों पर वे गहनों के शौकीन होते थे । चाऊ-जू कुआ के अनुसार मलाबार का राजा अपनी प्रजा की तरह कटि-वस्त्र पहनता और नंगे पैर रहता था ।

लेकिन जब वह जुलूस में हाथी पर सवार होकर निकलता था तो मोती-माणिक जड़ा सोने का टोपा पहनता था तथा सोने के बाजूबंद और नूपुर भी धारण किए हुए होता था । मार्को पोलो कहता है, ‘यह राजा जितना सोना और हीरे-मोती धारण करता है वह एक नगर की लूट से प्राप्त हो सकने वाली संपत्ति से भी अधिक है ।’

रहा सवाल भोजन का तो अनेक क्षेत्रों और आबादी के अनेक भागों में शाकाहार ही प्रचलित था । फिर भी इस काल का एक अग्रणी स्मृति लेखक विस्तार से उन अवसरों का वर्णन करता है जब मांसाहार वैध होता था । इससे लगता है कि मोर, घोड़ा, जंगली गधा, जंगली मुर्गा और जंगली सुअर को वैध खाद्य पदार्थ माना जाता था ।

भारतीय लेखक और अरब लेखक भी यहाँ मद्यपान के अभाव की पुष्टि करते हैं । लेकिन लगता है यह एक आदर्श चित्र खींचा गया है । इस काल की साहित्यिक रचनाओं में हमें मद्यपान के अनेक उल्लेख मिलते हैं । विवाहों और भोजों समेत अनुष्ठानों के अवसरों पर शराब पी जाती थी ।

नागरिकों के कुछ वर्गो में बहुत लोकप्रिय वन-विहार के दौरान भी मौज-मस्ती के लिए शराब पी जाती थी । राजा के लश्कर में शामिल स्त्रियों भी जमकर शराब पीती थीं । जहाँ कुछ स्मृति-लेखक तीन द्विज वर्गों के लिए मद्यमान का निषेध करते हैं, वहीं कुछ दूसरे लेखक इसे केवल ब्राह्मणों के लिए निषिद्ध बतलाते हैं तथा क्षत्रियों और वैश्यों को कुछ अपवादों के साथ इसकी छूट दे देते हैं ।

इस काल का साहित्य दिखाता है कि नगरों के लोग मनोरंजन प्रेमी थे । मेलों और त्योहारों के अलावा वन-विहार, तैराकी के आयोजन आदि व्यापक रूप से लोकप्रिय थे । जनता में भेड़ों मुर्गो आदि विभिन्न प्राणियों की लड़ाइयाँ लोकप्रिय थीं और कुश्ती की प्रतियोगिताएँ भी । उच्च वर्ग पाँसों के खेल, शिकार और चौगान (एक प्रकार का भारतीय पोलो) के शौकीन बने रहे । चौगान को तो शाही मनोरंजन समझा जाता था ।

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