Here is an essay on the ‘Delhi Sultanate’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Delhi Sultanate’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. दिल्ली सल्तनत का प्रसार (Spread of the Delhi Sultanate):
1286 में बलबन की मृत्यु के बाद दिल्ली में फिर कुछ समय तक अव्यवस्था फैली रही । बलबन का नियुक्त किया हुआ उत्तराधिकारी शाहजादा मुहम्मद पहले ही मंगोलों के साथ एक लड़ाई में मारा गया था । उसके दूसरे बेटे बुगरा खान ने बंगाल और बिहार पर शासन करने को वरीयता दी, हालाँकि दिल्ली के अमीरों ने उसे हुकूमत सँभालने के लिए निमंत्रित किया था ।
इसलिए बलबन के एक पोते को दिल्ली में तख्त पर बिठाया गया । लेकिन वह इतना छोटा और अनुभवहीन था कि स्थिति को सँभाल नहीं सकता था । उच्च पदों पर तुर्क अमीरों के एकाधिकार को लेकर काफी नाराजगी थी और उसका विरोध हो रहा था । खलजियों जैसे अनेक गैर तुर्क गौरी आक्रमण के समय भारत में आ चुके थे ।
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उन्हें दिल्ली में कभी पर्याप्त मान्यता नहीं मिली और आगे बढ़ने का अवसर पाने के लिए उन्हें बंगाल और बिहार में जाना पड़ा । उन्हें सैनिकों के रूप में भी रोजगार मिला और उनमें से बहुतों को मंगोल चुनौती का सामना करने के लिए उत्तर-पश्चिम में नियुका किया गया था ।
कालांतर में अनेक भारतीय मुसलमान भी कुलीन वर्ग में शामिल हो चुके थे । जैसा कि बलबन के खिलाफ ईमादुद्दीन रेहान को लाए जाने के ढग से पता चलता है, उच्च पदों से वंचित किए जाने पर उनमें भी असंतोष था ।
नासिरुद्दीन महमूद के त्रैटों को किनारे करके बलबन ने स्वयं दिखा दिया था कि एक सुस्थापित राजवश कै वंशजों को दरकिनार करके एक सफल सिपहसालार स्वयं गद्दी पर बैठ सकता टें बशर्ते उसे कुलीनों और सेना का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हो ।
हम देख चुके हैं कि अजमेर और उसके कुछ पड़ोसी क्षेत्रों समेत पूर्वी राजस्थान किस तरह दिल्ली सल्तनत के नियंत्रण में आया हालांकि बलबन के समय में रणथंभौर जो सबसे शक्तिशाली राजपूत राज्य था सल्लनत के हाथ से निकल गया था । जलालुद्दीन ने रणथंभौर पर हमला तो किया पर उसे रणथंभौर पर अधिकार जमाना काफी मुश्किल लगा ।
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इस तरह दक्षिणी और पश्चिमी राजस्थान सल्तनत के नियंत्रण से बाहर रहे । अलाउद्दीन के सत्तारोहण के बाद एक नई स्थिति विकसित हुई । 25 वर्षों के अंतराल में दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने न केवल गुजरात और मालवा पर कब्जा किया और राजस्थान के अधिकांश राजाओं को अधीन बनाया बल्कि दकन और मदुरै तक दक्षिण भारत को भी रौंद डाला ।
कालांतर में इस विशाल क्षेत्र को दिल्ली के सीधे प्रशासनिक नियंत्रण में लाने का प्रयास किया गया । प्रसार के इस नए युग का आरंभ अलाउद्दीन खलजी ने किया और इसे उसके उत्तराधिकारियों ने जारी रखा । मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में यह प्रसार अपने चरम बिंदु पर पहुँच गया ।
दिल्ली सल्तनत प्रसार के इस नए चरण के लिए किस तरह धीरे-धीरे तैयार हो रही थी । इस समय मालवा गुजरात और देवगीर पर राजपूत राजवंशों का शासन था जिनमें से अधिकांश बारहवीं सदी के अंत और तेरहवीं सदी के आरंभ में अस्तित्व में आए थे ।
गंगा की वादी में तुर्क शासन की स्थापना के बावजूद इन राजवंशों ने शायद ही अपने पिछले तौर-तरीके बदले थे । इसके अलावा उनमें से हर एक पूरे क्षेत्र पर अधिकार के लिए लड़ रहा था । यहाँ तक कि इल्तुतमिश के काल में जब तुकों ने गुजरात पर हमला किया तो मालवा और देवगीर दोनों के शासकों ने उस पर दक्षिण से हमला कर दिया ।
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मराठा क्षेत्र में देवगीर के शासक बराबर वारंगल (तेलंगाना क्षेत्र) के और होयसला (कर्नाटक क्षेत्र) के साथ युद्धरत थे । उधर होयसला भी अपने पड़ोसी पांड्यों (तमिल क्षेत्र) के साथ युद्धरत थे । उनकी आपसी शत्रुताओं के कारण न केवल मालवा और गुजरात पर विजय पाना आसान हो गया, बल्कि किसी भी आक्रांता को दक्षिण में अधिकाधिक दूर तक जाने का रास्ता मिलता गया ।
गुजरात:
कई ठोस कारणों से तुर्क शासकों के लिए मालवा और गुजरात पर अधिकार करना जरूरी लग रहा था । ये क्षेत्र न केवल उपजाऊ और आबाद थे, बल्कि गुजरात हस्तशिल्प उत्पादन का, विशेषकर साधारण और उम्दा, दोनों प्रकार के वस्त्रों के उत्पादन का केंद्र था ।
खंबायत (कैंबे) जैसे बंदरगाह ईरान, लाल सागर और अफ्रीका के देशों के साथ तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों और चीन के साथ भी लाभकारी व्यापार चला रहे थे । ये बंदरगाह गंगा की वादी के मालों के लिए भी निकासी के मार्ग थे । गुजरात के बंदरगाहों से होनेवाले विदेशी व्यापार से बहुत-सा सोना-चाँदी यहाँ आता था, जिसे इस क्षेत्र के शासकों ने जमा कर रखा था ।
दिल्ली के सुल्लानों के लिए गुजरात पर शासन स्थापित करने का एक कारण यह भी था कि उनकी सेनाओं के लिए घोड़ों की आपूर्ति पर बेहतर नियंत्रण स्थापित हो सके । मध्य और पश्चिमी एशिया में मंगोलों के उदय तथा दिल्ली के सुल्तानों के साथ उनके संघर्ष के कारण इस क्षेत्र से दिल्ली के लिए उम्दा घोड़ों की आपूर्ति में कठिनाइयाँ आने लगी थीं ।
पश्चिमी बंदरगाहों से भारत में अरबी ईराकी और तुर्की घोड़ों का आयात आठवीं सदी से ही व्यापार का एक महत्वपूर्ण मद था । 1299 के आरंभ में अलाउद्दीन खलजी के सुप्रसिद्ध सिपहसालारों में से दो की कमान में एक सेना राजस्थान के रास्ते गुजरात पर चढ़ आई । रास्ते में उसने जैसलमेर पर धावा बोलकर कब्जा कर लिया । गुजरात का राजा भौंचक्का रह गया और लड़े बिना ही भाग खड़ा हुआ ।
गुजरात के प्रमुख नगर तबाह कर दिए गए । इनमें अन्हिलवाड़ा भी था जहाँ अनेक पीढ़ियों के दौरान अनेक सुंदर भवन और मंदिर बनवाए गए थे । सोमनाथ का सुप्रसिद्ध मंदिर, जिसका बारहवीं सदी में पुनर्निर्माण कराया गया था लूटकर तबाह कर दिया गया । इस प्रकार बहुत सारा लूट का माल हाथ लगा । खंबायत के धनी मुस्लिम सौदागर भी नहीं बखो गए । बाद में दक्षिण भारत में अभियानों का नेतृत्व करने वाला मलिक काफूर यहीं पकड़ा गया था ।
उसे अलाउद्दीन के सामने पेश किया गया और जल्द ही वह उसका विश्वासपात्र बन बैठा । गुजरात अब दिल्ली के अधीन आ गया । जिस तीव्रता और आसानी से गुजरात जीता गया वह संकेत देता है कि गुजरात का शासक अपनी प्रजा के बीच लोकप्रिय नहीं था ।
लगता है कि उसके एक आमात्य ने, जिसकी पत्नी को राजा ने जबरन उठवा लिया था गुजरात पर हमले के लिए अलाउद्दीन से संपर्क किया था और उसकी सहायता की थी । यह भी संभव है कि गुजरात की सेना सुप्रशिक्षित न हो और प्रशासन ढीला-ढाला हो ।
देवगीर के राजा रामचंद्र की सहायता से सत्ताच्युत राजा रायकरण ने दक्षिण गुजरात के एक भाग पर अधिकार बनाए रखा । दिल्ली और देवगीर के यादवों के बीच युद्ध का एक और कारण था ।
राजस्थान:
राजस्थान गंगा की वादी और गुजरात के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी था । इसलिए गुजरात की विजय के बाद अलाउद्दीन ने राजस्थान में अपने शासन को मजबूत बनाने पर ध्यान दिया । सबसे पहले उसका ध्यान रणथंभौर ने खींचा जहाँ पृथ्वीराज के चौहान वंशजों का शासन था ।
उसके शासक हमीरदेव ने अपने पड़ोसियों के खिलाफ युद्ध के अनेक अभियान चलाए थे । धार के राजा भोज और मेवाड़ के राणा पर विजय पाने का श्रेय भी उसे ही दिया जाता है । लेकिन यही जीतें उसका काल साबित हुईं । गुजरात के अभियान के बाद दिल्ली लौटते समय मंगोल सैनिकों ने लूट के माल में हिस्से का विवाद उठने पर विद्रोह कर दिया । विद्रोह कुचल दिया गया और जमकर कत्ले-आम हुआ ।
दो मंगोल अमीर शरण पाने के लिए भागकर रणथंभौर चले गए । अलाउद्दीन ने हमीरदेव को संदेश भेजा कि वे मंगोल अमीर मार दिए जाएँ या निकाल दिए जाएँ । लेकिन गरिमा तथा शरण माँगनेवालों के प्रति कर्त्तव्य की भावना से भरे तथा अपने किले और सैन्यबल के प्रति आश्वस्त, हमीरदेव ने अक्खड़ जवाब भेजे ।
उसका यह मूल्यांकन बहुत गलत भी नहीं था क्योंकि रणथंभौर को राजस्थान का सबसे मजबूत किला माना जाता था और पहले वह सफलतापूर्वक जलालुद्दीन खलजी का सामना कर चुका था । अलाउद्दीन ने अपने मशहूर सिपहसालारों में से एक की कमान में सेना भेजी लेकिन हमीरदेव ने उसे नुकसान पहुँचाकर पीछे धकेल दिया । अंत में स्वयं अलाउद्दीन ने रणथंभौर की ओर कूच किया ।
मशहूर शायर अमीर खुसरो ने जो इस अभियान में अलाउद्दीन के साथ था किले और उसकी घेराबंदी का सजीव वर्णन किया है । तीन माह की सख्त घेराबंदी के बाद जौहर का भयानक अनुष्ठान हुआ: स्त्रियाँ चिता पर जा बैठीं और सभी पुरुष मरने-मारने के लिए बाहर निकल आए । फ़ारसी में जौहर का पहला विवरण यही है । राजपूतों के साथ लड़ते हुए सभी मंगोल भी मारे गए । यह घटना 1301 की है ।
फिर अलाउद्दीन ने चित्तौड़ की ओर दृष्टि उठाई जो रणथंभौर के बाद राजस्थान का सबसे शक्तिशाली राज्य था । इसलिए अलाउद्दीन ने उसे झुकाना आवश्यक समझा । इसके अलावा उसके राजा रतनसिंह ने खलजी की सेनाओं को मेवाड़ के इलाके से होकर गुजरात जाने की अनुमति न देकर उसे नाराज कर दिया था । अजमेर-मालवा मार्ग पर भी चित्तौड़ का नियंत्रण था ।
एक लोककथा के अनुसार अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर इसलिए हमला किया कि वह रतनसिंह की खूबसूरत महारानी पद्मिनी को पाना चाहता था । अनेक आधुनिक इतिहासकार इस कथा को स्वीकार नहीं करते क्योंकि सौ साल से भी अधिक समय बाद पहली बार इसका जिक्र किया गया । बाद में हिंदी कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने इसे और रंगीन बनाया ।
इस कथा में पद्मिनी सिंहलद्वीप की राजकुमारी है तथा रतनसिंह सात समंदर पार करके ऐसे अनेक दुस्साहसों के बाद, जो असंभव लगते हैं उस तक पहुँचता है और उसे चित्तौड़ लाता है । पद्मिनी की कथा इसी वृत्तांत का एक अंग है ।
सुल्तान ने एक ऐसी रानी का मुखड़ा देखने की माँग की होगी, जो किसी और शासक की पत्नी थी यह बात उतनी ही अविश्वसनीय है जितना अविश्वसनीय यह विचार है कि एक दर्पण में ही सही, गर्वीले राणा ने उसे दिखाने की हामी भरी होगी । ऐसा सुझाव ही राजपूती सम्मान की भावना के लिए जिसके लिए वे स्वेच्छा से जीवन होम कर देते थे, अपमानजनक होता । इसलिए राजस्थान के इतिहासकारों ने इस कथा को मानने से इनकार कर दिया है ।
अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर सख्त घेरा कसा । अनेक महीनों तक घेराबंद लोगों के शौर्यपूर्ण प्रतिरोध के बाद अलाउद्दीन ने (1303) किले पर धावा बोल दिया । राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया और अनेक योद्धा लड़ते हुए मारे गए ।
पद्मिनी और दूसरी रानियों ने भी जीवन का बलिदान किया । पर लगता है रतनसिंह जीवित पकड़ा गया और कुछ समय तक उसे कैद में रखा गया । चित्तौड़ को अलाउद्दीन के एक नाबालिग बेटे खिज्र खान के हवाले किया गया और किले में एक मुस्लिम दस्ता रखा गया । कुछ समय बाद उसका भार रतनसिंह के एक रिश्ते के भाई को सौंप दिया गया ।
अलाउद्दीन ने जालौर को रौंदा जो गुजरात के रास्ते में पड़ता था । राजस्थान के दूसरे लगभग सभी प्रमुख राज्यों को अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया गया । फिर भी लगता है उसने राजपूत राज्यों में सीधा प्रशासन स्थापित करने का प्रयास नहीं किया ।
राजपूत राजाओं को शासन करने की अनुमति दी गई, पर उनको सुल्तान को नियमित खिराज देना पड़ता था और उसका आदेश मानना पड़ता था । अजमेर, नागौर आदि कुछ महत्वपूर्ण नगरों में मुस्लिम दस्ते नियुक्त किए गए । इस तरह राजस्थान को पूरी तरह वश में कर लिया गया ।
दकन और दक्षिण भारत:
राजस्थान की विजय पूरी करने के पहले ही अलाउददीन मालवा को जीत चुका था, जो अमीर खुसरो के अनुसार इतना लंबा-चौड़ा था कि होशियार भूगोलशास्त्री भी उसकी सीमाओं का निश्चय कर पाने में असमर्थ थे । राजस्थान के विपरीत मालवा में प्रत्यक्ष प्रशासन स्थापित किया गया और उसे सँभालने के लिए एक सूबेदार नियुक्त किया गया ।
1306-07 के बीच अलाउद्दीन ने दो अभियानों की योजना बनाई । पहला रायकरण के खिलाफ था, जो गुजरात से निकाले जाने के बाद मालवा की सीमा पर स्थित बगलाना पर राज कर रहा था । रायकरण बहादुरी से लड़ा पर लबा प्रतिरोध न कर सका । दूसरा अभियान देवगीर के राजा राय रामचंद्र के खिलाफ था जो रायकरण से गँठजोड़ किए हुए था ।
इस फौज की कमान अलाउद्दीन के गुलाम मलिक काफूर को सौंपी गई । राय रामचंद्र ने काफूर के आगे समर्पण कर दिया । उसके साथ सम्मान का व्यवहार करके उसे दिल्ली भेज दिया गया, जहाँ कुछ समय बाद रायरायान की उपाधि देकर उसके इलाके उसे लौटा दिए गए । उसे एक लाख तंकों का उपहार दिया गया और साथ में सुनहरी रग का छत्र भी जो राजत्व का प्रतीक था ।
उसे गुजरात का एक जिला भी दिया गया । उसकी एक बेटी का विवाह अलाउद्दीन से हुआ । राय रामचंद्र के साथ यह गठबंधन दकन में अपनी शक्ति बढ़ाने में अलाउद्दीन के लिए बहुत मूल्यवान साबित हुआ ।
1309 और 1311 के बीच मलिक काफूर ने दक्षिण भारत में दे । अभियानों का नेतृत्व किया-एक तो तेलंगाना क्षेत्र में वारंगल और दूसरा द्वारसमुद्र (आधुनिक कर्नाटक), मलाबार और मदुरै (तमिलनाडु) के खिलाफ । इन सुदूर अभियानों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है । इसका आंशिक कारण यह है कि उन्होंने समकालीनों की कल्पनाशक्ति को जागृत किया ।
अलाउद्दीन के दरबार के कवि अमीर खुसरो ने उन्हें एक पुस्तक का विषय ही बना डाला । ये अभियान दिल्ली के शासकों की दिलेरी, आत्मविश्वास और दुस्साहस की गहरी भावना को प्रतिबिंबित करते थे । मुस्लिम सेनाएँ पहली बार दूर मदुरै तक पहुँची थीं और अथाह संपत्ति लेकर वापस आई थीं ।
प्रसिद्ध इतिहासकार नीलकंठ शास्त्री के अनुसार चालुक्य और चोल साम्राज्यों के विनाश के बाद यद्यपि एक सदी तक शासन व्यवस्था या समाज में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई तथापि उद्योग व्यापार और कलाओं का सामान्य विकास जारी रहा था । इसलिए ये क्षेत्र सोने और चाँदी से भरे थे ।
इन मुहिमों ने दक्षिण की परिस्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान भी प्रदान किया हालांकि कोई नया भौगोलिक ज्ञान शायद ही प्राप्त हुआ हो । दक्षिण भारत के व्यापार-मार्ग सुज्ञात थे और काफूर की सेनाएँ जब कयल तक पहुँची तो उन्होंने वहाँ मुस्लिम सौदागरों की एक बस्ती पाई ।
वहाँ के शासक की सेना में मुस्लिम सैनिकों का एक दस्ता तक था । इन अभियानों ने जनता के बीच काफूर की इज्जत बहुत बढ़ाई तथा अलाउद्दीन ने उसे साम्राज्य का मलिक नायब नियुक्त किया । पर राजनीतिक दृष्टि से इन अभियानों के प्रभाव सीमित रहे । काफूर ने वारंगल और द्वारसमुद्र के शासकों को शांति-संधि के लिए अपने तमाम खजाने और हाथी सौंपने के लिए और सालाना खिराज देने का वादा करने पर मजबूर कर दिया ।
पर सबको पता था इनसे खिराज पाने के लिए हर साल एक अभियान चलाना पड़ेगा । माबर के मामले मे तो ऐसा कोई औपचारिक समझौता भी नहीं हुआ । वहाँ के शासक जमकर लड़ने से बचते रहे । काफूर जितना लूट सकता था, उसने लूटा । इनमें अनेक प्रसिद्ध और समृद्ध मंदिर भी शामिल थे, जैसे चिदंबरम (आधुनिक मद्रास के पास) का मंदिर । पर उसे तमिल सेनाओं को हराए बिना दिल्ली लौटना पड़ा ।
अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद उठी मुसीबतों के बावजूद अगले डेढ़ दशक के अंदर उपरोक्त सभी दक्षिणी राज्यों का सफाया हो गया और उनके इलाके सीधे दिल्ली के प्रशासन में ला दिए गए । अलाउद्दीन स्वयं दक्षिणी राज्यों के प्रत्यक्ष प्रशासन के पक्ष में नहीं था ।
पर इस नीति में परिवर्तन का आरंभ उसके जीवनकाल में हो चुका था । 1315 में राय रामचद्र की मृत्यु हुई जो दिल्ली का पक्का वफादार रहा था किंतु उसके बेटों ने दिल्ली का जुवा उतार फेंका । मलिक काफूर फौरन चढ़ आया बगावत को कुचला और क्षेत्र का सीधा प्रशासन करने लगा । लेकिन अनेक बाहरी क्षेत्रों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया जबकि कुछ राय के वंशजों के नियंत्रण में रहे ।
तख्त पर बैठने के बाद मुबारक शाह ने फिर देवगीर को अपने अधीन किया और वहाँ एक मुस्लिम सूबेदार बिठा दिया । उसने वारंगल पर भी धावा बोलकर वहाँ के राजा को अपना एक जिला सौंपने और हर साल बतौर खिराज सोने की 40 ईंटें देने पर मजबूर किया । सुल्तान के एक गुलाम खुसरो खान ने माबर पर लूटपाट के लिए धावा बोला और समृद्ध कयल नगर को तबाह कर दिया ।
परंतु इस क्षेत्र को विजित नहीं किया गया । 1320 में गयासुद्दीन तुगलक के सत्तारोहण के बाद आगे बढ़ने की एक अबाध और जोरदार नीति अपनाई गई । सुलान के बेटे मुहम्मद बिन तुगलक को इस उद्देश्य से देवगीर में नियुक्त किया गया । वारंगल के राजा ने निर्धारित खिराज नहीं दिया था इस आधार पर मुहम्मद बिन तुगलक ने फिर वारंगल पर घेरा डाला । आरंभ में उसे पीछे हटना पड़ा ।
दिल्ली में सुल्तान की मृत्यु की अफवाहें उड़ने के बाद दिल्ली की सेनाएँ तितर-बितर हो गई और प्रतिरक्षकों ने उनपर टूटकर उन्हें भारी हानि पहुँचाई । मुहम्मद बिन तुगलक को पीछे हटकर देवगीर आना पड़ा । अपनी सेनाओं को पुनर्गठित करके उसने फिर हमला किया और इस बार राय से कोई रहमदिली नहीं दिखाई गई । इसके बाद माबर को जीतकर सल्तनत में मिला लिया गया ।
मुहम्मद बिन तुगलक ने उसके बाद उड़ीसा पर हमला किया और भारी माल लेकर दिल्ली लौटा । अगले साल उसने बंगाल को अधीन बनाया जो बलबन के समय से ही स्वतंत्र रहता आया था । इस तरह 1324 तक दिल्ली सल्तनत का क्षेत्र मदुरै तक फैल गया ।
इस क्षेत्र का आखिरी हिंदू रजवाड़ा दक्षिणी कर्नाटक का कंपिली था जिसका 1328 में अधिग्रहण किया गया । मुहम्मद बिन तुगलक के एक रिश्ते के भाई को जिसने बगावत की थी वहाँ शरण दी गई थी । इस तथ्य ने हमले के लिए एक सुविधाजनक बहाना प्रदान किया ।
सुदूर दक्षिण और उड़ीसा समेत पूरब में दिल्ली सल्तनत के इस आकस्मिक प्रसार ने बेपनाह प्रशासनिक और वित्तीय समस्याएँ पैदा कीं, जिनका मुहम्मद बिन तुगलक को सामना करना पड़ा ।
Essay # 2. आंतरिक सुधार और प्रयोग (Policies for Internal Development):
अलाउद्दीन खलजी जब सत्तारूढ़ हुआ तब दिल्ली सल्तनत की स्थिति साम्राज्य के मध्य भाग में अर्थात गंगा के ऊपरी दोआब और उसके पूर्वी भाग में खासी मजबूत थी ।
इसकी बदौलत सुल्तानों ने अनेक आंतरिक सुधार और प्रयोग किए जिनका उद्देश्य प्रशासन को बेहतर बनाना सेना को मजबूत करना मालगुजारी प्रशासन को चुस्त- दुरुस्त करना कृषि के प्रसार और सुधार के उपाय करना तथा तेजी से फैलते नगरों के नागरिकों के कल्याण का प्रावधान करना था ।
ये सारे उपाय सफल तो नहीं हुए पर वे महत्वपूर्ण नए कदम अवश्य थे । कुछ प्रयोग तो अनुभव की कमी के कारण असफल हुए कुछ इसलिए कि उन पर समुचित विचार नहीं किया गया था और कुछ इसलिए कि निहित स्वार्थो ने उनका विरोध किया था । फिर भी इनसे यह पता अवश्य चलता है कि तुर्क राज्य अब एक सीमा तक स्थायित्व पा चुका था तथा अब इसका सरोकार मात्र युद्ध और कानून-व्यवस्था से नहीं था ।
बाजार पर नियंत्रण और अलाउद्दीन की कृषि-नीति:
बाजार पर नियंत्रण के लिए अलाउद्दीन ने जो कदम उठाए वे उसके समकालीनों की दृष्टि में दुनिया के महान अचंभों में एक थे । चित्तौड़ के अभियान से लौटने के बाद अनेक आदेश जारी करके अलाउद्दीन ने अनाज शक्कर और भोजन पकाने के तेल से लेकर एक सुई तक और कीमती आयातित कपड़ों से लेकर घोड़ों, मवेशियों और गुलाम लड़के और लड़कियों तक सभी वस्तुओं के दाम तय करने की कोशिश की ।
इस मकसद से उसने दिल्ली में तीन बाजार स्थापित किए-एक अनाजों के लिए दूसरा कीमती कपड़ों के लिए और तीसरा घोड़ों, गुलामों और मवेशियों के लिए । हर बाजार शहना नाम के एक उच्च अधिकारी के नियंत्रण में था जो सौदागरों का रजिस्टर रखता था और दुकानदारों व कीमतों पर सख्त नियंत्रण रखता था ।
कीमतों और विशेषकर अनाजों की कीमतों का नियंत्रण मध्यकालीन शासकों का स्थायी सरोकार था क्योंकि नगरों के सस्ते अनाज की अर्शित के बिना वे नगरवासियों और वहाँ नियुक्त सेना का समर्थन पाने की आशा नहीं कर सकते थे । पर बाजार पर नियंत्रण के पीछे अलाउद्दीन के पास कुछ अतिरिक्त कारण भी थे ।
कहा गया है कि बलबन के काल में केंद्रीय सेना दो लाख थी तो अलाउद्दीन ने उसे बढ़ाकर तीन लाख कर दिया । दिल्ली पर मंगोलों के हमलों ने उनको हाथ भर दूर रखने के लिए एक बड़ी सेना खड़ी रखने की आवश्यकता दिखा दी थी ।
इसलिए अगर वह कीमतों को और सैनिकों की तनख्वाहों को नीचे नहीं लाता तो इतनी बड़ी सेना जल्द ही उसका खजाना खाली कर देती । अलाउद्दीन ने यह काम अपने स्वभाव के अनुसार सम्यक ढंग से किया । सस्ते अनाजों की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए उसने ऐलान कराया कि दोआब क्षेत्र की अर्थात यमुना किनारे स्थित मेरठ से लेकर इलाहाबाद के पास कड़ा की सरहद तक मालगुजारी सीधे राज्य को दी जाएगी ।
मतलब यह था कि इस क्षेत्र के गाँव किसी को इकघ में नहीं दिए जाएँगे । मालगुजारी भी बढ़ाकर उपज की आधी कर दी गई । यह किसानों पर एक भारी बोझ था । स्थिति से निबटने के लिए, अलाउद्दीन ने अनेक उपाय किए ।
राज्य की माँग को बढ़ाने तथा आम तौर पर किसानों के लिए उसकी नकद अदायगी अनिवार्य बनाने का नतीजा यह हुआ कि किसान मजबूरन अपनी उपज को कम कीमत पर बंजारों को बेच देते थे, जो उसे नगरों में लाते और राज्य द्वारा निर्धारित दामों पर बेचते थे । जमाखोरी न हो यह सुनिश्चित करने के लिए सभी बंजारों का पंजीकरण किया गया और उनके एजेंटों और परिवारवालों को कानून के किसी भी हनन के लिए सामूहिक रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता था ।
इससे भी आगे बढ्कर राज्य ने अपने गोदाम भी बनाए और उन्हें अनाजों से भर दिया जो अकाल पड़ने पर या आपूर्ति में कमी का डर पैदा होने पर खोले जाते थे । अलाउद्दीन स्वयं सभी बातों की खबर लेता रहता था तथा कोई दुकानदार अधिक दाम लेता या जाली बाटों का प्रयोग करके धोखाधड़ी का प्रयास करता था तो उसे बहुत कठोर दड दिया जाता था ।
बरनी के अनुसार अकाल तक के दिनों में कीमतों में एक ‘दाम’ या एक पैसा बढ़ोतरी की भी इजाजत नहीं दी जाती थी । मसलन गेहूँ 7.5 जीतल, जौ 4 जीतल और उम्दा चावल 5 जीतल प्रति मन बिकते थे । बरनी का कथन है कि ‘अनाजमंडी में कीमतों की स्थिरता इस युग की एक आश्चर्यजनक घटना है ।’
घोड़ों की कीमतों पर नियंत्रण सुल्लान के लिए आवश्यक था, क्योंकि सेना को मुनासिब दामों पर घोड़ों की आपूर्ति के बिना उसकी दक्षता को बचाकर नहीं रखा जा सकता था । गुजरात की विजय के फलस्वरूप घोड़ों की आपूर्ति में सुधार आया । उम्दा घोड़े सिर्फ राज्य को बेचे जा सकते थे ।
अलाउद्दीन ने प्रथम श्रेणी के एक घोड़े की कीमत 100 से 120 टंके तय की थी, जबकि सेना के लिए अनुपयुक्त एक टट्टू की कीमत 10 से 25 टंके थी । मवेशियों और गुलामों की कीमतों पर भी सख्त नियंत्रण था तथा बरनी ने विस्तार से उनके दाम दिए हैं । बरनी ने मवेशियों और गुलामों के दाम साथ-साथ दिए हैं ।
इससे पता चलता है कि मध्यकालीन भारत में दास-प्रथा को एक सामान्य प्रथा मान लिया गया था । दूसरी वस्तुओं और विशेषकर कीमती कपड़ों, इत्र आदि की कीमतों पर नियंत्रण सुल्तान के लिए महत्वपूर्ण नहीं था । लेकिन उनकी कीमतें भी तय की गई थीं क्योंकि शायद यह महसूस किया जा रहा था कि इन वस्तुओं की ऊँची कीमतों से आम तौर पर सभी कीमत प्रभावित होंगी ।
या हो सकता है कि अमीरों को प्रसन्न करने के लिए ऐसा किया गया हो । कहा गया है उम्दा किस्म के कपड़े देश के विभिन्न भागों से दिल्ली लाने के लिए मुलतानी व्यापारियों को बड़ी-बड़ी पेशगी की रकमें दी जाती थीं । फलस्वरूप, दिल्ली उम्दा कपड़ा का सबसे बड़ा बाजार बन गया इनकी कीमतें तय की गई थीं और तमाम स्थानों के व्यापारी दिल्ली पर टूट पड़े कि यहाँ से कपड़े खरीदकर ऊँची कीमतों पर कहीं और बेचें ।
नकद रूप में मालगुजारी की वसूली के कारण अलाउद्दीन अपने सैनिकों को नकद वेतन दे सकता था । वह सल्तनत काल में ऐसा करने वाला पहला सुल्तान था । एक नई व्याख्या के अनुसार अलाउद्दीन भारी हथियारों से लैस एक सवार को 234 टंके देता था और उससे दो घोड़े और जीन आदि रखने की आशा की जाती थी ।
एक मामूली सवार को जिसे दो-अस्प कहते थे, बिना जीन का केवल एक थोड़ा रखने के लिए कहा जाता था । दूसरा घोड़ा उसे राज्य की ओर से दिया जाता था । उसे 78 टके अधिक मिलते थे । इस दृष्टि से अलाउद्दीन का तय किया हुआ वेतन कम था और इस कारण बाजार पर नियंत्रण आवश्यक था ।
इतिहासकार बरनी का विचार है कि बाजारों पर अलाउद्दीन के नियंत्रण का प्रमुख उद्देश्य हिंदुओं को दंड देना था, क्योंकि अधिकांश व्यापारी हिंदू थे तथा अनाजों और दूसरी वस्तुओं में मुनाफाखोरी वही करते थे ।
लेकिन मध्य और पश्चिमी एशिया के साथ अधिकांश स्थलीय व्यापार खुरासानियों के हाथों में था जो मुसलमान थे या मुल्तानियों के हाथों में था जिनमें से अधिकांश मुसलमान थे । इसलिए अलाउद्दीन के कार्यों ने उनको भी प्रभावित किया । यह एक ऐसा तथ्य है जिसका बरनी ने उल्लेख नहीं किया है ।
यह स्पष्ट नहीं है कि अलाउद्दीन के बाजार संबंधी नियम केवल दिल्ली पर लागू होते थे या साम्राज्य के दूसरे नगरों पर भी । बरनी का कहना है कि दिल्ली से संबंधित नियमों का हमेशा दूसरे नगरों में भी व्यवहार होने लगता था । जो भी हो, सेना केवल दिल्ली में ही नहीं बल्कि अन्य नगरों में भी रखी जाती थी ।
पर इस बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कहने के लिए हमारे पास पर्याप्त सूचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । यह स्पष्ट है कि जहाँ हिंदू और मुस्लिम सौदागरों को मूल्य नियंत्रण से शिकायतें रही होंगी वहीं सेना ही नहीं बल्कि सभी नागरिक चाहे वे किसी भी धर्म के हों अनाजों और दूसरी वस्तुओं के सस्ते होने से लाभान्वित हुए होंगे ।
बाजार पर नियंत्रण के अलावा अलाउद्दीन ने मालगुजारी प्रशासन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कदम उठाए । वह सल्तनत का पहला बादशाह था जिसने इस बात पर जोर दिया कि दोआब के अनिर्दिष्ट क्षेत्रों अर्थात ऐसे क्षेत्र जिन्हें इक्तादारों को नहीं दिया गया है में मालगुजारी हर व्यक्ति के लिए खेती की जा रही जमीन की माप के आधार पर तय की जाएगी । इसका मतलब यह था कि गाँव के अमीर और ताकतवर व्यक्ति जिनके पास अधिक जमीनें थी अपना बोझ गरीबों के सर नहीं डाल सकते थे ।
अलाउद्दीन चाहता था कि इस क्षेत्र के जमींदार जो सूत और मुकद्दम कहलाते थे, उतना ही कर दें जितना दूसरे देते थे । इसलिए उन्हें दूसरों की ही तरह दूध देने वाले पशुओं और घरों पर कर देने पड़े तथा दूसरे गैर कानूनी महसूल त्यागने पड़े जिनको वसूल करने की उन्हें आदत थी ।
बरनी की सजीव भाषा में, ‘खूत और मुकद्दम अब तड़क-भड़क से सुसज्जित घोड़ों पर सवार नहीं हो सकते थे और न ही पान चबा सकते थे । और वे इतने गरीब हो गए कि उनकी बीवियों को मुसलमानों के घर जाकर काम करना पड़ता था ।’
माप के आधार पर राज्य द्वारा इक्तादारों को न दिए गए इलाकों से मालगुजारी की सीधी वसूली की नीति तभी सफल हो सकती थी जब आमिल और दूसरे हाकिम ईमानदार होते । हालांकि अलाउद्दीन इन तत्त्वों को इतना वेतन देता था कि वे आराम से रह सकें पर उसने इस पर भी जोर दिया कि उनके खातों की सख्ती से जाँच की जाए ।
कहा गया है कि छोटी-छोटी चूकों पर उन्हें पीटा जाता था और कैद में डाल दिया जाता था । बरनी का कथन है कि उनका जीवन इतना असुरक्षित हो गया था कि कोई उनसे अपनी बेटी ब्याहना नहीं चाहता था । निस्संदेह यह अतिशयोक्ति है, क्योंकि आज की तरह तब भी सरकारी नौकरी इज्जतदार समझी जाती थी और सरकारी नौकर, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, शादी के बारे में पहली पसंद होते थे ।
हालांकि बरनी ऐसे लिखते है मानो उपरोक्त सभी कदम मात्र हिंदुओं के खिलाफ उठाए गए हों, पर बात यह स्पष्ट है कि ये मुख्यत: देहातों के सुविधाभोगी वर्गो के खिलाफ थे । लेकिन इन कदमों को एक प्रकार से समाजवादी कदम शायद ही कहा जा सकता है क्योंकि ये मूलत: एक आपात स्थिति से अर्थात मंगोलों के खतरों से निबटने के लिए उठाए गए थे ।
जहाँ तक बाजार नियंत्रण का प्रश्न है शायद अलाउद्दीन के लिए केवल अनाज जैसी बुनियादी वस्तुओं के दामों को नियंत्रित करना बेहतर रहा होता । पर जैसा कि समकालीन लेखक बरनी का कथन है, उसने ‘टोपियों से मोजों तक, कंघियों से सुइयों तक, सब्जियों, शोरबों और मिठाइयों से चपातियों तक, ‘हर चीज के दाम को नियंत्रित करने का प्रयास किया ।
इसके कारण उलझाव भरे कानून बने जिनके हनन के प्रयास होते थे, और उन पर सख्त दंड दिए जाते थे । इससे रोष पैदा होता था । अलाउद्दीन की कृषि-नीति निश्चित ही निर्मम थी और उसने साधारण किसानों को भी प्रभावित किया होगा । पर यह इतनी कठोर भी नहीं थी कि वे विद्रोह करते या भाग खड़े होते ।
अलाउद्दीन के बाजार संबंधी नियम उसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो गए पर इससे अनेक लाभ भी अवश्य प्राप्त हुए । बरनी हमें बतलाता है कि इन नियमों के सहारे अलाउद्दीन ने एक विशाल और सुदक्ष सवार सेना खड़ी की जिसके बलबूते उसने बाद के मंगोल हमलों को भारी नरसंहार करके नाकाम कर दिया और उनका सिंधु नदी के पार खदेड़ दिया ।
अलाउद्दीन के मालगुजारी संबंधी सुधार देहाती क्षेत्रों के साथ अधिक घनिष्ठ संबंध स्थापित करने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम था । आगे चलकर इन सुधारों ने शेरशाह और अकबर के खेतिहर सुधारों के लिए आधार का काम किया ।
मुहम्मद तुगलक के प्रयोग:
अलाउद्दीन खलजी के बाद मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) को एक ऐसे शासक के रूप में याद किया जाता है जिसने दिलेरी भर कई प्रयोग किए और खेती मे गहरी दिलचस्पी दिखाई ।
मुहम्मद बिन तुगलक कुछ अर्थो में अपने दौर के सबसे उल्लेखनीय शासकों में से एक था । वह धर्म और दर्शन का विद्वान था तथा आलोचनात्मक और खुले दिमागवाला व्यक्ति था । वह मुस्लिम सूफियों के साथ ही नही बल्कि हिंदू योगियों और जिनप्रभा सूरी जैसे जैन संतों के साथ भी विचारविमर्श करता था ।
इस बात को अनेक कट्टर उलमा (धर्मशास्त्री) पसंद नहीं करते थे जिन्होंने उस पर ‘बुद्धिवादी’ होने का आरोप लगाया अर्थात ऐसा व्यक्ति जो धार्मिक विश्वासों को श्रद्धाभाव से स्वीकार नही करता । वह योग्यता के आधार पर लोगों को चाहे वे कुलीन वश के हों या न हों उच्च पद देने के लिए भी तैयार रहता था ।
दुर्भाग्य से उसमें जल्दबाजी और बेसब्री की प्रवृत्ति थी । यही कारण है कि उसके अनेक प्रयोग असफल रहे और उसे ‘अभागा आदर्शवादी’ कहा गया । मुहम्मद तुगलक का शासनकाल अशुभ परिस्थितियों में शुरू हुआ । बगाल के खिलाफ एक सफल मुहिम के बाद सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली लौट रहा था ।
सुल्तान के शानदार स्वागत के लिए मुहम्मद तुगलक के आदेश पर जल्दबाजी मे लकड़ी का एक पंडाल बनाया गया । जब पकड़े गए हाथियों की नुमाइश चल रही थी तो जल्दबाजी में खड़ा किया गया पंडाल गिर पड़ा और सुल्तान उसमें दबकर मर
गया । इससे अनेक अफवाहें पनपी-यह की मुहम्मद तुगलक ने अपने पिता को मारने की योजना बना रखी थी यह कि यह अल्लाह का कहर था और यह भी कि यह दिल्ली के मशहूर संत निजामुद्दीन औलिया का शाप था जिनको सुल्तान ने सजा देने की धमकी दी थी, आदि ।
सत्तारोहण के शीघ्र बाद मुहम्मद तुगलक ने जो कदम उठाए उनमें सबसे विवादास्पद राजधानी का दिल्ली से देवगीर में तथाकथित स्थानांतरण था । देवगीर दक्षिण भारत में तुर्क शासन के प्रसार का आधार रह चुका था । राजकुमार के रूप में स्वयं मुहम्मद तुगलक वहाँ अनेक वर्ष गुजार चुका था ।
पूरे दक्षिण भारत को दिल्ली के प्रत्यक्ष नियंत्रण मे लाने के प्रयास से गंभीर राजनीतिक कठिनाइयाँ पैदा हुई थीं । इस क्षेत्र के लोग दिल्ली के शासन को विजातीय शासन समझते थे और उसके अंतर्गत बेचैन हो रहे थे । वहाँ के अनेक मुस्लिम अमीरों ने इस स्थिति का लाभ उठाकर स्वयं को स्वतंत्र घोषित करने का प्रयास किया था ।
सबसे गंभीर विद्रोह मुहम्मद तुगलक के एक रिश्ते के भाई गुरशास्प का था, जिसके खिलाफ सुल्तान को स्वयं कार्रवाई करनी पड़ी । लगता है सुल्तान देवगीर को अपनी दूसरी राजधानी बनाना चाहता था ताकि दक्षिण भारत पर बेहतर नियंत्रण कर सके ।
सत्रहवीं सदी के लेखक फिरिश्ता के अनुसार सुल्तान के कुछ सलाहकारों ने दूसरी राजधानी के रूप में उज्जैन (मालवा में) का नाम सुझाया था जिसकी स्थिति अनुकूल थी और इसी कारण से प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य ने उसे अपनी राजधानी बनाया था । लेकिन सुल्तान देवगीर को वरीयता देता था क्योंकि उससे वह अधिक परिचित था । वहाँ का वातावरण अच्छा था, और वह भारत के प्रमुख नगरों में से एक था ।
इस तरह देवगीर को दूसरी राजधानी बनाने का फैसला कोई आकस्मिक फैसला नहीं था बल्कि यह सुविचारित था । न ही उसने राजधानी के सभी लोगों को वहाँ जाने का आदेश दिया । इतिहासकार बरनी का कथन है कि नगर, अर्थात कुतबमीनार, के इर्द-गिर्द के पुराने नगर के खल्क अर्थात लोगों को वहाँ जाने का आदेश दिया गया ।
लेकिन बरनी ने यहाँ खल्क शब्द का प्रयोग साधारण जनता के लिए नहीं बल्कि गण्यमान्य व्यक्तियों के लिए किया है । सुल्तान ने अनेक हाकिमों, उनके अनुयायियों और अनेक सूफी संतों समेत प्रख्यात व्यक्तियों को देवगीर जाने का निर्देश दिया जिसका नाम अब दौलताबाद रखा गया ।
लगता है इन लोगों पर स्थान-परिवर्तन के लिए काफी सरकारी दबाव डाला गया । ये लोग अपने परिवारों दासों आदि के साथ वहाँ जाएँ इसकी निगरानी रखने के लिए निरीक्षक नियुक्त किए गए । सुल्तान ने उनके लिए घर खरीदकर उनको आवंटित कर दिए । उन्हें खुलकर सहायता दी गई और दौलताबाद में उनके रहने के प्रबंध किए गए । बाकी जनता को वहाँ ले जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया ।
सुल्तान की अनुपस्थिति में भी दिल्ली एक बड़ा और आबाद नगर बना रहा । हालांकि मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली से दौलताबाद तक सड़क बनवाई तथा यात्रियों की सुविधा के लिए रास्ते में सरायें बनवाई, पर दौलताबाद फिर भी 1500 किमी से अधिक था । अनेक व्यक्ति यात्रा के कष्टों और गर्मी के कारण मर गए, क्योंकि यह यात्रा गर्मी के मौसम में की गई थी ।
जो लोग दौलताबाद पहुँचे उनमें से बहुतों को घर की याद सताने लगी क्योंकि वे सदियों से दिल्ली में रह रहे थे और उसे ही अपना घर समझते थे । इस कारण काफी असंतोष फैला । कुछ वर्षों बाद मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद छोड़ने का फैसला किया । इसका मुख्य कारण यह था कि जल्द ही उसे पता चल गया कि जिस तरह वह दिल्ली से दक्षिण को नियंत्रित नहीं कर सकता उसी तरह दौलताबाद से उत्तर भारत को नियंत्रित नहीं कर सकता ।
देवगीर को दूसरी राजधानी बनाने का प्रयास तो असफल रहा पर इस जन-प्रवाह के कई दूरगामी लाभ हुए । इससे संचार में सुधार हुआ तथा उत्तर और दक्षिण भारत एक दूसरे के अधिक करीब आए । उलमा समेत जो लोग दौलताबाद गए थे उनमें से अनेक वहीं बस गए । वे लोग दकन में उन सांस्कृतिक धार्मिक और सामाजिक विचारों के प्रसार के माध्यम बन गए जिनको तुर्क अपने साथ लेकर उत्तर भारत में आए थे । इससे उत्तर और दक्षिण भारत के बीच तथा स्वयं दक्षिण भारत में भी सांस्कृतिक लेन-देन की एक नई प्रक्रिया आरंभ हुई ।
सांकेतिक मुद्रा:
इस समय मुहम्मद तुगलक ने एक और कदम उठाया, अर्थात ‘सांकेतिक मुद्रा’ का प्रचलन । मुद्रा केवल विनिमय का माध्यम होती है, इसलिए आज दुनिया के सभी देशों के पास सांकेतिक मुद्राएं, आम तौर पर कागजी मुद्राएँ हैं ताकि उन्हें सोने-चाँदी की आपूर्ति पर निर्भर न रहना पड़े ।
चौदहवीं सदीं में संसार में चाँदी की कमी हो गई थी । व्यापार के प्रसार के साथ अब अधिकाधिक सिक्कों की आवश्यकता भी होने लगी थी । इसके अलावा चीन में कुबलाई खान सांकेतिक मुद्रा का सफल प्रयोग कर चुका था । ईरान के मंगोल शासक गाजान खान ने भी इसका प्रयोग किया था । मुहम्मद तुगलक ने कांसे की एक मुद्रा चलाने का निश्चय किया जो चाँदी के टंके जितने ही मूल्य का हो ।
भारत के विभिन्न भागों में इस मुद्रा के नमूने पाए गए हैं और ये संग्रहालयों में देखे जा सकते हैं । सांकेतिक मुद्रा का विचार भारत में नया था तथा व्यापारियों को और साधारण जनता को भी इसे स्वीकार करने के लिए प्रेरित करना कठिन था ।
अगर सरकार लोगों को जाली मुद्रा ढालने से रोक पाती तो मुहम्मद तुगलक सफल भी हो सकता था । लेकिन सरकार ऐसा न कर सकी और जल्द ही बाजार में इन नई मुद्राओं का भारी अवमूल्यन हो गया । अंत में मुहम्मद तुगलक ने सांकेतिक मुद्रा को समाप्त करने का निश्चय किया ।
उसने कांसे के सिक्कों की जगह चाँदी के सिक्के देने का वादा किया । इस प्रकार बहुत-से लोगों ने नई मुद्राओं का विनिमय किया । लेकिन उन जाली मुद्राओं को नहीं बदला गया जिनका जाँच से पता चल गया था । ये सिक्के किले के बाहर ढेर लगा दिए गए और बरनी के अनुसार वर्षों तक वहीं पड़े रहे ।
इन दो प्रयोगों की असफलता से सुल्तान की प्रतिष्ठा पर आँच आई और धन की बरबादी भी हुई । पर सरकार जल्द ही सँभल गई । मोरक्को के यात्री इब्न-बतूता को जो 1333 में दिल्ली आया था इन प्रयोगों के कुछ हानिकारक प्रभाव दिखाई नहीं दिए ।
पर चाँदी की कमी पर काबू पाने के लिए मुहम्मद तुगलक ने चाँदी और अन्य घटिया धातुओं के मिले-जुले सिक्के जारी करने शुरू कर दिए । इन्हें चाँदी के टकों से भिन्न बतलाने के लिए टंक-ए-सियाह अर्थात काले टके कहा जाता था । ये आम हो गए तथा शेरशाह सूरी और मुगलों के दौर में ही हटाए गए ।
इससे भी कहीं बहुत अधिक गंभीर समस्या का सामना मुहम्मद तुगलक को करना पड़ा वह थी सीमा की सुरक्षा । प्रशासन, विशेषकर राजस्व प्रशासन ने और अमीरों के साथ संबंधों ने भी कुछ गंभीर समस्याएँ पैदा कीं ।
पंजाब में मंगोल सत्ता के निरंतर प्रसार के और दिल्ली पर उनके हमलों के कारण दिल्ली सल्तनत के सामने पैदा गंभीर समस्याओं को देख चुके हैं । अपने अंदरूनी झगड़ों के कारण मंगोल तब तक काफी कमजोर हो चुके थे, पर अभी भी इतने शक्तिशाली थे कि पंजाब और दिल्ली के पास के क्षेत्रों के लिए खतरा पैदा कर सकें ।
मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के आरंभिक वर्षो में अपने नेता तमीशीरीन के नेतृत्व में मँगोल सिंध में घुस आए और उनका एक दल तो दिल्ली से कोई 65 किमी दूर मेरठ तक पहुँच गया । झेलम के पास एक जंग में मुहम्मद तुगलक ने न सिर्फ मंगोलों को हराया बल्कि कलानौर पर भी कब्जा कर लिया और कुछ समय तक उसका राज्य सिंधु-पार, पेशावर तक फैला हुआ था ।
इससे पता चलता है कि दिल्ली का सुल्तान अब मंगोलों पर आक्रमण करने की स्थिति में था । देवगीर से वापसी के बाद गजनी और अफगानिस्तान पर कब्जा करने के लिए सुल्तान ने एक बड़ी सेना भरती की । बरनी का कथन है कि सुल्तान का इरादा खुरासान और ईराक पर कब्जा करना था ।
मुहम्मद तुगलक का सही इरादा जानने का हमारे पास कोई साक्ष्य नहीं है । हो सकता है उसका उद्देश्य ‘वैज्ञानिक सीमा’ की पुनर्स्थापना हो, अर्थात हिंदूकुश और कंदहार तक । मध्य एशिया से भागे हुए अनेक शाहजादों और दूसरे लोगों ने मुहम्मद तुगलक के दरबार मैं शरण ली थी हो सकता हैं उन्होंने सोचा हो कि इस क्षेत्र से मंगोलों को भगाने का यह अच्छा अवसर है ।
साल भर बाद सांकेतिक मुद्रा चलाने के प्रयास की असफलता तथा मंगोलों से संबंधों में सुधार के बाद और सिपाहियों को नकद वेतन देने में कठिनाइयाँ आने के कारण सेना भंग कर दी गई । इस बीच मध्य एशिया में स्थिति तेजी से बदली । कालांतर में तैमूर ने अपने नियंत्रण में इस पूरे क्षेत्र को एक सूत्र में बाँध दिया और भारत के लिए एक नया खतरा पैदा हो गया ।
खुरासान परियोजना के प्रभावों को बढ़ा-चढाकर पेश नहीं किया जाना चाहिए न इसे काराचिल की मुहिम से गड्डमड्ड किया जाना चाहिए । यह मुहिम हिमालय की कुमायूँ पहाड़ियों में चलाई गई थी । एक आधुनिक इतिहासकार के अनुसार इस मुहिम की दिशा कश्मीर की ओर थी, ताकि चीन की ओर से अर्थात सिनकियांग से घोड़ों की आमद पर नियंत्रण किया जा सके ।
चीन पर विजय हासिल करना कभी इसका उद्देश्य नहीं था जैसा कि बाद के कुछ इतिहासकारों ने सुझाया है । सफलता के बाद सैना हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र में दूर तक चली गई और मुसीबत में फँस गई । कहा जाता है कि 10,000 की सेना में से बस दस व्यक्ति वापस लौटे । फिर भी ऐसा लगता है कि पर्वतीय राजाओं ने दिल्ली का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया । बाद में मुहम्मद तुगलक ने काँगड़ा की पहाड़ियों में भी एक मुहिम चलाई । इस तरह पहाड़ी क्षेत्र पूरी तरह सुरक्षित हो गए ।
मुहम्मद तुगलक ने कृषि सुधार के अनेक कदम उठाए । इनमें से अधिकांश दोआब धुंत्र में आजमाए गार । मुहम्मद तुगलक अलाउद्दीन खलजी की इस नीति को नहीं मानता था कि को और मुकद्दमों (गांवों के मुखियों) को मामूली किसानों के दर्जे तक गिरा दिया जाए ।
पर राज्य के लिए मालगुजारी का एक मुनासिब भाग वह अवश्य चाहता था । उसने जिन उपायों की पैरवी की उनके दूरगामी प्रभाव पड़े पर उसके शासनकाल में वे बुरी तरह असफल रहे । यह कहना कठिन है कि उपाय बुरी योजनाबंदी के कारण असफल हुए या अनुभवहीन अधिकारियों के द्वारा दोषपूर्ण क्रियान्वयन के कारण ।
मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के आरंभ में ही गंगा के दोआब में एक गंभीर किसान विद्रोह हो चुका था । किसान गाँवों से भाग खड़े हुए थे तथा मुहम्मद तुगलक ने उनको पकड़कर सजा देने के लिए कठोर कदम उठाए थे । इतिहासकारों का मत है कि परेशानी मालगुजारी के अधिक मूल्यांकन के कारण पैदा हुई थी ।
हालांकि अलाउद्दीन के काल की तरह राज्य का भाग उपज का आधा रहा पर वास्तविक रूप से किसानों पर भार बढ़ गया क्योंकि मालगुजारी मनमाने ढंग से तय की जाने लगी न कि वास्तविक उपज के आधार पर । उपज को मुद्रा में बदलने के लिए दाम भी मनमाने ढंग से तय किए गए ।
एक भयानक अकाल ने जिसने इस क्षेत्र को छह वर्षो तक तबाह रखा स्थिति को और भी बिगाड़ा । मवेशियों और बाजी के लिए और कुँओं की खुदाई के लिए भी राहत के प्रयास बहुत देर से शुरू हुए । दिल्ली में इतने लोग मरे कि हवा भी महामारक हो उठी । सुल्तान दिल्ली छोड्कर ढाई बरस तक स्वर्गद्वारी नामक शिविर में रहा जो दिल्ली से 100 मील दूर कन्नौज के पास गंगा के किनारे स्थित था ।
दिल्ली लौटने के बाद मुहम्मद तुगलक ने दोआब में कृषि के प्रसार और सुधार की एक योजना आरंभ की । उसने दीवान-ए-अमीर-ए-कोही नामक एक नया विभाग स्थापित किया ।
यह सारा क्षेत्र विकास प्रखंडों में बाँट दिया गया हर प्रखंड का प्रमुख एक अधिकारी था जिसका काम किसानों को ऋण देकर कृषि का प्रसार करना तथा उन्हें बेहतर फसलें उगाने के लिए प्रेरित करना था जैसे जौ की जगह गेहूँ, गेहूँ की जगह गन्ना, गन्ने की जगह अंगूर, खजूर वगैरह ।
यह योजना मुख्यत: इसलिए असफल रही कि इस उद्देश्य के लिए चुने गए व्यक्ति अनुभवहीन और बेईमान निकले और उन्होंने अपने इस्तेमाल के लिए पैसे हड़प लिए । इसलिए परियोजना के लिए ऋण के तौर पर दी गई बड़ी-बड़ी रकमों की वसूली न हो सकी ।
सभी संबंधित लोगों का सौभाग्य था कि इसी बीच मुहम्मद तुगलक की मृत्यु हो गई और फिरोज तुगलक ने ये कझें माफ कर दिए । लेकिन कृषि के प्रसार और सुधार के लिए मुहम्मद की अपनाई हुई नीति बेकार नहीं गई । फिरोज ने उसे जारी रखा और बाद मे अकबर ने उसे और जोरदार ढंग से आगे बढाया।
मुहम्मद तुगलक को एक और समस्या का सामना करना पड़ा । अमीरों की समस्या का । चहलगानी तुर्कों के पतन और खलजी वंश के उदय के बाद अलग-अलग नस्लों के मुसलमानों में से अमीर बनाए जाने लगे; इनमे नव-धर्मातरित भारतीय मुसलमान भी शामिल थे ।
मुहम्मद तुगलक ने आगे बढ्कर इन लोगों को नौकरी ही नहीं दी जबकि वे कुलीन वंशों के नहीं थे बल्कि इनमें से कुछ को तो उच्च सरकारी पद भी दिए । इनमें से अधिकांश नवमुस्लिमों के वंशज थे हालाँकि कुछ हिंदू भी इनमें शामिल थे । यह मानने का कोई कारण नहीं है कि ये लोग अशिक्षित थे या अपने काम में निकम्मे थे ।
लेकिन पहले के दौर के पदाधिकारियों ने जो पुराने कुलीन वंशों के थे इस नीति का गहरा विरोध किया । इतिहासकार बरनी ने इसे मुहम्मद तुगलक की भर्त्सना का मुख्य आधार बनाया है । मुहम्मद तुगलक ने विदेशियों का स्वागत किया जिनमें मंगोल भी शामिल थे, पर विशेषकर खुरासान के लोग और मध्य एशिया के तुर्क शामिल थे ।
इस तरह मुहम्मद तुगलक का कुलीन वर्ग अनेक अलग-अलग तत्त्वों पर आधारित था । न उनमें एकजुटता की कोई भावना विकसित हो सकी न सुल्तान के प्रति वफादारी की । दूसरी ओर साम्राज्य के विशाल आकार ने विद्रोह के लिए और स्वतंत्र प्रभाव-क्षेत्रों की स्थापना के लिए अनुकूल अवसर प्रदान किए ।
मुहम्मद तुगलक की क्रोधी और जल्दबाज प्रकृति ने तथा जिन पर वह विरोध या अनिष्ठा का शक करता था उनको घोर दंड देने के रुझान ने इस प्रवृत्ति को और भी मजबूत किया । इस तरह मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल जहाँ दिल्ली सल्तनत का चरमकाल था वहीं वह उसके विघटन की प्रक्रिया का आरंभ भी था ।