Read this article in Hindi to learn about the various theories of personal identity development.

व्यक्तिगत पहचान के विकास की व्याख्या समाजविदों ने संयुक्त रूप से की है ।

परिणामस्वरूप इस व्याख्या से कुछ सिद्धान्तों की उत्पत्ति हुई है जिसे सामान्य रूप में दो भागों में विभाजित किया गया है:

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(i) मनोवैज्ञानिकों का सिद्धान्त (Psychological Theories),

(ii) समाजशास्त्रियों एवं दर्शनशास्त्रियों का सिद्धान्त (Sociologist’s and Philosopher’s Theories) |

उपर्यक्त दोनों प्रकार के सिद्धान्त की व्याख्या करने से व्यक्तिगत पहचान के वैकासिक स्वरूप को स्पष्ट किया जा सकता है, जिसका वर्णन निम्नवत् अपोक्षित है:

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(i) मनोवैज्ञानिकों का सिद्धान्त (Theories of Psychologists):

इसके अन्तर्गत हम फ्रायड (Freud), विलियम जेम्स (William James), रोजर्स (Rogers) तथा आलपोर्ट (Allport) के सिद्धान् को स्पष्ट करेंगे ।

(a) फ्रायड दृष्टिकोण (Freud’s View Points):

फ्रायड ने स्व-पहचान (Personal Identity) के लिए ‘आत्मन’ (Self) के स्थान पर ‘अहम्’ (Ego) का प्रतिपादन किया । वास्तव में फ्रायड ने मन (Mind) को तीन भागों में विभाजित किया है, जिसवे लिए उन्होंने संरचनात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है ।

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ये हैं- उपाहं (Id), अहम् (Ego) तथा पराहं (Super Ego) । इन तीनों की व्याख्या करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया है, कि उपाहं मन का जैविक तत्व होता है, जो कि व्यक्ति की शारीरिक संरचना से जुड़ा होता है । इसमें इच्छाएँ एवं आवेग संगठित नहीं होते हैं, तथा वे कोई नियम एवं कानून का पालन नहीं करते और न ही किसी वास्तविकता से सम्बन्ध रखते हैं ।

जब शिशु बड़ा होता है, यानि कि उसकी आयु 3 वर्ष से 4 वर्ष के मध्य होती है, तब उसमें पराहं की प्रवृत्तियों द्वारा अहम् (Ego) का विकास होता है, जो कि व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन काल तक बर्धित रहने की अवस्था में होता है तथा अहम् का सम्बन्ध मन की वास्तविकता से होता है, जो विचारशील होता है एवं अनुभव करके कोई निर्णय भी लेता है ।

यह वास्तविकता के नियमों (Principle of Reality) द्वारा निर्धारित होता है, जिसमें व्यक्ति सामाजिक वास्तविकता को समझता है और उसका उपयोग करते हुए शारीरिक एवं मानसिक ऊर्जाओं (Physical and Mental Energy) को निरन्तर बनाए रखता है । यह नियम मूल-प्रवृतिक तुष्टि (Instinctual Satisfaction) की अनुमति तब देता है, जब उसके लिए उपयुक्त पर्यावरणीय अवसर (Environmental Opportunity) होती है ।

चूंकि अहम् का सम्बन्ध बाहरी वास्तविकता से होता है । इसलिए इसे व्यक्तित्व का कार्यपालक (Executive) की संज्ञा दी गयी है, जो कि निर्णय-क्षमता का उपयोग करते हुए कार्य रूप प्रदान करने वाला अर्थात् कार्यपालक कहलाता है । चूंकि अहम् अंशत: चेतन, अंशत: अचेतन तथा अशत: अर्द्धचेतन होता है । इस प्रकार यह तीनों स्तर पर निर्णय लेने की भूमिका निभाता है ।

अहम् द्वारा मूलत: दो प्रकार के कार्य किए जाते हैं- प्रथम यह रक्षा प्रक्रमों (Defence Mechanism) जैसे दमन-भौतिकीकरण (Rationalization), प्रतिक्रिया निर्माण (Reaction Formation) विस्थापन (Displacement) आदि द्वारा चेतावनी मुक्त आवेगों को चेतन में प्रवेश करने से रोकता है, जिससे चिन्ता का हास होता है । दूसरा, यह पराई  एवं बाह्य दुनिया (Outside World) के मध्य सम्पर्क बनाए रखता है ।

इस प्रकार फ्रायड के उपर्युक्त स्पष्टीकरण से विदित हुआ कि अहम्, ‘आत्मन’ (Self) के तुल्य है, जिसकी ‘स्व पहचान’ (Personal Identity) में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, तथा जिसके द्वारा व्यक्तित्व के विभिन्न व्यवहारों की उत्पत्ति होती है तथा वे संगठित होते हैं ।

(b) विलियम जेम्स का दृष्टिकोण (View Point of William James):

जेम्स में आत्मन् से अभिप्राय आधुनिक समय में ‘व्यक्तित्व’ (Personality), स्व पहचान (Personal Identity) से जोड़कर स्पष्ट किया है । ‘आत्मन्’ से उनका तात्पर्य ‘स्व’ व्यक्तिगत (Personal) अथवा आनुभाविक या अनुभूतिमूलक आत्मन् (Empirical Self) तथा आध्यात्मिक आत्मन् (Spiritual Self) से सम्बद्ध हुआ है ।

विलियम जेम्स के अनुसार तीन पहलुओं का एक पदानुक्रम (Hierarchy) होता है, जिसके तीन पहलू हैं-सांसारिक आत्मन् (Maternal Self), सामाजिक आत्मन् (Social Self) तथा आध्यात्मिक आत्मन् (Spiritual Self)। सांसारिक आत्मन् पदानुक्रम की निचली सतह पर, सामाजिक आत्मन् पदानुक्रम की मध्य सतह पर तथा आध्यात्मिक आत्मन् पदानुक्रम की सबसे ऊपरी सतह पर होता है ।

सांसारिक आत्मन् में जैसा कि नाम से स्पष्ट है, कि व्यक्ति का शरीर तथा उसको व्यक्तिगत धरोहर जैसे; धान-सम्पदा, रुपया, घर, जायदाद, कपड़ा, फर्नीचर आदि को स्थान दिया-गया है । सामाजिक आत्मन् से अभिप्राय आत्मन (Self) से होता है, जिसका निर्माण दूसरों द्वारा व्यक्ति की ‘स्व पहचान’ पर आधारित होता है ।

किसी व्यक्ति का आत्मन् माँ, पिता, बहन, भाई आदि के लिए भिन्न-भिन्न होता है, अर्थात् जिस सीमा तक व्यक्ति दूसरों के साथ अन्तःक्रिया करता है, तब तक वह विभिन्न सामाजिक आत्मन् विकसित कर चुका होता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह है, कि सामाजिक आत्मन् द्वारा व्यक्ति के विभिन्न पहलुओं की अभिव्यक्ति का निर्माण होता है ।

आध्यात्मिक आत्मन्‌ से अभिप्राय समस्त प्रकार के मनोवैज्ञानिक कार्यों से संयुक्त रूप से होता है । आध्यात्मिक आत्मन् के अन्तर्गत बौद्धिक क्षमता, अभियोग्यता, चिन्तन, इच्छा आदि को रखा जा सकता है ।

उपर्युक्त तीनों प्रकार के आत्मन् (Self) के अतिरिक्त विलियम जेम्स ने ‘अमिश्रित अहम’ (Pure Ego) के सम्प्रत्यय को भी स्वीकार किया है । इसे मैं (I) या ‘ज्ञान प्राप्त करने वाला आत्मन्’ (Self as a Known) भी कहा है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी पहचान (Personal Identity) के विभिन्न पहलुओं (Different Aspects) के विषय में एक सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है ।

(b) आलपोर्ट का दृष्टिकोण (View Point of Allport):

आलपोर्ट ने आत्मन् (Self) के सन्दर्भ में प्रोपियम  शब्द का उपयोग किया है । उन्होंने इस शब्द या पद को ‘आत्मन्’ की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक माना है । इसमें किसी प्रकार की आत्मनिष्ठता का अभाव माना है । प्रोपियम शब्द एक लौटिन शब्द ‘Proprius’ से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ ‘अपना’ होता है ।

‘आलपोर्ट प्रोपियम को व्यक्तित्व के उन सभी पहलुओं से जोड़ते हैं, जिनसे उनमें आन्तरिक एकता (Inward Unity) तथा संगतता (Consistency) आती है । आलपोर्ट इस सन्दर्भ में स्पष्ट करते हैं, “प्रोपियम को ज्ञात आत्मन् के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसे भाव प्रबल एवं प्रमुख समझा जाता हैं, तथा जिसका एक विशेष महत्च होता है यह आत्मगत अनुभूति का ‘मुझे’ वाला अंश होता है । यह आत्मतत्व है ।”

प्रोपियम मानव प्रकृति (Human Nature) के धनात्मक (Positive) सर्जनात्मक Creative), वर्धन उन्मुखी (Growth Oriented) तथा प्रगतिशील गुणों का प्रदर्शन करता है, ऐसा आलपोर्ट मानते हैं । आलपोर्ट प्रोपियम को आत्मतत्व (Selfhood) कहते हुए इसके सात पहलुओं को मानते हैं, जो कि जन्मजात नहीं होते वरन् शनैः-शनैः विकसित होते हैं । ये समस्त पहलू शैशवावस्था से किशोरावस्था तक के मध्य होते हैं ।

प्रथम तीन पहलुओं अर्थात् शारीरिक आत्मन् (Bodily Self) आत्म-पहचान (Self-Identity) तथा आत्म-सम्मान (Self-Esteem) का विकास बच्चों के प्रथम तीन वर्ष की आयु में होता हैं, तथा आत्म-विस्तार (Self Extension) एवं आत्म-प्रतिमा (Self Image) ।

इन दो अवस्थाओं का विकास 4 से 5 वर्ष की आयु में होता है तथा युक्ति संगत समायोजन (Rational Coping) की अवस्था का विकास 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु में सामान्यत: होता है, तथा सबसे अन्तिम अवस्था उपयुक्त प्रयास (Appropriate Striving) का विकास किशोरावस्था में होता है ।

प्रोपियम की इन सभी सात अवस्थाओं अथवा पहलुओं का वर्णन निम्नवत् किया जा सकता है:

(i) शारीरिक आत्मन् (Bodily Self):

अपने अस्तित्व के विषय में समझने की यह अवस्था बालक को शारीरिक वातावरण के अन्य पहलुओं से परिचित कराती है ।

(ii) आत्म पहचान (Self Identity):

इस अवस्था में बालक अपने अन्दर अनेक प्रकार के परिवर्तन होने के बावजूद यह अनुभव करते हैं, कि उनकी एक अलग पहचान बनी होती है । इसकी अभिव्यक्ति वह भाषा के माध्यम से करता है । जैसे – खेलने की वस्तुओं को वह अपनी वस्तु कहता है । आईना देखकर स्वयं का नाम बताता है, अपने ऊपर हाथ रखकर स्वयं का नाम बताता है आदि ।

(iii) आत्म-सम्मान (Self-Esteem):

इस अवस्था में बालक प्रत्येक कार्य को स्वयं करना चाहता है और अपनी उपलब्धियों का मूल्यांकन भी स्वयं करना चाहता है । प्राय: माता-पिता की किसी बात को बालक अपने लिए एक चुनौती मानते हुए उसका विरोध कर देता है । इस अवस्था को निषेधवृत्ति (Negativism) की अवधि कहा जाता है ।

(iv) आत्म-विस्तार (Self Extension):

इस अवस्था को 4 वर्ष से 6 वर्ष की आयु में माना गया है । आत्म-विस्तार की यह अवस्था बालक को इस भाव से अविभूत कराती है, कि उसके शरीर के भीतर न होने वाली चीजें भी उसका अंश हैं । जैसे -‘मेरी मम्मी’, ‘मेरी दीदी’, ‘मेरे पापा’,’मेरा गुड्‌डा’ , ‘मेरा खिलौना’ आदि ये सब बालक के आत्मविस्तार के उदाहरण हैं ।

(v) आत्म-प्रतिमा (Self Image):

इस अवस्था में बालक अपने व्यवहार के विषय में एक वास्तविक (Real) आदर्श प्रतिमा विकसित कर लेते हैं और वे अपने माता-पिता की प्रत्याशाओं को पूर्ण करने का प्रयास करते हैं तथापि बालक इस भाव से शून्य रहता है, कि वह बड़ा होकर क्या बनना चाहता है अर्थात् उसके अन्त करण में ऐसी कोई बात विकसित नहीं होती ।

आलपोर्ट इस बात पर स्पष्ट करते हैं, ”बाल्यावस्था में बच्चों में अपने बारे में जैसा वह है, जैसा वह होना चाहता है तथा जैसा उसे होना चाहिए से सम्बद्ध चिन्तन मात्र जननिक होता है ।”

(vi) युक्ति संगत आत्मन्:

यह अवस्था 6 वर्ष से 12 वर्ष के मध्य मानी गयी है । इसमें बच्चे दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का सामना करना सीख लेते हैं, इससे उनमें यह समझ विकसित हो जाती है, कि वह अपने जीवन की समस्याओं का समाधान करने तथा वास्तविक माँगों को कैसे प्रभावी बनाने की क्षमता विकसित कर सकता है ? इस अवस्था में बालक सामाजिक एवं नैतिक अनुरूपता का भाव भी विकसित कर लेता है ।

(vii) उपयुक्त प्रयास (Appropriate Striving):

किशोरावस्था के रूप में यह अवस्था जानी जाती है । इस अवस्था में किशोर बड़ी-बड़ी योजना बनाना शुरू कर देते हैं । उनका लक्ष्य कैसे विकसित हो इसकी खोज प्रारम्भ कर देते हैं । इस प्रकार से यह अवस्था व्यक्ति के जीवन को एक सार्थक उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रेरित करती है, जिसे उसकी स्व-पहचान (Personal Identity) बनती है और उसके व्यक्तित्व में एकात्मकता (Unity) का विकास होता है ।

रोजर्स का दृष्टिकोण (Roger’s View’s Point):

रोजर्स प्राणी को शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों ही प्रकार से कार्य करना वाला एक दैहिक जीव मानते हैं । उनके अनुसार जीव में प्रासंगिक क्षेत्र (Phenomenal Field) एवं आत्मन् (Self) दोनों की उपलब्धि होती है, जो कि समस्त प्रकार की अनुभूतियों का केन्द्र बिन्दु होता है ।

इनमें चेतन एवं अचेतन अनुभूतियों के योग से निर्माण होने वाला योग प्रासंगिक क्षेत्र कहलाता है । इसकी विशेषता यह है, कि व्यक्ति स्वयं के विषय में सब कुछ सही-सही जानता है, जबकि अन्य कोई इससे व्यक्ति के प्रासंगिक क्षेत्र के विषय में उसको सही-सही जानकारी नहीं होती है ।

रोजर्स आत्मन् को व्यक्तित्व से अलग नहीं मानते उसका कहना है, कि अनुभव के आधार पर जब प्रासंगिक क्षेत्र का एक भाग एक अति विशिष्ट अवस्था में प्रवेश कर जाता है तब उसे ही आत्मन् (Self) कहा जाता है । यहाँ फ्रायड अहं (Ego) व्यक्तित्व से अलग मानते हैं ।

रोजर्स इस बात पर बल देते हैं, कि किसी व्यक्ति में आत्मन् नहीं होता वरन् स्वयं आत्मन् का अर्थ ही सम्पूर्ण प्राणी होता है । रोजर्स का मानना है कि एक अवस्था ऐसी आती है, जब ‘मैं’ या मुझको के रूप में धीरे-धीरे विशिष्ट होने लगता है, अर्थात् आत्मन् का विकास शिशु अवस्था में उस समय होता है, जब शिशुओं की अनुभूतियों का एक अंश या भाग अधिक मूर्त रूप (Personalized) प्राप्त करने लगता है, परिणामस्वरूप शिशु को अपनी पहचान (Personal Identity) होने लगती है ।

उचित एवं अनुचित का ज्ञान होने लगता है, वह दुख:द एवं सुखद अनुभूतियों में अन्तर करने लगता है और उन्हें परखने भी प्रारम्भ कर देता है ।

रोजर्स आत्मन् को भी दो उपतन्त्रों में विभाजित करते हैं:

(i) आत्म सम्प्रत्यय (Self Concept),

(ii) आदर्श आत्मन् (Ideal-Self) |

उपर्युका दोनों आत्मनो की व्याख्या निम्नवत् की जा सकती है:

(i) आत्म सम्प्रयय (Self Concept):

यह वह स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति को समस्त पहलुओं एवं अनुभूतियों की जानकारी होती है तथापि सदैव इसका प्रत्यक्षण सही नहीं होता । व्यक्ति आत्म सम्प्रत्यय को प्राय: विशेष कथनों के रूप में व्यक्त करता है, जैसे – ”मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो… ।”

आत्म सम्प्रत्यय की दो विशेषताओ की चर्चा निम्नवत् की जा सकती है:

(a) सामान्य तौर पर आत्म-सम्प्रत्यय का एक बार निर्माण हो जाने पर उसमें सामान्य परिवर्तन नहीं होता है, जो अनुभूतियाँ व्यक्ति के आत्म-सम्प्रत्यय से संगतता नहीं रखती व्यक्ति उन्हें स्वीकार नहीं करता और स्वीकार करने की यदि स्थिति बनती है, तो वह विकृत रूप में स्वीकार करता है ।

(b) दूसरी विशेषता यह है, कि जैविक आत्मन् का कुछ अंश या भाग ऐसा होता है जिससे व्यक्ति अन्जान होता है । इसलिए इसे आत्म-सम्प्रत्यय की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता अर्थात् व्यक्ति का आत्म सम्प्रत्यय उसके वास्तविक आत्मन् से भिन्न होता है ।

यहाँ यह विदित हो कि व्यक्ति जैसे ही अंश या भाग से अवगत हो जाता है वह आत्म-सम्प्रत्यय बन जाता है । जैसे – यकृत (Liver) हमारे जैविक सम्प्रत्यय (Biological Concept) का एक अंश है, न कि हमारे आत्म-सम्प्रत्यय का । परन्तु यदि व्यक्ति का यकृत सही कार्य करना बन्द कर दे तो उसे ज्ञान हो जाता है और अब यह आत्म सम्प्रत्यय होगा ।

(ii) आदर्श आत्मन् (Ideal Concept):

आदर्श आत्मन् से अभिप्राय अपने विषय में विकसित की गयी एक ऐसी छवि से होता है, जिसे वह आदर्श रूप में स्वीकार करता है । ये आदर्श रूप धनात्मक गुणों की पुष्टि करता है और व्यक्ति अपने अन्दर इन्हे विकसित करने का भाव रखता है । रोजर्स कहते हैं कि एक सामान्य व्यक्ति में आदर्श-आत्मन् (Ideal Self) एवं प्रत्याशित आत्मन् (Perceived Self) में भेद नहीं होता है ।

किन्तु जब इन दोनों में संगतता का अभाव हो जाता है, तब इनमें एक स्पष्ट अन्तर दिखाई देने लगता है और एक स्वास्थहीन व्यक्ति संकेत मिलता है । मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से स्वस्थ व्यक्ति वे हैं “जो स्वय स्वस्थ हैं और होना चाहते है” इनमें कोई भेद-विचार नहीं रखते हैं ।

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