Read this article in Hindi to learn about the causes of downfall of the Delhi sultanate during medieval period in India.

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल के उत्तरार्ध में साम्राज्य के विभिन्न भागों में बार-बार विद्रोह हुए । महत्वाकांक्षी कुलीनों के विद्रोह कोई नई बात नहीं थी खासकर बाहरी क्षेत्रों में । अधिकांश मामलों में सुल्यान केंद्रीय सेना और वफादार कुलीनों के दल की सहायता से उन्हें कुचलने में सफल रहे ।

मुहम्मद तुगलक की कठिनाइयाँ अनेक थीं । साम्राज्य के विभिन्न भागों में एक के बाद एक विद्रोह हुए-बंगाल में, माबर (तमिलनाडु) में, वारंगल में, कंपिली (कर्नाटक) में, पश्चिमी बंगाल में, अवध में तथा गुजरात और सिंध में । मुहम्मद तुगलक किसी पर भरोसा नहीं करता था पूरा भरोसा तो नहीं ही करता था ।

इसलिए वह विद्रोहों को कुचलने के लिए देश के एक से दूसरे भाग तक दौड़ता-भागता रहा और अपनी सेनाओं को उसने चूर कर डाला । दक्षिण भारत के विद्रोह सबसे गंभीर थे । आरंभ में इस क्षेत्र में स्थानीय सूबेदारों ने विद्रोह किए । सुल्तान भागकर दक्षिण भारत पहुंचा । कुछ समय बाद सेना में प्लेग फैल गया । कहा गया है कि दो-तिहाई सेना प्लेग की भेंट चढ़ गई ।

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यह ऐसी चोट थी जिससे मुहम्मद तुगलक कभी उबर न सका । दक्षिण भारत से सुल्तान की वापसी के कुछ ही समय बाद वहाँ हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों के नेतृत्व में एक और विद्रोह हुआ । उन्होंने एक छोटा-सा राज्य कायम कर लिया जो धीरे-धीरे बढ़ता चला गया ।

यही विजयनगर साम्राज्य था जो जल्द ही पूरे दक्षिण भारत में फैल गया । इससे भी उत्तर, दकन मे कुछ विदेशी कुलीनों ने दौलताबाद के पास एक और राज्य कायम कर लिया जो बढ्‌कर बहमनी साम्राज्य बन गया ।

बंगाल भी स्वतंत्र हो गया । मुहम्मद तुगलक अवध गुजरात और सिंध की बगावतों को भारी प्रयास के बाद ही कुचल सका । मुहम्मद तुगलक अभी सिंध में ही था कि वह चल बसा और उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक दिल्ली के तख्त पर बैठा । मुहम्मद तुगलक की नीतियों से कुलीनों में और मेना में भी गहरा असंतोष पैदा हो गया था ।

सुल्तान का टकराव मुस्लिम धर्मशास्त्रियों और सूफी संतों से भी हुआ था जो बहुत प्रभावशाली थे । पर मुहम्मद तुगलक की अलोकप्रियता को बहुत बढ़ाकर पेश नहीं करना चाहिए । जब वह राजधानी से लंबी-लंबी मुद्‌दतों तक दूर रहा तब भी दिल्ली पंजाब और उत्तर भारत में तथा साम्राज्य के दूसरे भागों में प्रशासन ढंग से चलता रहा ।

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सत्तारोहण के बाद फिरोज तुगलक को दिल्ली सल्तनत के आसन्न विघटन को रोकने की समस्या झेलनी पड़ी । उसने कुलीनों सेना और धर्मशास्त्रियों को तुष्ट करने की नीति अपनाई और ऐसे क्षेत्रों पर ही अपनी सत्ता स्थापित करने की कोशिश की जिनको केंद्र से आसानी से प्रशासित किया रजा सके ।

इस कारण उसने दक्षिण भारत और दकन पर फिर से स्वामित्व का दावा करने का कोई प्रयास नहीं किया । उसने बंगाल में दो अभियान चलाए और दोनों में असफल रहा । इस तरह बंगाल सल्तनत से निकल गया । तो भी सल्तनत अभी भी उतनी बड़ी तो थी ही जितनी अलाउद्‌दीन खलजी के शासन के आरंभिक वर्षो में थी ।

फिरोज ने जाजनगर उड़ीसा के राजा के खिलाफ एक अभियान चलाया । उसने वहाँ मंदिरों को नष्ट किया और बहुत सारा माल लूटा मगर उड़ीसा के अधिग्रहण का कोई प्रयास नहीं किया । उसने पंजाब की पहाड़ियों मैं कांगड़ा के खिलाफ भी एक अभियान चलाया ।

उसके सबसे लंबे अभियान गुजरात और थट्‌टा के विद्रोहों से निबटने के लिए थे । ये विद्रोह कुचल तो दिए गए मगर कच्छ के रन में रास्ता भटककर सेना को भारी तकलीफ उठानी पडी ।

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इस तरह फिरोज किसी भी अर्थ में कोई बड़ा सैनिक नेता नहीं था । पर उसका काल शांति का और शांत विकास का काल था । उसने ऐलान किया कि कोई कुलीन मरेगा तो उसके इक्ता और उसके पद का उत्तराधिकारी उसका बेटा होगा, बेटा न हो तो दामाद होगा और वह भी न हो तो उसका गुलाम होगा ।

कुलीनों के इक्ता की खाता-बही की जाँच के समय उनकी ओर कोई बकाया निकलने पर कुलीनों और उनके अमलों को यातना देने की नीति भी फिरोज ने बंद कर दी । इन कदमों से कुलीन गदगद हो गए तथा गुजरात और थट्‌टा के मामूली विद्रोहों को छोड़ दें तो उसके काल में कुलीनों के विद्रोह नहीं हुए ।

लेकिन पदों और इक्तों को पुश्तैनी बनाने की नीति का आगे चलकर हानिकारक साबित होना निश्चित था । इसके कारण नौकरियों में एक तंग दायरे से बाहर के योग्य व्यक्तियों की भरती के अवसर कम हो गए और सुल्तान एक छोटे-से अल्पतंत्र पर निर्भर हो गया ।

फिरोज ने विरासत का सिद्धांत सेना पर भी लागू किया । पुराने सैनिकों को शांति के साथ आराम करने और अपनी जगह अपने बेटों या दामादों को और वे भी न हों तो दासों को भेजने की अनुमति दे दी गई । इन सैनिकों को नकद वेतन न देकर गाँवों की मालगुजारी के हिस्से दिए जाते थे ।

इसका मतलब यह था कि एक सैनिक अपनी तनख्वाह वसूली के लिए गाँवों में जाता और इस तरह सेवा से अनुपस्थित रहता या फिर किसी बिचौलिये को ठेका दे देता जो उसे उसके मूल्य का आधा या एक-तिहाई उसे देता । इस तरह दीर्घकालिक दृष्टि से सैनिकों को कोई लाभ नहीं हुआ ।

पूरा सैन्य प्रशासन ढीला पड़ गया और सैनिक बाबुओं को रिश्वत देकर हाजिरी के समय बेकार घोड़े पेश करने लगे । उदारता की एक गलत धारणा के रूप में एक बार सुल्तान ने स्वयं एक सैनिक को सोने का एक सिक्का दिया ताकि वह हाजिरी लगाने वाले बाबू को रिश्वत दे सके ।

फिरोज ने अपने को सच्चा मुस्लिम बादशाह और अपने राज्य को सच्चा मुस्लिम राज्य जताकर धर्मशास्त्रियों को भी अपनी ओर खींचने का प्रयास किया । वास्तव में इल्तुतमिश के समय से ही राज्य की प्रकृति तथा गैर-मुस्लिम प्रजा के प्रति राज्य की नीति को लेकर कट्‌टर धर्मशास्त्रियों और सुल्तानों के बीच खींचतान चलती आ रही थी ।

इल्तुतमिश के काल से ही और विशेषकर अलाउद्‌दीन और मुहम्मद तुगलक के काल में सुल्तानों ने धर्मशास्त्रियों को यह छूट नहीं दी कि वे राज्य की नीति तय कर सकें । उन्होंने लूटपाट के लिए, तथा सेना को व्यस्त रखने के लिए भी हिंदू राजाओं के खिलाफ जेहाद किए । धर्मशास्त्रियों को संतुष्ट रखने के लिए अनेक को उच्च पदों नियुक्त किया गया । न्यायपालिका और शिक्षा व्यवस्था निश्चित ही धर्मशास्त्रियों के हाथों में रही ।

बाहरी तामझाम और दिखावों के बावजूद फिरोज ने मूल बातों में अपने पूर्ववर्ती सुल्तानों की नीति को जारी रखा । यह मानने का कोई कारण नहीं है कि उसने धर्मशास्त्रियों को राज्य की नीति तय करने की छूट दे दी । पर उसने धर्मशास्त्रियों को अनेक महत्वपूर्ण रियायतें दीं ।

उसने उन प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की जिन्हें कट्‌टर धर्मशास्त्री गैर-इस्लामी समझते थे । उदाहरण के लिए, उसने संतों के मझारों पर इबादत के लिए मुस्लिम स्त्रियों के जाने पर रोक लगा दी । उसने ऐसे अनेक मुस्लिम पंथों का दमन किया जिनको धर्मशास्त्री विधर्मी समझते थे ।

फिरोज के समय में ही जजिया एक अलग कर बना । पहले यह मालगुजारी का हिस्सा होता था । फिरोज ने ब्राह्मणों को जजिया देने से मुक्त रखने से इनकार कर दिया, क्योंकि शरीअत में इसका प्रावधान नहीं था । इससे सिर्फ स्त्रियाँ, बच्चे, वे अपंग और रोगी लोग मुक्त थे जिनके पास जीविका का कोई साधन नहीं था ।

इससे भी बुरी बात यह थी कि उसने जनता जिसमें मुसलमान भी शामिल थे के सामने प्रवचन कर रहे एक ब्राह्मण को इस आधार पर सार्वजनिक रूप से जला डाला कि यह बात शरीअत के खिलाफ थी । इसी आधार पर उसने यह आदेश भी जारी किया कि उसके महल के सुंदर भित्तिचित्र खुरच दिए जाएँ । लेकिन वह संगीत का संरक्षक था तथा अपनी कट्‌टरता के बावजूद शराब का शौकीन था ।

फिरोज तुगलक के ये तंग विचार निश्चित ही हानिकारक थे । साथ ही वह पहला शासक था जिसने हिंदू धर्मग्रंथों के संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराने के लिए कदम उठाए, ताकि हिंदू आचार-विचार की बेहतर समझ मिल सके । उसके शासनकाल में संगीत आयुर्विज्ञान और गणित के अनेक ग्रंथों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया गया ।

फिरोज ने अनेक मानवतावादी कदम भी उठाए । उसने चोरी और दूसरे गुनाहों के लिए हाथ-पैर-नाक आदि काटने जैसे अमानवीय दंड बंद कर दिए । उसने गरीबों के मुफ्रा इलाज के लिए अस्पताल बनवाए और कोतवालों को बेरोजगारों की सूचियाँ बनाने का आदेश दिया तथा गरीबों की बेटियों के लिए दहेज दिए ।

मुमकिन है कि इन कदमों का बुनियादी उद्‌देश्य अच्छे परिवारों के उन मुसलमानों की सहायता करना रहा हो जिनके बुरे दिन आ गए थे । इससे भी भारत में मध्यकाल में राज्य की सीमित प्रकृति का पता चलता है ।

तो भी फिरोज ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य का काम केवल दंड देना और कर वसूल करना ही नहीं है बल्कि वह एक कल्याणकारी संस्था भी है । मध्यकाल के संदर्भ में कल्याण के इस सिद्धांत की घोषणा एक मूल्यवान घोषणा थी और फिरोज इसके लिए श्रेय का अधिकारी है ।

देश के आर्थिक सुधार में फिरोज की गहरी दिलचस्पी थी । उसने सार्वजनिक निर्माण का एक बड़ा विभाग बनाया जो उसका निर्माण कार्यक्रम चलाता था । फिरोज ने अनेक नहरों की मरम्मत कराई और अनेक नई नहरें खुदवाई । सबसे लंबी नहर लगभग 200 किमी लंबी थी, जो सतलुज से निकलकर हाँसी तक आती थी ।

एक और नहर यमुना से निकलती थी । ये और दूसरी नहरें सिंचाई के लिए थीं और फिरोज के बसाए कुछ नए नगरों तक जल पहुँचाने के लिए भी । हिसार-फिरोज या हिसार (आज का हरियाणा) और फिरोजाबाद (आज का उत्तर प्रदेश) के नाम के ये नगर आज भी मौजूद हैं ।

फिरोज ने एक और कदम उठाया जिसमें आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों पक्ष थे । उसने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि वे जब भी कभी किसी स्थान पर आक्रमण करें तो सुंदर और सुगठित नौजवान लड़के चुनकर गुलामों के रूप में सुल्तान के पास भेजें । इस तरह फिरोज ने धीरे-धीरे कोई 1,80,000 गुलाम जमा कर लिए ।

इनमें से कुछ को उसने विभिन्न हस्तशिल्पों का प्रशिक्षण दिलाकर पूरे साम्राज्य में शाही कारखानों में नियुक्त किया । दूसरों को लेकर उसने सैनिक दस्ते बनाए जो सीधे सुल्तान पर निर्भर थे और इसलिए उसे आशा थी कि वे पूरी तरह उसके वफादार रहेंगे । यह नई नीति नहीं थी । भारत के आरंभिक तुर्क सुल्तान गुलामों की भरती किया करते थे ।

खलजियों के काल में यह प्रथा कुछ कमजोर तो पड़ी पर समाप्त नहीं हुई । पर अनुभव से यह साफ हो गया था कि यह भरोसा नहीं किया जा सकता था कि ये गुलाम अपने मालिक के वंशजों के प्रति भी वफादार रहेंगे । जल्द ही वे कुलीनों से अलग एक भिन्न समूह बन जाते थे ।

1388 में जब फिरोज की मृत्यु हुई तो वही प्रशासनिक और राजनीतिक समस्याएँ उठ खड़ी हुई जो हर सुल्तान की मौत के बाद उठा करती थीं । सुल्तान और कुलीनों के बीच शक्ति-संघर्ष एक बार फिर शुरू हो गया । इस स्थिति से स्थानीय जमींदारों और राजाओं ने लाभ उठाकर स्वतंत्रता के दावे किए ।

फिरोज के गुलामों का सक्रिय हस्तक्षेप और तख्त पर अपना व्यक्ति बिठाने का प्रयास इस स्थिति में एक नया आयाम था । फिरोज का बेटा सुल्तान मुहम्मद उन्हीं की सहायता से अपनी स्थिति को सँभाल सका । लेकिन अनेक गुलामों को मारकर और कैद करके तथा बाकी को बिखराकर उनकी ताकत को तोड़ना उसके आरंभिक कदमों में एक था ।

लेकिन महत्वाकांक्षी कुलीनों और अक्खड़ राजाओं को न तो सुल्तान मुहम्मद नियंत्रित कर सका और न ही उसका उत्तराधिकारी नसीरुद्‌दीन महमूद जिसने 1394 से 1412 तक शासन किया । शायद इसके प्रमुख कारण फिरोज के वे सुधार थे जिन्होंने कुलीनों को बहुत मजबूत और सेना को बहुत कमजोर बना दिया था ।

सूबों के सूबेदार स्वतंत्र हो गए और दिल्ली का सुल्तान दिल्ली के आसपास एक छोटे-से इलाके तक सीमित होकर रह गया । एक मसखरे ने कहा भी था कि ‘जहाँपनाह (दिल्ली के सुल्तानों की पदवी) की सल्तनत दिल्ली से पालम तक फैली हुई है ।’

दिल्ली सल्तनत की कमजोरी को दिल्ली पर तैमूर के आक्रमण (1398) ने और बदतर बनाया । तैमूर एक तुर्क था, पर चंगेज से रक्त-संबंध का दावा करता था । तैमूर ने 1370 में अपनी विजय-यात्रा आरंभ की थी तथा धीरे-धीरे सीरिया से आक्सस-पार तक और दक्षिण रूस से सिंध तक के पूरे इलाके पर उसने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था ।

भारत पर उसका धावा लूटपाट के लिए था तथा इसका मकसद पिछले 200 वर्षों में दिल्ली के सुल्तानों द्वारा जमा की हुई संपत्ति पर कब्जा करना था । दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण कोई इस धावे का सामना करनेवाला नहीं था । तैमूर की सेना ने दिल्ली के रास्ते में पड़ने वाले विभिन्न नगरों को बेरहमी से तबाह किया और लूटा । फिर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया और उसे तहस-नहस कर डाला । बड़ी संख्या में हिंदू और मुसलमान पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे जान से हाथ धो बैठे ।

तैमूर के आक्रमण ने देश में कमजोर शासन के सामने आनेवाले खतरों को एक बार फिर स्पष्ट किया । भारत से बड़े पैमाने पर दौलत, सोना-चाँदी, जवाहरात आदि का दोहन इसका परिणाम था । तैमूर अपने साथ बड़ी संख्या में दस्तकारों को भी ले गया, जैसे राजगीरों, संगतराशों, बढ़इयों आदि को ।

उनमें से कुछ ने उसकी राजधानी समरकंद में अनेक सुंदर इमारते बनाने में योगदान दिया । उसने ऐसी ही नीति उन ईरानी नगरों में भी बरती थी, जिन पर उसने कब्जा किया था । भारत पर तैमूर के आक्रमण का प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रभाव कम ही पड़ा ।

तो भी तैमूर के आक्रमण को दिल्ली में सुल्तानों के शक्तिशाली शासनवाले चरण के अंत का सूचक माना जा सकता है, हालाँकि तुगलक वंश जैसे-तैसे 1412 तक घिसटता रहा ।

दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिए किसी एक शासक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । हमने देखा कि मध्यकाल की कुछ स्थायी चलनेवाली समस्याएँ थीं, जैसे शासक और कुलीनों के बीच के संबंधों की समस्या स्थानीय राजाओं और जमींदारों से टकराव की समस्या क्षेत्रीय और भौगोलिक कारणों से उत्पन्न समस्या आदि ।

अलग-अलग सुल्तानों ने अपने-अपने ढंग से इन समस्याओं से निबटने की कोशिश की पर उनमें से कोई इस स्थिति में नहीं था कि इन स्थायी तत्वों का प्रभाव मिटाने के लिए समाज में बुनियादी तब्दीलियाँ कर सकता । इस तरह राजनीतिक ताने-बाने के बिखराव की स्थिति सतह से ठीक नीचे जारी रहती थी तथा केंद्रीय प्रशासन की कोई भी कमजोरी ऐसे घटनाक्रमों को जन्म देती थी, जो राजनीतिक विघटन का कारण बन जाती थी ।

गयासुद्‌दीन और मुहम्मद तुगलक के अंतर्गत साम्राज्य के अति-विस्तार ने प्रतिक्रियाओं की जिस शृंखला को जन्म दिया था फिरोज उसे सीमित करने में सफल रहा । उसने कुलीनों और सैनिकों के तुष्टीकरण के लिए अनेक सुधार लागू किए । पर इन्होंने केंद्रीय प्रशासनतंत्र को ही कमजोर कर दिया ।

1200 से 1400 तक के काल में भारतीय जीवन में अनेक नई विशेषताएँ देखी गई जैसे शासन की व्यवस्था जनता के जीवन और दशाओं में परिवर्तन तथा कलाओं और वास्तुकला का विकास ।

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