Read this article in Hindi to learn about the economic and social life of people during the rule of Delhi sultanate in India.
दिल्ली सल्तनत में जनता की आर्थिक दशा के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है । इस काल के इतिहासकारों की रुचि साधारण जनता के जीवन से अधिक दरबार की घटनाओं में थी । पर वे कभी-कभी वस्तुओं के दामों के बारे में अवश्य बतलाते हैं । टंजियर (उत्तरी अफ्रीका) का निवासी इब्न-बतूता चौदहवीं सदी में भारत आया और आठ वर्षों तक मुहम्मद तुगलक के दरबार में रहा ।
पूरे भारत में उसने दूर-दूर की यात्रा की । उसने फल-फूलों और जड़ी-बूटियों समेत देश की पैदावारों का सड़कों की दशा और जनता के जीवन का एक बहुत रोचक विवरण छोड़ा है । हमारे पास कुछ और यात्रा वृत्तांत भी हैं । इन यात्रियों ने जिन अनाजों और अन्य फसलों फलों और फूलों का जिक्र किया है उनसे हम परिचित हैं ।
पूरब और दक्षिण में गन्ने और चावल की तथा उत्तर में गेहूँ तिलहन आदि की पैदावार होती थी । इब्न-बतूता कहता है कि भारत की मिट्टी इतनी उपजाऊ है कि साल में दो फसलें पैदा कर सकती है तथा धान साल में तीन बार बोया जाता है । तिल, नील और कपास की भी खेती होती थी जो तेल-पेराई, गुड बनाना कपड़ों की बुनाई और रँगाई आदि अनेक ग्रामीण उद्योगों के आधार थे ।
किसान और ग्रामीण अभिजात:
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पहले की तरह आबादी में विशाल बहुमत किसानों का था । वे कड़ी मेहनत करते और मुश्किल से दो जून की रोटी पाते थे । देश के विभिन्न भागों में अकाल और युद्ध किसानों की मुश्किलें बढ़ाते रहते थे ।
सभी किसान कठिनाई से गुजारा करनेवालों में नहीं थे । गाँवों के दस्तकारों और बटाईदारों को छोड़कर गाँवों में एक अधिक समृद्ध किसान भी था, जो अपनी जमीनों का मालिक था । वे गाँवों के मूल निवासी माने जाते थे और पंचायतों पर हावी होते थे । गाँवों के मुखियों (मुकद्दम) और छोटे भूस्वामियों (सूत) का जीवनस्तर भी औरों से ऊँचा था ।
अपनी जोतों के अलावा वे दूसरों की जमीनें लेते थे वे रियायती दरों पर मालगुजारी देते थे । कभी-कभी वे अपने पद का दुरुपयोग कर किसानों को उसके हिस्से की जमीन पर मालगुजारी जमा कराने के लिए मजबूर करते थे ।
ये लोग इतने समृद्ध थे कि कीमती अरबी-ईराकी घोड़ों की सवारी करते थे महीन कपड़े पहनते थे और उच्च वर्गों के सदस्यों जैसा जीवन बिताते थे । जैसा कि हमने देखा अलाउद्दीन खलजी ने उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की और उनके बहुत-से विशेषाधिकार छीन लिए । तब भी लगता है कि उनका जीवनस्तर साधारण किसानों से ऊँचा ही रहा ।
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अलाउद्दीन की मौत के बाद वे अपने ढर्रों पर वापस आ गए । ऊँचे जीवनस्तर वाला एक और भाग हिंदू रायों (स्वायत्त राजाओं) का था, जिनमें से अनेक अपने क्षेत्रों में मजूबूत बने रहे । बलबन के दरबार में हिंदू रायों के ओने के अनेक हवाले मिलते हैं । इसमें शायद ही संदेह हो कि दिल्ली के सुल्तानों के प्रत्यक्ष नियंत्रण वाले क्षेत्रों तक में ये हिंदू राय शक्तिशाली बने रहे ।
व्यापार उद्योग और सौदागर:
दिल्ली सल्तनत की आधार प्रणाली मजबूत हुई तथा चाँदी के टके और ताँबे के दरहम पर आधारित एक ठोस मुद्रा धीरे-धीरे स्थापित हुई जिससे देश में व्यापार की वृद्धि हुई । नगरों और नगरीय जीवन का विकास इसकी पहचान था ।
इब्न-बतूता ने दिल्ली को इस्तघमी दुनिया के पूर्वी भाग का सबसे बड़ा नगर कहा था । वह कहता है कि दौलताबाद देवगीर आकार में दिल्ली के बराबर था और यह उत्तर-दक्षिण के बीच व्यापार की वृद्धि का सूचक था । उत्तर-पश्चिम में लाहौर और मुलतान, पूर्व में कड़ा (इलाहाबाद के निकट) ओर लखनौती तथा पश्चिम में अन्हिलवाड़ा (पाटन) और कैंबे (खंबायत) उस समय के दूसरे महत्वपूर्ण नगर थे ।
एक आधुनिक इतिहासकार का कथन है कि कुल मिलाकर ‘सल्तनत एक फलती-फूलती नगरीय अर्थव्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करती है । ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए बड़े पैमाने पर वाणिज्य आवश्यक रहा होगा ।’ बंगाल और गुजरात के नगर अपने उम्दा कपड़ों के लिए मशहूर थे । दूसरे नगरों में भी उम्दा कपड़े तैयार होते थे । गुजरात में खंबायत कपड़ों के लिए तथा सोने-चाँदी के काम के लिए प्रसिद्ध था ।
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बंगाल का सोनारगाँव अपने कच्चे रेशम और महीन सूरती कपड़े (जिसे बाद में मलमल कहा गया) के लिए प्रसिद्ध था । भारत दूसरी बहुत-सी दस्तकारियों के लिए भी मशहूर था जैसे चमड़े का काम धातु का काम, कालीनसाजी, फर्नीचर समेत लकड़ी का काम पत्थर की कटाई (संगतराशी) आदि ।
तुर्को ने कुछ नई दस्तकारियाँ भी शुरू कीं जिनमें कागज का उत्पादन शामिल था । कागज बनाने की कला चीनी लोग दूसरी सदी मे ही जान चुके थे । अरब जगत पाँचवीं सदी में इससे अवगत हुआ और यूरोप में यह कला पंद्रहवीं सदी में ही जाकर पहुँची ।
चरखे के प्रयोग के कारण कपड़ों के उत्पादन में सुधार आया । धुनकी के द्वारा कपास की जल्दी और बेहतर ढंग से साफ किया जा सकता था । पर इसमें शायद ही कोई शक है। कि सबसे अधिक महत्व भारतीय दस्तकारों के कौशल का था ।
लाल सागर और फारस की खाड़ी के किनारे पर बसे देशों के व्यापार में भारतीय कपड़े पहले ही अपना स्थान बना चुके थे । इस काल में भारतीय कपड़े चीन में भी पहुँचे, जहाँ उनको रेशम से अधिक मूल्यवान माना गया । पश्चिमी एशिया से भारत उच्च कोटि के कपड़ों (साटन वगैरह), काँच के सामानों और निस्संदेह घोड़ों का आयात करता था । चीन से वह कच्चे रेशम और चीनी बर्तन का आयात करता था ।
भारतीय कपड़ों के बदले अफ्रीका से हाथी-दाँत और दक्षिण-पूर्व एशिया सें मसालों का आयात होता था । चूँके व्यापार का संतुलन भारत के पक्ष में था इसलिए पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ के देशों से भारत में सोना और चाँदी आते रहे ।
जल स्थल दोनों रास्तों से चलने वाला भारत का विदेश व्यापार सचमुच एक अंतर्राष्ट्रीय उद्यम था । हिंद महासागर क्षेत्र के व्यापार में वर्चस्व तो अरबों का था पर वे भारतीय व्यापारियों को अर्थात हिंदू और मुस्लिम, तमिलों, कलिंगों और गुजरातियों को किसी भी तरह उससे बाहर न कर सके ।
तटीय व्यापार तथा तटीय बंदरगाहों और उत्तर भारत के बीच का व्यापार मारवाड़ियों और गुजरातियों के हाथों में था जिनमें बहुत सारे लोग जैनी थे । मुसलमान बोहरा सौदागर भी इस व्यापार में शामिल थे । मध्य और पश्चिमी एशिया के साथ स्थलीय व्यापार मुलतानियों के हाथों में था जिनमें से अधिकांश हिंदू थे, या फिर मुस्लिम और खुरासानियों के हाथों में था जो अफगान ईरानी आदि थे ।
इनमें से अनेक सौदागर दिल्ली में बसे हुए थे । गुजराती-मारवाड़ी सौदागर बेहद धनी थे और कुछ ने खासकर जैनियों ने मंदिर-निर्माण पर बड़ी-बड़ी रकमें खर्च कीं । खंबायत एक बड़ा नगर था जहाँ अनेक धनी सौदागर रहते थे । उनके तराशे हुए पत्थरों और गारे से बने, खपरैल की छतों वाले आलीशान मकान थे ।
उनके घरों के चारों ओर फलों के सुंदर बगीचे होते थे जिनमें कई तालाब भी बने होते थे । ये धनी सौदागर और कुशल कारीगर ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते थे तथा अच्छा खाने-पहनने के अभ्यस्त थे । इन हिंदू मुस्लिम और विदेशी सौदागरों के अपने परिचर होते थे जो सोने-चाँदी के काम वाली तलवारें बाँधे रहते थे ।
दिल्ली में हिंदू सौदागर कीमती साजों वाले घोड़ों की सवारी करते थे उम्दा मकानों में रहते थे तथा भारी तड़क-भड़क के साथ अपने त्योहार मनाते थे । बरनी के अनुसार मुलतानी सौदागर इतने धनी थे कि उनके घरों में बहुत सारा सोना-चाँदी मौजूद रहता था । तुर्क सरदार इतने शाह-खर्च थे कि जब भी उनको कोई भोज या समारोह करना होता था, कर्ज पर पैसा लेने के लिए भागकर मुलतानियों के यहाँ जाते थे ।
उन दिनों डाकुओं, लुटेरों और विभिन्न बटमार कबीलों के कारण यात्रा हमेशा जोखिम से भरी होती थी । पर शाही सड़कें अच्छी हालत में रखी जाती थीं तथा यात्रियों के आराम और सुरक्षा के लिए रास्ते में अनेक सरायें होती थीं ।
पेशावर से सोनारगाँव की शाही सड़क के अलावा मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद तक एक सड़क बनवाई थी । देश के एक से दूसरे भाग तक तेजी से डाक भेजने के इंतजाम थे । यह काम घोड़े बदल-बदलकर किया जाता था या और भी कुशल ढंग से और नेजी से उन दौड़ाको द्वारा किया जाता था जो कुछ-कुछ मील की दूरी पर इसी कार्य के लिए बनाई गई मीनारों में रहते थे ।
दौड़ाक एक घंटी बजाता चलता था ताकि अगली बारी वाला व्यक्ति अपनी मीनार से उसे देख और सुन सके तथा उसका काम सँभालने को तैयार हो जाए । कहा गया है कि इन्हीं चौकी-दौड़ाकों के कारण सुल्तान को खुरासान तक से ताजे फल मिलते रहते थे । जब मुहम्मद तुगलक दौलताबाद में था, जो दिल्ली से 40 दिनों की दूरी पर था तो चौकी-दौड़ाक, की इस व्यवस्था के कारण उसे पीने के लिए नियमित रूप से गंगा जल मिलता रहना था ।
इस काल में संचार में सुधार तथा जल और थल दोनों मार्गों से व्यापार की वृद्धि के कारण आर्थिक जीवन में तेजी आई । तुर्कों ने अनेक नए शिल्पों और तकनीकों का आरंभ किया या उन्हें लोकप्रिय बनाया । हम लोहे की रकाबों के उपयोग का तथा घोड़े और सवार दोनों के लिए बड़े पैमाने पर बख्तर के इस्तेमाल का हवाला दे चुके हैं । भारी और हलकी सवार सेना के लिए शासकगण इन्हें वरीयता देते थे । इसके कारण धातुकर्म उद्योग तथा धातुओं पर आधारित हस्तकलाओं का विकास हुआ ।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण विकासक्रम रहट (जिसे गलती से पर्शियन व्हील कहा गया है) का सुधार था । नए प्रकार के रहट के कारण सिंचाई के लिए और भी गहराई से पानी उठाया जाने लगा । कागज बनाना, काँच बनाना, चरखा और बुनाई के लिए सुधरी किस्म का करघा अन्य शिल्पों में शामिल थे ।
यहाँ बेहतर गारे के उपयोग का जिक्र भी किया जा सकता है जिसके कारण तुर्कों ने मेहराबों और गुंबदों पर आधारित शानदार इमारतें बनाईं । इनमें से सभी शिल्प नए नहीं थे । लेकिन उनका प्रसार और सुधार तथा कृषि का विकास-ये दो सबसे महत्वपूर्ण तत्व थे जिन्होंने चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध को विकास और तुलनात्मक दृष्टि से समृद्धि का काल बना दिया ।
सुल्तान और कुलीन:
सुल्तान और उसके प्रमुख अमीरों (कुलीनों) का जीवनस्तर उस समय की दुनिया के सर्वोच्च मानदंडों के, अर्थात पश्चिमी और मध्य एशिया की इस्लामी दुनिया के शासक वर्गों के जीवनस्तर के, समकक्ष था । जहाँ यूरोप अभी भी अपने पिछड़ेपन से जूझ रहा था वहीं इस्लामी दुनिया के शासक वर्गों की शानो-शौकत और दौलत चकाचौंध करने वाली थी तथा उसने ऐसा मानदंड सामने रखा कि हर देश के शासकवर्ग ने उसे पाने की कोशिश की ।
हिंदू शासकों की ही तरह भारत के लगभग हर सुल्तान ने अपना महल बनवाया । बलबन का दरबार तड़क-भड़क वाला और शानदार था जिसका उद्देश्य अतिथियों को प्रभावित करना तथा उन पर रोब डालना था । इसी परंपरा का पालन अलाउद्दीन खलजी और उसके उत्तराधिकारियों ने किया । इब्न-बतूता ने मुहम्मद तुगलक के महल का वर्णन किया है । जो व्यक्ति सुल्तान से मिलना चाहते उन्हें तीन ऊँचे दरवाजों से गुजरना पड़ता था जिन पर भारी पहरा रहता था ।
तब वह ‘हजार खंभों वाले दरबार’ में दाखिल होता था जो लकड़ी के पालिशदार खंभों पर टिका एक विशाल कक्ष था । ये खंभे कीमती सामग्रियों और आकृतियों आदि से सजे हुए थे । यही वह स्थान था जहाँ सुल्तान दरबार-ए-आम लगाता था । मुहम्मद तुगलक अपने हर अमीर को दो खिलअतें (सम्मानसूचक वस्त्र) दिया करता था एक सर्दी के मौसम में और एक गर्मी के मौसम में ।
अनुमान लगाया गया है कि वह हर साल दो लाख खिलअतें प्रदान करता था । शाही कारखानों में तैयार की गई ये खिलअतें आम तौर पर आयातित कपड़ों (मखमल, दमिश्क या ऊन) से बनती थीं और इन पर जरी और कीमती सामग्रियों का प्रयोग किया जाता था ।
इन पर निश्चय ही बहुत बड़ी रकम खर्च होती होगी । सुल्तान के जन्मदिन, नौरोज (फारसी नववर्ष) और सत्तारोहण की सालगिरह जैसे खुशी के मौकों पर अमीरों और दूसरे लोगों को अनेक उपहार दिए जाते थे ।
शाही कारखाने जिनका हम हवाला दे चुके हैं, सुल्तान की सारी आवश्यकताएँ पूरी करते थे । वे रेशम सोने चाँदी आदि कीमती वस्तुओं का निर्माण करते थे । वे चुनिंदा और दुर्लभ वस्तुओं के भंडारघर भी होते थे । फिरोज तुगलक ने इन भंडारघरों के अधीक्षकों को निर्देश दे रखा था कि उम्दा कारीगरी वाली वस्तुएँ जहाँ भी और जिस दाम पर भी मिलें उन्हें खरीद लें ।
कहते हैं कि एक अवसर पर सुल्तान के लिए बस एक जोड़ी जूते 70,000 टंकों में खरीदे गए । शाही इस्तेमाल की अनेक वस्तुओं पर सोने, चाँदी, जरी और जवाहरात के काम होते थे । ये भंडारघर हरम की स्त्रियों की आवश्यकताएँ भी पूरी करते थे ।
लगभग हर सुल्तान का एक हरम होता था, जिसमें रानियाँ होती थीं और विभिन्न देशों की कनीजों की एक बड़ी तादाद होती थी । चाकर और गुलाम स्त्री-पुरुषों की एक बड़ी संख्या उनकी सुरक्षा के लिए और उनके आराम का ख्याल रखने के लिए रखी जाती थी । सुल्तान की माता, चाची, बुआ आदि समेत सभी रिश्तेदार स्त्रियाँ भी हरम में ही रहती थीं । उनमें से प्रत्येक के रहने के लिए अलग व्यवस्था करनी पड़ती थी ।
अमीर लोग तड़क-भड़क का जीवन जीने के बारे में सुल्तान की नकल करने की कोशिश करते थे । उनके पास रहने के लिए आलीशान मकान थे, वे कीमती वस्त्र पहनते थे तथा चाकरों, गुलामों और असामियों की बड़ी संख्या से घिरे रहते थे । वे शानदार भोजों और समारोहों का आयोजन करने में आपस में प्रतियोगिता करते रहते थे । लेकिन कुछ कुलीन कलाकारों और साहित्यकारों को संरक्षण भी देते थे ।
अलाउद्दीन ने सख्ती से अमीरों का दमन किया । पर ऐशो-आराम वाली जीवनशैली उसके उत्तराधिकारियों के दौर में फिर से आरंभ हो गई । तुगलकों के दौर में कुलीन वर्ग की चाँदी ही चाँदी थी । साम्राज्य के तीव्र प्रसार के कारण मुहम्मद तुगलक द्वारा अमीरों को भारी वेतन और भत्ते दिए जाते थे । कहा गया है दे उसके वजीर की आमदनी पूरे ईराक की आमदनी के बराबर थी ।
दूसरे प्रमुख मंत्री साल में 20,000 से 40,000 टंके पाते थे और मुख्य सद्र 60,000 टके सालाना पा रहा था । फिरोज तुगलक का वजीर खान-ए-जहाँ 15 लाख टंके पाता था । उसके बेटे और दामाद, जिनकी संख्या भी बहुत बड़ी थी, अलग से भत्ते पाते थे । तुगलक दौर में अनेक अमीरों ने उत्तराधिकार में भारी धन-संपत्ति छोड़ी ।
उदाहरण के लिए बशीर, जो फिरोज का अरीज-ए-मुमालिक था, मरने के बाद 13 करोड़ टके की धनराशि छोड़ गया । बशीर मूलत: सुल्तान का गुलाम था, इस आधार पर फिरोज ने उसकी संपत्ति का अधिकांश भाग जब्त कर लिया और बाकी उसके बेटों में बाँट दिया । इसे कमोबेश एक अपवाद माना जा सकता है ।
आम तौर पर एक अमीर की संपत्ति सुरक्षित रहती थी और उसके बेटों को मिल जाती थी । यही वर्ग था जिसने जमीनें खरीदीं और उन पर बाग उपवन बाजार आदि बनवाए । सुल्तान और उसके अमीर भारत में फलों की गुणवत्ता बढ़ाने में गहरी दिलचस्पी लेते थे खासकर खरबूजों और अंगूरों की । कहते हैं कि फिरोज तुगलक ने दिल्ली के आसपास 1200 बगीचे लगवाए । इस तरह अभिजातों का एक नया वर्ग विकसित होने लगा । किंतु पंद्रहवीं सदी के आरंभिक काल में दिल्ली सल्तनत के विघटन ने इस प्रवृत्ति पर रोक लगा दी ।