Read this article in Hindi to learn about trade and commerce during eighth to twelfth century (Medieval Period) in India.  

इस काल में देश की आर्थिक स्थिति विशेषकर व्यापार और वाणिज्य की स्थिति, इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय है । कुछ इतिहासकार इसे विदेशी व्यापार तथा देश के अंदर लंबी दूरी का व्यापार दोनों के लिए जड़ता, पतन और ह्रास का काल नगरों के पतन का काल तथा स्थानीयता और क्षेत्रवाद में वृद्धि का काल मानते हैं ।

मध्यदेश, राजस्थान और गुजरात समेत उत्तर भारत में स्वर्णमुद्राओं का लगभग पूरा अभाव इसका प्रमाण माना जाता है । किंतु कुछ अन्य विद्वान इस बात को स्वीकार नहीं करते कि भारत के कुछ भागों में सोने और चाँदी की मुद्राओं का अभाव अर्थव्यवस्था के विमौद्रीकरण (Demonetization), लंबी दूरी के घरेलू व्यापार का पतन तथा स्थानीयता के बढ़ने का सूचक था ।

यहाँ इन सभी बातों की विस्तार से छानबीन संभव नहीं है । इतना ही कहना काफी होगा कि रोमन साम्राज्य के पतन ने पश्चिम के साथ भारत के व्यापार पर गंभीर प्रभाव नहीं डाला क्योंकि बाद के काल में दो नए साम्राज्य उठ खड़े हुए- कुस्तुंतुनिया में आधारित बैजंतीनी साम्राज्य और ईरान का सासानी साम्राज्य ।

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ये दोनों भारत और हिंद महासागर क्षेत्र के साथ व्यापार में गहरी दिलचस्पी रखते थे । सातवीं सदीं में अरब साम्राज्य के उदय के बाद जैसा कि कहा जा चुका है, अरबों ने पश्चिम के व्यापार का प्रसार भारत के साथ दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ किया ।

यह मानने का कोई कारण नहीं कि इस विस्तारित व्यापार से भारतीय व्यापारी बाहर कर दिए गए । इस तरह व्यापार का रुख भारत के अनुकूल होने के कारण यहाँ सोने और चाँदी का आना जारी रहा ।

यही कारण था कि भारत को सोने और चाँदी से भरा देश माना जाता रहा और इस कारण यह आक्रमण और व्यापार के लिए विदेशियों के आकर्षण का केंद्र भी बना रहा । सोने-चाँदी का उपयोग मंदिरों और महलों की सजावट के लिए या गहने बनवाने के लिए किया जाता रहा और भविष्य में उपयोग के लिए उन्हें गाड़कर रखा जाता रहा ।

मगर सिक्के ढालने के लिए उनका उपयोग क्यों नहीं किया गया-यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका कोई संतोषजनक उत्तर उपलब्ध नहीं है । भारत में सोने और चाँदी के सिक्कों की कमी तो थी पर भूमिदान के पत्रों में सिक्कों का उल्लेख मिलता है । इस अंतर का कारण स्पष्ट नहीं है । छोटे नगरों के साथ–साथ स्थानीयता या ग्रामीण आत्मनिर्भरता में वृद्धि निस्संदेह इसका एक महत्वपूर्ण कारण थी ।

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इससे स्थानीय कार्यो के लिए बड़े मूल्य वाले सिक्कों अर्थात सोने-चाँदी के सिक्कों का उपयोग अनावश्यक हो गया । पर हर जगह ऐसा नहीं हुआ । बंगाल में चाँदी के सिक्कों का प्रयोग जारी रहा क्योंकि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ व्यापार का संतुलन अनुकूल था और चाँदी वहीं से आती थी । चोल साम्राज्य में भी सोने के सिक्के जारी होते रहे ।

इस काल में देश में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ तथा वैसे लोगों की शक्ति और सत्ता में वृद्धि हुई जिनको भूमि पर श्रेष्ठतर अधिकार प्राप्त थे । उनमें से अनेक राज्यों ने बाँधों, कुँओं आदि का निर्माण करके कृषि का प्रसार किया ।

बंगाल, सिंध और तमिल प्रदेश् जैसे कुछ उदाहणों में राजाओं ने अपनी स्थिति को मजबूत बनाने के लिए ब्राहमणों को राजस्व-मुक्त भूमि दान देकर उन्हें अपने यहाँ बसने के लिए आमंत्रित किया ।

चूंकि ऐसी भूमि का बहुत बड़ा भाग अन-जुता था, इसलिए आदिवासियों में जो घुमक्कड़, पशुपालक या खाद्य-संग्राहक थे, उनको कृषि का व्यवसाय अपनाकर एक जगह बसने के लिए प्रेरित किया गया । कृषि के ऐसे प्रसार से स्थानीय सरदारों, सामंतों आदि की स्थिति और भी मजबूत हुई ।

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इस विकासक्रम का आंतरिक व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ा यह हमें ज्ञात नहीं है । ऐसा लगता है कि स्थानीय व्यापार को सहारा देने वाले छोटे घरों का उदय और आंतरिक आत्मानिर्भरता में वृद्धि साथ-साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ थीं ।

विशेष रूप से उत्तर भारत में देश में लंबी दूरी के व्यापार के ह्रास के कारण संभवत: व्यापार संघों अर्थात श्रेणियों और संघों का पतन हुआ । इन संघों में अकसर विभिन्न जातियों के लोग होते थे ।

उनके अपने आचण के नियम थे जिनका पालन करना सदस्यों के लिए कानूनी तौर पर अनिवार्य होता था तथा उन्हें कर्ज लेने-देने या दान पाने का अधिकार था । लंबी दूरी के व्यापार और वाणिज्य के ह्रास के कारण इन संघों का पहले वाला महत्व जाता रहा ।

इस काल में हमें उत्तर भारत में व्यापार संघों के दान पाने के हवाले बहुत कम मिलते हैं । कालांतर में कुछ आधिक पुरानी श्रेणियाँ उपजातियों के रूप में उभरीं । उदाहरण के लिए द्वादश श्रेणी, जो एक व्यापार संघ थी, एक वैश्य उपजाति बन गई । व्यापारी वर्ग से संरक्षण पानेवाले जैन धर्म को भी उत्तर भारत मे धक्का लगा ।

इस काल में लिखे गए कुछ धर्मशास्त्रों में उन क्षेत्रों से बाहर यात्रा करने पर प्रतिबंध लगाया गया है जहाँ मूँज घास नहीं उगती या जहाँ काला चिंकारा नहीं विचरता अर्थात भारत से बाहर । खारे समुद्रों के पार जाने को अशुद्धि का कारण माना जाने लगा ।

इन प्रतिबंधों को गंभीरता से नहीं लिया गया क्योंकि हमें इस काल में भी भारतीय सौदागरों दार्शनिकों चिकित्सकों और दस्तकारों के बगदाद या पश्चिम एशिया के दूसरे मुस्लिम नगरों में जाने के वृत्तांत मिलते हैं ।

शायद यह प्रतिबंध केवल ब्राह्मणों के लिए रहा हो या इसका उद्‌देश्य पश्चिम में इस्लाम और पूर्व में बौद्ध धर्म के प्रभाव वाले क्षेत्रों में बहुत सारे भारतीयों को जाने से हतोत्साहित करना रहा हो । इसके पीछे यह डर था कि ये लोग वहाँ से कहीं असनातन धार्मिक विचार लेकर न लौटें जो ब्राह्मणों और शासक समूहों को उलझन में डालने वाले हों और इसलिए अस्वीकृत हों ।

समुद्री यात्रा संबंधी प्रतिबंध से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और चीन के साथ भारत के समुद्री व्यापार में कोई बाधा नहीं पड़ी । छठी सदी के बाद से ही दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के बीच जोर-शोर से व्यापार शुरू हो गया था । इस क्षेत्र के देशों के संबध में बढ़ता भौगोलिक ज्ञान इस काल के साहित्य में प्रतिबिंबित हुआ है । इस क्षेत्र की भाषाओं, परिधानों आदि की खास विशेषताओं का वर्णन उस काल की पुस्तकों में हुआ है, जैसे हरिषेण कृत बृहत्‌कथाकोश में ।

इस क्षेत्र के ‘जादुई समुद्रों’ में भारतीय सौदागरों की दुस्साहसी यात्राओं की अनेक कहानियाँ मिलती हैं जो सिंदबाद जहाजी की सुप्रसिद्ध कथा का आधार बन गईं । भारतीय व्यापारी श्रेणियों में संगठित थे जिनमें सबसे प्रसिद्ध मणिग्रामन और नानादेसी थीं और ये बहुत पहले से सक्रिय थीं ।

ये श्रेणियाँ उद्यम भावना का परिचय देते हुए अनेक देशों में खुदरा और थोक व्यापार करती रहीं । उन्होंने मंदिरों को भी भारी-भारी दान दिए जो सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के केंद्र बन गए और ये कभी-कभी व्यापार के लिए अग्रिम धन भी देते थे । अनेक भारतीय व्यापारी इन्हीं देशों में बस गए ।

कुछ ने तो स्थानीय स्त्रियों से विवाह भी कर लिया । व्यापारियो के पीछे-पीछे पुरोहित भी पहुंचे और इस प्रकार इन क्षेत्रों में बौद्ध और हिंदू दोनों धर्मो के विचारों का प्रचार हुआ । बोरोबुदूर (जावा) का बौद्ध मंदिर और अंकोरवाट (कंपूचिया) का ब्राह्मणीय मंदिर इन क्षेत्रों में इन दोनों धर्मो के प्रसार के सूचक हैं ।

इस क्षेत्र के कुछ शासक परिवार अर्ध-हिंदू हो गए तथा उन्होंने भारत के साथ व्यापार एवं सांस्कृतिक संबंधों का स्वागत किया । इस तरह भारतीय संस्कृति ने स्थानीय संस्कृति से मिलकर नए साहित्यिक और सांस्कृतिक रूपों का सृजन किया । कुछ प्रेक्षकों का विचार है कि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की भौतिक समृद्धि, सभ्यता के विकास और बड़े राज्यों के विकास के पीछे बहुत हद तक धान की सिंचित खेती की भारतीय तकनीक का प्रचार था ।

जावा, सुमात्रा, आदि की यात्रा के लिए प्रमुख भारतीय बंदरगाह बंगाल का ताम्रलिप्ति (तामलुक) बंदरगाह था । इस काल की अधिकांश कहानियों में व्यापारी लोग ताम्रलिप्ति से सुवर्णद्वीप (आधुनिक इंडोनेशिया) या कटहा (मलय में केडा) जाते दिखाई देते हैं ।

जावा का चौदहवीं सदी का एक लेखक बड़े-बड़े जहाजों में बड़ी संख्या में जंबूद्व्पि (भारत), कर्नाटक (दक्षिण भारत) और गौड़ (बंगाल) से आने वालों की बात करता है । गुजरात के व्यापारी भी इस व्यापार में भागीदार थे । अपनी समृद्धि के कारण चीन हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापार का मुख्य केंद्र बन चुका था ।

चीनी लोग भारी मात्रा में मसालों का उपयोग करते थे जिनका आयात दक्षिण-पूर्व एशिया और भारत से किया जाता था । वे हाथीदाँत का भी आयात करते थे । सबसे अच्छा हाथीदाँत अफ्रीका से आता था तथा पश्चिम एशिया से काँच के बर्तन मँगाए जाते थे । इसके अलावा वे जड़ी-बूटियों, लाख, अगरबत्ती और दुर्लभ प्रकार की तमाम वस्तुओं का आयात करते थे ।

आम तौर पर अफ्रीका और पश्चिम एशिया की वस्तुएँ मलाबार (दक्षिण भारत) से आगे नहीं बढ़ती थीं, न ही चीनी जहाज मलक्का (दक्षिण-पूर्व एशिया) से इधर आते थे । इस तरह भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया दोनों ही चीन तथा पश्चिम एशियाई और अफ्रीकी देशों के बीच व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण मिलनकेंद्र थे ।

फ़ारसवालों और आगे चलकर अरबों के अलावा भारतीय व्यापारी विशेषकर तमिल और कलिंग व्यापारी व्यापार में सक्रिय भूमिका निभाते थे । अरब यात्री भी उस देश का जिक्र करते हैं जिसे वे ‘माबर’ के नाम से जानते थे । अरबी में इसका अर्थ डोंगी या ‘रास्ता’ है ।

यह दक्षिण तमिलनाडु में क्विलोन से नेल्लोर तक का क्षेत्र था जिसे चोलमंडलम या कोरोमंडल कहा जाता था । यह वह क्षेत्र था जहाँ होरमुज (फ़ारस की खाड़ी) या अदन (लाल सागर) से आने वाले सारे जहाज़ पहुँचते थे । चीन का व्यापार काफी सीमा तक भारतीय जहाजों द्वारा होता था । मलाबार, बंगाल और बर्मा की सागौन की लकड़ी ने जहाज़-निर्माण की एक ठोस परंपरा की नींव डाली थी ।

ओसम की दशाएं भी ऐसी थीं कि मध्यपूर्व से चीन तक सीधे जाना किसी जहाज के लिए संभव नहीं था । जहाजों को अनुकूल हवाओं के लिए बंदरगाहों पर लंबे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी । ये हवाएँ मानसून से पहले पश्चिम से पूर्व और मानसून के बाद पूर्व से पश्चिम की दिशा में चलती थीं । इस प्रतीक्षा के लिए व्यापारी भारतीय और दक्षिण-पूर्व एशियाई बंदरगाहों को श्रेष्ठ मानते थे ।

इस काल में विदेशी व्यापार के लिए चीन का प्रमुख बंदरगाह कैंटन था । इसे अरब यात्री कानफू कहते थे । बौद्ध विद्वान भी समुद्री मार्ग से भारत से चीन जाते थे । चीनी वृत्तांत-लेखक बतलाते हैं कि दसवीं सदी के अंतिम और ग्यारहवीं सदी के आरंभिक वर्षों में चीनी दरबार में बौद्ध भिक्षुओं की संख्या चीन के इतिहास में सबसे अधिक थी । इससे पहले का एक चीनी वृतात बतलाता है कि कैंटन नदी भारतीय, फ़ारसी और अरबी जहाजों से भरी रहती थी ।

इसमें कहा गया है कि स्वयं कैंटन में तीन ब्राहमणीय मंदिर थे जिनमें भारतीय ब्राह्मण रहते थे । दक्षिणी चीन सागर में भारतीयों की मौजूदगी की पुष्टि जापानी दस्तावेजों से भी होती है । इनमें जापान में कपास के प्रचलन का श्रेय दो भारतीयों को दिया गया है जो ‘काली धाराओं’ पर होकर उस देश में पहुँचे थे ।

भारतीय शासकों ने विशेषकर बंगाल के पाल और सेन राजाओं तथा दक्षिण भारत के पल्लव और चोल राजाओं ने चीनी सम्राटों के पास अनेक प्रतिनिधिमंडल भेजकर इस व्यापार को प्रोत्साहन देने की कोशिश की । चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने चीन के साथ होने वाले व्यापार में आनेवाली बाधा को दूर करने के लिए मलाया और पड़ोसी देशों के खिलाफ एक नौसैनिक मुहिम भेजी थी ।

राजेंद्र प्रथम द्वारा चीन भेजे गए प्रतिनिधिमंडल ने एक भारतीय जहाज में यात्रा की था । इसके प्रमाण भी है कि मलाबार और गुजरात समेत पश्चिमी तट पर अनेक गोदियाँ थीं । इस तरह इस क्षेत्र में भारत के विदेशी व्यापार के विकास का आधार एक मजबूत जहाजरानी परपरा थी जिसमें जहाज-निर्माण के अलावा भारतीय व्यापारियों का कौशल और उद्यमशीलता भी शामिल थे ।

चीन के साथ व्यापार बहुत लाभदायक था, यहाँ तक कि तेरहवीं सदी में चीन की सरकार ने देश से सोना-चाँदी के निर्यात को रोकने की भी कोशिश की । लेकिन धीरे-धीरे भारतीय जहाजों की जगह अरब और चीनी जहाजों ने ले ली जो उनसे बड़े थे और ज्यादा तेज रफ्तार से चलते थे ।

कहा जाता है कि चीनी जहाज अनेक मंजिल ऊँचे होते थे तथा 400 सैनिकों के अलावा 600 यात्री भी लेकर चलते थे । चीनी जहाजों की वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण मेरिनर (सामुद्रिक) कंपस का उपयोग था । यह आविष्कार बाद में चीन से पश्चिम मे गया । भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी तब तक पिछड़ने लग थे ।

इस तरह पश्चिमी क्षेत्रों के साथ तथा दक्षिण पूर्व-एशिया और चीन के साथ भारत का व्यापार लगातार बढ़ता रहा । इस व्यापार में अग्रणी भूमिका दक्षिण भारत बंगाल और गुजरात की थी । यह इन क्षेत्रों की सुख-समृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण कारण था ।

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